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2016 में बिहार में पांच फिल्म महोत्सव आयोजित हुए। इनमें सरकारी खजाने से लाखों रुपए खर्च किए गए। लेकिन इन महोत्सवों में कहीं दर्शकों तो कहीं विद्यार्थियों के सामने वयस्क फिल्में परोस दी गईं
पाञ्चजन्य ब्यूरो
बिहार राज्य फिल्म वित्त एवं विकास निगम ने 2016 में पांच फिल्म महोत्सवों का आयोजन किया। इन महोत्सवों में करोड़ों रुपए पानी की तरह बहाए गए, पर नतीजा 'ढाक के तीन पात' जैसा रहा। मजे की बात तो यह रही कि पटना फिल्म महोत्सव का आयोजन दो-दो बार हुआ। पहला फरवरी में एवं दूसरा दिसंबर में। इसके अलावा अगस्त में अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव, सितंबर में डॉक्यूमेंट्री एवं लघु फिल्म महोत्सव तथा नवंबर में क्षेत्रीय फिल्म महोत्सव का आयोजन किया गया। इन सभी सरकारी उत्सवों में चार-पांच गैर-सरकारी लोग ही सर्वेसर्वा के रूप में नजर आए। शायद यही कारण है कि इन महोत्सवों से दर्शक वर्ग दूर ही रहा।
उल्लेखनीय है कि केन्द्र और राज्य सरकारें अच्छी फिल्मों को दर्शकों तक पहुंचाने के ध्येय से अपने-अपने स्तर पर फिल्मोत्सव का आयोजन करती हैं। इसी कड़ी में बिहार में भी फिल्म महोत्सव आयोजित होते हैं। लेकिन दुर्भाग्य से बिहार में पिछले कुछ समय से फिल्मोत्सवों के नाम पर एक विचित्र गठजोड़ सामने दिखने लगा है। सिनेमा-प्रेमियों की जगह सिनेमा के सौदागरों ने इसका ठेका ले लिया है। सरकार में बैठे कुछ लोग तथा सिनेमा का झंडा ढोने का दावा करने वाले तथाकथित फिल्मकार, कलाकार, रंगकर्मी, फिल्म समीक्षक, फिल्म पत्रकार आदि ने मिलकर इन उत्सवों को जैसे दुधारू गाय बना दिया है। इसके कई उदाहरण हैं। फरवरी, 2016 में पटना फिल्म महोत्सव का आयोजन हुआ था। इस आयोजन में लोगों के उत्साह को देखते हुए आनन-फानन में एक त्वरित कार्ययोजना भी बना दी गई। 10 जून, 2016 से निगम के मॉरीशन भवन में सिने संवाद का आयोजन प्रारंभ हुआ। प्रत्येक शुक्रवार को यह आयोजन होने लगा। लेकिन कुछ ही समय में इस आयोजन का दम निकल गया और अब यह सिने संवाद सिर्फ नाम मात्र का रह गया है। कहने को तो आयोजन हो जाता है, लेकिन सामान्य सिने प्रेमी इसमें नजर नहीं आते। मुश्किल से 10-15 दर्शक होते हैं। इसी तरह निगम ने 'कॉफी विद फिल्म' की शुरुआत की। अब यह आयोजन बंद हो गया है।
19 से 21 अगस्त तक अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव का आयोजन किया गया। विद्यार्थियों की सहभागिता बढ़ाने के उद्देश्य से शिक्षण संस्थानों से संपर्क भी किया गया। विद्यार्थी आए भी। लेकिन महोत्सव में वयस्क फिल्में भी दिखाई गईं। इससे दर्शक भड़क उठे। आखिर स्कूली बच्चों के सामने वयस्क फिल्म परोसने का क्या अभिप्राय था? विरोध के बाद आयोजक बेशर्मी के साथ कुतर्क पर उतर आए। उस समय तमाम मीडिया और समाज में इस फूहड़ता को लेकर निगम की काफी फजीहत हुई थी। सितंबर में 14 से 16 तारीख तक 'लघु एवं डॉक्यूमेंट्री फिल्म महोत्सव' का आयोजन किया गया था। इस आयोजन को कुछ हद तक सार्थक माना जा सकता है, क्योंकि इसमें कुछ दर्लभ फिल्मों का प्रदर्शन किया गया था। परंतु 15 से 20 नवंबर तक आयोजित 'क्षेत्रीय फिल्म महोत्सव' पूरी तरह पिट गया। इसके लिए बहुत तिकड़म करके दर्शक जुटाए गए थे। इसके बावजूद दर्शकों की संख्या कम ही रही। 9 से 16 दिसंबर तक हुए 'पटना फिल्म महोत्सव' में तो अंगुली पर गिनने लायक भी दर्शक नहीं पहुंचे।
इसके अलावा निगम ने फिल्म अभिनय कार्यशाला भी आयोजित की। इसका किस्सा भी विचित्र है। एक ही फिल्मकार को दो-दो बार अलग-अलग आयोजनों में बुलाया गया। 29 सितंबर से 6 अक्तूबर तक फिल्म अभिनय की कार्यशाला हुई थी। सरकारी आंकड़ों के अनुसार इसमें सिर्फ 35 लोगों की सहभागिता रही। लेकिन 3 से 5 नवंबर तक आयोजित दूसरी कार्यशाला में दर्शकों की संख्या पूछे जाने पर निगम के पदाधिकारी चुप्पी साध लेते हैं।
