|
सरकार को कोसने और जनता को भड़काने के लिए सेकुलर मीडिया के पास अरसे से कोई मुदद नहीं था। नोटबंदी से उसकी आशा जगी और उसने जनता को भड़काने में अपनी पूरी ताकत झोंक दी पर देश की जनता ने उसे आईना दिखाया
मीडिया को सरकार के लिए विपक्ष होना चाहिए, लेकिन यह किसने कहा है कि देशहित के मुद्दों पर भी वह नकारात्मक भूमिका ही निभाएगा। वैसे यह बात पूरे मीडिया के लिए नहीं, बल्कि एक खास वैचारिक तबके के लिए है, जो लगभग सभी समाचार संस्थानों में नष्पिक्षता और बौद्धिकता की नकाब ओढ़े बैठा हुआ है। यह तबका इन दिनों समाचारों से ज्यादा अफवाहें फैलाने में जुटा है। 500 और 1000 के नोट बंद होने के बाद से इनका काम बढ़ गया है। क्योंकि 2-3 दिन देरी से ही सही, उन्हें यह समझ आ गया कि इस कदम से उनकी और तमाम देश-विरोधी तत्वों की प्राणवायु बंद हो जाने वाली है।
शायद यही कारण है कि सोशल मीडिया पर सामान्य लोगों को यह ध्यान दिलाना पड़ा कि 8 नवंबर के बाद से कश्मीर में पत्थरबाजी बंद क्यों है? नक्सली गतिविधियां अचानक ठप क्यों पड़ गईं? नकली भारतीय रुपया छाप रहे उद्योग का पहिया अचानक बंद कैसे हो गया? और यह भी कि कुछ मुट्ठी भर नेता ही इतने बेचैन क्यों हैं? चैनलों ने इस दौरान जनधन खाते रखने वालों से लेकर काले को सफेद करने वाले कमीशन एजेंटों तक के स्टिंग ऑपरेशन कर डाले, लेकिन किसी ने उन पार्टियों के नेताओं का स्टिंग नहीं किया जो इस कदर परेशान हैं कि लोग पहली नजर में ही समझ जाते हैं कि जरूर इनका खजाना लुटा है।
नोटबंदी की घोषणा के बाद से झूठ और दुष्प्रचार की मानो आंधी आ गई। पहले नए नोट के बारे में तरह-तरह की हास्यास्पद बातें मुख्यधारा मीडिया और सोशल मीडिया के माध्यम से फैलाई गईं और फिर बैंकों की कतारों को लेकर तरह-तरह के विवाद पैदा किए गए। लगभग सभी चैनल और अखबार मरने वालों की संख्या को बढ़ा-चढ़ाकर बताते रहे। और साथ ही साथ पिछले दिन की झूठी घटनाओं पर भूल सुधार भी छापते रहे। पर यह अनुमति कैसे दी जा सकती है कि किसी दूसरी वजह से हुई मृत्यु को बिना जांच-पड़ताल के एटीएम की कतारों से जोड़ दिया जाए। टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे अखबारों ने इस अफवाहबाजी में बढ़-चढ़कर हस्सिा लिया। इसी अखबार ने मुंबई में एक बुजुर्ग की एटीएम लाइन में मृत्यु की खबर छापी। बाद में पता चला कि जहां पर घटना हुई उसके आसपास कोई एटीएम या बैंक था ही नहीं और घटना का नोटबंदी से कोई लेना-देना नहीं है।
पहले दो दिन में ही नोटों की गड्डी के साथ एक लड़की की तस्वीर फैलाकर उसे उत्तर प्रदेश के भाजपा अध्यक्ष की बेटी बता दिया गया। सोशल मीडिया से होते हुए यह अफवाह अखबारों और चैनलों की वेबसाइट तक पहुंची। फिर अगले ही दिन तमाम अखबारों ने यह खबर छापी कि बंगाल भाजपा को पहले से पता था कि नोट बदलने वाले हैं, इसलिए उन्होंने 4 करोड़ रुपये बैंक में पहले ही जमा करा दिए। बिना किसी पुष्टि के यह खबर व्हाट्सएप पर फैलाई गई और फर्जी बैंक स्टेटमेंट के आधार पर छापी गई। इस खबर को भी टाइम्स ऑफ इंडिया और दूसरे कई हिंदी, अंग्रेजी अखबारों ने प्रकाशित किया। सभी टीवी चैनलों ने अखबारों की खबर हूबहू चलाई। पर जब सच सामने आया तो मीडिया की जवाबदेही कहीं गायब हो गई और किसी ने भी भूल सुधार छापने की औपचारिकता तक नहीं की। ऐसे में आप खुद समझ सकते हैं कि ऐसी झूठी खबरें फैलाने वाले कौन हैं और इनसे उनका क्या हित सध रहा है।
