|
चुनाव तिथियों की घोषणा के बाद सपा के खेमों में सिर फुटौव्वल तेज हो चली है। उ.प्र. में 11 फरवरी से 7 चरणों में चुनाव होने हैं, पर अभी 'असली' सपा का पता नहीं है। सपा की कुनबाई राजनीति ने लोकतंत्र का जैसा मखौल उड़ाया हुआ है, वह समाजवादी पार्टी की शर्मनाक तस्वीर पेश करता है और साथ ही इसकी साजिश भरी सियासत दर्शाता है
आलोक गोस्वामी, साथ में लखनऊ से सुनील राय
चार जनवरी को चुनाव आयोग द्वारा उत्तर प्रदेश सहित 5 राज्यों के विधान सभा चुनावों की तिथियों की घोषणा के बाद उत्तर प्रदेश में जारी सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी की पिछले दिनों तेज हुई कलह में नाटकीय अफारातफरी देखने में आई। मुलायम और अखिलेश, दोनों गुटों द्वारा चुनाव आयोग में खुद को असली पार्टी बताने संबंधी दावों के बाद आयोग ने 9 जनवरी को दोनों को उनके दावे पुष्ट करने वाले दस्तावेज दिखाने को कहा है। चुनाव की तारीखों के घोषणा के फौरन बाद अखिलेश यादव ने लखनऊ में अपने कार्यकर्ताओं से चुनाव की तैयारी करने को कहा तो इधर दिल्ली में मुलायम ने अपने भाई शिवपाल यादव और वफादार समझे जाने वाले अमर सिंह से मशविरा किया और 5 जनवरी की सुबह लखनऊ की उड़ान भर ली। प्रदेश में चुनाव 11 फरवरी से 8 मार्च के बीच 7 चरणों में कराए जाने हैं।
लेकिन इस बीच समझा जाता है कि अब पार्टी में एक बार फिर से मेल होने की खबरों को विराम लग गया है और अब बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि 'साइकिल' किसके पास रहती है। वैसे समाजवादी पार्टी में आज सिर चढ़कर बोल रहे सत्ता के दांव-पेंच के पीछे की चालों की भूमिका बहुत पहले से तैयार हो रही थी। पार्टी में चल रहा दंगल नित नई करवट लेता दिख रहा था। सूबे की जनता मुंह बिचकाए भ्रमित सी इस ड्रामे को देख रही है। कभी लगता है लड़ाई नकली है तो कभी लगता है लड़ाई असली है। पहले बाहरी आदमी (अमर सिंह) विवाद की वजह बताया गया। फिर चाचा शिवपाल यादव झगड़े का कारण बन कर उभरे। अब जो तस्वीर सामने आयी है उसमे असल झगड़ा पिता और पुत्र के बीच का मालूम पड़ रहा है। सत्ता के संग्राम में पिता और पुत्र अब आमने सामने दिखते हैं। लेकिन वहीं कई जानकारों की राय है कि यह सब दिखावा है, चुनाव के बाद या किसी और मोड़ पर दोनों फिर साथ आ जाएंगे।
शुरुआत में दोनों में एक-दूसरे के करीबियों के पर कतरने का दौर चला। मगर 1 जनवरी 2017 को तो हद हो गई, जब अखिलेश यादव ने अधिवेशन बुलाकर अपने पिता मुलायम सिंह यादव को मार्गदर्शक मंडल में भेज दिया और खुद को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष घोषित कर दिया, चाचा शिवपाल को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटा दिया और लगे हाथ अमर सिंह को भी पार्टी से बर्खास्त कर दिया।
बात इतनी आगे बढ़ी कि 2 जनवरी की शाम मुलायम सिंह यादव अपने साथ शिवपाल यादव, अमर सिंह और जयाप्रदा को लेकर चुनाव आयोग पहुंचे और इसे दस्तावेज सौंपकर दावा किया कि अभी भी सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष वही हैं और 1 जनवरी को अखिलेश ने जो अधिवेशन बुलाया था, वह पूरी तरह असंवैधानिक था। मुलायम सिंह यादव ने मीडिया से कहा कि साइकिल चुनाव चिन्ह है समाजवादी पार्टी का। साइकिल चुनाव चिन्ह है मेरे दस्तखत का। चुनाव आयोग से बाहर निकलते हुए शिवपाल यादव ने एक बार फिर अपनी वफादारी को इन शब्दों में दोहराया-''नेता जी सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष, मैं मरते दम तक उनके साथ रहूंगा।'' नेपथ्य में जा चुके अमर सिंह भी राजनीति की मुख्यधारा में दिखे। उन्होंने कहा कि नेता जी के कहने पर मैं अगर नायक बन सकता हूं तो उनके कहने पर खलनायक भी बन सकता हूं। यहां याद दिला दें कि कुछ ही दिन पहले अमर सिंह ने कहा था कि 'मैं तोड़ने में नहीं, जोड़ने में यकीन रखता हूं, पार्टी की एकता के लिए कोई भी बलिदान देने को तैयार हूं।'
उधर राम गोपाल यादव ने पहले तो कहा कि ''हम लोग चुनाव आयोग नहीं जाएंगे, जिसको दिक्कत है वह जाए,' मगर जैसे ही उन्हें यह खबर लगी कि मुलायम सिंह ने चुनाव आयोग के अधिकारियों से मुलाकात की है, राम गोपाल ने भी चुनाव आयोग से मिलने का समय मांगा। आयोग ने 3 जनवरी को राम गोपाल को मिलने के लिए बुलाया। उन्होंने पत्रकारों के सवालों का बहुत ही बेरुखी से जवाब दिया। यह कहने पर कि मुलायम सिंह यादव ने उस अधिवेशन को असंवैधानिक करार दिया है, राम गोपाल यादव ने कहा,''वह (मुलायम सिंह) सर्वोच्च न्यायालय के जज हैं, उन्हीं से पूछो''। इस झगड़े को इस नजरिये से भी देखा जाय तो यह जानना कम दिलचस्प नहीं होगा कि अखिलेश यादव लगातार कह रहे हैं कि ''नेता जी मेरे पिता हैं, मैं जितना पहले उनका सम्मान करता था, उससे भी ज्यादा सम्मान करता रहूंगा।'' वहीं, राम गोपाल लगातार मुलायम सिंह का अपमान कर रहे हैं और अखिलेश यादव के एकदम निकटस्थ होने के साथ करीबी सलाहकार बने हुए हैं।
