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संस्कृति की स्याही, संघर्ष की कलम

by
Dec 19, 2016, 12:00 am IST
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दिंनाक: 19 Dec 2016 15:42:09

गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपनी वाणी को गुरु ग्रंथ साहिब से नहीं जोड़ा। लेकिन दसम ग्रंथ में उनकी रचनाओं को पढ़ा जा सकता है। इन रचनाओं में जहां ईश्वर के प्रति अगाध श्रद्धा परिलक्षित होती है। तो वहीं वे दुष्टों के नाश के लिए देवी से शक्ति मांगते दिखाई देते हैं

प्रशांत बाजपेई

गुरु गोबिंद सिंह ने अपने कमार्ें से जो इतिहास लिखा वह करोड़ों भारतवासियों का भवितव्य बना और हमारी संस्कृति का अटूट हिस्सा हो  गया। लेेकिन हमारा सौभाग्य है कि जिस समय वे अपने जीवन से भारत की धरती और मन पर ज्ञान, त्याग और वीरता के अध्याय लिख रहे थे, उस समय उनके मन में क्या चल रहा था, यह दसम ग्रंथ के रूप में हमें उपलब्ध है।
गुरु गोबिंद सिंह ने गुरुग्रंथ साहिब को गुरुस्थान पर प्रतिष्ठित किया। विनम्रता की प्रतिमूर्ति दसम गुरु ने अपनी वाणी को गुरुग्रंथ साहिब में नहीं जोड़ा। उनकी रचनाएं छोटी-छोटी पोथियों के रूप में थीं। जब उन्होंने देहत्याग किया, तब उनकी पत्नी माता सुंदरी की आज्ञा से भाई मणिसिंह खालसा ने उन्हें ग्रंथ के रूप में संरक्षित किया। दशम ग्रंथ में आप इन शीर्षकों के अंतर्गत उनकी रचनाएं पाते हैं-
जाप साहिब, अकाल उसतति, बचित्र नाटक, चंडी चरित्र उक्ति बिलास, चंडी चरित्र भाग दूसरा, चंडी की वार, ज्ञान परबोध, चौबीस अवतार, ब्रह्मा अवतार, रुद्र अवतार, शब्द हजारे, सवैये, शास्त्र नाम माला,अथ पख्यान चरित्र लिख्यते,जफरनामा तथा हिकायतें।
जाप साहिब के प्रारंभ में गुरु गोबिन्द वेदवाक्य 'नेति-नेति' का उद्घोष करते हुए कहते हैं-
'चक्र  चिहन अरु बरन जाति अरु पाति नहिन जिह।। रूप रंग अरु रेख भेख कोऊ कहि न सकति किह।। 'अचल मूरति अनभ' प्रकास अमितोजि कहिजै।। कोटि इंद्र इंद्राणि साहु साहाणि गणिजै।। त्रिभवण महीप सुर नर असुर नेति नेति बन त्रिण कहत।।'
भावार्थ यह कि जो किसी चिन्ह, वर्ण और जाति से परे है, कोई जिसका रूप-रंग नहीं बता सकता, जो सभी सीमाओं के परे है, करोड़ों इंद्रों और समस्त जीवों का स्वामी है, तीनांे लोकांे में राजा, सुर-असुर और साधारण मनुष्य जिसे 'नेति-नेति' कहते हैं।
