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नेहरू और शेख की साजिश को जनांदोलन ने किया था बेनकाब
डॉ. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
प्रजा परिषद ने 1949 से 1952 तक जम्मू-कश्मीर में 'एक देश में दो निशान, दो विधान, दो प्रधान-नहीं चलेंगे, नहीं चलेंगे।' के नारों के साथ आंदोलन चलाया। इस आंदोलन को संघ और जनसंघ ने समर्थन देकर और तेज किया था। यह आंदोलन सफल तो रहा, पर डॉ. मुखर्जी का बलिदान हुआ
जम्मू-कश्मीर के इतिहास में तीन आंदोलनों की बहुत चर्चा होती है। कश्मीर घाटी में मुस्लिम कान्फ्रेंस द्वारा 1931 में छेड़ा गया आंदोलन, जिसमें विदेशी अफगान राज्य के महाराजा रणजीत सिंह द्वारा पराजित हो जाने के बाद पहली बार हिन्दुओं की हत्या की गई। रणजीत सिंह ने 1818 में कश्मीर को अफगानों के विदेशी राज्य से मुक्त करवाया था। इसके 113 साल बाद एक बार फिर कश्मीर में हिन्दू निशाने पर आए थे । इसका मुख्य कारण एक पठान अब्दुल कादिर का हजरतबल से मुसलमानों को किया गया वह आह्वान था कि हिन्दू महाराजा के शासन को उखाड़ फेंको। लेकिन इस बार इस पठान के पीछे अफगानिस्तान नहीं, बल्कि ब्रिटिश शक्ति थी। कादिर का साथ देने वाले पठान या गुज्जर नहीं थे, बल्कि शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में चलने वाले कुछ कश्मीरी भाषी सुन्नी मुसलमान थे, जिनके पुरखे कुछ अरसा पहले अपना परंपरागत मजहब व विरासत छोड़ कर इस्लाम की शरण में चले गए थे । इस आन्दोलन में पुलिस की गोली से लोग मारे गए थे जिनकी कब्रों पर आज भी 13 जुलाई को कुछ लोग सजदा करते हैं। 1950 के बाद से तो राज्य सरकार ने बाकायदा इस दिन को सरकारी अवकाश घोषित कर दिया है। लेकिन इस आंदोलन से अफगानी गुलामी की समाप्ति के बाद पहली बार कश्मीर घाटी में एक बार फिर विदेशी षड्यंत्रकारियों की सुगबुगाहट सुनाई देने लगी थी।
कश्मीर घाटी में ही दूसरा आंदोलन 1946 में शेख अब्दुल्ला की नेशनल कांफ्रेंस ने शुरू किया था। इस आंदोलन की मुख्य और एक मात्र मांग 1846 की संधि को निरस्त करवाना था। इस आंदोलन की रणनीति बहुत गहरी और संपूर्ण भारत के लिए घातक थी। यदि यह आंदोलन सफल हो जाता तो आज पूरा जम्मू-कश्मीर पाकिस्तान का हिस्सा हो जाता। 1846 की अमृतसर संधि निरस्त हो जाने का अर्थ था जम्मू-कश्मीर रियासत, रियासत न रहकर ब्रिटिश इंडिया का हिस्सा हो जाती, क्योंकि इसी संधि के कारण यह क्षेत्र ब्रिटिश इंडिया का हिस्सा न होकर इंडियन स्टेट्स का हिस्सा बना था। लंदन सरकार अपने कब्जे वाले ब्रिटिश इंडिया को तो विभाजित कर सकती थी लेकिन इंडियन स्टेट्स को विभाजित करने का उसे कोई अधिकार नहीं था। यदि रियासत ब्रिटिश इंडिया का हिस्सा हो जाती तो जून, 1846 में लंदन सरकार इसे मुस्लिम बहुमत वाला क्षेत्र होने के आधार पर आसानी से पाकिस्तान का हिस्सा बना सकती थी। इस आंदोलन के पीछे कहीं न कहीं ब्रिटिश साम्राज्यवादी दिमाग काम कर रहा था। सबसे ताज्जुब की बात तो यह कि शेख अब्दुल्ला की नेशनल कांफ्रेंस के इस राष्ट्रघाती आंदोलन के पक्ष में नेहरु जी भी कूद पड़े। 