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हरियाणा भारत का इकलौता ऐसा राज्य है, जिसने हिन्दी भाषा को लेकर अस्तित्व की लड़ाई लड़ी, जहां हिन्दी रक्षा आंदोलन ने एक बड़ा और गंभीर रूप धारण कर लिया था। राज्य सरकार ने हिन्दी आंदोलन में भाग लेने वालों को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी माना है और उन्हें सेनानी वाली सुविधाएं देने की घोषणा की है
डॉ. उपेंद्र
उन दिनों हम जैसे कुछ लोग मलेशिया में थे। वहां विश्व संगीत समारोह आयोजित हुआ था। 5 अगस्त का दिन था। तभी एक खबर दी गई कि हरियाणा सरकार ने हिन्दी की लड़ाई लड़ने वालों को स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा दिया है और उन्हें एक सेनानी की तरह ही सुविधाएं दी जाएंगी। दुनियाभर से जुटे साहित्य और संगीत प्रेमियों को सहसा इस खबर पर विश्वास ही नहीं हुआ। किंतु यह बात सत्य थी।
वह मलेशिया, जिसकी भाषा तो मलय है किंतु अपनी कोई लिपि नहीं। ए बी सी डी (रोमन) लिपि में मलय भाषा लिखने-पढ़ने वालों को यह समझाना जरा मुश्किल था कि जिस हिन्दी भाषा से मलय, सिंहपुर (सिंगापुर), संतोषा (सेंटोसा आईलैंड), कुआलालंपुर, पुत्रजय, जैसे सैकड़ों संज्ञा, सर्वनाम शब्द निकले हैं, उसी हिंदी भाषा की रक्षा के लिए जान की बाजी लगाने वाले मातृभाषा रक्षकों को स्वतंत्रता सेनानी का सम्मान दिया है भारत के राज्य हरियाणा ने। उस हरियाणा ने जहां की धरती से दुनियाभर को कर्मयोग का संदेश देने वाले गीता उपदेशों की प्रचारक संस्था इस्कॉन की स्वर्ण जयंती पर स्वामी श्री प्रभुपाद के सम्मान में बीते साल इसी मुस्लिम देश मलेशिया ने डाक टिकट जारी किया है। इसी हरियाणा राज्य के स्वर्ण जयंती वर्ष में भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने 1957 के हिंदी रक्षा सत्याग्रह के आंदोलनकारियों को स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा देने का फैसला किया है।
हिंदी साहित्य सुधियों के लिए यह खबर रोमांचित कर देने वाली थी और बोर्नियो द्वीप स्थित सारावाक प्रदेश की राजधानी कुचिंग के समुद्रतटीय जंगलों के बीच इस वैश्विक समागम के लिए अभूतपूर्व-आश्चर्यजनक ब्रेकिंग न्यूज। संयोग से समारोह के दौरान 5 अगस्त को इस ब्रेकिंग न्यूज से पहले भी चर्चा चल पड़ी थी हरियाणा की। विद्वतजन सिंगापुर, मलेशिया से शुरू होकर थाईलैंड, म्यांमार, बांग्लादेश, भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, इराक तक को जोड़ने वाले एशियन हाईवे नंबर 2 को भाषायी जुड़ाव के नए सेतु के रूप में बखान रहे थे, तभी भारतीय प्रतिनिधिमंडल ने यह ब्रेकिंग न्यूज उपस्थित समुदाय से साझा की कि यह हाईवे भारत के एक प्रदेश हरियाणा से भी गुजरता है जिसने 1957 के हिंदी रक्षा सत्याग्रह के आंदोलनकारियों को स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा देने का फैसला किया है। सभागार में उपस्थित समुदाय को कौतूहल हुआ कि क्या दुनिया में कोई ऐसा भी देश-प्रदेश है जहां भाषा की लड़ाई लड़ने वालों को स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का दर्जा मिला हो। सभी विद्वानों ने अपनी स्मृतियों और तमाम गूगल सर्च के बाद एकमत से यह घोषणा की कि फिलहाल (5 अगस्त, 2016 