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रसो वै स:-भारतीय तत्ववेत्ताओं ने जीवन को इसी रूप में परिभाषित किया है। रस यानी आनन्द-उल्लास, उमंग। इसीलिए देव संस्कृति में पवार्ें का सृजन किया गया जो लोकजीवन को देवजीवन की ओर उन्मुख करते हैं। मकर संक्रान्ति ऐसा ही एक लोकपर्व है। सूयार्ेपासना के इस पर्व पर वैदिक चिंतन कहता है कि हम सबको सविता देवता को नमन और उनकी आराधना इसलिए करनी चाहिए क्योंकि वे समूची प्रकृति का केन्द्र हैं। हम धरतीवासियों को जीवन व शक्तियां उन्हीं से ही प्राप्त होती हैं। वे हमारे सभी शुभ व अशुभ कमार्ें के प्रत्यक्ष साक्षी हैं। सूर्य उपासना की यह वैदिक परम्परा सदियों से कायम है। जीवंतता से भरे इस ऋतु पर्व की लौकिक व पारलौकिक, दोनों रूपों में विशिष्ट महत्ता है, साथ ही देशभर में इसे मनाने के रंग भी निराले हैं। देश के विभिन्न हिस्सों में इसे अनूठे अंदाजों और नामों से मनाया जाता है।
ऋतु परिवर्तन का पर्व
कालचक्र की गणना के अनुसार यह पर्व नववर्ष के प्रथम माह में प्राय: 14 जनवरी को मनाया जाता है। आमतौर पर भारतीय पंचांग की तिथियां चन्द्रमा की गति से निर्धारित होती हैं, किन्तु मकर संक्रान्ति ऐसा पर्व है जो सूर्य की गति से निर्धारित होता है। एक रोचक जानकारी के अनुसार राजा हर्षवर्धन के समय में यह पर्व 24 दिसंबर को पड़ा था। उसके बारे में विख्यात है कि वह साल भर जो कुछ अपने कोष में संचित करता था, वह इस अवसर पर प्रयाग के संगम तट पर आकर दान कर देता था। इसी तरह अकबर के शासनकाल में मकर संक्रांति की तिथि 10 जनवरी थी और छत्रपति शिवाजी के समय 11 जनवरी। लगभग 80 वर्ष पूर्व यह पर्व 12-13 जनवरी को पड़ता था जो विषुवतों के अग्रगमन के कारण अब 14-15 जनवरी को पड़ने लगा है। इसी गति परिवर्तन के कारण 2016 में मकर संक्रान्ति 15 जनवरी को मनाई गई थी।
मकर संक्रान्ति से पहले सूर्य दक्षिणी गोलार्द्ध (दक्षिणायण) में यानी हमसे दूर होता है। इस दिन यह धनु राशि से मकर राशि में संक्रमण कर उत्तरी गोलार्द्ध (उत्तरायण) में प्रवेश कर हमारे निकट आ जाता है। फलत: अधिक मात्रा में सूर्य की ऊर्जा मिलने से जीव जगत में सक्रियता बढ़ जाती है। इसे आलोक पर्व भी कहा जाता है। वैदिक साहित्य में उत्तरायण का 'देवयान' यानी देवताओं का दिन और दक्षिणायन का 'पितृयान' यानी देवताओं की रात्रि के रूप में उल्लेख है।
पौराणिक मान्यता के अनुसार इस शुभ मुहूर्त में देहत्याग करने वालेे जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाते हैं। इसी कारण महाभारत काल में भीष्म पितामह ने अपनी देह त्यागने के लिये इस पुण्य दिवस का चयन किया था। इसी दिन गंगाजी भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होती हुई सागर में जा मिली थीं। इस दिन यज्ञ में दिये हव्य व दान को ग्रहण करने देवगण धरती पर आते हैं। तीर्थराज प्रयाग एवं गंगासागर में स्नान को महास्नान की संज्ञा दी गई है। कहा जाता है कि इस दिन सूर्य भगवान अपने पुत्र शनि से मिलने स्वयं उनके घर जाते हैं। चूंकि शनिदेव मकर राशि के स्वामी हैं, इसलिए इस दिन को मकर संक्रांति के नाम से जाना गया।
