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आम आदमी को तमाम बंदिशों के साथ कर्ज दिया जाता है और उनकी देनदारी अगर नियत समय पर न हो तो बैंक सामान्य जन के सामने कई परेशानियां खड़ी कर देता है। लेकिन माल्या सरीखे लोग जिन पर बैंकों का करोड़ों-अरबों रुपये बकाया है और वे उसे लेकर फरार हैं, उनसे वसूलने में देरी क्यों?
आलोक पुराणिक
भारत से भागे और ब्रिटेन में जमे हुए विजय माल्या की असली कीमत ब्रिटेन की समझ में तब आ सकती है, जब वह ब्रिटेन में कारोबार करके अरबों डुबा दें। ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था को डूबत अर्थव्यवस्था बना दें। कोई कंपनी, कोई कारोबार डूबत कैसे बन जाता है, इस सवाल का एक जवाब तो विजय माल्या की शक्ल में मौजूद है। अपने मूल काम यानी शराब के कारोबार को छोड़कर खूबसूरत मॉडलों वाले कैलेंडरों में दिलचस्पी, फार्मूला वन कार में दिलचस्पी, आईपीएल मैचों में दिलचस्पी। धुआंधार कर्ज लेना, यह सब करके विजय माल्या ने वे कारोबार भी डुबा लिये, जिनके डूबने के आसार होते नहीं हैं। शराब का कारोबार डुबाने के लिए बहुत ऊंचे स्तर का निकम्मापन चाहिए, विजय माल्या शराब के कारोबार के किंग थे। शराब के ग्राहक कीमतों को लेकर किच-किच नहीं करते। एक बार ग्राहक बन जाए, तो लंबे समय तक रहता है। ऐसे कारोबार में भी विजय माल्या ने रकम डुबायी, तो साफ होता है कि कुछ कारोबारी रकम डुबोई के लिए ही पैदा होते हैं।
कर्जमाफी बनाम हिसाबबंदी
उन बैंकों की ऐसे कारोबारों को दिये जाने वाले कजोंर् से ब्याज की उम्मीद खत्म हो जाती है, जिन्हांेने ऐसे कारोबारों को कर्ज दिया हुआ होता है। ऐसे कजोंर् को नान परफामिंर्ग एसेट यानी डूबत कजोंर् के खातों में डालना पड़ता है। यानी बैंकों को ऐसे कजोंर् की वसूली की उम्मीद नहीं रहती है। जब उम्मीद नहीं रही, तो उन्हे हिसाब-किताब से हटाकर ज्यादा पारदर्शी हिसाब पेश किया जा सकता है। इस प्रक्रिया को राइट ॲाफ या हिसाबबंदी कहा जा सकता है। यानी अब बैंक के खातों में ऐसे डूबत कजोंर् का हिसाब नहीं रखेंगे, इसका मतलब यह नहीं होता कि बैंकों ने ऐसे कर्ज माफ कर दिये हैं। कर्ज माफी प्रक्रिया में बैंक कजोंर् को एकदम हटा देता है, उन्हे कारोबार से ही हटा देता है। पर राइट ऑफ या हिसाबबंदी में बैंक उन्हें हिसाब से हटाया दिखाता है। कोशिश रहती है कि वह कर्ज वापस आ जाये। विजय माल्या से कर्जवसूली की कोशिशें गाहे-बगाहे दिखती रहती हैं। पर वसूली की उम्मीद कम है, इसलिए इन कजोंर् की हिसाबबंदी करके ही खातों की पारदर्शी तस्वीर पेश की जा सकती है। इस तरह से हिसाबबंदी को कर्जमाफी नहीं कहा जा सकता। हिसाबबंदी से खातों की सही तस्वीर पेश होती है। ऐसा भी देखने में आया है कि बैंक अपने खातों को ठीकठाक दिखाने के लिए डूबत कजोंर् को भी डूबत कर्ज के बतौर नहीं दिखाते, ताकि कारोबार की स्थिति ठीकठाक दिखती रहे।
भारत के कई बड़े उद्योगपति घरानों ने तमाम वजहों से सरकारी बैंकों और निजी बैंकों की रकम को डूबत बना दिया है। मार्च, 2016 में करीब 5,94,929 करोड़ रुपये की ऐसी रकम थी, जिसे नान परफामिंर्ग एसेट यानी डूबत कर्ज माना जा सकता है। इसमें से 90 प्रतिशत रकम सरकारी बैंकों की है। इस्सार समूह की हालत इस रिपोर्ट के आने के बाद बहुत बदली है, इस समूह ने अपने कुछ कारोबारों को बेचकर रकम उठायी है। क्रेडिट सुईस की रिपोर्ट में बताया गया है कि इनमें से कई कंपनियों के कर्ज बैंकों के खातों में ठीकठाक ही दिखाये गये हैं, जबकि क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां उन कजोंर् को जोखिमपूर्ण करार दे चुकी हैं। ऐसे इंतजाम होने चाहिए कि जो कंपनी काम नहीं कर पा रही है, उसके बंद होने के इंतजाम होने चाहिए। अभी भारत में ऐसे पुख्ता इंतजाम नहीं हैं। बैंकरप्टसी कोड जब इस मुल्क में कायदे से काम करने लगेगा, तब फ्लॉप कंपनियों के बंद होने के पक्के इंतजाम होंगे। यानी कारोबार खोलने के साथ-साथ कारोबार बंद करना भी आसान हो जाये, तो स्थितियां बेहतर होंगी।
