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आज हर तरफ नैतिक गिरावट है। नेता वोट के लिए संविधान की धज्जियां उड़ा रहे हैं। वकील, डॉक्टर, बाबू, अधिकारी सभी अपने कर्तव्य को भूल रहे हैं। इस हालत में केवल मीडिया से ही नैतिकता की अपेक्षा करना ठीक नहीं है। जरूरत है लोगों को नैतिकवान बनाने की।
रवि पाराशर
समाचार चैनल एनडीटीवी पर प्रतिबंध फिलहाल टाल दिया गया है, लेकिन इस मुद्दे पर बहस जोर-शोर से जारी है। यह बहस बहुआयामी है। इस बहाने अभव्यिक्ति की स्वतंत्रता जैसे बेहद नाजुक मसलों पर भी हजारों पत्रकार और गैर-पत्रकार सोशल मीडिया पर टप्पिणियां कर रहे हैं। यह अच्छी बात है, लेकिन यह अच्छी बात नहीं है कि बहस सम्यक तालमेल के साथ नहीं हो रही है। सभी अपना पक्ष रख रहे हैं, दूसरों का पक्ष सुनने-समझने का व़क्त किसी के पास नहीं है। इस सबके बीच असल में बड़ा सवाल यह है कि मीडिया अपने मौजूदा स्वरूप में क्या अब पेशे के तौर पर अपनाने लायक सम्मानजनक विकल्प रह गया है? पत्रकारिता के 26 साल से ज्यादा के अनुभव के बाद अब निजी तौर पर मैं किसी को इसमें आने की सलाह उत्साह से नहीं दे पाता।
एक बड़ा सवाल तो यह है कि क्या पत्रकार सामाजिक मूल्यों में आई गिरावट से अछूते रह सकते हैं? संसद में कामकाज कम विरोध ज्यादा होता है…सियासत मारपीट और हत्याओं तक जा पहुंची है। लोग मान चुके हैं कि रश्वित 'नैतिक' आचरण है। न्यायपालिका पर काम का इतना दबाव है कि मुख्य न्यायाधीश की आंखें डबडबा जाती हैं। लेकिन मुकदमे लटकाने का काम कानून के जरिए ही होता है। …जब देश चलाने वाले सभी खंभे सवालों में हों, तब पत्रकारिता सौ प्रतिशत नैतिक कैसे रह सकती है?
पहले समाचार 'पत्र' थे, तब पत्रकारिता थी। अब रेडियो, टीवी, सोशल प्लेटफॉर्म, यानी मीडिया है। तब किसी गलत काम करने वाले के लिए किसी भी पन्ने पर तीन पंक्तियां ही काफी थीं, लेकिन अब लोग खुलकर कहते हैं, जाइए दिखा दीजिए…छाप लीजिए, ऐसे ही चलेगा…। हालांकि सचाई है कि भ्रष्टाचार के बड़े मामले मीडिया की वजह से ही सामने आ रहे हैं। लेकिन जो मामले खुल रहे हैं, उनमें ज्यादातर सियासी बदले के इरादे से लीक होते हैं। मीडिया और उसके खुलासे देश-प्रदेशों की राजधानियों के ईद-गर्दि ही सिमटे हैं। गांव-देहात की बात कभी होती भी है, तो तार राजधानियों की राजनीति से ही जुड़े होते हैं।
मीडिया के काम के दायरे में नैतिकता का अर्थ असल में है क्या? क्या केवल संवैधानिक दायरे में बंधकर सरकारी नीतियों के प्रचार-प्रसार या उसी दायरे में हो रही गड़बडि़यों से ही इसे जोड़कर देखा जा सकता है? जी नहीं, मीडिया की नैतिकता का दायरा बड़ा है। देश-राष्ट्र-राज्य के लिए प्रेम, समग्र संस्कृति, विभन्निताओं में एकता, रीतियों, खेल-कूद, विकास को ऊर्जा देने वाले शोध कार्यों, वगैरह को सकारात्मक प्रोत्साहन यानी अच्छाई का प्रचार और कुरीतियों पर प्रहार मीडिया का काम है। लेकिन दुर्भाग्य कि ऐसा सौ प्रतिशत नहीं हो रहा है।
मीडिया अब मालिकों, पत्रकारों और दूसरे कर्मचारियों की निजी हैसियत बढ़ाने का औजार भर लगता है। ज्यादातर चैनलों को सनसनी पसंद है। ब्रेकिंग न्यूज की होड़ पर गुस्सा और हंसी साथ आती है। चैनल सांस्कृतिक, धार्मिक और नैतिक सरोकारों के लिए राशिफल और समृद्धि के उपाय वाले कार्यक्रम चलाते हैं या चुनावों, ग्रहणों या कन्हिीं और खगोलीय घटनाओं के वक्त ज्योतिषियों की गपशप कराते हैं। कुंभ, अर्धकुंभ के वक्त कवरेज थोड़ा बढ़ता है। लेकिन सतही होता है। कोई धर्मगुरु कुछ 'विवादित' बात कह दे, तो मीडिया हफ्तों तक उसे कुरेदता है। हालांकि, टीआरपी या प्रसार संख्या बढ़ाने की कोशिश अपराध नहीं है। लेकिन प्रतियोगिता के दौर में वर्जित हथकंडों के बिना यह कोशिश हो, तो ठीक है। एक जमाना था, जब टीवी न्यूज में 'मुदार्बाद' के नारे की आवाज तक म्यूट करनी पड़ती थी और आज संप्रेषण की भाषा क्या है?