1931 में जिस मुस्लिम कांफ्रेंस ने आंदोलन चलाया था, 1946 तक आते-आते वही मुस्लिम कांफ्रेंस, नेशनल कांफ्रेंस का चोला धारण कर चुकी थी। इस चोला परिवर्तन से कश्मीर घाटी के हिन्दू कम्युनिस्टों को इसमें शामिल होने में तार्किक सुविधा प्राप्त हो गई जो शुरू से ही द्विराष्ट्र सिद्धांत का समर्थन कर रहे थे और वर्ग संघर्ष की अवधारणा में मुसलमानों को सर्वहारा वर्ग में स्वीकार करते थे। इसका श्रेय उस समय के शासक महाराजा हरि सिंह को ही जाएगा कि वे अकेले इस भारत विरोधी आंदोलन से जूझते रहे और उन्होंने ब्रिटिश सरकार के दबाव और नेहरू के उस समय के रुतबे की चिंता न करते हुए शेख अब्दुल्ला पर न्यायालय में मुकदमा चलाया और उन्हें सजा दिलाई। यह अलग बात है कि अंग्रेजों के चले जाने और नेहरू के प्रधानमंत्री बन जाने के बाद उन्हें इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी। जम्मू-कश्मीर आज जिन समस्याओं का सामना कर रहा है, वे सभी मोटे तौर पर इन दोनों आंदोलनों में से उपजी है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने रियासतों में लोगों की राय जान लेने के सिद्धांत को स्वीकार किया था, जिसका अर्थ था कि अंग्रेजों के ब्रिटिश इंडिया से चले जाने के बाद रियासतों के लोगों से राय ली जाएगी कि वे लोकशाही चाहते हैं या राजशाही। अनेक रियासतों में राजशाही के खिलाफ आंदोलन छिड़े हुए थे। लेकिन कश्मीर घाटी में अमृतसर संधि को निरस्त करने के लिए चलाए जा रहे आंदोलन में बेवजह नेहरू के कूद पड़ने के कारण लॉर्ड माउंटबेटन ने बहुत ही होशियारी से, जम्मू-कश्मीर रियासत के मामले में इसकी नई व्याख्या कर दी। उसके अनुसार इस बात पर लोगों की राय ली जाएगी कि रियासत भारत में शामिल होना चाहती है या पाकिस्तान में? नेहरू ने उसकी इस नई व्याख्या को स्वीकार ही नहीं किया, बल्कि संयुक्त राष्ट्र संघ में भी बेसुरी राग अलापना शुरू कर दिया कि इसी प्रश्न पर जम्मू-कश्मीर में रहने वाले लोगों की राय ली जाएगी। उनकी हिम्मत यहां तक बढ़ी कि भारतीय संसद में भी उन्होंने कहा कि यदि लोगों की राय विपरीत होगी तो रियासत पाकिस्तान में जा सकती है।
भारत का पहला विभाजन ब्रिटिश सरकार ने किया था और अब दूसरा विभाजन नेहरू और शेख अब्दुल्ला मिलकर करने के रास्ते पर चल पड़े थे। माऊंटबेटन ने मजबूती से अपने आपको चालाक बंदर की भूमिका में स्थापित कर लिया था। 1931 और 1941 के इन दोनों आंदोलनों और लोगों की राय की इस नई व्याख्या ने पूरी रियासत में भय, अनिश्चय और संभ्रम की स्थिति पैदा कर दी। पाकिस्तान ने रियासत पर आक्रमण कर ही दिया था। नेहरू और माउंटबेटन की रुचि रियासत में से आक्रमणकारी को बाहर निकालने की इतनी नहीं थी जितनी इस बहस को हवा देने में थी कि रियासत पाकिस्तान में जाएगी या हिन्दुस्थान में इसका फैसला होना अभी बाकी है। समय पाकर शेख मोहम्मद अब्दुल्ला ने भी राग अलापना शुरू कर दिया कि रक्षा, संचार और विदेश संबंध को छोड़कर बाकी सभी मामलों में रियासत अपना अलग संविधान बनाएगी। संघीय संविधान से उसे कुछ लेना-देना नहीं होगा। रियासत का ध्वज भी अलग होगा जिसे वे उन दिनों राष्ट्रीय ध्वज कहते थे। रियासत में मुख्यमंत्री नहीं बल्कि प्रधानमंत्री होगा। शेख अब्दुल्ला ने पहले तो नेहरू के दिमाग में यह बात डाली कि रियासत के मुसलमान उसके कहने पर पाकिस्तान को छोड़कर हिन्दुस्थान में शामिल हुए हैं। जिस समय नेहरू ने भी शेख की इस अफवाह पर यकीन करना शुरू कर दिया तो उसने इसकी कीमत मांगनी शुरू कर दी। नेहरू कीमत पर कीमत देते रहे।नेहरू- शेख की गलत नीतियों के चलते गिलगित, बाल्टिस्तान, जम्मू संभाग के कुछ हिस्से, पंजाबी भाषी मुजफ्फराबाद पाकिस्तान के कब्जे में चला गया था। इसको पाकिस्तान से छुड़ाने के स्थान पर नेहरू ने सुरक्षा परिषद में रोना-धोना शुरू कर दिया। गोपालस्वामी आयंगर बार-बार कहने लगे संयुक्त राष्ट्र संघ की निगरानी में हम लोगों से पूछ लेंगे कि वे दोनों देशों में से किस देश के साथ जाना चाहते हैं?
