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समता और शौर्य का गुरुमंत्र

by
Dec 19, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 19 Dec 2016 14:13:36

गुरु गोबिंद सिंह जी सैनिक और संत दोनों थे। उन्होंने एक संत के नाते समाज में मौजूद बुराइयों को समाप्त किया और समरसता को बढ़ाया। वहीं एक सैनिक के रूप में लोगों को अत्याचार के विरुद्ध लड़ने के लिए तैयार किया। उनकी दिव्यता से पूरा देश स्वाभिमान के साथ उठ खड़ा हुआ
प्रो. बलराम तिवारी

किन्तु, कौन नर तपोनिष्ठ है यहां धनुष धरने वाला?
एक साथ यज्ञाग्नि और असि की पूजा करने वाला?

'रश्मिरथी' में रामधारी सिंह 'दिनकर' द्वारा पूछे गए इस प्रश्न का एक ही उत्तर है। गुरु परशुराम। मध्यकाल में यही प्रश्न कोई पूछता तो इसका भी एक ही उत्तर होता—गुरु गोबिंद सिंह। इस गुरु की एक और भारी विशेषता यह थी कि वे तप करने, तलवार चलाने के साथ कलम चलाना भी जानते थे। उन्होंने कलम और तलवार दोनों को साधा। इसीलिए जितनी उम्दा है उनकी विचार-व्यवस्था एवं रणभूमि-व्यवस्था, उतनी ही मर्यादित है उनकी पंथ- व्यवस्था। बिना प्रबंध कौशल के ये परस्पर विरोधी से लगने वाले कार्य संभव नहीं थे।
नवें गुरु तेगबहादुर जब पूर्वी भारत की यात्रा पर निकले तो अपनी गर्भवती पत्नी को पटना साहिब में छोड़ गए। यहीं 22 दिसंबर, 1666 (पौष सुदी की सातवीं तिथि) को माता गुजरी बाई ने एक पुत्र रत्न को जन्म दिया। उसका नाम रखा गया—गोबिंद राय। जब गोबिंद  पांचवर्ष के हुए तो माता गुजरी ने उन्हें पढ़ाना शुरू किया। गुरुमुखी की शिक्षा, मां ने ही दी। गोबिंद इसी उम्र में बच्चों के साथ खेल-खेल में बिहारी भाषाएं भी सीख रहे थे। चाचा भाई कृपाल ने उन्हें धनुर्विद्या और तलवारबाजी का प्रशिक्षण भी दिया। जब वे आनंदपुर अपने पिता के साथ गए तो पिता ने शस्त्र और शास्त्र दोनों का ज्ञान कराया। शास्त्रोक्त कर्मों की रक्षा के लिए शस्त्र का प्रयोग कैसे किया जाए और अहंकार के प्रदर्शन, कन्या हरण, भूमि अतिक्रमण के लिए शस्त्र का प्रयोग क्यों न किया जाए-उन्हें सब सिखाया।
बीज में से झांकते किसी छतनार वृक्ष की तरह उनके बचपन से उनका महापुरुषत्व बाहर झांकने लगा था। फ्रायड कहता है कि बच्चों के मस्तिष्क में उसकी प्रौढ़ता, बीज रूप में पलती रहती है। कुछ इसी तरह बालक गोबिंद 'पूत के पांव पालने में' कहावत को चरितार्थ कर रहे थे। 'खेलना' उनके लिए युद्ध करने जैसा ही था। वे बाल मित्रों की सेना बनाकर उसे दो भागों में बांट देते और एक भाग का सेनापति बनकर युद्ध जीतने की कला सीखते-सिखाते। एक बार उनके खेलने के दौरान नवाब की बग्गी उसी रास्ते आई। सैनिक सेवक सब साथ थे। कोचवान ने डपटकर कहा, 'नवाब की सवारी निकली है। खड़े हो जाओ, सलाम करो और सिर झुका लो।' गोबिंद गरजे, 'खड़े मत होओ, सलाम मत करो, सिर मत झुकाओ।' निर्भयता की इसी नींव पर उनके शौर्य के ऐतिहासिक कारनामे की अधिरचना खड़ी हुई थी।