इसी प्रकार सपा के राज्यसभा सांसद नरेश अग्रवाल ने कहा कि ''नेता जी अगर अखिलेश का समर्थन करते तो उनका कद और बढ़ जाता मगर वह ऐसा नहीं कर पा रहे हैं।'' पार्टी के एक नेता किरणमय नंदा ने अखिलेश यादव के अधिवेशन में अहम भूमिका निभाई। पार्टी से निकाले गए नंदा ने भी मुलायम सिंह यादव की अवहेलना की। सवाल यह उठता है कि यह किस प्रकार का सम्मान है जिसमें पुत्र के तौर पर अखिलेश मंच से यह कहते हंै कि नेता जी के हित में कड़ा फैसला लेना पड़ा, तो वह भी लेंगे मगर नेता जी के सम्मान में कमी नहीं आने देंगे। जबकि उनके सभी समर्थक नेता जी का मखौल उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे। इस घटनाक्रम से सूबे की जनता भ्रमित है कि अगर अखिलेश अपने पिता का सम्मान कर रहे तो उनके समर्थक मुलायम सिंह का इस कदर सार्वजनिक अपमान क्यों कर रहे हैं? प्रतियोगी छात्र संघर्ष समिति के अध्यक्ष अवनीश पाण्डेय कहते हैं, ''बगैर अखिलेश की सहमति के यह कैसे संभव है कि कोई उनके पिता के बारे में अपमानजनक बयान दे और उनका करीबी भी बना रहे?''
सम्मान और अपमान के दायरे से थोड़ा बाहर निकलकर देखें तो फिलहाल यह लड़ाई चुनाव चिन्ह पर आकर अटक गई है। अखिलेश गुट साइकिल चुनाव चिन्ह प्राप्त करने की हरसंभव कोशिश में है, उधर मुलायम सिंह साइकिल चुनाव चिन्ह को अपने पक्ष में बनाये रखने के लिए पूरी ताकत लगाते दिख रहे हैं। हालांकि दोनों पक्षों को कानूनी स्थिति का बखूबी ज्ञान है। ऐसे में संभव है कि दोनों पक्ष इस बात के लिए पूरा जोर लगाएं कि साइकिल चुनाव चिन्ह किसी पक्ष के पास ना रहे। पूर्व चुनाव आयुक्त एस. वाई. कुरैशी के बयान पर गौर करें तो इस तरह के विवाद में चुनाव आयोग चुनाव चिन्ह को 'फ्रीज' कर देता है और दोनों पक्षों को नया चुनाव चिन्ह दे देता है। उन्होंने अपने बयान में कहा कि जब भी किसी पार्टी में इस तरह का विवाद होता है तब दोनों पक्ष खुद को असली पार्टी बताते हैं। ऐसे में आयोग सभी कागजों का अध्ययन करता है। इस पूरी प्रक्रिया में करीब 5 महीने लग जाते हैं, इसलिए चुनाव आयोग पार्टी के चुनाव चिन्ह को 'फ्रीज' करके फैसला होने तक दोनों पक्षों को नया चुनाव चिन्ह दे देता है।
जानकार सूत्रों के मुताबिक अक्तूबर 2016 में जब अखिलेश नयी पार्टी बनाने की तैयारी में थे तब उन्हें मोटरसाइकिल चुनाव चिन्ह मिलने की संभावना थी। अगर इस लड़ाई में उन्हें बतौर चुनाव चिन्ह मोटरसाइकिल मिलती है तो चुनाव में अखिलेश खेमा यह कहने की कोशिश करेगा कि पुराने दौर में साइकिल थी, अब नए दौर में मोटरसाइकिल आ गई है। वहीं खबर यह भी है कि पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने अपने जीवनकाल में समाजवादी जनता पार्टी गठित की थी। उस समाजवादी जनता पार्टी को पुन: जीवित करने पर भी अखिलेश विचार कर सकते हैं। पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के पुत्र नीरज शेखर सपा से सांसद रह चुके हैं और मौजूदा समय में अखिलेश के साथ हैं। राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि मोरारका ने अखिलेश से मुलाकात भी की है। इसके अलावा अजित सिंह की पार्टी के चुनाव निशान पर प्रत्याशियों को उतारने के विकल्प पर भी संभवत: अखिलेश खेमे में विचार किया जा रहा है।
इस पूरे मसले पर भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य को भी यह महज एक 'फैमिली ड्रामा' भर लगता है। उन्होंने कहा, 'सभी जानते हैं कि सपा अपराधी तत्वों की पार्टी है, जिन्होंने 5 वर्ष तक प्रदेश की जनता को कष्ट दिया है। अब मुलायम सिंह यादव जानते हैं कि जनता इनका हिसाब करने का मूड बना चुकी है। इसलिए यह सारा ड्रामा रचा जा रहा ताकि जनता को लगे कि सारी गड़बड़ी पिता में है, लेकिन अखिलेश यादव बहुत ही स्वच्छ छवि के नेता हैं। यही भ्रम पैदा करके ये लोग जनता के साथ ठगी करने के लिए यह ड्रामा कर रहे हंै।'
