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विमर्श/वामपंथ और फासीवाद वामवाद अब खोखलावाद

by
Dec 12, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 12 Dec 2016 15:31:29

 

मार्क्सवाद-लेनिनवाद का अब कोई नामलेवा नहीं बचा है। रूस हो या चीन,   अब न वहां मार्क्स की पूजा होती हैं, न लेनिन की। कारण साफ है। खोखली 'विचारधारा' को ढोने वाले जान गए है कि यह पतन की डगर पर ले जाएगी।   लेकिन भारत में कुछ लोग मार्क्स के नाम पर अपनी दुकान चला रहे

 शंकर शरण

जाने-माने लेखक निर्मल वर्मा ने लिखा था कि उन्होंने जब मार्क्स-लेनिन को पढ़ना शुरू किया तो मार्क्सवाद से दूर होने लगे। सारी दुनिया का अनुभव ऐसा ही है। लोग मार्क्सवादी पहले बन जाते हैं, फिर 'सामयिक' पार्टी-साहित्य पढ़ते हुए मार्क्स, लेनिन आदि को प्राय: पढ़ते ही नहीं या किसी के निर्देशन में इस तरह चुना, छंटा पढ़ते हैं कि पूर्वनिर्धारित पार्टी-लाइन को चोट न पहुंचे। लेकिन जिसने भी खुले दिमाग से मार्क्सवाद का अध्ययन तथा इतिहास, वर्तमान का अवलोकन किया, वह मार्क्सवादी नहीं रहा। क्योंकि मार्क्सवाद सिद्धांत और व्यवहार, दोनों छोरों पर असत्य साबित हुआ है। पोलैंड के प्रसिद्ध दार्शनिक कोलाकोवस्की के शब्दों में, मार्क्सवाद 'बीसवीं सदी की सबसे बड़ी फैंटेसी' रहा।
वास्तविक अनुभव से मिलान करके देखा जा सकता है कि मार्क्सवाद की कल्पनाओं में ही उसके टूटने के बीज निहित थे। मार्क्स ने  पूंजीवाद के लिए कहा था कि वह अपने ही अंतर्विरोध से नष्ट हो जाएगा, वह दरअसल मार्क्सवाद के साथ हुआ! मार्क्स ने निजी संपत्ति को ऐतिहासिक रूप से नाशवान माना था। एक समय यह अस्तित्व में आया, और अब पूंजीवाद के साथ उसके नष्ट होने का समय आ गया। यह कल्पना भ्रामक थी।
मनुष्य के सामाजिक जीवन और अपने विवेक के साथ-साथ उसकी संपत्ति भी एक स्थायी चीज है। चाहे इसकी मात्रा, गुणवत्ता और रूप कुछ भी हो। उसी तरह मनुष्य स्वभाव के बारे में भी मार्क्स का विचार दोषपूर्ण था। उन्होंने सोचा कि सत्ता द्वारा दमन और वैचारिक प्रशिक्षण, इन दो साधनों से मानव स्वभाव को बदला जा सकता है। पर अनुभव ने दिखाया कि मानव स्वभाव में कुछ प्राकृतिक विशेषताएं हैं, जो उसी तरह चिर स्थायी हैं जैसे शेष प्राणी-जगत की। सारा प्रशिक्षण और दमन एक पीढ़ी पर ही पूरी तरह प्रभावी नहीं होता, जबकि नई पीढ़ी फिर पुरानी, प्राकृतिक विशेषताओं के साथ आती है, जिसे बदलते रहने का प्रयत्न सारी सत्ता और प्रशिक्षण के बावजूद सीमित ही सफलता देता है। जैसे ही दमन-भय हटा, मानव स्वभाव अपनी स्वतंत्रता, स्वविवेक और अन्वेषण की ओर बढ़ जाता है। कम्युनिस्ट शासनों के साथ-साथ सभी इस्लामी शासनों में भी इस स्थिति के दर्शन किए जा सकते हैं। सदियों का दमन-प्रशिक्षण भी शासकों को आश्वस्त नहीं कर पाता कि उनकी प्रजा उनके निर्दिष्ट सिद्धांतों को स्वेच्छा से मानेगी। इसकी तुलना में स्व-विवेक, स्वाधीनता, अपने परिवार और अपनी संपत्ति के प्रति मनुष्य का लगाव सहज साबित हुआ है। अर्थात्, किसी मतवादी सामूहिकता को मनुष्य स्वभाव पर थोपकर स्थायी रूप से नहीं मनवाया जा सकता।    