प्रोपेगेंडा वेबसाइट्स ही नहीं, अखबारों और चैनलों ने भी खूब जोरशोर से यह खबर छापी कि स्टेट बैंक ने उद्योगपति विजय माल्या का कर्ज माफ कर दिया है। उन मीडिया समूहों ने भी यह अफवाह उड़ाने में कोई कोर-कसर नहीं रखी, जो 2014 से पहले तक विजय माल्या की काली कमाई के साथ संयुक्त उपक्रम में अपने चैनल चला रहे थे। स्टेट बैंक बार-बार स्पष्टीकरण देता रहा कि हमने किसी का कर्ज माफ नहीं किया है लेकिन ज्यादातर अखबारों और चैनलों ने यह रट लगाना जारी रखा। इसके पीछे कारण, पत्रकारों में आर्थिक साक्षरता की कमी भी है और सरकार के खिलाफ झूठ फैलाने का इरादा भी। बीते एक पखवाड़े में ऐसे न जाने कितने झूठ मुख्यधारा मीडिया ने फैलाए, यह शोध का विषय है। इनमें से ज्यादातर ऐसी खबरें थीं जो कुछ ही घंटों में गलत साबित हो गईं, लेकिन इन्हें छापने वालों ने माफी मांगने या कम से कम भूल-सुधार छापने के शिष्टाचार की भी जरूरत महसूस नहीं की।
एनडीटीवी चैनल का रवैया हमेशा की तरह नोटबंदी को लेकर काफी नकारात्मक बना हुआ है। चैनल के संवाददाताओं की रुचि लोगों की समस्याएं दिखाने से ज्यादा एक पार्टी विशेष का एजेंडा आगे बढ़ाने में है। एक स्वनामधन्य एंकर दिल्ली के सबसे व्यस्त बाजार की भीड़ में जाकर लोगों को उकसाते हैं, मनपसंद जवाब न मिलने पर एक स्थानीय कांग्रेसी नेता की छत पर चढ़ जाते हैं और वहां पर उस जाने-पहचाने नेता को आम व्यापारी बताकर उसके मुंह से नोट बंद करने के फैसले पर भला-बुरा कहलवाते हैं। यह वह तरीका है जो यह चैनल बीते कई साल से करता आया है। दिक्कत बस यह हो गई है कि लोग उसके पत्रकारों की चालाकी को पकड़ लेते हैं और कम से कम सोशल मीडिया के जरिए ही अपना विरोध दर्ज करा देते हैं। कई जगहों पर चैनल के रिपोर्टरों को आम लोगों ने यह कहकर मायूस कर दिया कि उन्हें परेशानी जरूर हो रही है लेकिन देश के हित के लिए वेे यह परेशानी सहने को भी तैयार हैं। दरअसल, देशहित के मुद्दों की कसौटी पर मुख्यधारा मीडिया और सोशल मीडिया, दोनों ही अपनी विश्वसनीयता खो रहे हैं। सोशल मीडिया तो खुला मंच है, सबको पता है कि वहां झूठ और सच दोनों है। लेकिन मुख्यधारा मीडिया से ऐसी कोई उम्मीद नहीं की जाती। फिर भी ऐसी गलतियां बार-बार, यहां तक कि लगभग रोज क्यों हो रही हैं? क्या ऐसे गैर-जिम्मेदार मीडिया संस्थानों को सिर्फ आत्म-नियंत्रण के भरोसे छोड़ा जा सकता है? यह बात सही है कि सरकारें मीडिया के कामकाज में दखलंदाजी न ही करें तो अच्छा है, लेकिन दर्शकों के लिए उनकी जिम्मेदारी और जवाबदेही तय होना आवश्यक है। दर्शक और पाठक भी चाहते हैं कि मुख्यधारा मीडिया की जवाबदेही तय हो। अभी जो व्यवस्था है उसमें अगर किसी व्यक्ति को किसी मीडिया समूह से गलत या शरारतपूर्ण समाचार मिलता है तो वह इसके खिलाफ कहीं भी अपील नहीं कर पाता। आम लोगों के लिए जो तरीके तय किए गए हैं वह इतने मुश्किल हैं कि लोग उन्हें इस्तेमाल करने से बचते हैं।