वैसे इस बार जब 31 दिसंबर, 2016 को पिता-पुत्र में समझौता हुआ तभी लगा था कि जैसे यह झगड़ा असली नहीं है। एक बार घटनाक्रम पर फिर से गौर करें तो, 29 दिसंबर को अखिलेश महोबा में एक जनसभा को संबोधित करने गए थे। इसी बीच मुलायम सिंह और शिवपाल ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर पार्टी के 325 प्रत्याशियों की सूची जारी कर दी, जिसमेें राम गोविन्द चौधरी, अरविन्द सिंह गोप और पवन पाण्डेय जैसे तीन प्रमुख मंत्रियों का टिकट काट दिया गया। ये सभी लोग मुख्यमत्री अखिलेश के करीबी माने जाते हैं। शाम को जैसे ही अखिलेश लखनऊ पहुंचे, उन्होंने तीनों मंत्रियों और कुछ विधायकों के साथ अपने आवास 5, कालीदास मार्ग पर बैठक की। अगले ही दिन मुख्यमंत्री ने 164 प्रत्याशियों की अपनी एक अलग सूची जारी कर दी। इसमें गौर करने वाली बात यह है कि अखिलेश ने जो सूची जारी की थी उसमें कुल 64 ऐसे प्रत्याशी थे जिनके नाम पर विवाद था। ऐसे में उन्हीं 64 प्रत्याशियों की सूची जारी करने के बजाए अखिलेश यादव ने 164 प्रत्याशियों की सूची जारी की थी। सूत्रों के हवाले से यह खबर हर जगह फैल गई कि अखिलेश के चहेते प्रत्याशियों को अगर टिकट नहीं दिया गया तो वे सभी प्रत्याशी निर्दलीय चुनाव लड़ेंगे और अखिलेश उनका प्रचार करेंगे। आनन-फानन में मुलायम सिंह और शिवपाल ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई और राम गोपाल यादव और अखिलेश यादव को पार्टी से# 6 वर्ष के लिए निष्कासित कर दिया।
ऐसा पहली बार था जब किसी पार्टी के विधानमंडल दल के नेता, जो मुख्यमंत्री के पद पर आसीन हो, को ही पार्टी से निकाल दिया गया। उस समय तो लगा कि झगड़ा काफी आगे बढ़ गया है। 31 दिसंबर को पिता और पुत्र ने लगभग एक ही समय पर बैठक बुलाई थी। अखिलेश यादव की बैठक में लगभग 200 विधायक पहुंचे जबकि मुलायम सिंह की बैठक में कुछ प्रत्याशी ही पहुंचे। उसके बाद अचानक से नाटकीय परिवर्तन आया, जिसमें आजम खान एक मजबूत मध्यस्थ बनकर उभरे। बैठक के खत्म होने के बाद वे अखिलेश को साथ लेकर मुलायम सिंह के घर पहुंचे और कुछ ही देर में वहां 'समझौता' हो गया। अखिलेश यादव और राम गोपाल यादव का पार्टी से निष्कासन रद्द हो गया। शिवपाल यादव ने मीडिया के सामने बयान दिया कि अब अब ठीक हो गया है, हम सांप्रदायिक ताकतों से लड़ते रहे हैं, आगे भी मिल कर लड़ेंगे। प्रत्याशियों की सूची फिर से जारी होगी।
इस कड़ी में गौर करने लायक बात यह थी कि 31 दिसंबर को मुलायम सिंह ने जो बैठक बुलाई थी, वह जिस तरह से असफल हुई, उससे कई सवाल खड़े हुए थे। मुलायम सिंह जैसे राजनीति के धुरंधर खिलाड़ी को एक तरह से पटखनी खानी पड़ी थी।
साफ प्रतीत होता है कि जैसे अखिलेश की बैठक को कामयाब बनाने के लिए मुलायम सिंह ने ही सभी विधायकों को अखिलेश की बैठक में भेज दिया हो। इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष एवं कांग्रेस के नेता संजय तिवारी कहते हैं कि अखिलेश की बैठक में कई ऐसे मंत्री भी शामिल हुए थे जो मुलायम सिंह यादव के साथ मंत्री रहे हैं। अखिलेश यादव जब मुख्यमंत्री बने थे तो उन लोगो को मंत्री नहीं बनाना चाहते थे। ऐसे लोग भी अखिलेश यादव की बैठक में गए थे, इससे साफ है कि अखिलेश की बैठक को मुलायम सिंह ने ही 'कामयाब' बना कर यह संदेश दिया कि पार्टी के अधिकतम विधायक, मंत्री अखिलेश के साथ हैं, सो अब जैसे अखिलेश चाहेंगे वैसे ही पार्टी चलेगी। संजय तिवारी कहते हैं कि हद तो तब हो गयी जब किरणमय नंदा, जो पार्टी के भीतर चल रहे विवाद को खत्म कराने के लिए पश्चिम बंगाल से बुलाये गए थे, वह भी अखिलेश के साथ मिल गए। 1 जनवरी को जो अधिवेशन हुआ उसमें राष्ट्रीय अध्यक्ष की अनुपस्थिति में औपचारिकता किरणमय नंदा ने पूरी की थी। शाम होते तक नंदा को भी पार्टी से निकाल दिया गया। ये लोग जनता की आंख में धूल झांेक रहे हैं। मुलायम अपने सभी वफादार नेताओं को एक-एक कर निकाल रहे हैं और वे सभी निष्कासित नेता अखिलेश का समर्थन कर रहे हैं। यह पूरा मामला 'स्क्रिप्टिड' है।
बहरहाल, इस दंगल का अंत कहां पर और कैसे होगा, यह तो आने वाले समय में ही पता लग पायेगा।
इसी प्रकार सपा के राज्यसभा सांसद नरेश अग्रवाल ने कहा कि ''नेता जी अगर अखिलेश का समर्थन करते तो उनका कद और बढ़ जाता मगर वह ऐसा नहीं कर पा रहे हैं।'' पार्टी के एक नेता किरणमय नंदा ने अखिलेश यादव के अधिवेशन में अहम भूमिका निभाई। पार्टी से निकाले गए नंदा ने भी मुलायम सिंह यादव की अवहेलना की। सवाल यह उठता है कि यह किस प्रकार का सम्मान है जिसमें पुत्र के तौर पर अखिलेश मंच से यह कहते हंै कि नेता जी के हित में कड़ा फैसला लेना पड़ा, तो वह भी लेंगे मगर नेता जी के सम्मान में कमी नहीं आने देंगे। जबकि उनके सभी समर्थक नेता जी का मखौल उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे। इस घटनाक्रम से सूबे की जनता भ्रमित है कि अगर अखिलेश अपने पिता का सम्मान कर रहे तो उनके समर्थक मुलायम सिंह का इस कदर सार्वजनिक अपमान क्यों कर रहे हैं? प्रतियोगी छात्र संघर्ष समिति के अध्यक्ष अवनीश पाण्डेय कहते हैं, ''बगैर अखिलेश की सहमति के यह कैसे संभव है कि कोई उनके पिता के बारे में अपमानजनक बयान दे और उनका करीबी भी बना रहे?''