इसीलिए, सभी कम्युनिस्ट सत्ताओं को  अंतहीन हिंसा का सहारा लेना पड़ा। आरंभ से आज तक। सत्ता संभालने से पहले लेनिन ने अपनी पुस्तक 'राज्य और क्रांति' (1917) में लिखा था कि कम्युनिस्टों की सत्ता अपने पहले दिन से ही दमनात्मकता को छोड़ना शुरू कर देगी, जो पूंजीवादी राज्यसत्ता का चरित्र है। पर हुआ ठीक उलटा! रूसी कम्युनिस्टों ने आते ही  क्रूरतम हिंसा, सामूहिक, बर्बर नरसंहार का उपयोग किया। उसके लिए पेशेवर, भयंकर अपराधियों, गंदे लोगों से अपनी राज्य-मशीनरी को भर लिया, क्योंकि वही लोग नीचतम, पाशविक हिंसा कर सकते थे। उसके बिना उनकी सत्ता टिक नहीं सकती थी। रूस में 1917-21 के बीच चला गृह युद्ध यही था। इस तरह, सारे वास्तविक, संदिग्ध, संभावित विरोधियों का संहार करके भी, अगले छह-सात दशक भी उसी तानाशाही, बेहिसाब हिंसा, सेंसरशिप और जबरदस्ती के बल पर ही वहां कम्युनिस्ट शासन चल सका। सोल्झेनित्सिन का महान ग्रंथ 'गुलाग आर्किपेलाग' (1973) उस भयावह सचाई का एक सीमित आकलन भर है।
उस हिंसा मेंे, जो कमोबेश उसी भावना और जरूरत से चीन, वियतनाम, कंबोडिया, पूर्वी यूरोप, आदि हर कहीं चली, चलती रही, न केवल दसियों करोड़ निरीह लोगों को मार दिया गया, बल्कि उस सिद्धांत का भी खात्मा हो गया जिसे मार्क्सवाद कहा गया था। वर्ग-हीन, गैर-दमनकारी राज्य, और समतावादी समाज के दावे मार्क्सवादी शासनों में चिंदी-चिंदी होकर नष्ट हो गए। जिसे समाजवादी देशों की 'नौकरशाही' कहकर सारा दोष मढ़ने की कोशिश की गई, वह एक नया शासक वर्ग था, जिसे विशेषाधिकार, अतुलनीय सुविधाएं, और ताकत दिए बिना कोई मार्क्सवादी राज्य एक दिन भी सत्ता में नहीं रह सकता था। यह समानता सिद्धांत के क्रूर मजाक के सिवा कुछ न था। जहां लोकतांत्रिक तरीके से समाजवाद लाने की कोशिशें हुईं, वे भी विफल रहीं। चिली और निकारागुआ इसके उदाहरण हैं। निकारागुआ में कम्युनिस्टों को अपनी लोकप्रियता पर भरोसा था, लेकिन चुनावों में उन्हें हार मिली। 

 

आर्थिक-तकनीकी क्षेत्र में भी समाजवादी सत्ताएं उन्हीं कारणों से अक्षम साबित हुईं। सफलता में लाभ या विफलता में उत्तरदायित्व के वैयक्तिक कारकों का लोप होने से कर्मियों, व्यवस्थापकों में दक्षता और प्रेरणा का तत्व कमजोर होता गया। पूंजीवादी देशों में सरकारी क्षेत्र के पिछड़ने के पीछे जो कारण है, वही समाजवादी देशों के सामूहिक रूप से पिछड़ने का भी था। वह तो रूस की विशाल प्राकृतिक संपदा थी, जिसके बल पर दो-तीन दशक तक रूस के साथ-साथ पूर्व यूरोप के भी समाजवादी विकास का नकली चित्र दिखाया जा सका। लेकिन 1986-89 की घटनाओं ने दर्शाया कि रूसी सहारा हटते ही पूर्व यूरोप की सत्ताएं ताश के पत्तोंं की