आगे की पंक्तियों में वह ब्रह्म को पालु, अकाल, अरूप, अनूप, देहरहित, अजन्मा, अभाज्य, अछेद्य, अगाध, अकर्म, अवर्ण, निर्भय, अजेय, एकमात्र, अनेक रूपों वाला, नाम रहित, तत्व रहित, निधान, विधाता, अगेह, सब में विद्यमान, काल, अनंत, सूयोंर् का सूर्य, चंद्रमाओं का चंद्रमा, गीतों का गीत, नादों का नाद, परम सौन्दर्यवान, योगेश्वर, राजेश्वर, शस्त्रपाणि , परमज्ञाता, लोकमाता, इष्टों का इष्ट, मन्त्रों का मन्त्र, यंत्रों का यंत्र, सच्चिदानन्द, सिद्धि और बुद्धि के प्रदाता, परम् परमेश्वर, पालनकर्ता,अनाम, अकाम, आदि संबोधन देकर नमन करते हैं।
अकाल उसतति में परमात्मा को 'प्रणव'  का संबोधन देकर गुरुदेव लिखते हैं-
'प्रणवो आदि एकंकारा
'जल थल महीअल कीओ पसारा।।
आदि पुरख अबगति अबिनासी
'लोक चत्रु दसि जोति प्रकासी।।'
आगे वे कहते हैं –
'ब्रहमा बिसन अंतु नही पाइओ
'नेति नेति मुख चार बताइओ।।
कोटि इंद्र उपइंद्र बनाए
'ब्रहमा रुद्र उपाइ खपाए।।'
वेदांत की भावना को स्वर देते हुए वे कहते हैं कि (हे प्रभु!) कहीं तुम वेद की रीति से तो कहीं उसके विपरीत चलते हो, कहीं त्रिगुणातीत हो तो कही सगुन हो। कहीं यक्ष, गन्धर्व, शेषनाग और विद्याधर बने हो तो कही किन्नर-पिशाच और प्रेत बने हो।
'कहूं बेदि रीति कहूं ता सिउ बिपरीत कहूं त्रिगुन अतीत कहूं सरगुन समेत हो।।
कहूं जछ गंधर्ब उरग कहूं बिदिआधर कहूं भए किंनर पिसाच कहूं प्रेत हो।।'
इस तरह इस रचना में वे सारी सृष्टि में ब्रह्म का दर्शन करवाते हैं।
आनंदपुर साहिब में गुरु गोबिन्द जी ने 'बचित्र नाटक' लिखा।
आत्मा की नश्वरता और पुनर्जन्म भारत के प्राचीन आध्यात्मिक दर्शन का विशिष्ट अंग है। वेद-उपनिषद्-गीता-महाभारत-जैन और बौद्ध दर्शन तथा सिख परंपरा में इस पर प्रकाश डाला गया है। (सेमेटिक मजहब यानी ईसाइयत-इस्लाम और यहूदी इसे नहीं मानते) गुरु गोविंद सिंह अपने पूर्वजन्म का वृत्तांत 'बचित्र नाटक' में इस प्रकार बतलाते हैं-
'अब मैं अपनी कथा बखानो।
तप साधत जिह बिध मुह आनो।।
हेमकुंड परबत है जहां,
सपतसृंग सोभित है तहां।।
सपतसृंग तिह नाम कहावा।
पांडराज जह जोग कमावा। ।
तह हम अधिक तपसया साधी।
महाकाल कालका अराधी।।
इह बिध करत तपसिआ भयो।
द्वै ते एक रूप ह्वै गयो।।'
अर्थात अब मैं अपनी कथा बताता हूं। जहां हेमकुंड पर्वत (अब हेमकुंड साहिब तीर्थ) है और सात शिखर शोभित हैं, सप्तश्रृंग (जिसका) नाम है और जहां पाण्डवराज ने योग साधना की थी, वहां पर मैंने घोर तप किया। महाकाल और काली की आराधना की। इस विधि से तपस्या करते हुए दो (द्वैत) से एक रूप हो गया, ब्रह्म का साक्षात्कार हुआ। आगे वह कहते है कि ईश्वरीय प्रेरणा से उन्होंने (यह) जन्म लिया। 

