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8 नवंबर की आधी रात हजार-पांच सौ के नोटों की तिजोरी पर बिजली गिरने के बाद धन्ना सेठों ने अपने कर्मचारियों की फौज को रकम खुलाने, नोट बदलवाने के अभियान में झोंक दिया है। 17 नवंबर के अंग्रेजी के एक प्रतिष्ठित दैनिक की यह पहले पन्ने की खबर है। हैरानी की बात है कि पूर्णत: सत्य होने के बाद भी इस खबर की जगह और गूंज मीडिया में सीमित ही रही।
मशीनें बंद हैं, मगर दिहाड़ीदारों के जिम्मे यही काम है कि बैंकों के बाहर कतारों में जुत जाएं। जितना हो सकता है, उतना पैसा मालिक के लिए खुलवाएं-बदलवाएं। काले धन के भ्रष्ट तंत्र की धड़धड़ाती मशीन एकाएक हांफ कर बैठने लगी तो उसे सांस देने के लिए मजदूर को ही पुर्जा बनाकर इस्तेमाल किया गया। निम्न वर्ग की परेशानी को, मध्यम वर्ग की हड़बड़ी को बढ़ाने के लिए पूंजीपतियों ने श्रमिकों कामगारों को ही औजार की तरह बरता! खबर इतनी बड़ी है।
कायदे से वाम दलों के प्रभाव वाले समस्त मीडिया और वाम दलों के लिए भी यह सबसे बड़ी खबर होनी चाहिए थी। काले धन पर नोटबंदी की मार के स्वागत और मजदूरों की आड़ लेने वाले खेल की भर्त्सना के लिए सबको साथ आना चाहिए था। लेकिन 'चाहिए' शब्द में जो आकांक्षा छिपी है, उतना आदर्शवाद अब बचा किसके पास है?
कहीं ऐसा तो नहीं है कि जन सरोकारों की बात करने वालों ने ही जन विश्वास की पूंजी खो दी? प्रेस दिवस से कुछ ही पहले काले धन को ललकारने की साहसिक पहल और इसकी विरोधी राजनीति की समीक्षा जरूरी है। अभाव वाले के साथ और किसी के प्रभाव से दूर…राजनीति या पत्रकारिता संकल्प तो यही था ना!
काले धन पर प्रहार से बौखलाई ममता नोटबंदी के विरुद्ध लड़ाई में अपने परम राजनैतिक शत्रुओं को साथ लेकर केंद्र सरकार के विरुद्ध पालेबंदी का मंसूबा जताती हैं तो हैरानी होती है। इससे भी बड़ी हैरानी उस वामपंथी राजनीति और मीडिया चुप्पी पर होती है जो 'सारदा चिटफंड' और 'नारदा स्िंटग' पर चिल्ला रहा था, लेकिन अब जिसके मन में श्रमिकों के लिए ममता और बुर्जुआ वर्ग के लिए आक्रोश का उमड़ना अचानक बंद हो गया।
हैरानी अब उन अरविंद पर भी होती है जो पारदर्शिता, कालेधन से जंग और राजनीति में शुचिता स्थापित करने का भरोसा जगाते हुए 'अण्णा लहर' पर सवार होकर आए और इसकी कलुष कथाओं (उनके काबीना नक्षत्रों पर इस अल्प समय में ही हर तरह के भ्रष्टाचार के ग्रहण लग चुके हैं) का हिस्सा होकर रह गए। आज वे अण्णा हजारे के उलट खड़े हैं और उस कांग्रेसी सुर में सुर मिला रहे हैं जिसे विभिन्न कलंक कथाओं के सूत्रधार होने का प्रमाणपत्र स्वयं उन्होंने दिया था। जिस समय मीडिया का एक बड़ा हिस्सा कतारों की असलियत खंगालने के बजाय पहले दिन की अफरातफरी के पुराने दृश्य बार-बार दिखा-बता रहा है, जिस समय राजनीति की धड़ेबाजी जनता की फौरी अड़चनों को काले धन तक पहुंचने के रास्ते में बाड़ बनाने के लिए इस्तेमाल कर लेना चाहती है, एक प्रश्न बड़ा प्रासंगिक हो गया है- क्या इससे जनहित के स्तंभों की कमजोरियां जनता के ही सामने नहीं आ रहीं?
जिस समय भारतीय राजव्यवस्था, अर्थव्यवस्था के समानांतर चलते, इसे जकड़ते काले धन के नाग को नाथने की कोशिश कर रही है। उस समय विभिन्न राजनीतिकों को, उनके जेबी दलों को किससे लगाव है? काले धन की अनंत, अनकही कहानियां मानों कही जाने को कुलबुला रही हैं। पत्रकारिता को इन्हें उजागर करने में क्या हिचक या अनमनापन है?
जनता द्वारा, जनता के लिए…लोकतंत्र की कसम तो यही थी! आज इस साहसिक-ऐतिहासिक निर्णय के बाद सरकार का विरोध करते राजनीतिक दल जनता को छोड़ किसके लिए कमर कसे खड़े हैं? निर्भीक, राष्ट्रप्रेमी, पारदर्शी, मुखर…पत्रकारिता की यही तो पहचान है। आज जनता को सबल बनाने का प्रण लेने वाले किस संशय में हैं?
सोशल मीडिया और सार्वजनिक मंच के मुखर मंचों पर जनता इस सब पर अपनी प्रतिक्रिया जता रही है।वैसे, प्रेस दो तरह की होती है- सरकारी, जो नोट छापती है। दूसरी जो सरकारी नहीं मगर ज्यादा असरकारी होती है और सच छापती है। नोट फर्जी हों तो सरकार उसे रद्द कर देती है। खबरें सच न हों तो जनता उसे खारिज कर देती है। झूठ को खारिज करना और सच के लिए डटे रहना दोनों तरह की प्रेस के लिए जरूरी है। खबरपालिका की साख के लिए, अन्यायी धनपशुओं को काबू करने वाली शासकीय धाक के लिए राजनीति और पत्रकारिता का एक पाले में रहना जरूरी है। यह पाला सच का है, जनहित का है। ल्ल
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