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तमिलनाडु के मुख्य सचिव पी. राममोहन राव के घर-दफ्तर पर हाल में आयकर विभाग ने छापे मारे। दर्जनभर से ज्यादा ठिकाने खंगाले गए। क्या-क्या मिला? तीस लाख रु. के नए नोट और पांच किलो सोना… और…संकट की इस घड़ी में राव का एक दर्दमंद। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने राव पर छापेमारी की कार्रवाई को अनैतिक और बदले की कार्रवाई बताया है।
अगर अकूत-अज्ञात संपत्ति पर आयकर विभाग के छापे भी अनैतिक हैं तो नैतिक क्या है?
यदि यह बदला है तो किसका, किससे और किस बात पर लिया जा रहा बदला है?
और यदि भ्रष्टाचार के अंतर्संबंधों की व्याख्याएं झूठी हैं तो तमिलनाडु की कोई 'नस' बंगाल को कैसे बेचैन कर सकती है?
कुछ तो गड़बड़ है? यह गड़बड़ी बड़ी है और हमारे नेताओं की चुनिंदा चुप्पियों, प्रशासकीय अकर्मण्यता और दोहरे मापदंडों से पैदा हुई है।
पहले बात चुनिंदा चुप्पियों की। बंगाल में हिंदुओं को निशाना बनाने की लगातार घटनाओं के बावजूद मुख्यमंत्री के मुंह से उन्मादी कट्टरवाद के विरुद्ध न कोई टिप्पणी आई, न समस्या के निराकरण के लिए सख्त शासकीय रुख का कोई संकेत मिला। अपने राज्य में अपनी ही जनता को खून के आंसू रोने के लिए छोड़ देने वाले तमिलनाडु में भ्रष्टाचार के विरुद्ध कार्रवाई पर बौखलाते हैं तो आश्चर्य होता है! नारदा और सारदा पर बुक्कल मार कर छिप जाने वाले नोटबंदी और नकदी की धरपकड़ पर ताल ठोकने लगते हैं तो आश्चर्य होता है!
इसके बाद जिक्र प्रशासकीय अकर्मण्यता का। हाल-फिलहाल में दिल्ली के मुख्यमंत्री इसके सबसे बड़े राजनैतिक प्रतीक के तौर पर उभरे हैं। इसकी वजह और कोई नहीं बल्कि वे खुद हैं, क्योंकि उन्हें राजनेता की सचाई और प्रशासनिक दक्षता के उसी दर्पण और कसौटियों पर देखा जा रहा है जो उन्होंने खुद गढ़ी थीं। दिल्ली के लिए दिन-रात एक कर देने का दावा करने वाले जब गोवा-पंजाब के कुलांचे भरते नहीं थकते तो लोगों को आश्चर्य होता है? दिल्ली में ताबड़तोड़ 'ठेके' खुलवाने वाले जब नशामुक्त पंजाब की बात करते हैं तो लोग दांतों तले उंगली दबा लेेते हैं! उपराज्यपाल नजीब जंग के ताजा त्यागपत्र ने हालांकि उनसे शासकीय अड़चनों का एकमात्र बहाना भी छीन लिया लेकिन अकर्मण्यता के मोर्चे पर केजरीवाल स्वयं को इस तरह सिद्ध कर चुके हैं कि लोग उनसे भविष्य की भी कोई उम्मीद नहीं पालते।
दोहरे मापदंड वाले ऐसे राजनेताओं की कड़ी में अगला नाम कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी का है। भ्रष्टाचार के खिलाफ बाहें चढ़ाती उनकी मुद्रा इतनी एकपक्षीय है कि 'दागी विरोधी अध्यादेश' पर तत्कालीन प्रधानमंत्री की किरकिरी कर देने वाला नायक बिहार चुनाव में दागियों से ही गलबहियां करता मिला। ऐसे में लोग आश्चर्य क्यों न करें?
जनता इस बात को साफ-साफ देख सकती है कि राहुल गांधी जब देश के वर्तमान निष्कलंक नेतृत्व की ओर एक उंगली उठाते हैं तो उनकी बाकी उंगलियां (नेशनल हेराल्ड, अगस्ता वेस्टलैंड, वाड्रा भूमि घोटाला…) खुद उनके परिवार की ओर उठ जाती हैं।
छंटी हुई चुप्पियों, साबित किए हुए नाकारापन और भ्रष्टाचार पर दिखावटी भंगिमा के साथ ऐसे नेता निराश ही नहीं करते बल्कि जनता में धीरे-धीरे आक्रोश भी भरते हैं। जनता हमेशा आश्चर्यभाव में नहीं रह सकती। जब वह प्रतिक्रिया देती है तो उस सैलाब में सत्ता स्वार्थ के तिनके एक झटके में बह जाते हैं।
यह लोकतंत्र है। चुनाव की धारा में गोता मारकर नेता जीत का कलदार निकाल लेने का काम तो कर सकते हैं किंतु स्वार्थ की लहरों को काटते हुए जनाकांक्षाओं की नाव को पार ले जाने का काम कोई जननायक ही कर सकता है।
नेतृत्व की इसी कसौटी पर ज्यादातर नेता सिर्फ नेता ही रह जाते हैं, जननायक होने की ओर बढ़ भी नहीं पाते।
खैर, तमतमाए चेहरों को उनकी चुनी हुई चुप्पियां मुबारक।
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