तरह ढह गईं। वह शासन कितना कृत्रिम, विचारहीन था कि जब रूसियों ने कम्युनिस्ट शासन को भंग करना शुरू किया तो 2 करोड़ सदस्यों वाली कम्युनिस्ट पार्टी और उस के विशिष्ट-वर्ग 'नमेनक्लेतुरा' ने कोई प्रतिरोध नहीं किया। उनमें किसी आदर्श या सिद्धांत का मनोबल था ही नहीं! वह कोई 1991 में नहीं लुप्त हुआ, बल्कि वह तो 1918-19 से ही नहीं बचा था। निर्मम तानाशाही और विशेषाधिकारी शासन के लोभ-भय बल पर राज चलाया जाता रहा था। जैसे चीन में अभी भी चल रहा है।
मार्क्सवाद की सारी बुनियादी कल्पनाएं रूस, चीन या किसी भी कम्युनिस्ट सत्ताधारी देश में आरंभ में ही ध्वस्त हो चुकी थीं। बाद में भी, सारी हिंसा और तानाशाही के बावजूद मार्कर्सीय-लेनिनीय विचारों के सभी प्रयोग, उपाय निष्फल साबित होते रहे। इसके विपरीत, पूंजीवादी देशों में कोई व्यवस्थागत संकट न होना, लोगों द्वारा निजी संपत्ति या उद्योग के विरुद्ध विद्रोह न करना, और वैज्ञानिक-तकनीकी-सामाजिक रूप से उनका उन्नत, आत्मविश्वासपूर्ण होते जाना, उसी का आनुषंगिक प्रमाण था। कृषि क्षेत्र में मार्क्सवादी प्रयोगों ने और भी ज्यादा विध्वंस किया। किसानों से जमीन छीनकर सामूहिकीकरण और नौकरशाही संचालन से अभूतपूर्व अकाल पड़े। सोवियत संघ, चीन, कोरिया, उत्तरी कोरिया, कंबोडिया, इथियोपिया आदि देशों में करोड़ों-करोड़ लोग भूख से मर गए, जिनकी जानकारी बाहरी दुनिया को दशकों बाद मिली।
इस प्रकार, पूंजीवादी अंतर्विरोधों को खत्म कर सामाजिक स्वामित्व में उत्पादन को कई गुना बढ़ा लेेने की कल्पना ठीक उलटी साबित हुई। दूसरी ओर,'पूंजी की गुलामी' से मुक्त होकर 'अधिक स्वतंत्र मनुष्य' बनने के बदले मनुष्य वस्तुत: मूक जानवरों-सी अवस्था में पहुंच गया। ऐसी व्यवस्था जहां राज्यसत्ता एकमात्र रोजगारदाता थी, वहां अंध-आज्ञापालन के सिवा बचने का कोई अवसर नहीं था। स्वयं बुद्धिमान  कम्युनिस्टों ने भी शुरू में ही समझ लिया था कि घोर-गुलामी की व्यवस्था बनने जा रही है। गोर्की, ट्रॉटस्की आदि ने इसे भी व्यक्त किया था। इस प्रकार, निजी संपत्ति के नाश ने स्वतंत्रता का भी फौरन नाश कर दिया।
समाजवाद का राजनीतिक तंत्र बनाने के मामले में कठोर, सैनिक ढांचे वाला मॉडल सीमित उपयोगिता वाला साबित हुआ। बाहरी हमले आदि का मुकाबला करने में यह जरूर उपयोगी रहा, जब लोगों और चीजों को मनचाहे, फौरन जहां से तहां भेजा जा सकता था। पर जहां भौतिक बल से मुकाबला न हो, वहां यह बिल्कुल निकम्मा, नपुंसक साबित हुआ। अर्थतंत्र, शिक्षा, विचारधारा, विद्वता, दर्शन और संस्कृति के क्षेत्र इसके उदाहरण हैं। आलोचनाओं का उत्तर देना, स्वयं को सुधारना, विदेशी साहित्य, सांस्कृतिक आदान-प्रदान खुले रूप में चला सकना आदि में सभी मार्क्सवादी देश एक जैसे भीरू और नाकारा साबित हुए। अपने उद्योग, व्यापार तथा समाज के बारे में झूठे आंकड़े, विवरण और दूसरे देशों के बारे में दुष्प्रचार के सिवा