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कश्मीर की महान आध्यात्मिक विभूति और काव्यशास्त्र विशेषज्ञ आचार्य अभिनव गुप्त श्रेष्ठ दार्शनिक, शैव दर्शन के ज्ञाता एवं उत्कृष्ट साधक थे। उनके दर्शन को लोगों तक पहुंचाने हेतु जनवरी के पहले सप्ताह में बेंगलुरू में सहस्राब्दी समारोह आयोजित किया जा रहा है
जवाहरलाल कौल
श्चिमी विद्वान हम पर प्राय: यह आरोप लगाते रहे हैं कि हमारा दर्शन पलायनवादी दर्शन है। उसमें मनुष्य की आर्थिक प्रगति की अवस्था बन ही नहीं सकती। जब मनुष्य संसार छोड़ने और सांस्कृतिक सुखों से मुख मोड़ने की बात करता हो तो वह विश्व में प्रगति कैसे कर सकता है। लेकिन अभिनव गुप्त ने अपनी दार्शनिक दूरदृष्टि से इस भ्रांति को दूर किया कि केवल संन्यास से ही ईश्वर मिल सकता है और आध्यात्मिक लक्ष्य केवल सांस्कृतिक सुखों से दूर रहने से ही हो सकता है। दर्शन को वनों से परिवार में ले आने वाले अभिनव गुप्त का जन्म जम्मू-कश्मीर में दसवीं शताब्दी के पहले पूर्वार्ध में प्रतिष्ठित शैवार्चायों के परिवार में हुआ था। वास्तव में उनके पूर्वज कन्नौज से श्रीनगर चले गए थे। सातवीं शताब्दी में कश्मीर के प्रसिद्ध सम्राट ललितादित्य ने उज्जैन के राजा यशोवर्मन को परास्त किया तो बदले मंे उन से अपने राज दरबार में नियुक्त विद्वानों में से एक अत्रिगुप्त को अपने साथ कश्मीर ले जाने की इच्छा व्यक्त की। यह सबके लिए आश्चर्यजनक मांग थी क्योंकि अत्रिगुप्त उन विद्वानों और लेखकों में कनिष्ट ही थे जो उस समय राजा यशोवर्मन के राज्य दरबार में थे। दूसरा यह कि अत्रिगुप्त शैव थे जबकि राजा ललितादित्य भागवत यानी विष्णु भक्त थे। राजा न केवल अत्रिगुप्त को कश्मीर ले गए अपितु उन्हें श्रीनगर में वितस्ता नदी के किनारे एक बड़ा आश्रम भी बनवा दिया। एक गांव की आय भी जोेड़ दी ताकि वे अपने परिवार और अपने विषयों का ठीक प्रकार से भरण-पोषण कर सकें। अभिनव गुप्त इन्हीं की छठी या सातवीं पीढ़़ी में पैदा हुए। उनके पिता नरसिंह गुप्त भी बडे़ भाषाविद् थे और मां विमला स्वयं एक योगिनी थीं। अभिनव को बाल सुलभ जीवन बिताने का शायद अवसर ही नहीं मिला, क्योंकि बचपन में ही उनकी मां चल बसीं। वे इस घटना से अंतर्मुखी होने लगे। शिक्षा तो घर में ही होने लगी, क्योंकि पिता ही नहीं, परिवार के कई और सदस्य भी अलग-अलग विद्याओं के आचार्य थे। लेकिन जवान होते ही उन्हें एक और आघात मिला जब उनकी छोटी बहन अम्बा के पति और अभिनव के बचपन के मित्र करन का जवानी मंे ही देहांत हो गया। उस समय अभिनव से नहीं रहा गया और उन्होंने पहली बार इस दैवी विधान के विरुद्ध असंतोष व्यक्त करते हुए कहा कि अकारण होने वाली ऐसी ही घटनाओं से मन बाहर से हट कर भीतर ही प्रश्नों के उत्तर खोजने लगता है। धीरे-धीरे उनका मन हीं उनकी प्रयोगशाला बन गया।