कर्ज के घर
क्रेडिट सुईस बैंक ने अक्टूबर 2015 में जारी एक रिपोर्ट में कुछ कॉपार्ेरेट घरानों को कर्ज के घर की ही संज्ञा दी हैं। ये कॉपार्ेरेट घराने हैं-
लांको समूह
जेपी समूह
जीएमआर समूह
वीडियोकॉन समूह
जीवीके समूह
इस्सार समूह
अडानी समूह
रिलायंस समूह
जिंदल स्टील वक्र्स समूह
वेदांता समूह
डूबते को उबारने के उपाय
आर्थिक सर्वेक्षण 2015-16 के पहले खंड में इस समस्या पर विस्तार से विमर्श किया गया है। इसे आर्थिक सर्वेक्षण में ट्विन बैलेंस शीट चैलेंज यानी दोहरी बैलेंस शीट चुनौती कहते हैं। इस चुनौती का आशय यह है कि बैंकों ने जिन कर्जदारों को कर्ज दिया है, उनकी बैलेंस शीट खराब है और इसलिए बैंकों की बैलेंसशीट भी खराब हो रही है।
सवाल है कि बैलेंस शीट से आशय क्या है? बैलेंस शीट कारोबारी भाषा में संपत्तियों और दायित्व का दस्तावेज होती है। इस दस्तावेज पर नजर डालकर कोई यह समझ सकता है कि इस कंपनी पर कितना कर्ज है, कितने दायित्व हैं और इस कंपनी के पास कितनी संपत्ति है। अगर कंपनी की संपत्तियों की गुणवत्ता ठीक है, कर्ज नहीं है या बहुत कम है, तो उस कंपनी की बैलेंस शीट को बढि़या माना जाता है।
कर्जमुक्त कंपनियों की बैलेंसशीट को बढि़या माना जाता है और कर्ज के बोझ से लदी कंपनियों की बैलेंसशीट को कमजोर माना जाता है, घटिया माना जाता है। यह तो हुआ कंपनियों की बैलेंसशीट का जिक्र। पर दोहरी बैलेंस शीट समस्या तब खड़ी हो जाती है, जब ऐसी कंपनियों को कर्ज देनेवाले बैंकों की बैलेंस शीट भी कमजोर होने लगे।
कंपनियों के लिए कर्ज उनके कारोबार का एक हिस्सा है, पर बैंकों के लिए तो कर्ज ही कारोबार है। यानी अगर कोई बैंक अपने कर्जदार से अपनी रकम वापस न निकलवा पाये, तो वह बैंक समस्या में आ ही जायेगा। दूसरे शब्दों में अगर किसी बैंक की कर्जदार कंपनियां ही डूबती दिखें, तो उस बैंक का डूबना भी तय सा ही है। क्योंकि कंपनियां कर्ज वापस नहीं करेंगी, तो बैंकों की कमाई ठप्प हो जायेगी। बैंक डूबेंगे। यानी बैलेंसशीट कंपनी की खराब हो, तो बैंक की खुद ब खुद खराब हो जायेगी।
डूबत कर्ज का ढांचा
वैसे कर्ज सरकारी बैंकों का भी डूबते हैं और निजी बैंकों का भी। पर निजी बैंकों का कर्ज कम डूबता है। इसे डुबोने में सरकारी बैंकों का हाथ बड़ा होता है। उदाहरण लें—किंगफिशर एयरलाइंस में रकम डुबोने वाले बैंकों की सूची में टॉप पर पांच सरकारी बैंक हैं-स्टेट बैंक आफ इंडिया, आईडीबीआई, पंजाब नेशनल बैंक, बैंक ऑफ इंडिया और बैंक ऑफ बड़ोदा। निजी बैंक उतना नहीं डूबे, उसकी वजहें हैं। पहली वजह तो यह है कि सरकारी बैंकों की मालिक सरकार होती है।
सरकार का मतलब सरकार पर काबिज पावरफुल नेताओं से होता है। अब मोदी सरकार के वित्त मंत्री अरुण जेटली कहते हैं कि उन्होने सरकारी बैंकों से कहा है कि वे प्रोफेशनल तरीके से विश्लेषण करके ही कर्ज दें। किसी की सिफारिश पर कर्ज ना दें। अरुण जेटली के कथन की सचाई के लिए हमें तीन-पांच साल इंतजार करना पड़ेगा। पर एक बात साफ है कि सिर्फ माल्या ही नहीं, तमाम उद्योगपतियों के साथ मनमोहन सिंह सरकार बहुत उदार रही थी। जिन समूहों में सरकारी बैंकों का पैसा डूबता दिख रहा है, उनमें कई समूह तो कांग्रेस के एमपी नेताओं के रहे हैं। माल्या पर नेताओं की कितनी कृपा रही इसका अंदाज इस बात से लगता है कि देश के पूर्व प्रधानमंत्री देवेगौड़ा ने माल्या को कर्नाटक का बेटा बताया है।