गुरुओं के साथ चमत्कार की घटनाएं आम हैं। एक किंवदंती है कि पंडित शिवदत्त ने गोबिंद राय को गंगा किनारे, देखकर कहा कि तुम्हारे बारे में सुन रखा है कि तुम दिव्य पुरुष हो, चमत्कार दिखाते हो। क्या तुम मुझे चमत्कार दिखा सकते हो? उन्होंने कहा कि तुम आंखें बंद करो। आंख बंद करते ही पं. शिवदत्त समाधि में चले गए। ज्योतिर्मय आलोक के बीच उन्होंने अपने सामने भगवान राम को खड़ा देखा, यह भी देखा कि भगवान राम क्रमश: बालक गोबिंद राय के शरीर में लीन हो रहे हैं। आंख खोलते ही पंडित शिवदत्त को लगा कि यह बालक तो राम का साक्षात् अवतार है। वे उनके पैरों पर गिर पड़े। यह कैसा इत्तफाक है कि इसी बालक ने आगे चलकर 'रामावतार' की रचना की।
एक दिन पिता को कश्मीरी पंडितों के बीच चिंतित बैठे देख गोबिंद ने पूछा, 'चिंतित क्यों हैं?' पिता ने कहा, ''धर्मान्तरण को लेकर। कश्मीरी पंडितों को बलात् मुसलमान बनाया जा रहा है।'' गोबिंद ने पूछा, इससे बचने का क्या उपाय है? पिता ने कहा कि उपाय है किसी धर्मात्मा का बलिदान। गोबिंद ने झट से कहा कि फिर आपसे बड़ा धर्मात्मा कौन है? पिता को समझते देर नहीं लगी कि इस वाणी में सत्य और समय का समिश्रित आह्वान है।
गुरु तेगबहादुर ने शिष्यों को संगठित सैन्य शक्ति का रूप दिया था। असम से लाए पैसे कुएं खुदवाने, तालाब बनवाने, गरीबों में गायें खरीदकर मुफ्त बांटने के काम आए। इससे उन्हें जनाधार बढ़ाने में मदद मिली। औरंगजेब को लगा कि गुरु तेगबहादुर, जनता को अनुकूल बनाकर और स्वतंत्र सैनिक संगठन खड़ाकर मुगल सल्तनत को चुनौती देना चाहते हैं। फलत: उसने जबरन पैसा वसूलने एवं स्वतंत्र सैनिक संगठन खड़ा करने का आरोप लगाकर गुरु तेगबहादुर को पकड़वाया, कैद में रखा और फिर हत्या करवा दी।
गुरु तेगबहादुर के बलिदान से मुगल सल्तनत के अत्याचार के विरुद्ध विद्रोह की एक लहर-सी दौड़ गई। धर्म के अनुरक्षण के लिए लोग सिखों की ओर देखने लगे। गुरु-गद्दी का भार अब बालक गोबिंद के कंधे पर आ गया। उन्होंने अपने को सुरक्षित करने एवं व्यक्तित्व निर्माण के लिए साधना-भूमि बनाने के लिए हिमालय की पहाडि़यों को चुना। यहां बहुआयामी आत्मनिर्माण के लिए उन्होंने 20 वर्ष झोंक दिए। पहले तो उन्होंने संस्कृत, फारसी एवं हिंदी में लिखे धार्मिक एवं साहित्यिक ग्रंथ पढ़े। अपने प्रारूपित पंथ के लिए उन्हें ठोस वैचारिक भूमि यहीं से मिली।  उन्होंने साधना के जरिए अपनी आत्मा को अध्यात्म संबल यहीं बनाया। यहीं उन्होंने आखेट, घुड़सवारी, तीरंदाजी आदि का अभ्यास करते हुए अपनी शारीरिक शक्ति भी बढ़ाई और सांगठनिक सैन्य शक्ति को सुदृढ़ भी किया। कमजोर पड़ती हिंदू जाति को ऐन वक्त पर खड़ा होकर संभालना सत्ता को चिढ़ाने से कम नहीं था। वे जानते थे कि वे भी पिता की तरह औरंगजेब की आंखों की किरकिरी बन सकते हैं। यही नहीं, पड़ोसी राजा भी उनकी बढ़ती शक्ति से ईर्ष्या कर रहे थे। उनके साथ कुछ पहाड़ी राजाओं जैसे  कहिलूर और हंडूर के राजाओं का खेल घृणा और प्रेम का था। वे कभी मित्रता करते और कभी आक्रमण, पर वे गुरु गोबिंद सिंह को पार नहीं पा सके।

