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अपनी बात-अंधेरा और छायाएं

by
Dec 12, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 12 Dec 2016 12:13:31

अम्मा जब तक थीं, थीं। प्रतिद्वंद्विता, प्रहार, प्रतिशोध और प्रतिज्ञाओं को अपनी ही शैली में पूर्ण करने वाली उस महानायिका का नायकत्व कमाया हुआ था। इसे सिर्फ एमजीआर की प्रतिच्छाया कहना और 'साख को भुनाना' मानना भूल है। 'जया' जहां से शुरू होती है ,'अम्मा' उससे बहुत आगे जाती हैं

अफवाहों और अंदेशों के बाद अनिष्ट की वह आहट चेन्नै अपोलो अस्पताल से बाहर आ ही गई़.़ अक्तूबर से रह-रहकर उठती हिचकियां छह दिसंबर को उस अश्रुज्वार में बदल गईं जो दक्षिण की राजनीति की पहचान और उत्तर पट्टी के लिए अबूझ सी चीज है। जे. जयललिता की विदाई कई सवाल  छोड़ गई है—
क्या राजनीति में भावनात्मकता का ऐसा गहरा स्थान है? यदि नहीं तो मरीना सागर तट के सामने, समुद्र को चुनौती देता जनसैलाब क्या था? और यदि हां, तो उत्तर भारत में नेताओं और लोगों का संबंध इतना रूखा क्यों है? राजनीति की दुनिया विचित्र है, इस अर्थ में भी कि यहां एक प्रश्न के कई सटीक उत्तर हो सकते हैं और संभव है कि प्रश्न फिर भी अनुत्तरित रह जाए।
खैर, इतना तय है कि राजनीति और रजतपट की अनुपम नायिका के चिरनिद्रा में लीन होने के बाद तमिलनाडु की राजनीति बदल चुकी है। 'अम्मा' के गंभीर रूप से अस्वस्थ होने की बात सामने आने के बाद से ही कई लोग करवटें बदल रहे थे। कइयों  की नींद उड़ गई थी। कभी आंख के तारे और कभी किरकिरी बने लोग भी फिर उसी आभामंडल के करीब जुटने लगे थे जो एक समय उनका एकमात्र आसरा था और अब अस्त हो रहा था।
जया के लिए आंसू इन सब आंखों में भी थे किन्तु आंसू सार्वजनिक होते हैं, सपने निजी। ये सपने ही तमिलनाडु में भविष्य की राजनीति की पटकथा की स्याही हैं।
अम्मा जब तक थीं, थीं। प्रतिद्वंद्विता, प्रहार, प्रतिशोध और प्रतिज्ञाओं को अपनी ही शैली में पूर्ण करने वाली उस नायिका का नायकत्व कमाया हुआ था। इसे सिर्फ एमजीआर की प्रतिच्छाया कहना और 'साख को भुनाना' मानना भूल है। 'जया' जहां से शुरू होती है, 'अम्मा' उससे बहुत आगे तक जाती हैं। यह सिर्फ संबोधनों का अंतर नहीं बल्कि सम्मान और स्वीकार्यता के उन दुरूह सत्ता-सोपानों की दमतोड़ चढ़ाई है जो जयललिता ने अपने दम पर पार किए। यह उनकी अपनी यात्रा है। परंतु अब वे नहीं हैं। शिखर पर पहुंचाकर वे पार्टी को अकेलाछोड़ गई हैं।
पद संभालना एक बात है, नाम मिलते हैं, मुहर लग जाती है। धन-संपत्ति का भी सहजता या विवाद के बाद, बांट हो ही जाता है। मगर यह विरासत है जिसे संभालने वाला मिलना बड़ी बात है। सरकार और पार्टी, अकेली अम्मा के जाने से उत्पन्न रिक्तता का बड़ा शून्य दो जगह उभरा है, कौन (अथवा कौन-कौन) उसे भरेगा? किसकी वैसी स्वीकार्यता है?
किसी एक के लिए शायद यह असंभव हो। तब! शायद तब गुट बनें़.़ या फिर अपने हल्केपन को ढांपने और रसूख को ज्यादा दिखाने के फिक्रमंद लोग षड्यंत्रों की रस्सियां बंटने लगें। ऐसे संकेत उठने भी लगे हैं। राजाजी भवन में जब अम्मा की पार्थिव देह को श्रद्घांजलि देने वालों का तांता लगा था तब उनके दिवंगत भाई जयकुमार के पुत्र तो उपस्थित थे किन्तु बिटिया को पुलिस ने अस्पताल तक में प्रवेश से रोक दिया था।
अम्मा के अंतिम दर्शन के लिए अन्नाद्रमुक के एक राज्यसभा सदस्य को कई किलोमीटर पैदल चलकर राजाजी भवन पहुंचना पड़ा जबकि कई अन्य गाडि़यों को आगे तक जाने की अनुमति दी जा रही थी।  
क्या अम्मा के विश्वस्त कहे जाने वाले लोग नेताओं में जया की 'छाया' दिखने की उस होड़ से अविचलित हैं जो पार्टी पर मंडरा रही है?
जो भी हो, फिलहाल तमिलनाडु की दो ध्रुवीय राजनीति के लिए हलचल, असमंजस और नई पालेबंदियों का दौर है। व्यवस्था एक ध्रुवीय तो नहीं हो सकती, फिर क्या? परिस्थितियों की सान पर नई धुरी तैयार होगी। एक, दो या ज्यादा भी। जो मजबूत होगी, टिकेगी।
छायाएं अपने अस्तित्व को सिद्घ करने के लिए बेताब हैं। लेकिन एक प्रश्न है- क्या छायाओं के भी आभामंडल होते हैं?
तमिलनाडु की राजनीति में यह प्रश्न अनुत्तरित रहेगा, क्योंकि उत्तर स्पष्ट करने से पहलेे ही जया ने विदा ले ली है। 

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