निजी बैंक अपने कजोंर् के मामले में ज्यादा सतर्क होते हैं। ऐसा नहीं है कि निजी बैंकों के कर्ज नहीं डूबते। पर जब निजी बैंकों के कर्ज डूबते हैं तो उसकी वजह राजनीतिक दबाव नहीं होते, उनके आकलन की गलती होती है। सरकारी बैंकों तो गरीब की जोरू होते हैं, शीर्ष के नेता उन्हे जब चाहें जहां चाहें, कर्ज देने के लिए मजबूर कर सकते हैं। सरकारी बैंकों की रकम जब डूबती है, तो वह दरअसल आम जनता की रकम डूबती है। आम जनता अपनी रकम को लेकर बहुत संवेदनशील नहीं होती। जो कर आप माचिस पर या पिज्जा पर दे रहे हैं, उसी कर में से सरकार बैंकों की पूंजी देगी, हालत सुधारने के लिए। सरकार जो बैंकों को पूंजी दे रही है, वह जनता की जेब से जा रही है। उसे लेकर संवेदनशीलता बहुत कम है, खुद जनता में भी। इसलिए सरकारी बैंकों में लूटकांड जमकर होता है। 1969 में बहुत बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था इस उम्मीद में कि ये राष्ट्र के काम आयेंगे, जनता के काम आयेंगे। पर ये नेताओं और चोर उद्योगपतियों के बहुत काम आये। इसके अलावा सरकारी बैंकों में निर्णय प्रक्रिया इस तरह की है, सदाशय प्रबंधक भी काम नहीं कर पाते। जैसे निजी बैंकों में कर्ज में समस्या होते ही प्रबंधक उसे जैसे-तैसे निपटारे में भी यकीन करते हैं। जैसे पचास करोड़ का कर्ज डूबता दिख रहा है और निजी बैंक के प्रबंधक बीस-तीस करोड़ में निबटाने में भी यकीन कर सकते हैं, भागते भूत की लंगोटी के कंसेप्ट पर। पर सरकारी बैंक के प्रबंधक बीस बार सोचेंगे कि कल को सीबीआई जवाब मांगेगी। तमाम एजेंसियां जवाब मांगेंगी। सो चक्कर छोड़ो, लोन को सही सैट दिखाते रहो। निजी बैंक इस तरह से काम नहीं करते।
निजी बैंक यानी अपनी रकम
निजी बैंकों में मिल्कियत का ढांचा अलग होता है। कोटक महिंद्रा बैंक उदय कोटक की अपनी निजी शेयरहोल्डिंग है। उनका अपना कारोबार है। इसलिए इसे तमाम दबावों में तबाह नहीं किया जा सकता है। निजी बैंकों में प्रबंधन का कामकाज का तरीका अलग होता है। एचडीएफसी बैंक बहुत बड़ा बैंक है, पर वहां डूबने वाले कर्ज ना के बराबर हैं। यहां राजनीतिक दबाव काम नहीं करते। इसलिए यहां रकम डूबती भी कम है।
चार आर, एक पी
आर्थिक सर्वेक्षण 2015-16 में बैंकों की कर्ज की समस्या से निबटने के लिए चार आर-रिकाग्निशन रिकैपिटलाइजेशन, रिजोल्यूशन और रिफार्म अपनाने का सुझाव दिया गया है। इन चार आर रिकाग्निशन का अनुवाद आर्थिक सर्वेक्षण ने यह दिया है-रिकाग्निशन यानी मान्यता, रिकैपटलाइजेशन यानी पुन-पूंजीकरण, रिजोल्यूशन यानी समाधान और रिफार्म यानी सुधार। यानी कुल मिलाकर आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक सबसे पहले बैंकों को अपने कजोंर् की सही पहचान कर लेनी चाहिए। डूबते हुए कजोंर् को भी ठीकठाक बताना कजोंर् की सही पहचान नहीं है। दूसरा आर यानी पुन पूंजीकरण करना चाहिए यानी सरकार को सरकारी बैंकों में पूंजी डालनी चाहिए। बजट 2016-17 में सरकार 25000 करोड़ रुपये सरकारी बैंकों में डालेगी, ऐसा प्रस्ताव रखा गया है। रिजोल्यूशन यानी समाधान यानी डूबत संपत्तियों को निपटाकर उनसे जो रकम वसूल हो, वसूल लेनी चाहिए। रिफार्म यानी सुधार यानी स्थितियों से सबक लेकर सुधर लेना चाहिए, ताकि भविष्य में ऐसी आफतें ना आयें। कर्ज के बड़े घरों-बड़े औद्योगिक घरानों पर भी कड़ी नजर रखनी होगी। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)
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