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समाज के बीच से उठे एक असाधारण इंसान के चरित्र पर बनीं फिल्मों ने इस साल दर्शकों को अपनी ओर खींचा। इन फिल्मों के जानदार कथानक लोगों में भारतीयता का गौरव जगाने में सफल रहे
राहुल भारद्वाज
1947 से कदाचित 1994 तक भारतीय दर्शक और उससे कहीं अधिक भारतीय फिल्म निर्माता चर्चित व्यक्तियों के जीवन पर आधारित फिल्में बनाने से कतराते रहे थे। मोटे तौर पर फिल्मों का कथानक प्रेम, हिंसा और हास्य के त्रिकोण के भीतर सिमटा रहा। ऐसा नहीं है कि जीवनी (व्यक्ति) आधारित चलचित्र बने ही नहीं, मनोज कुमार की शहीद और वी. शांताराम की डॉक्टर कोटनीस की अमर कहानी जैसी फिल्में बनाई भी गईं और उन्होंने टिकट खिड़की पर सफलता भी प्राप्त की। पर कहीं न कहीं बॉलीवुड यह मान कर चलता रहा कि भारतीय दर्शक ऐसी फिल्में देखेगा नहीं और निर्माता का पैसा डूब जायेगा।
1991 के आर्थिक परिवर्तन के पश्चात यह स्थिति क्रमश: बदलने लगी। समाज में टीवी और फिर इंटरनेट के आने पर तरह-तरह के साहित्य और विभिन्न फिल्मों से परिचय हुआ। इसके नकारात्मक परिणाम भी हुए परंतु सकारात्मक परिणाम अधिक हुए। हमारा दर्शक वर्ग घिसी-पिटी धारा की फिल्मों से हट कर नए कथानक की तरफ आकर्षित हुआ। इस प्रवृत्ति और हवा मिली मल्टीप्लेक्स के आने पर। दर्शक सिनेमा की टिकट खिड़की पर निर्णय लेने लगा कि उसे कौन-सी फिल्म देखनी है।
जीवनी व्यक्ति पर आधारित फिल्म शैली को इस दिशा में पहला बड़ा प्रोत्साहन मिला द डर्टी पिक्चर से। १८ करोड़ रु. की लागत से बनी इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर सौ करोड़ रु. से अधिक कमाकर दर्शक और समीक्षक, दोनों की वाहवाही लूटी। इसका परिणाम यह हुआ कि बॉलीवुड ने विभिन्न क्षेत्रों की मशहूर हस्तियों के जीवन चरित्र पर आधारित फिल्मों की तरफ देखना शुरू किया। कदाचित इस फिल्म की सफलता ने डेढ़ साल से वितरक ढूंढती एक फिल्म पान सिंह तोमर को दर्शकों से रू-ब-रू कराया। फिल्म एक ऐसे नायक की थी जो सेना में था और बाधा दौड़ का राष्ट्रीय चैंपियन था। लेकिन समाज और सरकार का अन्याय उसे चंबल का बागी बना देते हैं। पान सिंह तोमर 4.5 करोड़ रु. की लागत से बनी
और अपनी लागत से लगभग दस गुना ज्यादा कमा गई। किसी की जीवनी पर आधारित इन फिल्मों को लेकर फिर भी थोड़ा संशय था कि यह मात्र एक सामायिक फैशन है, जो लंबे दौर की फिल्म शैली नहीं बनेगा। पर इस धारणा को ध्वस्त किया राकेश ओम प्रकाश मेहरा की भाग मिल्खा भाग ने। यह फिल्म मिल्खा सिंह नाम के हमारे सबसे सुविख्यात धावक पर आधारित है। फरहान को भी टिकट खिड़की पर तब या अब बहुत सफल अभिनेता नहीं माना जाता है। ऊपर से यह फिल्म तीन घंटे नौ मिनट की थी। फिल्म की सफलता और दर्शकों के प्रेम के कारण 30 करोड़ में बनी यह फिल्म 165 करोड़ की कमाई कर गयी।
दो और उदाहरण उल्लेखनीय हैं। पहला, नीरजा भनोट के महान बलिदान और वीरता पर आधारित राम माधवानी की फिल्म नीरजा। इस फिल्म ने हमें हमारे नए इतिहास की एक भूली हुई वीरांगना का फिर से स्मरण कराया। इस फिल्म में नीरजा के जीवन और उस अंतिम 48 घंटे के पड़ाव को इतने अच्छे ढंग से फिल्माया गया है कि दर्शकों ने अपना दिल और बटुए दोनों इस फिल्म पर उड़ेल से दिए। मात्र 20 करोड़ रु. से बनी यह फिल्म अगर बॉक्स ऑफिस पर 135 करोड़ रु. के आंकड़े को छू गयी तो यह कमाल ही है।
इसी तरह क्रिकेटर महेन्द्र सिंह धोनी पर बनी फिल्म एम. एस. धोनी: द अनटोल्ड स्टोरी। धोनी के एक छोटे मध्यम वर्ग परिवार से खेल के महानायक बन जाने की यात्रा को नीरज पांडेय ने इतने सहज अंदाज में दर्शाया कि जीवनी पर आधारित फिल्मों में इस फिल्म ने सबसे अधिक 200 करोड़ रु. से भी ऊपर कमा डाले। सुशांत सिंह के अभिनय का इसमें महत्वपूर्ण योगदान था।
यही एक बात ध्यान देने की है। जीवनी पर आधारित यह सिनेमा शैली मात्र मल्टीप्लेक्स और दर्शकों को बढ़ी आय के कारण ही नहीं है। इसका एक बहुत बड़ा सामाजिक पहलू है। आज का भारतीय दर्शक अपने भारतीय होने पर कहीं अधिक गर्व करता है और ऐसे भारतीय उदाहरणों से संबंध रखना चाहता है जो उसमें भारतीयता का गौरव जगाते हैं।
भावनात्मक और नयी सोच के कारण जीवनी पर आधारित सिनेमा बॉलीवुड में एक नया अध्याय लिखना बस शुरू ही कर रहा है। अभी हम इस को कदाचित पचा न पायें परंतु संभव है, आने वाले वक्त में ऐसी फिल्में व्यावसायिकता की दौड़ में सबसे आगे हों।
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