उनकी साहित्यिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक क्षमता कभी कुछ न दे सकी। पूरे सोवियत युग के सात दशकों में एक भी मार्क्सवादी साहित्यिक, दार्शनिक, सामाजिक पुस्तक या विद्वान नहीं है, जिसे आज भी मूल्यवान कहा जा सके। इसके विपरीत पूंजीवादी यूरोप और अमेरिका में इसी दौर में तकनीकी ही नहीं, साहित्यिक, वैचारिक, बौद्धिक अवदानों के एक से एक स्तंभ खड़े हुए जिनकी गिनती तक कठिन है।      
यह तो देश के अंदर मार्क्सवादी सिद्धांत लागू करने का हश्र हुआ। अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में भी 'दुनिया के मजदूरो, एक हो!'  का नारा एक क्षण के लिए भी स्वीकृत नहीं हुआ। पहले विश्व-युद्ध से लेकर शीत-युद्ध तक और पूर्ण शांति काल में भी दुनिया के किसी भी देश के लोगों ने अपने देश, भाषा, धर्म, संस्कृति को 'वर्गीय एकता' बनाने, दिखाने में कभी रुचि नहीं ली। यहां तक कि स्वयं कम्युनिस्ट देशों के लोगों, पार्टियों तक ने मौका मिलते ही अपनी स्वतंत्र हस्ती दिखाने में संकोच नहीं किया। रूस या चीन के साथ कम्युनिस्ट एकता दिखाना स्वैच्छिक नहीं था, यह तो पोलैंड, फिनलैंड, चीन, यूगोस्लाविया, हंगरी, चेकोस्लोवाकिया और वियतनाम के कम्युनिस्टों ने भी प्रदर्शित किया। पश्चिमी यूरोप की कम्युनिस्ट पार्टियों ने भी यही दर्शाया। या तो वे रूस के प्रचारक एजेंट रूप में कमजोर दशा में रहे, या मजबूत होते ही रूसियों से अलगाव दिखाने लगे। बार-बार यही झलक मिली। इसलिए, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और अंतरराष्ट्र्रीय सभी क्षेत्रों में मार्क्सवादी कल्पनाओं के पूरी तरह, बार-बार, विविध देशों में, विभिन्न अवसरों पर विफल साबित होने और इसके विपरीत तरह-तरह के पूंजीवादी देशों के, स्वतंत्रतापूर्वक, बिना किसी तानाशाही, बिना प्रेस और न्यायतंत्र पर जबरदस्ती किए, मजे से चलते रहने के बावजूद आज भी जो लोग मार्क्सवाद में दिमाग खपाते रहते हैं, वैसे ही लोगों को अंधविश्वासी या 'फैनेटिक' कहा जाता है।
आज मार्क्सवाद कतई प्रासंगिक नहीं है, क्योंकि यह अपनी ही मान्यताओं पर निष्फल रहा। प्रथम, समानता की स्थापना के लिए इसे ऐसे दमनकारी तंत्र की जरूरत हुई, जो अपनी परिभाषा से ही एक अलग, अत्यधिक उच्चाधिकारी वर्ग था। यानी समानता को अत्यंत असंभव बनाता था। दूसरे, दुनिया के लोगों के बीच अंतरराष्ट्रीय वर्गीय एकता के बदले स्थानीय सांस्कृतिक, राष्ट्रीय एकता के संबंध अत्यंत सशक्त साबित हुए। इस तरह मार्क्सवाद की संपूर्ण वर्ग-संकल्पना हवाई होकर रह गई।     