अपने जीवन का उद्देश्य साधुओं का परित्राण, दुष्टों का विनाश और धर्म रक्षा बतलाते हुए वह कहते हैं-
'हम इह काज जगत मो आए।
धरम हेतु गुरुदेव पठाए।।
जहां-जहां तुम धरम बिथारो।
दुसट दोखियनि पकरि पछारो।।
याही काज धरा हम जनमं।
समझ लेहु साधू सब मनमं।
धरम चलावन संत उबारन।
दुसट सभन को मूल उपारन।।'
'चंडी दी वार' में सर्वप्रथम दुर्गा मां को नमन करने के बाद वे गुरु नानकदेव का स्मरण करते है –
प्रिथम भगौती सिमरि कै
गुरु नानक लईं धिआइ।।
फिर गुरु अंगददेव, गुरु अमरदास, गुरु रामदास, गुरु अर्जुन देव, गुरु हरगोबिंद, गुरु हर राय , गुरु हरकिशन सिंह और गुरु तेगबहादुर का स्मरण करते हैं।
फिर अंगद गुर ते अमरदासु रामदासै होईं सहाइ।अरजन हरिगोबिंद नो सिमरौ स्री हरिराइ।। स्री हरि किशन धिआईऐ जिस डिठे सभि दुखि जाइ। तेग बहादर सिमरिऐ घर न निधि आवै धाइ।।
योद्धा का मन उसके शस्त्र में बसता है। शस्त्र पूजकों की परंपरा वाले देश का एक महानायक और कैसी शुरुआत करेगा जब वह दुष्टों के नाश का संकल्प लिए हो ! गुरु गोविन्द लिखते हैं –
खंडा प्रिथमै साज कै
जिन सभ सैसारु उपाइआ
अर्थात् परमात्मा! तुमने सबसे पहले खंडा (दुधारी तलवार) धारण किया, फिर संसार का निर्माण किया।
अब वे शक्ति की प्रतीक दुर्गा के अवतरण और राम-कृष्ण द्वारा रावण और कंस के संहार का उदाहरण देते हुए शक्ति की उपासना का महत्व बताते है –
तै ही दुरगा साजि कै दैता दा नासु कराइआ। तैथों ही बलु राम लै
नाल बाणा दहसिरु घाइआ।।
तैथों ही बलु क्रिसन लै
कंसु केसी पकडि़ गिराइआ।
श्री गुरु गोबिन्द सिंह द्वारा रचित छक देवी-वाणी उग्रदंती शक्ति की साधना करने की प्रेरणा देती है। ये समय की चुनौतियों को उत्तर देने का आह्वान है। देवी दुर्गा से वे स्वयं के लिए केवल ब्रह्म की भक्ति मांगते हैं, और शेष सब कुछ राष्ट्र के लिए।
नमो उग्रदंती अनंती सवैया,
 नमो जोगेश्वरी जोग मैया।
नमो केहरि वाहिनी शत्रु-हन्ति,
नमो शारदा ब्रह्म विद्या पढ़ंती ।
नमो जोति-ज्वाला तुमै वेद गावै,
सुरासुर ऋषीश्वर नहीं भेद पावैं।  
तुही काल अकाल की जोति छाजै,
सदा जै, सदा जै, सदा जै, सदा जै विराजै।
यही दास मांगे पा सिंधु कीजै,
स्वयं ब्रह्म की भक्ति सर्वत्र दीजै।
अगम सूर बीरा उठहिं सिंह योधा,
पकड़ तुरकगण कउ करै वै निरोधा।
सकल जगत महीं खालसा पंथ गाजै,
जगै धर्म हिन्दू तुरक दुंद भाजै।  
तुही खण्ड ब्रह्मण्ड भूमे सरूपी,
तुही विष्णु, शिव, ब्रह्मा, इंद्र अनूपी ।
तुही ब्रह्मणि वेद पारण सवित्री,
तुही धर्मिणी करन कारण पवित्री।
तुही हरिपा सीऊ अगम रूप होई,