स्वाभाविक ही जम्मू-लद्दाख में, कश्मीर घाटी के हिन्दू सिखों में, गुज्जरों में, शिया समाज में चिंता पैदा हो गई कि कहीं यह जोड़ी उन्हें भी पाकिस्तान में न धकेल दे। जम्मू में मुहावरा चल पड़ा- 'आप तो डूबे बाहमणा, जजमान भी डूबे।' ध्यान रहे नेहरू और शेख अब्दुल्ला दोनों कश्मीरी पंडित थे। नेहरू के पुरखे अरसा पहले कश्मीर छोड़ आए थे और शेख अब्दुल्ला के पुरखे अरसा पहले मुसलमान हो गए थे। नेहरू-शेख की इस जोड़ी की इन हरकतों का जवाब कैसे दिया जाए? नेहरू-शेख के पास कश्मीर घाटी में अपना संगठन था, नेशनल कांफ्रेंस। लेकिन जम्मू-लद्दाख के पास ऐसा कोई संगठन नहीं था। गुज्जरों का कोई संगठन नहीं था।
इस पृष्ठभूमि में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर इस दूसरे भारत विभाजन को बचाने का उत्तरदायित्व आ गया था। जम्मू-कश्मीर में संघ का कार्य काफी अरसा पहले से शुरू हो चुका था। कश्मीर घाटी में प्रो. बलराज मधोक ने घाटी में संघ का विस्तार किया था जो श्रीनगर के डी. ए. वी. कॉलेज में इतिहास पढ़ाते थे। पं. प्रेमनाथ डोगरा प्रांत संघचालक थे और उन्होंने जम्मू में संघ को स्थापित करने में प्रमुख भूमिका निभाई थी। जगदीश अबरोल, केदारनाथ साहनी वहां संघ के प्रचारक थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इस मसले पर रियासत के लोगों को एकजुट कर इस राष्ट्र विरोधी और जम्मू-कश्मीर के लिए आत्मघाती रास्ते का विरोध करने का निर्णय किया। लेकिन यह कार्य किसी एक दल, या विचारधारा के लोगों का तो था नहीं। यह तो संपूर्ण रियासत के भविष्य से जुड़ा हुआ सवाल था, इसलिए रियासत के तमाम लोगों को साथ लेकर चलना और उनका प्रतिनिधि संगठन तैयार करना जरूरी था, जो नेहरू, शेख अब्दुल्ला और इस पूरे प्रकरण में चालाक बंदर की भूमिका में रहकर कार्य कर चुके माउंटबेटन की सम्मिलित शक्ति को टक्कर दे सके। इस संकट काल में संघ ने प्रदेश की जनता को साथ लेकर प्रजा परिषद के नाम से नया संगठन खड़ा कर दिया। जम्मू-कश्मीर के लोगों के उसी सामूहिक संकल्प में से प्रजा परिषद का जन्म हुआ, जिसने 1949 से लेकर 1952 तक रियासत में लाजवाब ऐतिहासिक आंदोलन चलाया, जिसमें जम्मू के 15 लोगों ने अपने प्राणों की आहुति देकर इस पूरे षड्यंत्र को परास्त किया। प्रजा परिषद की मांग पूरे प्रदेश में बच्चे की जुबान पर नारा बन कर गूंजने लगी। 'एक देश में दो निशान, दो विधान, दो प्रधान-नहीं चलेंगे, नहीं चलेंगे।' शेख अब्दुल्ला ने इस राष्ट्रीय आंदोलन के कर्णधारों पं. प्रेमनाथ डोगरा को सत्ता का लालच देकर खरीदने की कोशिश की। शेख का प्रस्ताव था जम्मू की सत्ता प्रेमनाथ डोगरा संभाल लें और कश्मीर में उनकी सत्ता में दखलंदाजी न करें। डोगरा ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया। उनका उत्तर था, 'मैं राष्ट्र की अखंडता व अस्मिता की लड़ाई लड़ रहा हूं। सत्ता की लड़ाई नहीं लड़ रहा।' शेख अब्दुल्ला ने नेहरू की शह पर प्रेमनाथ डोगरा को बलात्कार से लेकर हत्या तक के मामले दर्ज कर जेल में डाल दिया। लेकिन जनता की सम्मिलित ताकत के आगे झुक कर सरकार को अन्तत: उन्हें छोड़ना पड़ा। उन दिनों जम्मू-कश्मीर में सामान लेकर जाने पर सीमा पर कंस्टम ड्यूटी लगती थी। रियासत में प्रवेश करने के लिए पासपोर्ट-नुमा परमिट होना जरूरी था। प्रजा परिषद ने इसका विरोध किया। प्रजा परिषद के कार्यकर्ता छाती पर तत्कालीन राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद का चित्र लगा कर नारा लगाते थे, 'एक देश में दो प्रधान, नहीं चलेंगे नहीं चलेंगे।'