सम्मान और अपमान के दायरे से थोड़ा बाहर निकलकर देखें तो फिलहाल यह लड़ाई चुनाव चिन्ह पर आकर अटक गई है। अखिलेश गुट साइकिल चुनाव चिन्ह प्राप्त करने की हरसंभव कोशिश में है, उधर मुलायम सिंह साइकिल चुनाव चिन्ह को अपने पक्ष में बनाये रखने के लिए पूरी ताकत लगाते दिख रहे हैं। हालांकि दोनों पक्षों को कानूनी स्थिति का बखूबी ज्ञान है। ऐसे में संभव है कि दोनों पक्ष इस बात के लिए पूरा जोर लगाएं कि साइकिल चुनाव चिन्ह किसी पक्ष के पास ना रहे। पूर्व चुनाव आयुक्त एस. वाई. कुरैशी के बयान पर गौर करें तो इस तरह के विवाद में चुनाव आयोग चुनाव चिन्ह को 'फ्रीज' कर देता है और दोनों पक्षों को नया चुनाव चिन्ह दे देता है। उन्होंने अपने बयान में कहा कि जब भी किसी पार्टी में इस तरह का विवाद होता है तब दोनों पक्ष खुद को असली पार्टी बताते हैं। ऐसे में आयोग सभी कागजों का अध्ययन करता है। इस पूरी प्रक्रिया में करीब 5 महीने लग जाते हैं, इसलिए चुनाव आयोग पार्टी के चुनाव चिन्ह को 'फ्रीज' करके फैसला होने तक दोनों पक्षों को नया चुनाव चिन्ह दे देता है।
जानकार सूत्रों के मुताबिक अक्तूबर 2016 में जब अखिलेश नयी पार्टी बनाने की तैयारी में थे तब उन्हें मोटरसाइकिल चुनाव चिन्ह मिलने की संभावना थी। अगर इस लड़ाई में उन्हें बतौर चुनाव चिन्ह मोटरसाइकिल मिलती है तो चुनाव में अखिलेश खेमा यह कहने की कोशिश करेगा कि पुराने दौर में साइकिल थी, अब नए दौर में मोटरसाइकिल आ गई है। वहीं खबर यह भी है कि पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने अपने जीवनकाल में समाजवादी जनता पार्टी गठित की थी। उस समाजवादी जनता पार्टी को पुन: जीवित करने पर भी अखिलेश विचार कर सकते हैं। पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के पुत्र नीरज शेखर सपा से सांसद रह चुके हैं और मौजूदा समय में अखिलेश के साथ हैं। राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि मोरारका ने अखिलेश से मुलाकात भी की है। इसके अलावा अजित सिंह की पार्टी के चुनाव निशान पर प्रत्याशियों को उतारने के विकल्प पर भी संभवत: अखिलेश खेमे में विचार किया जा रहा है।
इस पूरे मसले पर भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य को भी यह महज एक 'फैमिली ड्रामा' भर लगता है। उन्होंने कहा, 'सभी जानते हैं कि सपा अपराधी तत्वों की पार्टी है, जिन्होंने 5 वर्ष तक प्रदेश की जनता को कष्ट दिया है। अब मुलायम सिंह यादव जानते हैं कि जनता इनका हिसाब करने का मूड बना चुकी है। इसलिए यह सारा ड्रामा रचा जा रहा ताकि जनता को लगे कि सारी गड़बड़ी पिता में है, लेकिन अखिलेश यादव बहुत ही स्वच्छ छवि के नेता हैं। यही भ्रम पैदा करके ये लोग जनता के साथ ठगी करने के लिए यह ड्रामा कर रहे हंै।'
वैसे इस बार जब 31 दिसंबर, 2016 को पिता-पुत्र में समझौता हुआ तभी लगा था कि जैसे यह झगड़ा असली नहीं है। एक बार घटनाक्रम पर फिर से गौर करें तो, 29 दिसंबर को अखिलेश महोबा में एक जनसभा को संबोधित करने गए थे। इसी बीच मुलायम सिंह और शिवपाल ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर पार्टी के 325 प्रत्याशियों की सूची जारी कर दी, जिसमेें राम गोविन्द चौधरी, अरविन्द सिंह गोप और पवन पाण्डेय जैसे तीन प्रमुख मंत्रियों का टिकट काट दिया गया। ये सभी लोग मुख्यमत्री अखिलेश के करीबी माने जाते हैं। शाम को जैसे ही अखिलेश लखनऊ पहुंचे, उन्होंने तीनों मंत्रियों और कुछ विधायकों के साथ अपने आवास 5, कालीदास मार्ग पर बैठक की। अगले ही दिन मुख्यमंत्री ने 164 प्रत्याशियों की अपनी एक अलग सूची जारी कर दी। इसमें गौर करने वाली बात यह है कि अखिलेश ने जो सूची जारी की थी उसमें कुल 64 ऐसे प्रत्याशी थे जिनके नाम पर विवाद था। ऐसे में उन्हीं 64 प्रत्याशियों की सूची जारी करने के बजाए अखिलेश यादव ने 164 प्रत्याशियों की सूची जारी की थी। सूत्रों के हवाले से यह खबर हर जगह फैल गई कि अखिलेश के चहेते प्रत्याशियों को अगर टिकट नहीं दिया गया तो वे सभी प्रत्याशी निर्दलीय चुनाव लड़ेंगे और अखिलेश उनका प्रचार करेंगे। आनन-फानन में मुलायम सिंह और शिवपाल ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई और राम गोपाल यादव और अखिलेश यादव को पार्टी से# 6 वर्ष के लिए निष्कासित कर दिया।