गुरु गोबिंद सिंह जी अद्वितीय व्यक्तित्वों  में से एक हैं, जिन्होंने मानवता को निष्ठा, विश्वास, सचाई और सहयोग के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी।
— स्वामी विवेकानंद

गुरु गोबिंद सिंह जी समानता के उपासक थे। वे इसी समानता के लिए जीवनभर संघर्ष करते रहे, इसके साथ ही निरंतर साहित्य सृजन में लगे रहते थे।
—राजेन्द्र सिंह साहिल, लेखक

 

गुरु गोबिंद सिंह के जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है-खालसा पंथ का निर्माण। देश, जाति और धर्म को सबल बनाने का संकल्प उन्हें यहां तक ले आया था। 30 मार्च, 1699 ई. को वैशाखी के दिन, आनंदपुर के केशगढ़ में एक वृहत्त सिख समागम के बीच खालसा पंथ की स्थापना हुई। सिख गुरुओं के शिष्य एवं उनके वंशज इस समागम में देश के कोने-कोने से आए थे। इससे अन्य गुरुओं की ही नहीं, स्वयं गुरु गोबिंद की भी अखिल भारतीय धार्मिक साख प्रमाणित हुई। कुछ शिष्य तो अफगानिस्तान और ईरान से भी आए थे। समागम में हाथ में नंगी तलवार लेकर गुरु जी ने उपस्थित शिष्यों से पूछा ''ऐसा कोई है जो धर्म के लिए प्राण दे सकता है?'' प्रश्न सुनते ही सभा सन्न रह गई। प्रश्न दोहराने पर भी कोई उत्तर नहीं आया। तीसरी बार उन्होंने और जोर से अपना प्रश्न रखा। इस बार लाहौर के दयाराम खत्री ने खड़ा होकर कहा कि मैं हाजिर हूं। बारी-बारी से चार और बलिदानी शिष्य मिले-जाट धर्मदास, छिम्बा मोहकमचंद, झीवर हिम्मत राय और भाई साहब चंद। इन पांचों को उन्होंने 'पंज प्यारे' की संज्ञा दी। इन्हें नवीन वस्त्र पहनाकर 'खालसा पंथ' में दीक्षित किया और फिर उन 'पंज प्यारों' से स्वयं दीक्षा ली। दीक्षा के आदान-प्रदान द्वारा उन्होंने अनुयायियों को बराबरी का संदेश दिया। 'पंच प्यारों' में से एक ही खत्री था और शेष चार, मध्यम या निम्न कही जाने वाली जातियों से थे। अभिप्राय यह कि 'खालसा पंथ' में 'जाति' की सत्ता को नकारा गया, छोटे-बड़े का भेद नहीं रहा। आनंदपुर में पंद्रह दिन के भीतर विभिन्न जातियों के 80,000 लोग जुटे और सभी नए पंथ में
दीक्षित हुए।
पंथ का यह नया जागरण करवट लेते समाज का शंखनाद था। यह समानता की जमीन पर भास्वर हुआ। गुरु गोबिंद ने कहा कि सभी शिष्य नाम के साथ 'सिंह' शब्द का प्रयोग करें। स्वयं भी वे गोबिंद राय से गोबिंद सिंह हो गए। 'सिंह' उपाधि देने के पीछे उद्देश्य था-सभी में शेर जैसा शौर्य, साहस और आत्मरक्षार्थ हिंस्रता का भाव जगाना। धर्म रक्षा के लिए खड़ा हो रहा यह पंथ अहिंसामूलक नहीं हो सकता था। उस समय मुगलों के शाही हुक्म के डर से आम हिंदू न तो पगड़ी बांधते थे, न शस्त्र धारण करते थे और न घोड़े पर चढ़ते थे।