सवै पच मुए, पार पावत न कोई।
निरंजन स्वरूपा तुही आदि राणी,
 तुही योग विद्या तुही ब्रह्म वाणी।
अपुन जानकर मोहि लीजै बचाई,
असुर पापिगन मार देवउ उड़ाई।   
यही आस पूरण करहु तुम हमारी,
मिटै कष्ट गउअन छुटै खेद भारी।
फतह सतगुरु की सबन सीऊं बुलाऊ,
सबन कउ शब्द वाहि वाहे दृढ़ाऊं।
करो खालसा पंथ तीसर प्रवेशा,
जगहि  सिंह योद्धा धरहि नीलवेषा ।
यही विनती खास हमारी सुनी जै,
असुर मार कर रच्छ गऊअन करीजै।।  
अपनी रचना कृष्णावतार का प्रारंभ करते हुए वे कहते है –
अब बरणो किशना अवतारू
जैस भांत बरु धरयो मुरारू।
परम पाप ते भूम डरानी
'डगमगात बिध तीर सिधानी।।
अर्थात अब कृष्ण अवतार का वर्णन करता हूं, किस प्रकार मुरारी ने रूप धरा। पाप के बढ़ने से भूमि भयभीत हो उठी।
आगे कृष्णलीला का वर्णन करते हुए उनका दुष्ट निग्रह और सज्जन उद्धार का संकल्प इस प्रकार प्रकट होता है-'हे रवि, हे ससि, हे करुणानिधि,
मेरी अबै विनती सुन लीजै।
अउर न मांगत हों तुमसे कुछ,  
चाहत हो चित्त में सोई दीजै।
सस्त्रन सिउं अति ही रण भीतर,
जुझ मरो तओ साच पतीजे।
संत सहाइ सदा जगमाहि,
 पा करि श्याम इहैं बरु दीजै।
ऊंच-नीच, भेदभाव का खंडन करते हुए सब मनुष्यों को एक ही जाति निरूपित करते हुए वह लिखते हैं-
कोउ भयो मुंडिया सन्यासी कोउ जोगी भयो।
कोउ ब्रह्मचारी कोउ जति अनुमान बो॥
हिन्दू तुरक कोउ राफजी इमाम शाफी।
मानस की जात सबै एकै पहिचानबो ॥
एक ही की सेव सब ही की गुरुदेव एक,
एक ही सरूप सबै, एकै जोत जानबो॥
मुगल शासन के शोषण चक्र में फंसा हुआ भारत कराह रहा था। मुगल विलासिता और अट्टालिकाओं पर विपुल धन उड़ेला जा रहा था, जबकि भारतवासी गरीबी और विषमताओं के चक्र में फंसे हुए थे। हिंदुओं पर अत्याचार बढ़ते जा रहे थे। 'इस्लाम कबूल करो या मौत' का फरमान शहर-दर-शहर घूमता रहता। इसी उन्माद के चलते जहांगीर ने पांचवंे गुरु अर्जन देव जी की हत्या करवाई। तत्कालीन इस्लामी विद्वान् शेख अहमद सिरहिंदी ने इस हत्या को 'काफिर को मिली सजा' बता कर प्रसन्नता व्यक्त की। शाहजहां ने जहांगीर की नीतियों को जारी रखा। बाद में शाहजहां को कैद कर के और अपने भाइयों का छल-बल से कत्ल कर के औरंगजेब ने जब सत्ता हथियाई तो इस्लामी विस्तार का ये जुनून अपने चरम पर जा पहंुचा। औरंगजेब ने इस्लाम कुबूल न करने के अपराध में शिवाजी के पुत्र संभाजी को पंद्रह दिनों तक भीषण अमानवीय यातनाएं देकर मार डाला। इसी अपराध में गुरु तेग बहादुर को भी यातना देकर मरवाया। बड़ी संख्या में मंदिरों का विध्वंस किया गया। 