की तिथि तक) कोई ऐसा देश-प्रांत नहीं है। उसी मंच से हमने यह सूचना साझा की कि हरियाणा प्रांतीय स्तर पर दुनिया की ऐसी पहली राजनीतिक-भौगोलिक इकाई है जो निज भाषा की लड़ाई लड़ने वालों को स्वतंत्रता सेनानी का गौरव प्रदान करने जा रही है। सिंगापुर-मलेशिया का दौरा पूरा करके दिल्ली लौटने पर हमें यह सूचना भी मिल गई कि हरियाणा सरकार का फैसला कोई दूर की कौड़ी नहीं, बिलकुल निकट की सचाई है। पहली सितंबर, 2016 को हरियाणा की मनोहर लाल खट्टर सरकार ने यह घोषणा भी कर दी कि 1957 के हिंदी आंदोलन में जेल गए सभी आंदोलनकारियों को स्वतंत्रता सेनानियों का दर्जा, सुविधाएं और सम्मान दिया जाएगा।
हिंदीभाषी राज्यों की कतार में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के नाम हिंदी भाषियों के संख्या बल के हिसाब से सबसे पहले लिए जाते हैं, लेकिन इनमें से किसी भी राज्य के जन्म या पुनर्गठन की जड़ में हिंदी भाषा की रक्षा को लेकर किसी आंदोलन का कोई इतिहास नहीं रहा। हरियाणा भारत का इकलौता राज्य है जिसने हिंदी भाषा को लेकर अस्तित्व की लडाई लड़ी, जहां हिंदी रक्षा आंदोलन एक बड़े और गंभीर आंदोलन के रूप में देश के सामने आया और जिसका जन्म हिंदी आंदोलन की कोख से हुआ। यह बात अलग है कि हरियाणा के जन्म के पीछे हिंदी भाषा की ऐतिहासिक महत्ता को समझने और राजकीय सम्मान देने में 50 साल लग गए। हरियाणा के हिंदी रक्षा सेनानियों को राज्य के जन्म वर्ष 1966 से 2015 तक इंतजार करना पड़ा। भारतीय जनता पार्टी की सरकार आने के बाद संसदीय कार्य, शिक्षा और पर्यटन मंत्री राम बिलास शर्मा ने इन सेनानियों की पहचान की जिम्मेदारी संभाली और मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने 1957 के हिंदी आंदोलन को हरियाणा के स्वतंत्रता संग्राम का दर्जा देते हुए इस आंदोलन के दौरान जेल जाने वालों को स्वतंत्रता सेनानी का मान दिए जाने का फैसला लिया। पार्टी के पहले विधायक और प्रदेश अध्यक्ष रहे राम बिलास शर्मा ने हिंदी आंदोलन के सेनानियों के दर्द को निकट से महसूस किया है और आंदोलनों में जेल की कोठरी की यातनाओं का भी उन्हें न भूलने वाला अनुभव है। छह फुट कद के राम बिलास शर्मा ने इमरजेंसी के दौरान बिहार की गया जेल में अपना बंदी काल गर्दन झुकाए झुकाए काट दिया क्योंकि उनका कद लंबा था और कोठरी की छत छोटी थी।
1990 से लेकर हरियाणा में भाजपा की सरकार बनने तक पार्टी अध्यक्ष रहे राम बिलास शर्मा का पंजाब-हरियाणा के हिंदी आंदोलन से जन्म का नाता है। वे याद करते हैं कि हिंदी भाषा के अस्तित्व की लड़ाई का मुद्दा पंजाब में सच्चर फार्मूला पेश किए जाने के बाद 1949 में उसी साल उठ खड़ा हुआ जब उनका जन्म हुआ। दरअसल, पंजाब के दूसरे मुख्यमंत्री भीमसेन सच्चर 13 अप्रैल, 1949 को कुर्सी पर बैठे। उन्होंने छह महीने के भीतर अक्तूबर माह में पंजाब को पंजाबी और हिंदी भाषी इलाकों में बांटकर सभी स्कूलों में चौथी कक्षा तक पंजाबी पढ़ाए जाने का फार्मूला रखा। भारतीय जनसंघ ने इस कांग्रेसी फार्मूले को पहले ही दिन से स्वीकार नहीं किया, आर्य समाज और भारतीय राष्ट्र व भाषा की एकता की महत्ता समझने वाले तमाम संगठनों ने सच्चर फार्मूले के खिलाफ आवाज बुलंद कर दी। पंजाब सरकार ने