गुरु गोबिंद सिंह ने हुक्म दिया कि केश रखो, पगड़ी बांधो, शस्त्र धारण करो और घोड़े पर चढ़ो। भीतर बैठे डर को भगाने के लिए ही उन्होंने खालसा पंथ में पंच ककार-केश, कंघा, कड़ा, कृपाण और कच्छा-धारण करना अनिवार्य बना दिया। तंबाकू निषेध को भी पंथ से जोड़ा। सिखों के लिए 'पहुल' संस्कार की व्यवस्था की गई। पहुल नए शिष्यों को 'अमृत' चखाने का संस्कार है। 'अमृत' विशेष प्रक्रिया से सिद्ध किए गए जल को कहते हैं। गुरु गोबिंद सिंह ने शिष्यों में यह विश्वास भरा कि तुम्हारा जन्म ईश्वरीय प्रयोजन की सिद्धि के लिए हुआ है। प्रयोजन है-आत्मरक्षा और स्वातंत्र्य। सिखों में प्रतिबद्धता भरने के लिए उन्होंने कहा—
वाहे गुरु का खालसा, वाहे गुरु की फतेह।
अर्थात् 'खालसा' ईश्वर का है और ईश्वर की जीत निश्चित है। जिसके हृदय में ईश्वर से निश्चल प्रेम की ज्योति है, वह पवित्र आत्मा ही खालसा है-पूरन जोत जगै घट में तब खालस ताहि, न खालस जानै।
गुरु नानकदेव से लेकर गुरु गोविन्द सिंह तक एक समतामूलक धर्म की तलाश जारी थी। वे जान गए थे कि जातिगत पहचान खोकर ही जाति-निरपेक्ष पहचान मिल सकती थी। गुरु गोबिंद सिंह ने यह नई पहचान दी 'खालसा पंथ' खड़ा कर। अब उनकी पहचान न तो खत्री की थी, न जाट की, न नाई की, न धोबी की, सिख की थी, जाति की नहीं, पंथ की थी। हिंदू धर्म की रक्षा के लिए वे खड़े हुए थे। इसके लिए पंथ निर्मित किया। यह पंथ जाति, संप्रदाय से ऊपर निर्वैरता और प्रेम के एक उन्मुक्त धरातल पर खड़ा हुआ—
हिंदू तुरक कोऊ राफजी, इमाम साफी।
मानस की जात सबै, एकै पहचानबो।।
करता करीम सोई राजक रहीम ओई
दूसरो न भेद कोई भूल भ्रम मानबो।
एक ही को सेब सबही को गुरुदेव को
एक ही सरूप सबै, एकै जोत जानबो।।
जाति-भेद मिटा देने के दो ही उपाय हैं- या तो सबकी जाति मिटा दो या सबको एक जाति में मिला लो। गुरु गोबिंद सिंह जी ने दूसरा रास्ता चुना। उन्होंने 'सिंह' उपाधि देकर सबको शस्त्रधारी बना दिया, सबको शिकार खेलने और जंग लड़ने की कला सिखा दी। अब भेद कहां रहा? यथा—
तांते इनके जाति करम,
छुड़वा भरो क्षत्री धरम।।
सिंह नाम शस्त्री जब थैहें।
पाण वीर रस की चढ़ जैहें।।
सिख पंथ में एकता का अटूट बंधन जाति भेेद को दुत्कारने से आया। डॉ. जदुनाथ सरकार अपनी पुस्तक 'मिलिट्री हिस्ट्री ऑफ इंडिया' में हिन्दू धर्म के उदात्त दार्शनिक आधार को स्वीकार करते हुए भी यह मानते हैं कि हिंदू धर्म में पूर्ण सामाजिक एकता एवं श्रद्धालुओं में समानता के व्यवहार की सीख नहीं दी गई है। इतिहास के छात्र यह जानते हैं कि मोहम्मद गोरी से पृथ्वीराज चौहान के हारने की एक वजह छुआछूत भी है। डॉ. महीप सिंह ने 'गुरु नानक से गुरु ग्रंथ साहिब तक' नामक पुस्तक में लिखा है, ''गोरी की सेना ने राजपूतों पर बहुत सुबह आक्रमण कर दिया था। राजपूत युद्ध से पहले भोजन नहीं कर सके थे। उन्हें भूखे पेट लड़ना पड़ा था। कठोर जाति- नियमों के कारण वे युद्ध-क्षेत्र में ही कुछ खा-पीकर तरोजाता नहीं हो सकते थे। पानीपत की तीसरी लड़ाई में अफगानों और मराठों के मध्य हुए युद्ध में भी मराठों की हार का एक कारण यह था कि हर मराठा सैनिक अपने घोड़े की काठी के नीचे अपनी रोटी सेंकने के लिए अपना अलग तवा रखता था।''