कश्मीर मंे शैव मत विभिन्न रूपों में पहले से ही था, लेकिन न केवल मूल दर्शन कई मतों में बंट गया था अपितु तंत्राचार में भी विकृति आ गई थी जिससे लोक में तंत्र को जादू-टोने के रूप मे ही देखा जाने लगा था। अभिनव गुप्त के सामने शैव दर्शन को अपने दार्शनिक स्तर पर फिर से खड़ा करना तो था ही, लेकिन उन्हें विभिन्न मतों के बीच सामंजस्य पैदा करके एक समग्र और व्यापक दर्शन के रूप में उसका रूपांतरण भी करना था। इस चुनौती को पूरा करने के लिए अभिनव गुप्त को न केवल किसी एक मत का गहन अध्ययन करना था अपितु हर मत और हर दर्शन की गहराई तक जाना था चाहे वह शैव हो या नहीं। इसलिए उन्हें सक्षम गुरु की खेाज में दूर-दूर तक जाना पड़ा। बताया जाता है कि उन्होंने 19 गुरुओं से शिक्षा प्राप्त की। कुछ शैव मतों के आचार्य कश्मीर में नहीं रहे थे और इनमें सबसे प्राचीन कुल धर्म की शिक्षा के लिए अभिनव को जालंधर पीठ के आचार्य शम्भू नाथ की शरण मे जाना पड़ा जहां रह कर उन्होंने न केवल पढ़ा ही, अपने गुरु के आदेश पर स्वयं साधना भी की। कश्मीर में तंत्र साधना का प्राचीन मत है। सौभाग्य से उनसे पहले कश्मीर में कई आचार्यों ने शैव दर्शन के कुछ अनूठे सिद्धांतों का प्रतिपादन किया था। इन में वसुगुप्त सब से पहले और सर्वमान्य हैं। उन का स्पंध मत और सोमानंद की ईश्वर प्रत्यभिज्ञा अभिनव गुप्त के दर्शन के सब से महत्वपूर्ण स्तम्भ हैं। कुल और क्रम अन्य स्तम्भ माने जाते हैं। चारों के बीच सामंजस्य स्थापित करके अभिनव गुप्त ने शैव दर्शन को जिस रूप में प्रस्तुत किया, उसे कृत्रिक दर्शन कहा जाता है।
अभिनव गुप्त अद्वैतवादी हैं। वे मानते हैं कि परमशिव चराचर में व्याप्त है। यह जगत् भी उन का ही स्वरूप है। जीव और परमात्मा या परम शिव में कोई भेद नहीं। इसी को अद्वैत या अभेदवाद कहते हैं, यानी परम शिव और जीव एक ही हैं, उनमें कोई भेद नहीं। यह परम शिव कैसा है? अभिनव गुप्त के अनुसार वे प्रकाश रूप हैं, लेकिन यह प्रकाश सूर्य या दीपक के प्रकाश की भांति भौतिक प्रकाश नहीं है। वह प्रकाश सविमर्श है यानी ऐसा प्रकाश जिसमें सोचने-समझने का विवेक है, जो स्वयं ही चैतन है। इसलिए परमशिव को परम चैतन्य भी कहते है। यहां तक तो उनका दर्शन वेदांत की मान्यता के अनुरूप है। अंतर केवल यह है जिसे वेदांती ब्रह्म कहते हैं, वही शैवों के लिए शिव है। लेकिन इसके आगे मौलिक अंतर आ जाता है। वेदांत मेंं जगत को माया रूप माना जाता है। क्योंकि जगत अस्थायी है, नश्वर है इसलिए उसी प्रकार सत्य नही हैं जैसा कि ब्रह्म है। लेकिन अभिनव गुप्त पूछते हैं कि अगर माया को भी ब्रह्म ने ही रचा है और ब्रह्म चर-अचर सब में ही विद्यमान हैं तो जिस माया को उसी ने रचा है वह असत्य कैसे हो सकती है। यदि वह ब्रह्म या शिव की ही रचना है तो फिर उसी रचना का कोई आशय भी होगा, कोई प्रयोजन तो होगा ही। वह प्रयोजन जीव के संदर्भ में महत्वपूर्ण है। शिव जब अपना विस्तार