ऐसा पहली बार था जब किसी पार्टी के विधानमंडल दल के नेता, जो मुख्यमंत्री के पद पर आसीन हो, को ही पार्टी से निकाल दिया गया। उस समय तो लगा कि झगड़ा काफी आगे बढ़ गया है। 31 दिसंबर को पिता और पुत्र ने लगभग एक ही समय पर बैठक बुलाई थी। अखिलेश यादव की बैठक में लगभग 200 विधायक पहुंचे जबकि मुलायम सिंह की बैठक में कुछ प्रत्याशी ही पहुंचे। उसके बाद अचानक से नाटकीय परिवर्तन आया, जिसमें आजम खान एक मजबूत मध्यस्थ बनकर उभरे। बैठक के खत्म होने के बाद वे अखिलेश को साथ लेकर मुलायम सिंह के घर पहुंचे और कुछ ही देर में वहां 'समझौता' हो गया। अखिलेश यादव और राम गोपाल यादव का पार्टी से निष्कासन रद्द हो गया। शिवपाल यादव ने मीडिया के सामने बयान दिया कि अब अब ठीक हो गया है, हम सांप्रदायिक ताकतों से लड़ते रहे हैं, आगे भी मिल कर लड़ेंगे। प्रत्याशियों की सूची फिर से जारी होगी।
इस कड़ी में गौर करने लायक बात यह थी कि 31 दिसंबर को मुलायम सिंह ने जो बैठक बुलाई थी, वह जिस तरह से असफल हुई, उससे कई सवाल खड़े हुए थे। मुलायम सिंह जैसे राजनीति के धुरंधर खिलाड़ी को एक तरह से पटखनी खानी पड़ी थी।
साफ प्रतीत होता है कि जैसे अखिलेश की बैठक को कामयाब बनाने के लिए मुलायम सिंह ने ही सभी विधायकों को अखिलेश की बैठक में भेज दिया हो। इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष एवं कांग्रेस के नेता संजय तिवारी कहते हैं कि अखिलेश की बैठक में कई ऐसे मंत्री भी शामिल हुए थे जो मुलायम सिंह यादव के साथ मंत्री रहे हैं। अखिलेश यादव जब मुख्यमंत्री बने थे तो उन लोगो को मंत्री नहीं बनाना चाहते थे। ऐसे लोग भी अखिलेश यादव की बैठक में गए थे, इससे साफ है कि अखिलेश की बैठक को मुलायम सिंह ने ही 'कामयाब' बना कर यह संदेश दिया कि पार्टी के अधिकतम विधायक, मंत्री अखिलेश के साथ हैं, सो अब जैसे अखिलेश चाहेंगे वैसे ही पार्टी चलेगी। संजय तिवारी कहते हैं कि हद तो तब हो गयी जब किरणमय नंदा, जो पार्टी के भीतर चल रहे विवाद को खत्म कराने के लिए पश्चिम बंगाल से बुलाये गए थे, वह भी अखिलेश के साथ मिल गए। 1 जनवरी को जो अधिवेशन हुआ उसमें राष्ट्रीय अध्यक्ष की अनुपस्थिति में औपचारिकता किरणमय नंदा ने पूरी की थी। शाम होते तक नंदा को भी पार्टी से निकाल दिया गया। ये लोग जनता की आंख में धूल झांेक रहे हैं। मुलायम अपने सभी वफादार नेताओं को एक-एक कर निकाल रहे हैं और वे सभी निष्कासित नेता अखिलेश का समर्थन कर रहे हैं। यह पूरा मामला 'स्क्रिप्टिड' है।
बहरहाल, इस दंगल का अंत कहां पर और कैसे होगा, यह तो आने वाले समय में ही पता लग पायेगा।
इसी प्रकार सपा के राज्यसभा सांसद नरेश अग्रवाल ने कहा कि ''नेता जी अगर अखिलेश का समर्थन करते तो उनका कद और बढ़ जाता मगर वह ऐसा नहीं कर पा रहे हैं।'' पार्टी के एक नेता किरणमय नंदा ने अखिलेश यादव के अधिवेशन में अहम भूमिका निभाई। पार्टी से निकाले गए नंदा ने भी मुलायम सिंह यादव की अवहेलना की। सवाल यह उठता है कि यह किस प्रकार का सम्मान है जिसमें पुत्र के तौर पर अखिलेश मंच से यह कहते हंै कि नेता जी के हित में कड़ा फैसला लेना पड़ा, तो वह भी लेंगे मगर नेता जी के सम्मान में कमी नहीं आने देंगे। जबकि उनके सभी समर्थक नेता जी का मखौल उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे। इस घटनाक्रम से सूबे की जनता भ्रमित है कि अगर अखिलेश अपने पिता का सम्मान कर रहे तो उनके समर्थक मुलायम सिंह का इस कदर सार्वजनिक अपमान क्यों कर रहे हैं? प्रतियोगी छात्र संघर्ष समिति के अध्यक्ष अवनीश पाण्डेय कहते हैं, ''बगैर अखिलेश की सहमति के यह कैसे संभव है कि कोई उनके पिता के बारे में अपमानजनक बयान दे और उनका करीबी भी बना रहे?''
