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-एन.के. सिंह-
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लेकर अजीब भ्रम-द्वन्द्व रहा जीवन भर। एक तरफ मेरा मानना है कि संघ अद्भुत संगठन है। बचपन में कुछ दिन शाखा में गया, पर जिंदगी की जद्दोजहद में लगे माता-पिता ने कुछ दिन बाद मना कर दिया। निजी क्षेत्र में आजीविका सुनिश्चित करने के लिए रोजाना संघर्ष झेलने के दौर में बेटे को मात्र पढ़ाकर नौकरी के लिए तैयार करना ही उनके जैसे करोड़ों लोगों का मकसद होता है। बड़ा हुआ तो संघ को किताबों और पारस्परिक-प्रोफेशनल व्यवहार-संबंध के जरिए समझने की कोशिश की, पर संघ को जी कर नहीं। लिहाजा संघ के प्रति बेहद सम्मान बना रहा, पर नजदीक जाने में 'ब्रांडेड' होने का खतरा था, जो पत्रकारिता के पेशे के लिए मुनासिब नहीं था। कई बार संघ के सामान्य कार्यकर्ताओं (स्वयंसेवकों) की प्रतिबद्धता, निष्ठा और समर्पण देखकर अपने छोटेपन का एहसास होता रहा। लेकिन वहीं जब 'खूंटा वहीं गड़ेगा' भाव वाली उनकी राष्ट्र-भावना देखता हूं तो सोचने को मजबूर होता हूं कि इस अद्भुत संगठन की कमियां क्या हैं। मेरा आज भी मानना है कि पूरी दुनिया में व्यक्ति-निर्माण, राष्ट्र-निर्माण और विश्व-निर्माण अगर कोई एक संगठन कर सकता है तो वह संघ है। और उसका वैचारिक आधार होगा युग-पुरुष पंडित दीनदयाल उपाध्याय का 'एकात्म मानववाद'। यह मार्क्सवाद के बाद पहला दर्शन है, जो दुनिया के चिंतन को बदल सकता है और एक नए विश्व की सर्जना कर सकता है।
संघ का एक अन्य महत्वपूर्ण पक्ष है बच्चों का चरित्र-निर्माण। एक ऐसे समय में जब बाजारी ताकतें बच्चों और किशोरों के कोरे मन को बहा कर दूर ले जा रही हों, शाम को टी. वी. के तथाकथित मनोरंजन के कार्यक्रमों में डांस दिखा कर उन्हें सुला रही हों और क्रिकेट का 'छक्का' दिखाकर जगा रही हों, ऐसे बच्चों के लिए ऐकिक नियम के सवाल लगाना, न्यूटन के तीन नियम जानना या पानीपत की लड़ाई का सन् याद रखना संभव नहीं है। अभिभावक अगर कहता भी है बेटे, शाम को पढ़ा करो , पढ़ने से तरक्की होती है तो बेटा इसे मूर्खतापूर्ण बात कह कर खारिज कर देता है, यह सोचते हुए कि 'डांस इंडिया डांस' देखो, कमर हिलाने से रातोंरात चहेते बन जाते हैं बच्चे। संघ का स्वयंसेवक जब पांच बजे सवेरे उस बच्चे को जगाकर शारीरिक सौष्ठव के लिए अच्छे खेल करवाता है, विचार-विमर्श में शामिल करता है तो उस बच्चे में अच्छे नागरिक की आधारशिला पड़ जाती है। आज के दौर में अगर मेरे पास बेटा होता तो मैं उसे शाखा जरूर भेजता स्वस्थ व्यक्तित्व विकसित करने के लिए। लेकिन शायद अति-वैचारिक प्रतिबद्धता-निष्ठ संगठनों की यह समस्या होती है कि चिंतन के स्तर पर उनकी गत्यात्मकता बुनियाद से हट कर सोचने की नहीं होती। शनै:- शनै: यह जिद की हद तक पहुंच जाती है। और तब ये स्वयंसेवक हमारे जैसे लोगों को 'शंका' की दृष्टि से देखने लगते हैं। इन सबके बावजूद संघ संपर्क खत्म नहीं करता और हमको लेख लिखने की दावत देता है, हमें अपने कार्यक्रमों में विशिष्ट जगह देता है और हमारी आलोचनाएं भी उसी तत्परता से सुनता है। हालांकि कुछ स्वयंसेवक उग्र भाव का गाहे-बगाहे मुजाहिरा करते हैं पर वरिष्ठ लोग उन्हें प्रभावी ढंग से नियंत्रित करते हैं।
तो मेरा एतराज किन बातों पर है? और फिर अगर मैं गलत हूं तो संघ मुझे बताता क्यों नहीं है और अन्यथा अपना परिमार्जन क्यों नहीं करता? यह 'खूंटा वहीं गड़ेगा' का भाव क्यों? मुझे मालूम है कि समाज की समझ, ज्ञान की विधा और पूर्णता की हद तक सार्थक होने की जिद संघ में अप्रतिम रूप से है। मेरी समझ या मेरा ज्ञान शायद संघ के एक मध्यम स्तर के अधिकारी के बराबर भी नहीं है। पर क्या मैं गलत कहता हूं कि 91 साल पुराने संघ को अपने इस शाश्वत (?) 'अस वर्सेज देम' (वो बनाम हम) के भाव को बदलना होगा। मैं तो इसका कारण भी बताता हूं पर संघ उसे 'छी मानुष' के तिरस्कार भाव से खारिज कर देता है।