यही कारण है कि मार्क्सवादी नाम से जितने भी शासन बने, सब जल्द ही जड़, कठोर, मतिहीन व्यवस्थाओं में बदल गए। उन में जब-जब, जहां-जहां सुधार के प्रयत्न भी हुए, वे भी अपेक्षित परिणाम नहीं दे पाए। पूरी व्यवस्था लड़खड़ाने लगती थी, जिसे पुन: बल-प्रयोग कर उसी तरह अनम्य बना लिया जाता था। उनमें समय-अनुरूप बदलने का लचीलापन नहीं था, क्योंकि वे सहज, मानवीय विकास से नहीं, बल्कि एक मतवादी फार्मूले पर जबरन बनाई गई थीं। अंतत: रूस में गोर्बाचोव प्रयोगों के बाद स्पष्ट दिखा कि मार्क्सवादी-समाजवाद सुधार के योग्य नहीं है। उसकी व्यवस्था एक जड़-चट्टान की तरह है जिसे सुधारने में पूरे के टूटने के आसार दिखते थे। वही हुआ। 

जो लोग मार्क्सवादी व्यवस्थाओं को 'विचारधारा का शासन' मानते हैं, वे भी गलत हैं। यह सच है कि आरंभिक दौर में मार्क्सवादी विचारधारा ने नेताओं, कार्यकर्ताओं को प्रेरित किया था। किंतु एक बार सत्ता पाने के बाद सत्ता और शक्ति का तर्क प्रबल हो जाता रहा। तब विचारधारा के बदले बल-प्रयोग और लाभ-भय-लोभ-दंड भावनाओं से सब कुछ संचालित होता रहा। फिर कथित विचारधारा सब कुछ छिपाने या जैसे-तैसे व्याख्यायित करने का परदा या औजार भर रह जाती थी। उसी कारण सत्ताधारी मार्क्सवादी पार्टियों का सदस्य बनना किसी निष्ठा के बदले विवशता, निजी उन्नति, सुविधा और विशेषाधिकारों का पासपोर्ट होता था। अत: रूसी या चीनी समाजवाद को 'विचारधारा शासित' देश कहना भूल ही है। निकिता ख्रुश्चेव के बेटे सर्गेई ख्रुश्चेव ने अपने संस्मरण में लिखा है कि अपनी किशोरावस्था में जब उसने अपने पिता, तब सोवियत संघ के सवार्ेच्च नेता, से बार-बार यह समझने की कोशिश की कि कम्युनिज्म क्या है, तो उसे समझ में आने लायक कुछ न मिला। यह लगभग 1960 की बात है।
अत: सचाई यह है कि सारी मार्क्सवादी सत्ताएं जैसे-तैसे, जरूरत के मुताबिक विविध उपाय कर, जोर-जबरदस्ती या अंध-दमन से चलती रहीं। यदि रूस, चीन या किसी भी मार्क्सवादी शासन के सभी निर्णयों को मार्क्स के विचारों, सिद्धांतों को सामने रखकर देखा जाए तो साफ दिखेगा कि हर कदम पर, बिना संकोच मार्क्सवाद को धता बताई जाती रही। किसी तरह सत्ता बनाए रखने या मजबूत करने के सिवा उनका कोई मूल उद्देश्य कभी न रहा। इन शासनों ने अपने-अपने देश के समाज, संस्कृति और मानस की कितनी बड़ी हानि की है, यह एक अलग विषय है, जिसके दुष्प्रभाव लंबे समय तक दूर होने वाले नहीं हैं। उनकी तुलना में अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, जापान आदि की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था अतुलनीय रूप से सहज व रचनात्मक बनी रही है। इन देशों को हर तरह की नई समस्याओं से निबटने, और आगे बढ़ते जाने में कभी कोई कठिनाई नहीं हुई। इन मुल्कों में तरह-तरह के विचारों, चिंतकों, नेता, उद्योगपति, संगठन आदि के माध्यम से राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय चुनौतियां, प्रतियोगिताएं बिना अंदरूनी दमन, प्रतिबंध या जोर-जबरदस्ती के पार की हैं। मार्क्सवाद की तुलना में स्वतंत्र चिंतन ने उनकी व्यवस्थाओं को अधिक लचीला, उपयोगी, परिवर्तनीय बनाया है। किसी मत विशेष को जमाने या फैलाने की जिद न पालने से उनमें उदारता, स्वतंत्रता और रचनात्मकता