सम्मान और अपमान के दायरे से थोड़ा बाहर निकलकर देखें तो फिलहाल यह लड़ाई चुनाव चिन्ह पर आकर अटक गई है। अखिलेश गुट साइकिल चुनाव चिन्ह प्राप्त करने की हरसंभव कोशिश में है, उधर मुलायम सिंह साइकिल चुनाव चिन्ह को अपने पक्ष में बनाये रखने के लिए पूरी ताकत लगाते दिख रहे हैं। हालांकि दोनों पक्षों को कानूनी स्थिति का बखूबी ज्ञान है। ऐसे में संभव है कि दोनों पक्ष इस बात के लिए पूरा जोर लगाएं कि साइकिल चुनाव चिन्ह किसी पक्ष के पास ना रहे। पूर्व चुनाव आयुक्त एस. वाई. कुरैशी के बयान पर गौर करें तो इस तरह के विवाद में चुनाव आयोग चुनाव चिन्ह को 'फ्रीज' कर देता है और दोनों पक्षों को नया चुनाव चिन्ह दे देता है। उन्होंने अपने बयान में कहा कि जब भी किसी पार्टी में इस तरह का विवाद होता है तब दोनों पक्ष खुद को असली पार्टी बताते हैं। ऐसे में आयोग सभी कागजों का अध्ययन करता है। इस पूरी प्रक्रिया में करीब 5 महीने लग जाते हैं, इसलिए चुनाव आयोग पार्टी के चुनाव चिन्ह को 'फ्रीज' करके फैसला होने तक दोनों पक्षों को नया चुनाव चिन्ह दे देता है।
आजम के आंकड़े, पार्टी में कद बढ़ाने की जुगत
पिता-पुत्र भले ही सुलह चाहते हों मगर शिवपाल और राम गोपाल किसी भी कीमत पर मामले को सुलह-समझौते की तरफ नहीं जाने देना चाहते। 1 जनवरी को जब आजम खान, अखिलेश को लेकर मुलायम सिंह के घर पहुंचे तो समझौता हो गया और चौबीस घंटे के भीतर ही राम गोपाल यादव और अखिलेश यादव का निष्कासन भी वापस हो गया। मगर फिर भी राम गोपाल की योजना के मुताबिक अधिवेशन बुलाया गया जिसके बाद ही विवाद बढ़ा। अधिवेशन के पहले सिर्फ टिकट बंटवारे का विवाद था जो आजम खान की मध्यस्थता के बाद तय हो गया था कि अखिलेश की मर्जी से ही टिकट बंटेेगे। पर अधिवेशन के बाद विवाद फिर बढ़ा जिससे मुलायम ने चुनाव आयोग में जाने का निर्णय किया।
जैसे ही चुनाव आयोग में जाने की बात तय हुई, रात में ही अमर सिंह लन्दन से दिल्ली आ गए। अमर सिंह की उपस्थिति अखिलेश यादव के लिए बर्दाश्त से बाहर होनी ही थी। माना जा रहा है कि शिवपाल ने अमर सिंह को बुलाया था। जब अमर सिंह चुनाव आयोग पहंुचे तो विशेष तौर पर जयाप्रदा को साथ ले गए। जयाप्रदा रामपुर से चुनाव लड़ चुकी हैं। रामपुर जनपद आजम खान का गृह जनपद है। अमर सिंह को जैसे ही मौका मिला, उन्होंने चुनाव आयोग में नेता जी के साथ खड़े होकर राम गोपाल यादव और अखिलेश यादव को मानसिक तनाव तो दिया ही, जयाप्रदा को साथ लाकर आजम खान को भी परेशान कर दिया। रात भर में ही अमर सिंह ने ऐसा गुल खिलाया कि आजम खान सुबह जब हवाईजहाज पकड़ कर लखनऊ से दिल्ली पहुंचे तो मुलायम ने सुलह के फार्मूले पर बात करने की बजाय कहा, ''लखनऊ पहुंचो, वहीं पर बात होगी।'' उसके कुछ घंटे बाद जब मुलायम लखनऊ पहुंचे तो अखिलेश को बुला कर सीधे बात की। उसमें मध्यस्थ के तौर पर आजम को नहीं बुलाया। इन सब के बाद आजम खान ने कहा, 'मै अपनी सीमा में रहना जानता हूं।' हालाकि एक दिन बीत जाने के बाद आजम खान ने फिर अपनी तरफ से सुलह का प्रयास करना शुरू कर दिया। पता चला है कि आजम खान भी पार्टी को अपने प्रभाव में लेने की जुगत भिड़ा रहे हैं। वे पिता-पुत्र के वे संघर्ष के बीच अपना मुनाफा देख रहे हैं। उनकी मंशा यही लगती है कि वे रहनुमा के तौर पर स्थापित हो जाएं और पार्टी उनके इशारे पर चले।
मर्ज बढ़ता गया ज्यों ज्यों…
यादव कुनबे में मौजूदा विवाद के कई पहलू हैं और ये नए नहीं हैं। उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ा राज्य है। यहां 2012 में समाजवादी पार्टी को बहुमत मिला था। इस चुनाव में जनादेश मुलायम सिंह यादव को मिला था। मगर उन्होंने पुत्र मोह में अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनाने की इच्छा जाहिर की। तब पार्टी के वरिष्ठ नेता अखिलेश के नाम पर तैयार नहीं थे। मगर मुलायम सिंह ने आजम खान और शिवपाल समेत सभी लोगों को मना लिया और अखिलेश को मुख्यमंत्री बनवा दिया। समाजवादी पार्टी सत्ता में आने के साथ ही एक ऐसी पार्टी बन गई थी, जिसके हर महत्वपूर्ण पद पर यादव परिवार का कब्जा हो चुका था। राजनीति के कुछ जानकार मानते हैं कि ये पूरा मामला 'स्क्रिप्टिड' है। उसी पटकथा के मुताबिक बार-बार विवाद होता है और फिर सुलह हो जाती है। उसके कुछ दिन बाद फिर किसी बात को लेकर विवाद हो जाता है और फिर समझौता कराया जाता है। लोगों का मानना है कि अखिलेश को बीते पांच वर्ष का हिसाब ना देना पड़े और चुनाव में अखिलेश यादव एक स्वच्छ छवि के साथ जनता के बीच जा सकें, इसके लिए ही यह सारा ड्रामा हो रहा है।