युद्ध-भूमि में जाति-पांति और छुआछूत का ख्याल रखने वाली कौम बहुत दिनों तक स्वतंत्र नहीं रह सकती। उसकी गुलामी उसके विभेद में छिपी रहती है। इसलिए गुरु गोबिंद सिंह जी ने 'अमृत' चखाने के क्रम में शिष्यों को धर्मनाश (वर्णाश्रम धर्म से मुक्ति), कर्मनाश (कर्मकांड से मुक्ति), भरम-नाश (अंध-विश्वास से मुक्ति), कुलनाश (कौलीन्य-बोध को मुक्ति) एवं कृतनाश (हीन कृत्यों से मुक्ति) की घुट्टी पिलाई। 'अमृत सरोवर' सबके पीने के लिए और लंगर सबके साथ बैठकर खाने के लिए खोल दिए। समानता की भूमि पर एक समरस समाज एवं समरस सैन्य संगठन बनाने पर ब्राह्मणों एवं खत्रियों ने विरोध किया किन्तु गुरु गोबिंद सिंह झुके नहीं। इसका लाभ अधिकांश सैनिक अभियानों में मिला।
गुरु गोबिंद सिंह उस लोक को सुधारने से पहले इसी लोक को सुंदर और आनंदमय बनाना चाहते थे। इसके लिए परवशता और परनिर्भरता से मुक्ति जरूरी थी। पांथिक  संप्रदाय को सैनिक संगठन में ढालने का अभियान उस बड़ी मुक्ति का ही हिस्सा था। उन्होंने भले ही धर्म पंथ के सैनिकीकरण को व्यवस्थित और व्यापक रूप देने का काम किया हो, पर इसकी शुरुआत छठे गुरु हरगोबिंद जी ने ही कर दी थी। गुरु हरगोबिंद दो तलवारें धारण करते थे-एक पीरी (धार्मिक) और दूसरी मीरी (सांसारिक)। उन्होंने सफेद वस्त्र त्यागकर राजाओं जैसा वस्त्र धारण किया। इसलिए डॉ. गोकुल चंद नारंग ने लिखा है, ''वह फसल जो कि गुरु गोबिंद सिंह के समय पककर तैयार हुई, गुरु नानक की बोई हुई थी तथा गुरु नानक के उत्तराधिकारियों ने उसे सींचा था। निस्संदेह वह तलवार जिसने खालसा के मार्ग को साफ कर उसे विजय का भागी बनाया, गुरु गोबिंद सिंह की गढ़ी हुई थी, किन्तु उस तलवार के लिए इस्पात गुरु नानक का दिया हुआ था।'' गुरु गोबिंद सिंह ने धर्म और वीरता के प्रतीक उसी तलवार से भंगाणी, गुलेर, आनंदपुर, चमकौर तथा मुक्तार आदि के  युद्ध जीते। उन्होंने अत्याचार के खिलाफ एक-एक सिख को सवा-सवा लाख से लड़ाया। सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' ने अपनी कविता 'जागो फिर एक बार' में लिखा है-
सवा-सवा लाख पर एक को चढ़ाऊंगा,
गोबिंद सिंह निज, नाम जब कहाऊंगा।
मुगल सल्तनत से टक्कर लेने में ही उन्होंने अपने चार पुत्रों-अजीत सिंह व जोरावर सिंह, जुझार सिंह और फतेह सिंह- को खो दिया। जोरावर सिंह (9 वर्ष) और फतेह सिंह (7 वर्ष) तो दीवार में जिंदा चिनवा दिए गए थे। पुत्रों की मौत पर गुरु गोबिंद सिंह ने कहा, 'मैंने अपने चार पुत्रों को इसलिए कुर्बान किया है कि मेरे सहस्रों पुत्र आनंदपूर्वक जी सकें।'