एक वक्त सेक्स स्कैंडलों के एमएमएस टीआरपी का जरिया बनने लगे। फुटेज, मोजेक या ब्लर तो की जाती थी, लेकिन हरकतों का आभास तो दर्शक को होता ही था। सामाजिक विकृतियों वाली सारी खबरें छोड़ी नहीं जा सकतीं, लेकिन नमक-मर्चि की क्या जरूरत है? किसी मशहूर हस्ती से जुड़ा कांड हो जाए, तो मीडिया की चेतना में भूचाल आ जाता है। क्या दोपहर में टीवी देखने वाली महिलाओं की पसंद सास-बहू-बेटियों वाले सीरियल ही हैं? घरेलू महिलाओं से जुड़े बहुत से सामाजिक मसले मनोरंजन से ज्यादा अहम हैं। सेहत, पढ़ाई-लिखाई, महिलाओं की कामयाबी, खानपान से जुड़े बहुत से मुद्दे न्यूज चैनलों को क्यों नहीं दिखते?
महिला विमर्श और सांस्कृतिक कवरेज के मामले में न्यूज चैनल, अखबारों से पीछे हैं। लेकिन पेशेवर अखबार भी सौ फीसदी सही नहीं हैं। देश-भक्ति, सामाजिक भेदभाव जैसे संवेदनशील मुद्दों को लेकर मीडिया की जवाबदेही अक्सर कटघरे में रहती है। कई बार मीडिया ही बिगड़े हालात के लिए जि़म्मेदार होता है। ऐसा नहीं है कि नियम-कायदे नहीं हैं। ऐसा भी नहीं है कि मीडिया मैनेजमेंट को इनका एहसास नहीं है। लेकिन आगे दिखने की होड़ में आंखों पर पट्टी बंध जाती है। लेकिन कुछ अच्छी पहल भी हुई है। एकाध न्यूज चैनल और अखबार अच्छी खबरों को तवज्जो देने लगे हैं।
सरकारी चैनल नकारात्मक कार्यक्रम नहीं दिखाते, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं दिखाते, जो देश की सामाजिक चेतना के नर्मिाण में मददगार हो। विषय घिसे-पिटे हैं। प्रस्तुतीकरण स्तरीय नहीं है, जबकि तकनीक कहां से कहां पहुंच गई है। तुर्रा है कि 'टीआरपी से लेना-देना नहीं… हम तो तयशुदा फ्रेम में पद्मासन ही लगाएंगे।… हमें दाल में तड़का नहीं लगाना।'
अरे भाई! पद्मासन कूड़े पर लगाना ठीक है क्या? हिलते हुए रंग-बिरंगे फूल… हरा-भरा बागीचा भी तो चुना जा सकता है। दाल में अगर मिर्च-मसाला नहीं चाहिए, तो देशी घी, हींग-जीरे का खुशनुमा बघार तो लग ही सकता है। हरे धनिये से स्वाद और बढ़ता है। इससे परहेज क्यों? आप रोगी हैं और घी बिल्कुल वर्जित है, तो क्या आप देशभर के लोगों को उससे वंचित कर देंगे? दूसरी बात, तड़का लगाएं न लगाएं, दाल पकेगी और खाई तो साफ-सुथरे बर्तन में ही जाएगी?
निजी मीडिया कर्मियों की आर्थिक-सामाजिक सुरक्षा का मसला इस व़क्त अहम है। इस मामले में निजी मीडिया प्रबंधन बड़े पैमाने पर अनैतिक हैं। इधर कई न्यूज चैनल बंद हुए। हजारों मीडियाकर्मी सड़क पर हैं। आप बीस साल से रोज 12-14 घंटे छुट्टियों-वीकली ऑफ तक में काम कर रहे हों…लेकिन बढ़ती उम्र ही आपकी नाकाबिलियत है। आप ऐसी उम्र में बेरोजगार हैं, जब आपकी जिम्मेदारियां सबसे ज्यादा हैं। लेकिन मीडिया मालिक राष्ट्रभक्त बना रहेगा! क्या इसे नैतिक-अनैतिक दृष्टिकोण से देख-समझ सकते हैं? सरकारी मीडिया में भी अब स्थाई नौकरियां नहीं हैं। एक, दो और तीन साल के अनुबंध पर ही नौकरियां हैं।
कोई न्यूज चैनल बंद हुआ, तो कर्मचारियों का क्या दोष? बंद हो गए चैनलों या फिर चरमरा रहे चैनलों-अखबारों के कर्मचारियों ने तमाम सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ दृश्यांकित और लिखित आंदोलन चलाए, बड़े मंचों से दबे-कुचलों के लिए इंसाफ की गुहार लगाई, लेकिन जब वे अचानक सड़क पर फेंके गए या जाएंगे, तो कोई सामाजिक संस्था आंदोलन नहीं करेगी। कोई सियासी पार्टी आवाज नहीं उठाएगी। क्या यह समाज और सियासत का 'नैतिक' आचरण है?