 

हिंदुओं पर जजिया कर लागू कर दिया गया। हिन्दू व्यापारियों से मुस्लिम व्यापारियों की तुलना में दोगुना कर वसूला जाता था। प्रशासन में हिंदुओं की संख्या वैसे ही बहुत कम थी। तिस पर औरंगजेब ने सभी हिन्दू कानूनगो और पटवारियों को बर्खास्त करने का आदेश जारी कर दिया। सारी मुगल सल्तनत में शरिया कानून लागू करने के लिए खुद को आलमगीर कहने वाले औरंगजेब ने फतवा-ए-आलमगीरी जारी किया। इसके अन्तर्गत सबसे ऊंचे दर्जे के मुसलमान कहे जाने वाले सैय्यदों को किसी भी अपराध के लिए जेल अथवा शारीरिक दंड नहीं दिया जा सकता था। इस्लाम छोड़ने वालों को मौत की सजा और उनकी संपत्ति राजसात करने का नियम लागू किया गया। दो या अधिक मुस्लिम किसी भी हिन्दू शासक के क्षेत्र में जा कर लूटपाट करने के लिए अधिकृत थे। लूटी हुई संपत्ति पर उन्हीं का अधिकार था। गुलामों के लिए कठोर नियम बनाये गए। किसी भी प्रकार के प्रकाशन को कुफ्र घोषित कर के लिखने वाले को मृत्यु दंड भी दिया जा सकता था। मुगल सत्ता की इस सारी हैवानियत के विरुद्ध पूर्व में लाचित बड़फुकन, दक्षिण में शिवाजी, मध्य-भारत में महाराजा छत्रसाल, पश्चिम में वीर दुर्गादास राठौर और उत्तर-पश्चिम में गुरु गोबिन्द सिंह लोहा ले रहे थे।  सन् 1705 में गुरु गोविन्द सिंह ने औरंगजेब को फारसी में एक लंबा पत्र लिखा।  शीर्षक था 'जफरनामा' जिसका शाब्दिक अर्थ होता है 'विजय पत्र'। जफरनामा में 111 पद्य हैं। इस पत्र को पढ़ने से पता चलता है कि औरंगजेब के इस्लामी उन्माद और क्रूरता के चलते अपने पिता, माता और चार पुत्रों को गंवाने के बावजूद गुरु गोबिन्द उससे व्यक्तिगत शत्रुता नहीं रखते। वह औरंगजेब को उसके कुकमोंर् के लिए धिक्कारते हैं, लेकिन सही राह भी बतलाते हैं, और उसे बातचीत का न्यौता देते हैं। गुरु गोबिन्द सिंह औरंगजेब से कहते हैं कि वो विश्वास करने योग्य नहीं है, परंतु यदि वह उनसे बात करने के लिये आता है तो उसके जीवन को कोई खतरा न होगा। वे औरंगजेब को याद दिलाते हैं कि किस प्रकार उनके नेतृत्व में खालसा वीरों ने बार-बार मुगल सेना को धूल चटाई थी और मुगल दरबार के नामचीन सिपहसालारों को परलोक पहुंचाया। शांति प्रस्ताव रखने के बाद वे चेतावनी  देते हैं कि अन्यायों का प्रतिकार करने के लिए उनकी तलवार सदैव तैयार है। गुरु गोबिन्द सिंह की रचनाएं हमें इस महामानव अंत:करण में झंाकने का अवसर देती हैं। ये हमारी आंखों के सामने भारत के उस संघर्षकाल का जीवंत खाका खींचती हैं और हमें हमारी सांस्कृतिक जड़ों के केंद्र में ले जाती हैं।  