मुगलों और पहाड़ी राजाओं की संयुक्त सेना की घेराबंदी को आनंदपुर में आठ महीने तक झेलने के बाद अनाज के अभाव में गुरु गोबिंद सिंह जी को सपरिवार किला छोड़ना पड़ा। लड़ते-बचते वे दिल्ली पहुंचे। औरंगजेब की मृत्यु के बाद शांति का समय आया। वे महाराष्ट्र के नांदेड़ पहुंचे। वहां प्रवास के दौरान उन्होंने माधोदास को बंदा वैरागी नाम देकर अपना उत्तराधिकारी बनाया और अपने बचे हुए कार्य को करने के लिए पंजाब भेजा। वहीं एक दिन संध्याकाल में उनके अकेलेपन का फायदा उठाकर एक पठान ने उन पर छुरे से दो वार किए। गुरु जी ने घायल अवस्था में भी तलवार उठाकर पठान की हत्या कर दी। उनका अपना घाव गहरा था। मरहम पट्टी, दवा-दारू से वे ठीक भी होने लगे थे, लेकिन एक दिन धनुष पर तीर साधने में घाव का टांका टूट गया। फिर उन्हें बचाया नहीं जा सका। उनकी जीवन-लीला 7 अक्तूबर,  1708 को सुबह पूर्ण हुई।
 औरंगजेब की मजहबी कट्टरता ने पूरे देश में सारे समाज को युद्ध के लिए मजबूर कर दिया था। बचाव में समाज ने जो लड़ाइयां लड़ीं, वे युद्ध सत्ता के सांप्रदायिक चरित्र के खिलाफ थे। उनकी परिस्थितियां शाही सैनिकों के अत्याचार ने तैयार की थीं। तभी तो गुरु गोबिंद सिंह जैसे धर्म ध्वजवाहक को सैनिक शासक बनने के लिए विवश होना पड़ा।
मजहबी लुटेरों का दबाव न होता तो वे साधना की भूमि से उतर कर धर्म बचाने के लिए रणभूमि में क्यों जाते? स्वार्थ-सिद्धि के लिए उन्होंने कोई लड़ाई नहीं लड़ी। उन्होंने राष्ट्रीयता को उठाकर धर्म-भावना तक, सेवा को समाज निर्माण तक एवं जाति व्यवस्था के अनेकत्व को समतामूलक एकत्व तक पहुंचाकर एक समरसतामूलक समाज निर्मित किया था। उनकी ये पंक्तियां इसकी गवाही देती हैं:-
दे इरा मसीत सोई, पूजा और नमाज ओई,
मानस सब एक है, अनेक को भ्रमाउ है।
देवता, अदेव, जच्छ-गंधर्व, तुरक, हिंदू,
न्यारे-न्यारे देशन के भेस को प्रभाउ है।
एकै नैन, एकै कान, एकै  देह, एकै बान,
खाक बाद आतश औ आब को रलाउ है।
अल्लाह, अमेष सोई, पुराना औ कुरान ओई
एक ही सरूप सबै, एक ही बदाउ है।
गुरु गोबिंद सिंह जी कर्मयोगी थे। सैनिक और संत दोनों की आत्मा उनमें समाहित थी। जन-सेवा, धर्म-साधना एवं वीरोचित कर्म से राष्ट्र रक्षा करते हुए वे समाज-सुधारक एवं राष्ट्रनायक के दोनों आसन पा सके। वे एक ऐसे रंगमंच पर बैठे थे जहां वे वीरों को शूरवीर दिखाई पड़ते थे और भक्तों को समाज-सुधारक गुरु।
संत-कर्म और वीर-कर्म, भक्ति और वीरता का ऐसा मेल अन्यत्र दुर्लभ है। राष्ट्र को देने के लिए अपना सब कुछ खो देना तो केवल वे ही जानते थे। वे लड़ रहे थे पंजाब में, पर राह दिखा रहे थे देश को। उन्हें केवल एक क्षेत्र अथवा छोटे से भूगोल तक सीमित देखना और मानना-एक महान राष्ट्रनायक के राष्ट्रधर्म को अनदेखा करने जैसा है। उनकी बिहार, दिल्ली, राजस्थान, महाराष्ट्र एवं नांदेड़ की यात्राएं पंजाब के बाहर भी बहुत कुछ कहती हैं-उन्हें सुनना चाहिए।
(लेखक पटना विश्वविद्यालय में हिंदी के विभागाध्यक्ष रहे हैं)
 

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