वैसे ऐसा नहीं है कि देश के मीडिया के साथ सबकुछ बुरा ही है। नोटबंदी को लेकर चल रही अफवाहबाजी के बीच एबीपी न्यूज चैनल और कुछ अखबारों ने झूठी खबरों की पोल-खोल का काम बहुत अच्छे से किया। खास तौर पर एबीपी चैनल के कार्यक्रम 'वायरल सच' ने सोशल मीडिया से लेकर चैनलों और अखबारों द्वारा फैलाए जा रहे कई दुष्प्रचारों की हवा निकाल दी। यह एक अच्छा प्रयास है और बाकी अखबारों, चैनलों और अखबारों को भी इससे सबक लेना चाहिए। अच्छा होता कि सभी चैनल और अखबार भी 500 और 1000 के नोट बंद करने के मुद्दे की संवेदनशीलता को देखते हुए थोड़ा सकारात्मक रवैया रखते और अफवाहें फैलाने से बचते। क्योंकि उनके ऐसा करने से बैंकों के बाहर घबराए हुए लोगों की भीड़ को थोड़ी राहत जरूर मिलती। मुख्यधारा और सोशल मीडिया की फैलाई अफवाहों ने लोगों में डर का माहौल पैदा किया, जिसका नतीजा
उम्मीद से ज्यादा लंबी कतारों के रूप में देखने को मिला।
उधर, देश के अंदर बेनकाब हो चुकीं तथाकथित सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सेतलवाड़ आजकल नए अभियान पर हैं, वे अंतरराष्ट्रीय मीडिया में देश विरोधी माहौल बनाने में जुटी हैं। इसी क्रम में उन्होंने एक अंतरराष्ट्रीय ब्लॉग में अमेरिका के नए राष्ट्रपति तक से अपील कर डाली कि भारत में मीडिया का दमन हो रहा है और वे भारत पर नजर रखें। इस लेख में उन्होंने आतंकवादियों के खबरी का काम करने वाले चैनल की जमकर तरफदारी की और उसे 'दमन का शिकार' साबित करने की कोशिश की। तीस्ता सीतलवाड़ और उनके जैसे वामपंथी स्वयंभू कार्यकर्ताओंं की यह कुंठा ही है कि उन्हें भारत को बदनाम करने के लिए अब पूंजीवादी अमेरिका का आसरा है। अच्छा होता कि
देश का मीडिया ऐसे तत्वों को बढ़ावा देने के बजाय उनकी ऐसी कोशिशों को उजागर करता। सारे हंगामे के दौरान, इंडिया टुडे चैनल ने सोनिया गांधी का साक्षात्कार प्रसारित किया। चैनल ने इसे 'दशक का सबसे बड़ा इंटरव्यू' घोषित कर दिया। इंदिरा गांधी की जयंती के मौके पर इस इंटरव्यू से सभी की उम्मीदें थीं कि इसमें आपातकाल से लेकर कांग्रेस की बुरी हालत पर सवाल होंगे, लेकिन हुआ बिल्कुल उलट। साक्षात्कार लेने वाले पत्रकार महोदय सोनिया गांधी के आगे दंडवत नजर आए। सवालों के नाम पर ऐसी चापलूसी कि दर्शक भी हैरान रह गए कि साक्षात्कार लेने वाला क्या वाकई पत्रकार है या कोई राजनीतिक कार्यकर्ता। एक जगह पर पत्रकार महोदय सोनिया गांधी को 'शेरनी' तक कह गए। दरअसल यह पत्रकार महोदय अकेले नहीं हैं, मीडिया में एक पूरी जमात है जो सोनिया गांधी को आज भी राजमाता की तरह देखती है और उन्हें सवालों से परे मानती है। आश्चर्य की बात यह कि यही जमात अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और पत्रकारीय स्वायत्तता को लेकर सबसे ज्यादा चिल्ल-पों मचाती है। अच्छी बात यह है कि बीते कुछ सालों में ऐसे पत्रकारों की सच्चाई सबके सामने आ चुकी है और लोग पत्रकारिता के पीछे छिपे उनके एजेंडे को समझने लगे हैं। ल्ल
टिप्पणियाँ