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पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की औपचारिक घोषणा के बाद कांग्रेस की अगुआई में आम बजट को 8मार्च से आगे सरकाने की मांग उठी है। कारण यह कि इससे चुनाव पर असर पड़ सकता है। ठीक, आपकी चिंता वास्तविक हो सकती है लेकिन सिर्फ बजट ही क्यों? कुछ और चीजें भी तो अगले कुछ दिनों के लिए सरकाई जा सकती थीं। उदाहरण के लिए देश की सबसे बुजुर्ग पार्टी के युवराज की विदेश में मनाई जा रही छुट्टियां! ऐसे समय जब किसी भी क्षण विधानसभा चुनावों की घोषणा हो सकती थी, पार्टी के महासचिव (जिनकी अध्यक्षीय ताजपोशी अब तय ही है) का नोटबंदी के पचास दिन पूरे होते ही फुर्र हो जाना बताता है कि उनकी उपस्थिति या अनुपस्थिति को पार्टी चुनाव पर असर के तौर पर नहीं गिनती। उसे तो सिर्फ बजट या फिर केवल वे बातें प्रभावित करती हैं जो प्रधानमंत्री कहें या भाजपानीत केंद्र सरकार करे।
हंसिए मत। राहुल राजनैतिक कच्चेपन के प्रतीक हो सकते हैं, कांग्रेस कुनबे के खूंटे से बांधे गए लोकतंत्र की विडंबना का सजीव चित्र हो सकती है लेकिन सिर्फ कोई एक पार्टी ही क्यों? देश में ज्यादातर राजनीतिक दल क्या अपने कार्यकर्ताओं का भरोसा और वैचारिक पूंजी (यदि वास्तव में रही तो) खो नहीं चुके हैं? जहां विरोध को ही विचार मान लिया गया हो, उस राजनीति को आप क्या कहेंगे?
क्षेत्रीय अलगाव को पोसने और अपने-अपने राजनैतिक कुनबे-कोटरी की ताबेदारी में लीन विभिन्न दलों को राजनैतिक पोषण सिर्फ किसी एक दल के विरोध में अनुभव होता है क्या यह चिंता की बात नहीं?
निश्चित ही दलीय राजनीति के स्तर में ऐसी गिरावट लोकतंत्र और अंतत: राष्ट्र को आघात पहुंचाने वाली है। नोटबंदी के विरोध में ममता के साथ प्रेस वार्ता या सोशल मीडिया मंच पर चहकने वाले राहुल गांधी अथवा अरविंद केजरीवाल यदि धूलागढ़ के दंगे की आलोचना के लिए एक 'ट्वीट' की भी फुर्सत निकाल लेते तो निश्चित ही अपने पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच उसकी साख बनी रहती। बड़े कहे जाने वाले नेताओं की पक्षपाती तुच्छताएं वास्तव में उन्हें अपने गढ़ के भीतर भी बौना बनाती हैं, यह बात अधिकांश भारतीय नेताओं के दिमाग से शायद उतर ही चुकी है।
उत्पात और अपराध को शह (धूलागढ़ प्रकरण), तुष्टीकरण के लिए शासकीय नियमों की तोड़मरोड़ (उत्तराखंड में नमाज के लिए अवकाश) या फिर चुनाव की ढपली बजाते हुए बजट को आगे ठेलने की जिद… वास्तव में भारतीय राजनीति की भिन्न-भिन्न दलीय मुद्राएं अपनी-अपनी कमजोरी ही बता रही हैं।
कुनबापरस्ती और तुष्टीकरण की तंद्रा को ही आनंद मान बैठे दलों के लिए 'स्वचिकित्सा' आवश्यक है। जागना जरूरी है क्योंकि ना जागने वालों की नींद लोकतंत्र में जनता तोड़ देती है। यह तय बात है। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव देश की जनता और हमारे लोकतंत्र के लिए शुभ हों।
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