डॉ. आंबेडकर ने अपनी पुस्तक 'पाकिस्तान या भारत का विभाजन' में लिखा है, ''इस्लाम सामाजिक स्व-शासन पद्धति है लिहाजा इसका स्थानीय स्व-शासन के साथ तादात्म्य नहीं हो सकता, क्योंकि उसकी निष्ठा जिस देश में पैदा हुआ है, उसमें नहीं होती। मुसलमान के लिए जहां इस्लाम का शासन है, वही उसका देश है। दूसरे शब्दों में इस्लाम एक सच्चे मुसलमान को भारत को अपनी मातृभूमि मानने और हिन्दुओं को अपना परिजन मानने की इजाजत नहीं देता।''
लिहाजा संघ के राष्ट्रवाद की अवधारणा में कट्टरवादी मुसलमान 'फिट' नहीं बैठते, फिर रास्ता क्या है? वही 'अस वर्सेज देम' या कुछ और? यहां हम दो उदाहरण देंगे। आइन्स्टीन ने कहा था, ''जीवन की महत्वपूर्ण समस्याओं का समाधान हम तब तक नहीं ढूंढ़ सकते जब तक सोच का वह स्तर नहीं बदलते जिस स्तर की सोच के कारण वे समस्याएं पैदा हुई थीं।'' लिहाजा 'अस वर्सेज देम' की जगह हमें सर्वसमावेश की उत्कट और उदात्त भावना से इस समस्या का समाधान तलाशना होगा। दौर बदल रहा है, मजहबी कट्टरवाद को इंटरनेट के इस दौर में जमींदोज किया जा सकता है और उदार हिन्दू जीवन पद्धति इसमें सक्षम है भी। बस करना है तो सोच में एक आधारभूत परिवर्तन— उदार हिन्दू जीवन पद्धति और आधुनिक इंटरनेट के दौर में मजहबी कट्टरता को अच्छे जीवन के लिए घातक बताना, और यह बैर से नहीं, आत्मसात करने के स्वस्थ भाव से ही हो सकता है।
यहीं पर दीनदयाल जी के 23 अप्रैल, 1965 को जनसंघ के कार्यकर्ताओं को दिए गए अपने उद्बोधन (एकात्मदर्शन के चार बीज भाषण में से दूसरा) की याद आती है, जिसमें उस युगद्रष्टा ने कहा था, ''विविधता में एकता अथवा एकता की विविध रूपों में अभिव्यक्ति ही भारतीय संस्कृति का केन्द्रस्थ विचार है। यदि इस तथ्य को हमने हृदयंगम कर लिया तो विभिन्न सत्ताओं के बीच संघर्ष नहीं रहेगा। यदि संघर्ष है तो वह प्रकृति का या संस्कृति का द्योतक नहीं, विकृति का द्योतक है। … देखने को तो जीवन में भाई -भाई में प्रेम और वैर दोनों ही मिलते हैं, किन्तु हम प्रेम को अच्छा मानते हैं। बंधु-भाव का विस्तार हमारा लक्ष्य रहता है। वैर को मानव व्यवहार का आधार बना कर यदि इतिहास का विश्लेषण किया जाए और फिर उसमें एक आदर्श जीवन का स्वप्न देखा जाए, यह आश्चर्य की ही बात होगी।''
मैंने दुनिया की तमाम संस्थाओं और संगठनों के उत्थान-पतन का थोड़ा-बहुत अध्ययन किया है। संघ जैसी क्षमता और उद्देश्य की पवित्रता शायद किसी में नहीं रही, न रहेगी। ऐसे में समझ में नहीं आता कि भारत में व्याप्त भ्रष्टाचार का कोढ़ क्यों अन्ना हजारे का मुद्दा हो जाता है और आजादी के 70 साल बाद भी संघ का नहीं? क्यों हिन्दू व्यवस्था की कुरीतियां, जिसमें दलित दमन भी है, संघ का ध्यान आकृष्ट नहीं कर पातीं? नतीजतन कोई ईसाई मिशनरी इन्हें लालच देकर अपनी ओर कर लेता है या कोई मौलाना इन्हें बहका देता है। क्या हमें सबसे पहले अपना घर ठीक करना समीचीन नहीं होगा? धन्यवाद है संघ का। सुदूर क्षेत्रों में जान हथेली पर लेकर वनवासी कल्याण आश्रम जैसे प्रकल्प चलाए जा रहे हैं। लेकिन हिन्दू व्यवस्था की कुरीतियां बहुत पहले तिरोहित हो गई होतीं अगर यह संघ की मूल चिंतन का हिस्सा बनतीं।
बहरहाल, संघ के नजदीक जाने पर हमेशा कुछ सीखने का अवसर मिला है। संघ मुझे परिवर्तित कर सके, यह मेरी साध रहेगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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