कहा जा रहा है कि जिस समय समाजवादी पार्टी का गठन हुआ था, तब मुलायम सिंह यादव ने आपराधिक पृष्ठभूमि वाले कई लोगों को विधानसभा और लोकसभा में प्रवेश दिलवाया। मगर 2011 में अखिलेश यादव जब प्रदेश अध्यक्ष बनाये गये तो उन्होंने कुख्यात माफिया डी. पी. यादव को पार्टी से बर्खास्त कर यह संदेश दिया था कि आपराधिक छवि वाले लोगों को पार्टी में तरजीह नहीं दी जायेगी। दबंग छवि वाले विधायक-सांसद, जो मुलायम के शासनकाल में काफी मनमानी किया करते थे, ऐसे दबंग छवि वाले नेताओं को अखिलेश यादव ने अपने पास फटकने नहीं दिया।
यही वजह है कि पिछले सपा शासनकाल में जहां बसपा विधायक राजू पाल की हत्या जैसी वारदात को अंजाम दिया गया था और उसके षड्यंत्र का आरोप सपा के नेता अतीक अहमद पर लगा था, उनकी सपा में वापसी के लिए ही अखिलेश तैयार नहीं थे। वे पार्टी में तो आ गए मगर अखिलेश के शासनकाल में ज्यादा मनमानी नहीं कर पाए। अब उसी अपेक्षाकृत साफ और सख्त छवि के साथ अखिलेश यादव को चुनाव मैदान में भेज भुनाने की तैयारी है।
नेता जी के हित में कड़ा फैसला लेना पड़ा, तो वह भी लेंगे मगर नेता जी के सम्मान में कमी नहीं आने देंगे।
— अखिलेश यादव, मुख्यमंत्री, उ. प्र.
मुलायम जानते हैं कि जनता इनका हिसाब करने का मूड बना चुकी है। इसलिए ये सारा ड्रामा रचा जा रहा ताकि जनता को लगे कि अखिलेश यादव बहुत ही स्वच्छ छवि के नेता हैं।
— केशव प्रसाद मौर्य,अध्यक्ष, भाजपा, उ. प्र.
नेता जी अगर अखिलेश का समर्थन करते तो उनका कद और बढ़ जाता, मगर वह ऐसा नहीं कर पा रहे हैं।
—नरेश अग्रवाल, राज्यसभा सांसद, सपा
नेता जी के कहने पर अगर नायक बन सकता हूं तो उनके कहने पर खलनायक भी बन सकता हूं।
—अमर सिंह, सपा नेता
पिता को किनारे किया, जाने पार्टी से कब पल्ला झटक लें
समाजवादी पार्टी का यह दंगल जब से शुरू हुआ है तब से कुछ युवा आखिलेश यादव कीं प्रशंसा जरूर कर रहे थे मगर 1 जनवरी को हुए अधिवेशन के बाद ऐसे समर्थक कुछ निराश हुए हैं। ऐसे लोगों का कहना है कि इस अधिवेशन में जिस तरह से राम गोपाल यादव के कहने पर अखिलेश यादव ने अपने पिता मुलायम सिंह यादव को अपदस्थ करके राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद हथिया लिया, उससे जनता में गलत संदेश गया है।
जनता का एक बड़ा वर्ग यह महसूस कर रहा है कि जिस पिता ने उन्हें मुख्यमंत्री बनवाया, ऐसे पिता को इस तरह से अधिवेशन बुला कर पद से हटाना उचित कदम नहीं था। इसके अलावा यह चर्चा भी जोर पकड़ती दिख रही है कि अगर पार्टी का विभाजन हो जाता है और दोनों खेमे अलग-अलग चुनाव लड़ते हैं, ऐसी दशा में भावुक भाषण के माहिर मुलायम सिंह यादव जब जन सभाओं में यह कहेंगे कि 'जो पिता का नहीं हुआ, वह पार्टी और जनता का क्या होगा।' तब एक पिता के इस सवाल पर पुत्र के पास क्या जवाब होगा? और यह सोचने वाली बात है कि पिता को झटका देने वाले अखिलेश पार्टी और जनता के कितने हितैषी साबित होंगे।
जानकार सूत्रों के मुताबिक अक्तूबर 2016 में जब अखिलेश नयी पार्टी बनाने की तैयारी में थे तब उन्हें मोटरसाइकिल चुनाव चिन्ह मिलने की संभावना थी। अगर इस लड़ाई में उन्हें बतौर चुनाव चिन्ह मोटरसाइकिल मिलती है तो चुनाव में अखिलेश खेमा यह कहने की कोशिश करेगा कि पुराने दौर में साइकिल थी, अब नए दौर में मोटरसाइकिल आ गई है। वहीं खबर यह भी है कि पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने अपने जीवनकाल में समाजवादी जनता पार्टी गठित की थी। उस समाजवादी जनता पार्टी को पुन: जीवित करने पर भी अखिलेश विचार कर सकते हैं। पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के पुत्र नीरज शेखर सपा से सांसद रह चुके हैं और मौजूदा समय में अखिलेश के साथ हैं। राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि मोरारका ने अखिलेश से मुलाकात भी की है। इसके अलावा अजित सिंह की पार्टी के चुनाव निशान पर प्रत्याशियों को उतारने के विकल्प पर भी संभवत: अखिलेश खेमे में विचार किया जा रहा है।
इस पूरे मसले पर भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य को भी यह महज एक 'फैमिली ड्रामा' भर लगता है। उन्होंने कहा, 'सभी जानते हैं कि सपा अपराधी तत्वों की पार्टी है, जिन्होंने 5 वर्ष तक प्रदेश की जनता को कष्ट दिया है। अब मुलायम सिंह यादव जानते हैं कि जनता इनका हिसाब करने का मूड बना चुकी है। इसलिए यह सारा ड्रामा रचा जा रहा ताकि जनता को लगे कि सारी गड़बड़ी पिता में है, लेकिन अखिलेश यादव बहुत ही स्वच्छ छवि के नेता हैं। यही भ्रम पैदा करके ये लोग जनता के साथ ठगी करने के लिए यह ड्रामा कर रहे हंै।'