स्वत: विकसित होती रही। इसके विपरीत, मार्क्सवाद को वैज्ञानिक बताने और विश्व-विजयी बनाने की होड़ में सभी मार्क्सवादी देशों ने अपने ही लोगों को अकूत हानि पहुंचाकर भी कुछ हासिल नहीं किया। इस खुले इतिहास के बावजूद यहां जो लोग मार्क्सवाद में किसी समस्या का समाधान पाना चाहते हैं, उन पर दया ही की जा सकती है। वे बंद-दिमाग, खामख्याली के मारे हैं। यद्यपि उनमें ऐसे तेजदिमाग भी हैं जो सच को जानते हुए भी केवल धंधा कर रहे हैं। देश और समाज को विभाजित करने में लगी देशी-विदेशी शक्तियों के साथ परस्पर लाभ का पेशेवर कारोबार। इसी कार्य के लिए एक दिखाऊ, वैचारिक आडंबर ही अब उनका वामपंथ है। वस्तुत: मार्क्सवाद अजायबघर की शोभा बन चुका है। यह इससे भी प्रमाणित होता है कि कम्युनिस्ट नेता भी अब मूल मार्क्सीय धारणाओं का कभी प्रयोग नहीं करते। वर्ग-संघर्ष, सर्वहारा की तानाशाही, सोशलिज्म, कम्युनिज्म, मजदूर वर्ग की अंतरराष्ट्रीयता, आदि बुनियादी पदों का  इस्तेमाल किए उन्हें बरसों हो गए हैं। यह अकारण नहीं कि पहले के नामी मार्क्सवादी प्रोफेसर, बुद्धिजीवी अब अपने को 'सेक्युलर', 'लिबरल' या 'वामपंथी' कहते हैं। अपने पुराने अहंकारी विशेषण 'मार्क्सवादी' को उन्होंने स्वयं छोड़ दिया है! यह सब मार्क्सवाद का जग-जाहिर मूल्यांकन ही है।
वैचारिक मंथन के नाम पर वे केवल जुमले दुहराते हैं, उन्हें किसी ठोस कसौटी पर नहीं कसते। हाल में, यहां माकपा ने यह समीक्षा पेश की है कि भाजपा को हराने के लिए कांग्रेस के साथ रहना अनिवार्य था! यह देख कर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) के नेता कामरेड श्रीपाद अमृत डांगे परलोक में हंस रहे होंगे। पैंतीस-चालीस वर्ष पहले वे इसी का आग्रह करते थे, जिसकी 'दक्षिणपंथी संशोधनवाद' कहकर माकपा भर्त्सना करती थी। बहरहाल, भारत के मार्क्सवादी हमेशा लोगों और अपने को भी छलते रहे हैं। यदि उन्हें प्रासंगिक बनना है तो इस बुनियादी प्रश्न का बेबाक सामना करना होगा-क्या विचारधारा सचाई से ऊंची चीज है? जब तक वे इस सीधे सवाल का उत्तर नहीं खोजते, यहां के कम्युनिस्ट भटकते-भटकते खत्म हो जाएंगे, जैसे कई देशों में हो चुके। हैरत यह है कि दशकों तक रूस, चीन, वियतनाम से सीखने की आदत रखने वाले भारतीय कम्युनिस्ट अब उनसे भी सीखने से कतराते हैं! रूसी गोर्बाचोव हों या चीनी देंग, सब ने झक मारकर यही पाया कि सचाई विचारधारा से बहुत अधिक ताकतवर है। जैसा महान रूसी लेखक सोल्झेनित्सिन ने लिखा था, सचाई का एक शब्द पूरी दुनिया पर भारी पड़ता है। अंतत: रूसी-चीनी-वियतनामी-जर्मन, सारे सत्ताधारी कम्युनिस्ट अनुभव से इस निष्कर्ष पर पहुंचे, कि यदि विचारधारा निष्फल हुई, तो इसे स्वीकार करो। इसके बाद ही हर कहीं बुनियादी परिवर्तन आरंभ हुआ। फलत: कम्युनिस्ट पार्टी और विचारधारा तो जाती रही, मगर जिन्होंने सचाई को स्वीकार किया, वे नए रूप में  प्रासंगिक बने