फिल्म महोत्सव एक ऐसा मंच होता है, जहां फिल्म प्रेमियों को उत्कृष्ट फिल्में देखने को मिलती हैं। पटना में ही दैनिक जागरण द्वारा आयोजित फिल्म महोत्सव में ऐसी कई फिल्में दिख जाती हैं। नागेश कुकुनूर की बहुचर्चित फिल्म 'धनक' हो या चंद्रप्रकाश द्विवेदी द्वारा निर्देशित फिल्म 'जेड प्लस'। ये फिल्में पटना के दर्शकों को जागरण फिल्म महोत्सव में देखने को मिलीं। लेकिन बिहार राज्य फिल्म विकास एवं वित्त निगम द्वारा आयोजित फिल्म महोत्सवों में ऐसी दुर्लभ फिल्में नदारद रहती हैं। गत वर्ष जब निगम ने फिल्म महोत्सवों की परंपरा फिर से शुरू की थी तो राज्य के कला एवं फिल्म प्रेमियों में काफी उत्साह जगा था। दर्शकों ने इम्तियाज अली को हाथों-हाथ लिया था। हॉल में पैर रखने की जगह तक नहीं रहती थी। लेकिन निगम की अदूरदर्शिता के कारण यह उत्साह जल्दी ही काफूर हो गया। लोग निगम के फिल्म महोत्सवों से दूर होते चले गए।
सवाल यह है कि जब दर्शक नहीं जुट रहे हैं तो इतने बड़े-बड़े और खर्चीले आयोजन किसके लिए हो रहे हैं? हरेक फिल्म महोत्सव में लाखों रुपया पानी की तरह बहाया जाता है। फरवरी में आयोजित फिल्म महोत्सव पर लगभग 55 लाख रुपए का खर्च आया था। उसके बाद के फिल्म महोत्सवों में भी लाखों रुपए खर्च हुए, लेकिन दर्शक नहीं जुटे। पटना के सिने प्रेमी अनिरुद्ध प्रसाद कहते हैं, ''निगम द्वारा आयोजित फिल्म महोत्सवों का एकमात्र उद्देश्य है पैसा बटोरना। महोत्सव में बिना जांचे-परखे कुछ फिल्में दिखा दी जाती हैं। फोटो खिंचवाए जाते हैं। मीडिया में भी जगह मिल जाती है और अंत में फेसबुक पर अपने-अपने हिस्से का फोटो डालकर खूब सारे 'लाईक' बटोर लिए जाते हैं। महोत्सव सफल क्यों नहीं रहा, इस पर न तो पुनर्विचार होता है और न ही अन्य सिने प्रेमियों की सहभागिता सुनिश्चित करने की कोई ठोस योजना बनती है।''
फिल्मकार रीतेश परमार इस सबके पीछे फिल्मी दुनियां में धंधेबाज लोगों का सक्रिय होना बताते हैं। वे कहते हैं, ''जिनका सिनेमा से दूर-दूर तक का नाता नहीं वे भी फिल्म महोत्सवों पर कुंडली मारकर बैठे हुए हैं। यहां तक कि मोटी रकम खर्च कर बुलाए गए चेहरे भी कमोबेश वही रहते हैं। क्या ये चेहरे सिनेमा के नाम पर धन उगाही के किसी गठजोड़ का संदेश नहीं देते?''
हालांकि बिहार में फिल्म महोत्सवों के आयोजन के लिए पूरी सरकारी मशीनरी लगी रहती है, इसके बावजूद इन महोत्सवों में दर्शक नहीं पहंुचते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है इन महोत्सवों से सिनेमा के जानकारों को दूर रखा जाना है। वास्तव में इन आयोजकों को निरंतर यह डर लगा रहता है कि कहीं उनकी दुकानदारी बंद न हो जाए। इसलिए वे लोग सिनेमा के जानकारों को अपने से दूर रखते हैं। ये लोग तथाकथित सिनेमा विशेषज्ञ के नाम पर गैर सिनेमाई पृष्ठभूमि वाले लोगों को मंच पर बैठाते है।
राज्य में सिनेमा को बढ़ावा देने की जिम्मेदारी बिहार राज्य फिल्म विकास एवं वित्त निगम के कंधों पर है। दुर्भाग्य की बात है कि निगम सिर्फ फिल्म प्रदर्शन तक सिमट कर रह गया है। क्या सिर्फ फिल्मोत्सव आयोजित कर राज्य में सिनेमा का विकास हो सकता है? क्या सिर्फ राजधानी पटना में बैठे कुछ लोगों की फिल्मी गतिविधियों से पूरे राज्य में सिनेमा का विकास होगा?
निगम के जिम्मेदार पदाधिकारी हरेक आयोजन में कहते रहे कि जल्दी ही राज्य में फिल्मों से जुड़ी सार्थक नीति लाई जाएगी। पूरा साल बीत गया लेकिन इस नीति का कोई अता-पता नहीं है। सरकार ने अपने दम पर एक मिनट की विज्ञापन फिल्म बनाई जिस पर करीब 2.75 लाख रुपए की राशि स्वीकृत हुई। लेकिन यह फिल्म बिहार की किस भाषा या बोली में बनाई गई है, यह दर्शकों को समझ नहीं आ रहा। लोगों का कहना है कि सिनेमा के सौदागर राज्य में सौदेबाजी कर रहे हैं और सरकार के साथ-साथ राज्य के सिनेमा प्रेमियों को भी गुमराह कर रहे हैं। क्या 'कुशल प्रशासक' की छवि बनाए रखने वाले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार स्वयं इस मामले में गंभीरता दिखाएंगे?
जिनका सिनेमा से दूर-दूर तक का नाता नहीं वे भी फिल्म महोत्सवों पर कुंडली मारकर बैठे हुए हैं। यहां तक कि मोटी रकम खर्च कर बुलाए गए चेहरे भी कमोबेश वही रहते हैं। क्या ये चेहरे सिनेमा के नाम पर धन उगाही के किसी गठजोड़ का संदेश नहीं देते?
-रीतेश परमार, फिल्मकार
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