लौकिक दृष्टि से विचार करें तो ऋतु परिर्वतन का यह उत्सव नई फसलों के आगमन व नववर्ष की खुशी में भी मनाया जाता है। मकर संक्रान्ति यानी पृथ्वी पर अच्छे दिनों का शुभारम्भ। खरमास के समापन के साथ इस दिन से वसंत ऋतु की शुरुआत हो जाती है। पौष माह में रुके हुए विवाह, गृह निर्माण आदि मंगल कार्य इस दिन से पुन: होने लगते हैं। यह स्नान पर्व मूल रूप से ऋतु चक्र परिवर्तन और नयी कृषि उपज से जुड़ा है। इस अवसर पर सूर्यदेव की कृपा से धरती हम सबके भरण-पोषण के लिए अपनी कोख से नवान्न का उपहार देती है। नया साठी धान, नयी उड़द की दाल, गन्ना व उससे निर्मित नया गुड़, तिल व सरसों के साथ ज्वार, बाजरा व मक्के की नयी फसलों की पैदावार पर किसानों के चेहरों की खुशी देखते बनती है। इस खुशी में देश के अन्नदाता मकर संक्रान्ति का पर्व मनाकर भगवान सूर्य को धन्यवाद देने के साथ उनसे अनुकम्पा का आशीर्वाद मांगते हैं।
हमारे देश के विभिन्न प्रान्तों में इस त्योहार को मनाने के जितने रूप प्रचलित हैं, उतने किसी अन्य पर्व के नहीं। कहीं लोहड़ी, कहीं खिचड़ी, कहीं पोंगल, कहीं संक्रान्ति और कहीं उत्तरायणी आदि।
खिचड़ी: स्नान-दान का पर्व
उत्तर प्रदेश, बिहार व मध्य प्रदेश में मकर संक्रान्ति का पर्व मुख्य रूप से स्नान-दान व नई फसल की खिचड़ी के साथ मनाया जाता है। तीर्थराज प्रयाग में गंगा, यमुना व सरस्वती के संगम पर लगने वाले एक माह के माघ मेले की शुरुआत मकर संक्रान्ति से ही होती है। इस दिन खिचड़ी का भोग लगाया जाता है और गुड़, तिल, रेवड़ी, गजक आदि का प्रसाद बांटा जाता है। श्रद्धालुजन इस दिन संगम स्नान व सूर्य को अर्घ्य देकर सुपात्रों व गरीबों को खिचड़ी, तिल व ऊनी वस्त्र दान देते हैं। इस पर्व की महत्ता के बारे में मानसकार गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है-
माघ मकर गति जब रवि होई।
तीरथपति आवहू सब कोई।।
प्रयाग यानी संगम। संगम सिर्फ नदियों का ही नहीं, विज्ञान और धर्म, विचार और कर्म, संन्यासी और गृहस्थ तथा धर्मसत्ता, राजसत्ता और समाज सत्ता का संगम। एक दौर था जब यह संगम पर्व ऐसा ही था। बिना बुलाये, बिना निमंत्रण भेजे सभी मकर संक्रान्ति पर आ जुटते थे संगम तट पर। यह संगम पर्व प्रयाग किनारे ही क्यों? जानकार कहते हैं, प्रयाग की विशेष भौगोलिक स्थिति के कारण। कहा जाता है कि मकर संक्रान्ति के समय प्रयाग के संगम क्षेत्र में विशिष्ट आकाशीय नक्षत्रों से निकलने वाली तरंगों का यहां स्नान-दान करने वाले