करना चाहता है तो जगत या प्रकृति की रचना होती है। यह उसी का विस्तार है। जीव को इस से भागना नहीं, अपितु इस के बीच से चल कर आगे बढ़ना है अपने परम ध्येय की ओर। इसलिए अभिनव गुप्त का कहना है कि परम शिव तक पहुंचने के लिए संन्यास की आवश्यकता नहीं, जगत की भौतिक आवश्यकताओं को पूरा करते हुए भी हम उस तक पहंुच सकते हैं। जिस माया को सामान्यत: हम बाधाकारी मानते हैं उसे वे जगत् की रचना के लिए आवश्यक आधार मानते हैं। परमशिव को जगत् बनाने के लिए अपने आप को कुछ संकुचित करना होता है,अपने ऊपर कुछ सीमाएं लगानी होती है। इसीलिए वे जगत् की रचना शक्ति के रूप मंे ही कर सकते हैं।
शक्ति भले ही शिव की तुलना में सीमित हो लेकिन है तो उसी का रूप। असीम चैतन्य रूप से सीमित जगत् के रूप में आने के लिए जो आधार है वे बंधनकारी होते हुए भी आवश्यक हैं। इस प्रकार अभिनवगुप्त माया को कोई अवांछित, डरावनी शक्ति न मान कर एक ऐसी अवस्था मानते हैं जिसको पार करना आवश्यक है। उससे भागने से शिवमय होने का मार्ग नहीं मिल सकता।
अभिनव गुप्त की प्रासंगिकता उन की बहुविध प्रतिभा के कारण है। वे संसार को त्यागने की आवश्कयता नहीं मानते और सांसारिक कर्तव्यों को निभाने का उपदेश देते हैं। वे शिव पथ पर चलने की पात्रता केवल साधक की इच्छा और भक्ति को ही मानते हैं। कुल, जाति, वर्ग या आर्थिक स्थिति को नहीं। वे सभी को इस पथ पर आने का निम्ंात्रण देते हैं, चाहे वह ब्राह्मण हो या झाडू लगाने वाला, धनवान हो या विपन्न। वे कहते हैं कि परम शिव मंे एक शक्ति होती है जिसके आधार पर ही वे कोई भी कार्य कर सकते हैं जगत् का निर्माण हो या उसे वापस समेटना। अगर माया बांधने वाली शक्ति है तो स्वातंत्र्य बंधन मुक्त करने वाली शक्ति। यही स्वातंत्र्य शक्ति जीव मंे भी होती है जो उसे माया से ऊपर उठने में सहायता करती है। आधुनिक भौतिकवादी दौर में अभिनव गुप्त का दर्शन केवल पारलौकिक मार्ग को प्रशस्त नहीं करता, सांसारिक पथ को भी प्रकाशित करता है। यह एक ऐसा दर्र्शन है जो अध्यात्म और भौतिक जगत् के बीच तर्कसंगत संगति बिठाता है।
अभिनव गुप्त ने उस समय उपलब्ध सभी ज्ञानधाराओं में अपना योगदान किया। आनंद वर्धन के ध्वन्यालोक और भरत मुनि के नाट्य शास्त्र पर टिप्पणियां लिखते हुए अभिनव गुप्त ने इन ग्रंथों की ही व्याख्या नहीं की अपितु इनमें मौलिक अभिवृद्धि भी की। आज नाटक, रस या ध्वनि के बारे में कोई भी विवाद या मतभेद हो, उस पर अभिनव गुप्त एकमत को ही निर्णायक माना जाता है। श्रीमद् भगवद्गीता पर उन के द्वारा की गई टिप्पणी गीतार्थसार गीता को समझने का एक नया दृष्टि कोण है। बौद्ध वेदांत, द्वैतवादी मत आदि की आलोचना के बावजूद अभिनव गुप्त इनमें से किसी मत की निंदा करने का समर्थन नहीं करते। इसलिए उन्हें समन्वयवादी दार्शनिक कहा जाता है।
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