अक्षर-अक्षर अनमोल
गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने जीवनकाल में अनेक रचनाएँ की जिनकी छोटी छोटी पोथियां बना दीं। उनके प्रयाण के बाद उन की धर्म पत्नी माता सुन्दरी की आज्ञा से भाई मणी सिंह खालसा और अन्य खालसा भाइयों ने गुरु गोबिंद सिंह जी की सारी रचनाओ को इकठा किया और एक जिल्द में चढ़ा दिया। इनमें से कुछ हैं :
जाप साहिब : जापु साहिब या जाप साहिब सिखों का प्रात: की प्रार्थना है। इसकी रचना गुरु गोबिन्द सिंह जी ने की थी। जापु साहिब, दशम ग्रन्थ की प्रथम वाणी है। इसका संग्रह भाई मणि सिंह ने 1734 के आसपास किया था।
अकाल स्तुति:  ईश्वर की सर्वव्यापकता का चित्रण करती कृति जिसमें प्रभु की तीनों भूमिकाओं (उत्पन्न करने वाला, पालन करने वाला और संहारक) का उल्लेख है।
बचित्र नाटक : बचित्र नाटक या बिचित्तर नाटक गुरु गोबिन्द सिंह द्वारा रचित दशम ग्रन्थ का एक भाग है। वास्तव में इसमें कोई 'नाटक' का वर्णन नहीं है बल्कि गुरुजी ने इसमें उस समय की परिस्थितियों तथा इतिहास की एक झलक दी है और दिखाया है कि उस समय हिन्दू समाज पर पर मंडरा रहे संकटों से मुक्ति पाने के लिये कितने अधिक साहस और शक्ति की जरूरत थी।
चंडी चरित्र: चण्डी चरित्र सिखों के दसवें गुरु गोबिन्द सिंह जी द्वारा रचित देवी चण्डिका की एक स्तुति है। गुरु गोबिन्द सिंह एक महान योद्धा एवं भक्त थे। वे देवी के शक्ति रुप के उपासक थे। यह स्तुति दशम ग्रंथ के 'उक्ति बिलास' नामक भाग का एक हिस्सा है। गुरुबाणी में हिन्दू देवी-देवताओं का अन्य जगह भी वर्णन आता है। 'चण्डी' के अतिरिक्त 'शिवा' शब्द की व्याख्या ईश्वर के रुप में भी की जाती है। 'महाकोश' नामक किताब में 'शिवा' की व्याख्या परब्रह्म की शक्ति के रुप में की गई है। देवी के रूप का व्याख्यान गुरु गोबिंद सिंह जी यूं करते हैं :
पवित्री पुनीता पुराणी परेयं ॥  प्रभी पूरणी पारब्रहमी अजेयं ॥॥
अरूपं अनूपं अनामं अठामं ॥॥  अभीतं अजीतं महां धरम धामं ॥३२॥२५१॥
चंडी दी वार:  चंडी दी वार एक वार है जो दशम ग्रंथ के पंचम अध्याय में है। इसे 'वार श्री भगवती जी' भी कहते हैं।
ज्ञान परबोध: राज धर्म, दंड धर्म, भोग धर्म और मोक्ष धर्म को चार प्रमुख कर्तव्यों के तौर पर इंगित करती विशिष्ट कृति।
चौबीस अवतार :  नारायण, मोहिनी, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, रूद्र, धनवन्तरी, कृष्ण आदि चौबीस अलग-अलग अवतारों की कथाएं।  
ब्रह्मा अवतार :  चौबीस अवतारों में जहां विष्णु के चौबीस अवतारों का वर्णन है वहीं, इस पुस्तक में ब्रह्मा के सात अवतारों का चित्रण है।
रूद्र अवतार :  दत्तात्रेय और पारसनाथ के अवतारों पर केन्द्रित कृति।
शस्त्र माला :विभिन्न शस्त्रों के नाम और प्रकार का उल्लेख
जफरनामा : जफरनामा अर्थात 'विजय पत्र' गुरु गोविंद सिंह द्वारा मुगल शासक औरंगजेब को लिखा गया था। जफरनामा, दसम ग्रंथ का एक भाग है और इसकी भाषा फारसी है। भारत के गौरवमयी इतिहास में दो पत्र विश्वविख्यात हुए। पहला पत्र छत्रपति शिवाजी द्वारा राजा जयसिंह को लिखा गया तथा दूसरा पत्र गुरु गोविन्द सिंह द्वारा शासक औरंगजेब को लिखा गया, जिसे जफरनामा अर्थात 'विजय पत्र' कहते हैं। नि:संदेह गुरु गोविंद सिंह का यह पत्र आध्यात्मिकता, कूटनीति तथा शौर्य की अद्भुत त्रिवेणी है।   

 

 

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