व्यक्ति के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। कहते हैं कि मकर संक्रान्ति के दिन खिचड़ी बनाने की परम्परा बाबा गोरखनाथ ने उत्तर प्रदेश के गोरखनाथ मंदिर से शुरू की। बताते हैं, मोहम्मद खिलजी के आक्रमण के समय नाथपंथियों को युद्ध के दौरान भोजन बनाने का समय न मिलने से अक्सर भूखे रहना पड़ता था। तब इस समस्या का हल निकालने के लिए एक दिन बाबा गोरखनाथ ने दाल, चावल और सब्जी को एक साथ पकाने की सलाह दी। झटपट बन जाने वाला यह व्यंजन काफी पौष्टिक और स्वादिष्ट था। इससे शरीर को तुरंत ऊर्जा मिलती थी। उन्होंने इस व्यंजन को नाम दिया—खिचड़ी। भोजन की समस्या हल हो जाने से उन्होंने खिलजी की सेना को भी हरा दिया। तब से गोरखपुर स्थित बाबा गोरखनाथ धाम में मकर संक्रान्ति के दिन खिचड़ी भोज की परम्परा शुरू हुई।
लोहड़ी : नयी फसल का उत्सव
पंजाब, हरियाणा व हिमाचल में मकर संक्रान्ति की पूर्व संध्या पर लोहड़ी का त्योहार नयी फसल के उत्सव के रूप में मनाया जाता है। पंजाबियों के लिए लोहड़ी खास महत्व रखती है। लोहड़ी से कुछ दिन पहले से ही छोटे बच्चे लोहड़ी के गीत गाकर लोहड़ी के लिए लकडि़यां व उपले इकट्ठे करने लगते हैं। लोहड़ी की रात खुले स्थान में पवित्र अग्नि जलाते हैं तथा परिवार और आस-पड़ोस के लोग मिलकर आग के किनारे घेरा बना उसकी परिक्रमा करते हैं, लोकगीत गाते हुए नये धान के लावे के साथ खील, मक्की, गुड़, रेवड़ी, मूंगफली आदि उस पवित्र अग्नि को अर्पित करते हैं। पंजाबियों में नववधू या और बच्चे की पहली लोहड़ी बहुत विशेष होती है।
इस त्योहार के पीछे एक रोचक ऐतिहासिक कथा भी है। कहा जाता है कि पुराने समय में सुंदरी एवं मुंदरी नाम की दो अनाथ लड़कियां थीं। उनके चाचा ने राज्य के सूबेदार का कृपापात्र बनने के लिए उन्हें उसे भेंट कर दिया। राज्य में दुल्ला भट्टी नाम का एक नामी डाकू था, जो अमीरों व घूसखोरों से धन लूटकर गरीबों की मदद किया करता था। जब उसके कानों तक यह बात पहुंची तो उसने दोनों लड़कियों को उन जालिमों से छुड़ाकर दो अच्छे लड़के देखकर उनकी शादी कर दी। दुल्ला भट्टी ने खुद ही पिता के रूप में उन दोनों का कन्यादान किया। जल्दी-जल्दी में शादी की धूमधाम का इंतजाम भी न हो सका सो दुल्ले ने उन लड़कियों की झोली में एक सेर शक्कर डालकर उनको विदा कर दिया। तभी से उसकी याद में यह त्योहार मनाया जाने लगा।
पोंगल: नये साल का आगाज
