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बात 1992 की गर्मियों की है, जब मैं 9 वर्ष की थी और अपने पैतृक गांव में छुट्टियां बिता रही थी। अक्सर शाम के समय मेरे पिता मुझे निकटवर्ती अयोध्या शहर ले जाते। ऐसे ही एक रोज मेरी भेंट एक वृद्ध पुरुष से हुई जिनका नाम परशुराम था। वह सरयु नदी के किनारे चौकी पर बैठे थे- सफेद दाढ़ी, सफेद धोती, शरीर पर एक सूती कपड़ा लपेटे उनकी मुखमुद्रा बहुत सौम्य थी।
उनसे हुई बातचाीत मुझे ठीक से याद नहीं लेकिन उसे याद करने की मैं लगातार कोशिश करती रही हूं। नदी के उस पार लाडस्पीकर पर कारसेवा का संदेश निरंतर गूंज रहा था। मैंने उनसे उसका मतलब पूछा। उनका जवाब मेरे लिए अस्पष्ट सा था।
सात माह बाद उन्हीं लोगों ने ढांचा गिरा दिया था। वह ढांचा जहां अयोध्या के इष्ट रामलला का निवास था और इसके साथ भारतीय इतिहास की धारा में एक व्यापक मोड़ आया था। इसके एक माह बाद ही परशुराम जी का स्वर्गवास हो गया। वह पहले संघ के स्वंयसेवक थे जिनसे मेरी मुलाकात हुई थी यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वंयसेवक जिसकी संबद्ध संस्थाएं विश्व हिंदू परिषद एवं भाजपा राम मंदिर अभियान का नेतृत्व कर रही थीं।
1992 की उन सर्दियों में ढांचा ढहाए जाने के अलावा कई अन्य घटनाएं भी हुई थीं। मंदिरों वाले जिस छोटे से कस्बे में मैं पली-बढ़ी थी, वहां बौद्धिकों के कई विरोधी धड़े बन गए थे। गुलाबी सर्दियों, साधुओं, संन्यासियों, किस्से-कहानियों और बेसन के लड्डुओं वाला अयोध्या भारतवर्ष के संबंध में विरोधी विचारों का अखाड़ा बन गया था।
2014 के चुनावों के दौरान, जब विभाजन की राजनीतिक पहले से कहीं ज्यादा जोर पकड़ चुकी थी, उस दौरान मैं अक्सर उस प्रसन्नचित हुए वृद्ध व्यक्ति को याद करती, अपने पैतृक शहर अयोध्या और उस गुजरे जमाने को याद करती जब किसी व्यक्ति का अस्तित्व और उसकी सोच किसी वैचारिक धड़े या राजनीतिक खांचों में नहीं बंटी थी।
अपने अस्तित्व के भीतर इन्हीं कुछ विचारों के साथ मैं अपने आरामदेह वाम विचारों से बाहर आई और संघ के केंद्र नागपुर पहुंची। हिंदू, एक उदारवादी और एक राष्ट्रवादी के चल रहे द्वंद्व से उपजे कष्ट के कारण मैं वाम विभाजक रेखा को पार करना चाहती थी। इससे पहले कि मैं उस रेखा को पार करने में असमर्थ हो जाती, उन लाखों महिलाओं और पुरुषों से मिलना चाहती थी जो किसी न किसी रूप से संघ से जुड़े हुए थे। इसके पीछे विचार केवल उस प्रतिबद्ध नेतृत्व और सांस्कृतिक पहचान, धर्म एवं राष्ट्रीयता भाव के उस रूप को समझने का था जिसे मैं अभी तक नहीं जान पाई थी। इसके अलावा, उन संदर्भों को भी समझना था जिनके आधार पर संगठन व्यापक सामाजिक कार्य करता है। पिछले आम चुनावों के दौरान शुरू हुई यह यात्रा उसके चकित कर देने वाले नतीजों के दो वर्ष बाद तक जारी रही। इस यात्रा के दौरान मैंने संघ स्वयंसेवकों,स्थानीय कार्यकर्ताओं और बौद्धिक धड़े को सुना और उनके साथ विमर्श किया। नए व पुराने, यह सभी कार्यकर्ता, देशभर में फैले थे और विभिन्न पृष्ठभूमियों से संबद्ध थे। मुझे संघ के बारे में उसके कार्यकर्ताओं द्वारा लिखित वह सामग्री भी पढ़ने को मिली, जिस तक पहुंच असंभव ही रहती है। स्थायी निष्कर्ष यही था कि देश के मुख्यधारा का मीडिया आज तक संघ के बारे में किसी न किसी रूप में गलतफहमियां ही पाले हुए हैं।
इसका अर्थ यह भी नहीं कि अपने सामने आए या सुने गए प्रत्येक विचार के साथ मैं एकमत रही, लेकिन उसको समझने में मुझे कभी कोई झिझक महसूस नहीं हुई। और यह भी सत्य है कि संघ के लक्ष्यों और मूल्यों से जुड़े विरोधाभासों, परशुराम जी के शाश्वत, वर्तमान एवं असाधारण समय के धर्म को समझने में बिताया गया समय मेरे लिए खासा मूल्यवान रहा। कुछ इसी तरह के पूर्वाग्रह संघ के भीतर मुख्यधारा 'वाम-उदारवादी' धड़े के बारे में विद्यमान हैं। परंतु बने-बनाए पुराने धड़े धराशायी भी हो रहे हैं और विमर्श व परिचर्चा की नई जमीन तैयार हो रही है। अपनी लेखनी के माध्यम से मैं कुछ पाठकों को इस नई जमीन पर आमंत्रित करना चाहती हूं। मैं चाहूंगी कि अपनी वैचारिक भिन्नताओं के बावजूद वह विचार-विनिमय की नई शुरुआत करें।
संघ द्वारा खुले दिल से अपनाए जाने के कारण ही मैं अपने इस कार्य को अंजाम दे सकी। अपनी यात्रा के दौरान मेरी मुलाकात ऐसी स्त्रियों व पुरुषों से हुई जिनके अंदर मैंने परशुराम जी की झलक देखी। सोशल मीडिया पर दिखने वाली वैमनस्यपूर्ण असहिष्णुता वहां सिरे से नदारद थी। समाज, इतिहास, नीति एवं राष्ट्र की वैकल्पिक प्रक्रिया को समझने के इस प्रयास में बनावटी ढांचे ढह गए और आपसी लेन-देन के अनेक नए मार्ग प्रशस्त होने की उम्मीद बंधी है।
अपने बचपन के अयोध्या को मैं वापस नहीं ला सकती, लेकिन उन मूल विचारों को खोजने का प्रयास जरूर कर सकती हूं जिनसे मेरी सोच-समझ निर्मित हुई थी। ताकि राष्ट्रीय गरिमा और न्याय से जुड़े विरोधी विचारों के बीच संवाद स्थापित हो सके। विभिन्न विभाजक रेखाओं से संबंधित पूर्वाग्रहों, विशेषाधिकारों और निश्चितताओं पर सवाल उठाए जा सकें, जिससे गहरी तार्किक सहभागिता अस्तित्व में आए। इसके बाद ही मैं समझूंगी कि मेरी यात्रा पूर्ण हुई। यूं भी इस दुनिया में यात्रा को सफलतापूर्वक पूरा करने से बड़ा सुख और कोई नहीं होता।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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