रहे। यहां भी मार्क्सवादियों को तय करना होगा कि यदि उन्हें अपने को उपयोगी बनाना है, तो सचाई का अवलंब लेना होगा। शोषित, दुर्बल, गरीब की सेवा केवल प्रत्यक्ष हो सकती है। किसी काल्पनिक भविष्य में उनके लिए स्वर्ग बनाने की कल्पना छोड़कर, आज और अभी सेवा की निष्ठा को ही अथ और इति समझना होगा। इसके लिए कोई विचारधारा नहीं चाहिए, यह साधारण सचाई सामने रख वे अब भी सम्मानजनक राजनीति कर सकते हैं। किन्तु यदि विचारधारा को पूजते रहना है, तो इस प्रयत्न में वे भी खत्म हो जाएंगे, पार्टी व विचारधारा तो जाएगी ही।
दक्षिण अफ्रीका में मोहनदास कर्मचंद गांधी का जीवन दुर्बलों, पीडि़तों की प्रत्यक्ष सेवा का उदाहरण है और इस बात का भी कि वही करके कोई समाज का नायकत्व भी पा सकता है। यहां भी स्वामी विवेकानंद, स्वामी शिवानंद, सत्यानन्द जैसे अनेक उदाहरण मिलेंगे कि बीमारों, गरीबों, सामान्य जन की सेवा करने के लिए किसी 'वैज्ञानिक' विचारधारा की जरूरत नहीं होती। मगर मार्क्सवादियों द्वारा विचारधारा की अंध-पूजा उन्हें इसके लिए विवश करती है कि वे कोई रचनात्मक काम करने के बजाए सदैव अमेरिका, कॉर्पोरेट उद्योगपतियों और भाजपा, रा. स्व. संघ को 'दानव', 'दुश्मन' आदि कहते रहें। पर सचाई यह है कि भारतीय कॉर्पोरेट उसी तरह जनता के अंग हैं, जैसे फोर्ड और बिल गेट्स अमेरिकी जनता इन सब ने अपने-अपने देशों और मानवता की सेवा भी की है, केवल मुनाफा ही नहीं कमाया।
उसी तरह, समाज को हानि पहुंचाने का काम केवल लोभी कॉर्पोरेट ही नहीं, दूसरे लोग भी करते हैं। इनमें उद्योगपति, ठेकेदार, व्यापारी ही नहीं, बल्कि लेखक, अध्यापक, पत्रकार से लेकर क्लर्क, नेता, अफसर सभी तरह के प्राणी हैं। लेकिन केवल कॉर्पोरेट को निशाना बनाना विचारधारा की बीमारी है। सचाई की कसौटी पर देखें तो देश का विभाजन, इस्लामी उग्रवाद का बचाव, बंगाल की दुर्दशा और शिक्षा का राजनीतिकरण करके मार्क्सवादियों ने देश और समाज को सबसे भारी नुकसान पहुंचाया, किसी टाटा या अंबानी ने नहीं। बल्कि इन्होंने लोगों की जरूरत की चीजें देश में बनाकर और लाखों देशवासियों को नियमित रोजगार देकर अमूल्य सेवा की है। पर कम्युनिस्टों ने क्या दिया है? उनकी अपनी ही लफ्फाजी के सिवा इसका कोई ठोस उत्तर नहीं मिलेगा। जैसे रूस या चीन में, वैसे ही यहां भी उन्होंने केवल हानि की है। फिर भी, जीवन की अनगिन ठोकरों के बावजूद वे अपनी बुनियादी गड़बड़ी को स्वीकार नहीं कर पा रहे। वे देख कर भी नहीं देखना चाहते कि युग पलट चुका है। कम्युनिस्ट विश्व-व्यवस्था के अवसान के दो दशक बाद भी माकपा, उसके सहयोगी मार्क्सवादी प्रोफेसर, बुद्धिजीवी उस महान परिघटना की कोई समीक्षा तथा निष्कर्ष निश्चित नहीं कर सके। उन्होंने कुछ नहीं सीखा। तभी वे बंदरिया के मरे बच्चे जैसे अपनी विचारधारा या उसकी भावना को चिपटाए घूम रहे हैं। 

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