उन दिनों जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल को राष्ट्रपति के समकक्ष सदर-ए-रियासत कहा जाता था। शेख अब्दुल्ला की पुलिस ऐसा नारा लगाने वालों पर लाठी चलाने से लेकर गोली तक चलाती थी। प्रजा परिषद के सत्याग्रही सरकारी कार्यालयों पर तिरंगा झंडा फहराने के लिए संघर्ष करते और उधर नेहरू-शेख की पुलिस उसे उतारने के लिए जद्दोजहद करती। इधर जम्मू-कश्मीर में प्रजा परिषद नेहरू-शेख की जोड़ी की इस आत्मघाती रणनीति को परास्त करने के लिए गोलियों का शिकार हो रही थी, उधर दिल्ली में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सहायता लेकर भारतीय जनसंघ का गठन कर दिया था। धीरे-धीरे जम्मू-कश्मीर के लोगों के इस राष्ट्रीय आंदोलन और सत्याग्रह की गूंज सारे देश में पहुंची। भारतीय जनसंघ ने अन्य दलों के साथ मिल कर प्रजा परिषद के इस आंदोलन का समर्थन करने का निर्णय किया। जनसंघ ने पूरे देश में जम्मू-कश्मीर दिवस मना कर इस आंदोलन की जानकारी लोगों की दी। देशभर से सत्याग्रही बिना पासपोर्ट-परमिट के जम्मू-कश्मीर में प्रवेश करने लगे। पुलिस उन्हें गिरफ्तार कर हवालात और जेल में अमानवीय यातनाएं देने लगी। प्रेमनाथ डोगरा ने अनेक बार प्रजा परिषद का प्रतिनिधिमंडल लेकर दिल्ली में नेहरू से मिलने की कोशिश की ताकि उन्हें प्रदेश के लोगों का पक्ष बता सकें। लेकिन लोकतंत्र का दंभ भरने वाले नेहरू ने उन्हें मिलने का समय नहीं दिया। वे जम्मू-कश्मीर का पक्ष जानने के लिए शेख अब्दुल्ला के अलावा और किसी से मिलने को तैयार नहीं थे और उधर जम्मू में शेख अब्दुल्ला की सरकार सत्याग्रहियों से लाठी-गोली के अतिरिक्त और किसी भाषा में बात करने को तैयार ही नहीं थी। सरकारी भवनों पर तिरंगा झंडा लहराने और भारत माता की जय कहने वाले 15 सत्याग्रही शेख की पुलिस की गोलियों का शिकार हो गए। उधर दिल्ली में नेहरू दहाड़ रहे थे। इस जन आंदोलन को किसी भी कीमत पर कुचल देंगे, इधर जम्मू में शेख चिंघाड़ रहे थे, जम्मू-कश्मीर में भारतीय संविधान लागू नहीं होने देंगे। तिरंगा लहराने की कीमत चुकानी होगी और वह कीमत जम्मू के लोग अपने प्राण देकर चुका रहे थे।
इस मसले पर डॉ. मुखर्जी ने स्वयं श्रीनगर जाकर शेख अब्दुल्ला से बात करने का निर्णय किया। लेकिन देशभर में चर्चा थी कि नेहरू सरकार मुखर्जी को कश्मीर जाने नहीं देगी, क्योंकि वे बिना परमिट जाना चाहते थे। परन्तु नेहरू और शेख अब्दुल्ला में न जाने क्या खिचड़ी पकी कि कांग्रेस सरकार ने उन्हें जम्मू-कश्मीर में प्रवेश करने दिया और प्रवेश करते ही शेख अब्दुल्ला ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। यदि पंजाब की कांग्रेसी सरकार उन्हें गिरफ्तार करती तो वे भारत के उच्चतम न्यायालय की आधिकारिता में आ जाते थे। लेकिन जम्मू- कश्मीर में गिरफ्तार करने से उच्चतम न्यायालय का अधिकार क्षेत्र उन पर लागू नहीं होता था, क्योंकि शेख अब्दुल्ला और नेहरू में समझौता हो चुका था कि जम्मू-कश्मीर उच्चतम न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में नहीं रहेगा। गिरफ्तारी के कुछ समय बाद ही डॉ. मुखर्जी की शेख अब्दुल्ला की जेल में रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हो गई। उसके बाद ही नेहरू का शक पुख्ता हुआ कि शेख अब्दुल्ला अमेरिका से मिल कर जम्मू-कश्मीर को आजाद रखना चाहते हैं। प्रजा परिषद का आंदोलन खत्म हुआ लेकिन नेहरू को यह बात समझाने में डॉ. मुखर्जी को अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी। (लेखक हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति हैं)
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