पोंगल तमिलनाडु में मनाया जाने वाला प्रमुख त्योहार है। चार दिन के इस दिन पर्व के साथ तमिलनाडुवासियों के नये साल का आगाज होता है। पोंगल का शाब्दिक अर्थ है मिट्टी के चूल्हे पर पकाना। पहले दिन लोग सुबह सूयार्ेदय से पहले उठकर अपने घर से पुरानी व अनुपयोगी चीजों को जलाते हैं। उसके बाद घर में साफ-सफाई कर विधि-विधान से वर्पा व कृषि के देवता इंद्र की पूजा करते हैं। भोग प्रसाद के रूप में भगवान इंद्र को समर्पित इस पहली पोंगल को 'भोगी पोंगल'कहते हैं। दूसरी पोंगल 'सूर्य पोंगल' कहलाती है। इस दिन लोग मिट्टी के बर्तन में नये धान और गन्ने के रस या गुड़ से एक खास खीर बनाते हैं। पोंगल तैयार होने के बाद सूर्य देव की पूजा की जाती है और भोग लगाया जाता है। इस दिन नए धान से बना खाना खाया जाता है, जिसमें मीठी खिचड़ी खास होती है। यह खिचड़ी एक नये मटके में नये चावल व गुड़ और ताजे दूध से बनाई जाती है। तीसरी पोंगल को 'मट्टू पोंगल' कहा जाता है। तमिल समाज में मट्टू बैल को भगवान शंकर का वाहन माना जाता है। कथा है कि भगवान शिव के एक प्रिय शिष्य को एक भूल के कारण बैल बनना पड़ा। भगवान शंकर ने उसे पृथ्वी पर रहकर मानव समाज के लिए अन्न पैदा करने में सहायक बनने को कहा। तब से बैल रूपी नंदी पृथ्वी पर रहकर कृषि कार्य में मानव की सहायता कर रहे हैं। इस दिन किसान अपने गाय व बैलों को स्नान कराकर उन्हें खूब सजाते हैं, फिर उनकी पूजा करते हैं। चौथे पोंगल को तिरुवल्लूर या 'कन्या पोंगल' कहते हैं। इस दिन घर को आम्र पल्लव व नारियल पत्रों से सजाया जाता है। घर के मुख्य द्वार पर रंगोली बनायी जाती है। लोग नये कपडे़ पहनते हैं और दोस्तों व रिश्तेदारों के यहां मिठाई और पोंगल बना कर भेजते हैं, नये साल की खुशियां मनाते हैं। कृषक वर्ग इस दिन से नई फसल की कटाई शुरू कर देता है।
केरल में भगवान अयप्पा की सबरीमाला की वार्षिक तीर्थयात्रा की अवधि मकर संक्रान्ति के दिन ही समाप्त होती है। कर्नाटक में भी मकर-संक्रांति त्योहार धूमधाम से मनाया जाता है। इस मौके पर बैलों और गायों को सुसज्जित कर उनकी शोभा यात्रा निकाली जाती है। नये परिधान में सजे नर-नारी, ईख, सूखे नारियल और भुने चने के साथ एक दूसरे का अभिवादन करते हैं।
तिल-गुड़ की संक्रान्ति
महाराष्ट्र व राजस्थान में यह पर्व तिल-गुड़ की संक्रान्ति के रूप में मनाया जाता है। महाराष्ट्र में इस दिन विवाहित महिलाएं तिल, गुड़, कपास, तेल, रोली और हल्दी आदि शुभ वस्तुएं एक-दूसरे को भेंट करती हैं। लोग एक दूसरे को तिल गुड़ देते हैं और बोलते हैं, 'तिल-गुड़ लो-मीठा-मीठा बोलो'।
राजस्थान में यह पर्व आशीर्वाद प्राप्ति दिवस के रूप में मनाया जाता है। सुहागिनें अपने सास-ससुर व बड़े-बुजुगोंर् को भेंट देकर आशीर्वाद प्राप्त करती हैं। इसी तरह गुजराती समाज भी संक्रान्ति पर्व को शुभ दिवस के रूप में मनाता है। इस अवसर पर जगह-जगह पतंगबाजी प्रतियोगिताएं होती हैं।