चैनल, अखबार स्ट्रिंगरों को परिवार चलाने लायक पैसे नहीं देते। ज्यादातर ऐसे लोग ही निजी संवाददाता हैं, जो दूसरे व्यवसाय पर निर्भर हैं। क्या ऐसे संवाददाता हर व़क्त नैतिक मूल्यों वाली पत्रकारिता करेंगे और क्या वे पत्रकारिता का इस्तेमाल अपना रसूख बढ़ाने के लिए नहीं करेंगे? कस्बाई और छोटे जि़ला मुख्यालयों पर तैनात जो पत्रकार संपन्न नहीं हैं, वे खुद बताते हैं कि पुलिस-प्रशासन से पैसा या दूसरी जरूरी चीजों का जुगाड़ न करें, तो कैसे चलेगा? बच्चे को अच्छे स्कूल में पढ़ाना है, तो फीस माफ करानी पड़ेगी। इसके लिए धौंस-धपट की जाएगी या फिर प्यार-मुहब्बत से काम होगा, तो स्कूल के बारे में बढ़ा-चढ़ाकर प्रचार के हर हासिल मौके का इस्तेमाल किया जाएगा। क्या यह नैतिक है? सरकारें मीडिया गवर्नेंस में दखल नहीं देतीं, यह ठीक है, लेकिन मीडिया से जुड़े सबसे निचले तबके की सामाजिक सुरक्षा तो सुनिश्चित कर ही सकती हैं। लेकिन उन्हें केवल संपादक और रिपोर्टर ही दिखते हैं।
हजारों अनुभवी मीडियाकर्मी बेरोजगार हैं, दूसरी तरफ मास कम्युनिकेशन की महंगी पढ़ाई कराने वाले संस्थानों की बाढ़ है। ऐसे में जबकि टीवी न्यूज चैनल और अखबार अपने ही संस्थानों में अच्छे नंबरों से पास होने वाले सभी विद्यार्थियों को नौकरियां नहीं दे पाते, तो फिर किस इरादे से मास-कम्युनिकेशन स्किल सिखाई जा रही है? इससे कुंठित नौजवानों के हौसले टूट रहे हैं। इस अनैतिकता की तरफ क्या सरकारों, भारतीय प्रेस परिषद और मीडिया गवनिंर्ग बॉडियों को नहीं सोचना चाहिए?
सवाल यह भी है कि सामाजिक-सांस्कृतिक-नैतिक चेतना के विकास की जि़म्मेदारी क्या केवल सरकारों की है? जी नहीं, इसके लिए समाज भी उतना ही उत्तरदायी है। छोटे-बड़े, यहां तक कि मुहल्ला स्तर तक के सामाजिक संगठनों के नेतृत्व कहीं चूके हैं, तभी हम इन हालात तक पहुंचे हैं। आज निजी रेडियो चैनलों और कुछ मनोरंजन चैनलों की भाषा और सामग्री का स्तर ऐसा है कि आप परिवार के साथ सुन-देख नहीं सकते। भाषा ऐसी संवेदना है, जो व्यक्ति, समाज और देश-राष्ट्र के पूरे व्यक्तित्व का निर्माण या विध्वंस करती है। दार्शनिक चश्मे से देखें, तो विध्वंस भी क्रिया ही है। प्रतिक्रिया नहीं। सोचना होगा कि क्या क्रिया की जाए, जिससे सकारात्मक समाज के निर्माण में मदद मिले? ऐसा न हो कि जो हम कर रहे हैं, वह भले क्रिया ही हो, लेकिन असल में उससे सामाजिक मूल्यों में तोड़फोड़ हो रही हो। व्यावसायिक हित सबके हैं, लेकिन ऐसा भी न हो कि हम शादीशुदा होने की दलील देकर चौराहे पर चारपाई बिछा लें। आत्मनिर्भरता, अभिव्यक्ति की आजादी अपनी जगह है, लेकिन हम बच्चों को भी कड़ाई कर कुछ चीजें सिखाते ही हैं। फिर वे बच्चे अपने बच्चों को वही सब उसी तरह सिखाते हैं। अच्छे नागरिकों के निर्माण में अगर थोड़ी कड़ाई होती है, तो गलत क्या है? (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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