वैसे इस बार जब 31 दिसंबर, 2016 को पिता-पुत्र में समझौता हुआ तभी लगा था कि जैसे यह झगड़ा असली नहीं है। एक बार घटनाक्रम पर फिर से गौर करें तो, 29 दिसंबर को अखिलेश महोबा में एक जनसभा को संबोधित करने गए थे। इसी बीच मुलायम सिंह और शिवपाल ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर पार्टी के 325 प्रत्याशियों की सूची जारी कर दी, जिसमेें राम गोविन्द चौधरी, अरविन्द सिंह गोप और पवन पाण्डेय जैसे तीन प्रमुख मंत्रियों का टिकट काट दिया गया। ये सभी लोग मुख्यमत्री अखिलेश के करीबी माने जाते हैं। शाम को जैसे ही अखिलेश लखनऊ पहुंचे, उन्होंने तीनों मंत्रियों और कुछ विधायकों के साथ अपने आवास 5, कालीदास मार्ग पर बैठक की। अगले ही दिन मुख्यमंत्री ने 164 प्रत्याशियों की अपनी एक अलग सूची जारी कर दी। इसमें गौर करने वाली बात यह है कि अखिलेश ने जो सूची जारी की थी उसमें कुल 64 ऐसे प्रत्याशी थे जिनके नाम पर विवाद था। ऐसे में उन्हीं 64 प्रत्याशियों की सूची जारी करने के बजाए अखिलेश यादव ने 164 प्रत्याशियों की सूची जारी की थी। सूत्रों के हवाले से यह खबर हर जगह फैल गई कि अखिलेश के चहेते प्रत्याशियों को अगर टिकट नहीं दिया गया तो वे सभी प्रत्याशी निर्दलीय चुनाव लड़ेंगे और अखिलेश उनका प्रचार करेंगे। आनन-फानन में मुलायम सिंह और शिवपाल ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई और राम गोपाल यादव और अखिलेश यादव को पार्टी से# 6 वर्ष के लिए निष्कासित कर दिया।
ऐसा पहली बार था जब किसी पार्टी के विधानमंडल दल के नेता, जो मुख्यमंत्री के पद पर आसीन हो, को ही पार्टी से निकाल दिया गया। उस समय तो लगा कि झगड़ा काफी आगे बढ़ गया है। 31 दिसंबर को पिता और पुत्र ने लगभग एक ही समय पर बैठक बुलाई थी। अखिलेश यादव की बैठक में लगभग 200 विधायक पहुंचे जबकि मुलायम सिंह की बैठक में कुछ प्रत्याशी ही पहुंचे। उसके बाद अचानक से नाटकीय परिवर्तन आया, जिसमें आजम खान एक मजबूत मध्यस्थ बनकर उभरे। बैठक के खत्म होने के बाद वे अखिलेश को साथ लेकर मुलायम सिंह के घर पहुंचे और कुछ ही देर में वहां 'समझौता' हो गया। अखिलेश यादव और राम गोपाल यादव का पार्टी से निष्कासन रद्द हो गया। शिवपाल यादव ने मीडिया के सामने बयान दिया कि अब अब ठीक हो गया है, हम सांप्रदायिक ताकतों से लड़ते रहे हैं, आगे भी मिल कर लड़ेंगे। प्रत्याशियों की सूची फिर से जारी होगी।
इस कड़ी में गौर करने लायक बात यह थी कि 31 दिसंबर को मुलायम सिंह ने जो बैठक बुलाई थी, वह जिस तरह से असफल हुई, उससे कई सवाल खड़े हुए थे। मुलायम सिंह जैसे राजनीति के धुरंधर खिलाड़ी को एक तरह से पटखनी खानी पड़ी थी।
साफ प्रतीत होता है कि जैसे अखिलेश की बैठक को कामयाब बनाने के लिए मुलायम सिंह ने ही सभी विधायकों को अखिलेश की बैठक में भेज दिया हो। इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष एवं कांग्रेस के नेता संजय तिवारी कहते हैं कि अखिलेश की बैठक में कई ऐसे मंत्री भी शामिल हुए थे जो मुलायम सिंह यादव के साथ मंत्री रहे हैं। अखिलेश यादव जब मुख्यमंत्री बने थे तो उन लोगो को मंत्री नहीं बनाना चाहते थे। ऐसे लोग भी अखिलेश यादव की बैठक में गए थे, इससे साफ है कि अखिलेश की बैठक को मुलायम सिंह ने ही 'कामयाब' बना कर यह संदेश दिया कि पार्टी के अधिकतम विधायक, मंत्री अखिलेश के साथ हैं, सो अब जैसे अखिलेश चाहेंगे वैसे ही पार्टी चलेगी। संजय तिवारी कहते हैं कि हद तो तब हो गयी जब किरणमय नंदा, जो पार्टी के भीतर चल रहे विवाद को खत्म कराने के लिए पश्चिम बंगाल से बुलाये गए थे, वह भी अखिलेश के साथ मिल गए। 1 जनवरी को जो अधिवेशन हुआ उसमें राष्ट्रीय अध्यक्ष की अनुपस्थिति में औपचारिकता किरणमय नंदा ने पूरी की थी। शाम होते तक नंदा को भी पार्टी से निकाल दिया गया। ये लोग जनता की आंख में धूल झांेक रहे हैं। मुलायम अपने सभी वफादार नेताओं को एक-एक कर निकाल रहे हैं और वे सभी निष्कासित नेता अखिलेश का समर्थन कर रहे हैं। यह पूरा मामला 'स्क्रिप्टिड' है।
बहरहाल, इस दंगल का अंत कहां पर और कैसे होगा, यह तो आने वाले समय में ही पता लग पायेगा।
टिप्पणियाँ