इस त्योहार के पीछे एक रोचक ऐतिहासिक कथा भी है। कहा जाता है कि पुराने समय में सुंदरी एवं मुंदरी नाम की दो अनाथ लड़कियां थीं। उनके चाचा ने राज्य के सूबेदार का कृपापात्र बनने के लिए उन्हें उसे भेंट कर दिया। राज्य में दुल्ला भट्टी नाम का एक नामी डाकू था, जो अमीरों व घूसखोरों से धन लूटकर गरीबों की मदद किया करता था। जब उसके कानों तक यह बात पहुंची तो उसने दोनों लड़कियों को उन जालिमों से छुड़ाकर दो अच्छे लड़के देखकर उनकी शादी कर दी। दुल्ला भट्टी ने खुद ही पिता के रूप में उन दोनों का कन्यादान किया। जल्दी-जल्दी में शादी की धूमधाम का इंतजाम भी न हो सका सो दुल्ले ने उन लड़कियों की झोली में एक सेर शक्कर डालकर उनको विदा कर दिया। तभी से उसकी याद में यह त्योहार मनाया जाने लगा।
पोंगल: नये साल का आगाज
पोंगल तमिलनाडु में मनाया जाने वाला प्रमुख त्योहार है। चार दिन के इस दिन पर्व के साथ तमिलनाडुवासियों के नये साल का आगाज होता है। पोंगल का शाब्दिक अर्थ है मिट्टी के चूल्हे पर पकाना। पहले दिन लोग सुबह सूयार्ेदय से पहले उठकर अपने घर से पुरानी व अनुपयोगी चीजों को जलाते हैं। उसके बाद घर में साफ-सफाई कर विधि-विधान से वर्पा व कृषि के देवता इंद्र की पूजा करते हैं। भोग प्रसाद के रूप में भगवान इंद्र को समर्पित इस पहली पोंगल को 'भोगी पोंगल'कहते हैं। दूसरी पोंगल 'सूर्य पोंगल' कहलाती है। इस दिन लोग मिट्टी के बर्तन में नये धान और गन्ने के रस या गुड़ से एक खास खीर बनाते हैं। पोंगल तैयार होने के बाद सूर्य देव की पूजा की जाती है और भोग लगाया जाता है। इस दिन नए धान से बना खाना खाया जाता है, जिसमें मीठी खिचड़ी खास होती है। यह खिचड़ी एक नये मटके में नये चावल व गुड़ और ताजे दूध से बनाई जाती है। तीसरी पोंगल को 'मट्टू पोंगल' कहा जाता है। तमिल समाज में मट्टू बैल को भगवान शंकर का वाहन माना जाता है। कथा है कि भगवान शिव के एक प्रिय शिष्य को एक भूल के कारण बैल बनना पड़ा। भगवान शंकर ने उसे पृथ्वी पर रहकर मानव समाज के लिए अन्न पैदा करने में सहायक बनने को कहा। तब से बैल रूपी नंदी पृथ्वी पर रहकर कृषि कार्य में मानव की सहायता कर रहे हैं। इस दिन किसान अपने गाय व बैलों को स्नान कराकर उन्हें खूब सजाते हैं, फिर उनकी पूजा करते हैं। चौथे पोंगल को तिरुवल्लूर या 'कन्या पोंगल' कहते हैं। इस दिन घर को आम्र पल्लव व नारियल पत्रों से सजाया जाता है। घर के मुख्य द्वार पर रंगोली बनायी जाती है। लोग नये कपडे़ पहनते हैं और दोस्तों व रिश्तेदारों के यहां मिठाई और पोंगल बना कर भेजते हैं, नये साल की खुशियां मनाते हैं। कृषक वर्ग इस दिन से नई फसल की कटाई शुरू कर देता है।
केरल में भगवान अयप्पा की सबरीमाला की वार्षिक तीर्थयात्रा की अवधि मकर संक्रान्ति के दिन ही समाप्त होती है। कर्नाटक में भी मकर-संक्रांति त्योहार धूमधाम से मनाया जाता है। इस मौके पर बैलों और गायों को सुसज्जित कर उनकी शोभा यात्रा निकाली जाती है। नये परिधान में सजे नर-नारी, ईख, सूखे नारियल और भुने चने के साथ एक दूसरे का अभिवादन करते हैं।
तिल-गुड़ की संक्रान्ति
महाराष्ट्र व राजस्थान में यह पर्व तिल-गुड़ की संक्रान्ति के रूप में मनाया जाता है। महाराष्ट्र में इस दिन विवाहित महिलाएं तिल, गुड़, कपास, तेल, रोली और हल्दी आदि शुभ वस्तुएं एक-दूसरे को भेंट करती हैं। लोग एक दूसरे को तिल गुड़ देते हैं और बोलते हैं, 'तिल-गुड़ लो-मीठा-मीठा बोलो'।
राजस्थान में यह पर्व आशीर्वाद प्राप्ति दिवस के रूप में मनाया जाता है। सुहागिनें अपने सास-ससुर व बड़े-बुजुगोंर् को भेंट देकर आशीर्वाद प्राप्त करती हैं। इसी तरह गुजराती समाज भी संक्रान्ति पर्व को शुभ दिवस के रूप में मनाता है। इस अवसर पर जगह-जगह पतंगबाजी प्रतियोगिताएं होती हैं।
-पूनम नेगी
उत्तरायणी : बेगार प्रथा से मुक्ति
उत्तराखण्ड में मकर संक्रांति का पर्व उत्तरायणी के नाम से मनाया जाता है। पर्वतीय अंचल में इस पर्व से गहरी जनआस्था जुड़ी हुई है। 14 जनवरी, 1921 को उत्तरायणी के दिन कुमाऊंवासियों ने क्रूर गोरखा शासन और अंग्रेजी राज की दमनकारी कुली बेगार प्रथा के काले कानून के खिलाफ क्रांति का बिगुल बजाकर हमेशा के लिए दासत्व से मुक्ति पाई थी। इस बड़े घटनाक्रम को उत्तराखंड की 'रक्तहीन क्रांति' की संज्ञा दी जाती है। पर्वतीय समाज में यह पर्व 'घुघुतिया' के रूप में भी मनाया जाता है जिसमें गुड़ व आटे के विशेष प्रकार के व्यंजन बनाकर कौवे न्यौते जाते हैं। इस मौके पर उत्तराखंड में लगने वाले दो मेले पूरे देश में विख्यात हैं-एक बागेश्वर (कुमाऊं) का उत्तरायणी मेला और दूसरा उत्तरकाशी (गढ़वाल) का माघ मेला।
नेपाल में मकर संक्रान्ति की धूम
पड़ोसी राष्ट्र नेपाल में भी मकर संक्रान्ति को माघ संक्रान्ति व सूयार्ेत्तरायण पर्व के रूप में खूब हषार्ेल्लास से मनाया जाता है। यह स्थानीय या दिग्री समुदाय का प्रमुख पर्व माना जाता है। इस दिन नेपाल में सार्वजनिक छुट्टी होती है। नेपाल के बाकी समुदाय भी इस दिन देवघाट व त्रिवेणी मेला आदि में स्नान कर दान-पुण्य करते हैं और तिल, घी, शर्करा और कन्दमूल खाकर धूमधाम से मकर संक्रान्ति मनाते हैं।
गंगासागर में स्नान और सूर्य को अर्घ्य
बंगाल के गंगासागर में मकर संक्रान्ति के दिन एक विशाल मेला लगता है। इस दिन गंगासागर में स्नान-दान के लिये लाखों लोगों की भीड़ होती है। स्नान के पश्चात यहां तिल दान करने की परम्परा है। कहा जाता है कि यहीं पर गंगा जी भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होकर सागर में जा मिली थीं। मोक्ष प्राप्ति की विशेष मान्यता के कारण कहा जाता है ''सारे तीरथ बार बार, गंगासागर एक बार।'' पूवार्ेत्तर राज्य असम में मकर संक्रान्ति को माघ-बिहू अथवा भोगाली-बिहू के नाम से मनाया जाता है। यहां किसानों के इस त्योहार पर नयी फसल की कटाई का उत्सव परम्परागत नृत्य संगीत के साथ मनाया जाता है।
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