एक अक्तूबर, 1949 को भीमसेन सच्चर फार्मूला पेश किया और उसी वक्त आर्य समाज, जनसंघ व हिंदू महासभा ने इस फार्मूले का विरोध प्रारंभ कर दिया। हंगामा हुआ तो मुख्यमंत्री सच्चर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के पास दौड़े दिल्ली गए, लौटे तो भाषायी पढाई के मामले में थोड़ा संशोधन करके व्यवस्था दे दी कि मातृभाषा में पढ़ाई का विषय अभिभावकों के ऊपर छोड़ दिया जाए, जो चाहे मातृभाषा हिंदी में देवनागरी लिपि के हिसाब से अपने बच्चों को ककहरा पढ़वाए जो चाहे पंजाबी गुरुमुखी में। इस फार्मूले पर अकाली दल भी भड़क गया, ज्यादा बवाल हुआ तो उसी महीने सच्चर को गद्दी से उतार कर प्रधानमंत्री नेहरू ने गोपी चंद भार्गव को दोबारा मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठा दिया, जिनकी जगह सच्चर को मुख्यमंत्री बनाया गया था। लेकिन बात हाथ से निकल चुकी थी, पूरे पंजाब में पंजाबी भाषा पढ़ाए जाने की बात से राज्य की हिंदी पट्टी में विद्रोह जैसी स्थिति खड़ी हो गई।
दरअसल, दिल्ली की उत्तरी देसी रियासतों को मिलाकर महा-पंजाब के गठन की कोशिशों के मूल में ही हिंदी और पंजाबी भाषा की उपेक्षा के भाव उभरने लगे, जब 15 जुलाई, 1948 को पटियाला एंड ईस्ट पंजाब स्टेट्स यूनियन (पेप्सू) के नाम से नए राज्य का गठन हुआ। कश्मीर ही नहीं, उत्तर के सारे इलाकों में पंडित नेहरू की बात कांग्रेस में सबसे ऊपर रही, पंजाबी इलाकों में तो एक बार हालात यहां तक पहुंच गए कि मुहम्मद अली जिन्ना ने पूरे पंजाब को पाकिस्तान में मिला लेने की चाल चली और पंजाबी रियासतों को भ्रमित कर दिया। सरदार पटेल के प्रयासों से पूर्वी पंजाब किसी तरह बचा, और अमृतसर जिले से लेकर दिल्ली तक एक राज्य, एक भाषा, एक मत की अवधारणा पर सावधानी से काम शुरू हुआ। इसलिए सरदार पटेल खुद पेप्सू के जन्म के साक्षी रूप में पटियाला पहुंचे। पंजाब और पेप्सू सूबे बनते ही भाषा के आधार पर पंजाब का बंटवारा करने की मांग उठी किंतु भारतीय जनसंघ और आर्य समाज दोनों ने इसका शुरू से विरोध किया। इसी दौरान राज्यों के पुनर्गठन पर विचार करने के लिए बने दर आयोग और जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल व डॉ. पट्टाभि सीतारमैया को मिलाकर बनी तीन सदस्यीय जेवीपी कांग्रेस कमेटी ने भी जनसंघ और आर्य समाज के तथ्यों को स्वीकारा और इस कमेटी की रिपोर्ट को स्वीकार करते हुए कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में अप्रैल, 1948 में पंजाब और पेप्सू को फिलहाल यथास्थिति में बनाए रखने पर सहमति हुई। इसी महीने नेहरू ने बैसाखी के मौके पर 13 अप्रैल, 1949 को पंजाब के पहले मुख्यमंत्री गोपी चंद भार्गव की जगह भीमसेन सच्चर को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला कर डाला।
शास्त्री जी ने जगाई आस
लाल बहादुर शास्त्री जून, 1964 से 11 जनवरी, 1966 तक प्रधानमंत्री रहे। यही वह समय था जब हरियाणा प्रसव पीड़ा के दौर से गुजर रहा था। पंजाब में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हिंदी ने देश की राजधानी दिल्ली की हवाओं और फिजाओं को हिंदी रक्षा और हिंदी आंदोलन के नारों की ऊर्जा से भर रखा था। शास्त्री जी खुद हिंदी-प्रेमी थे। उन्होंने पंजाब के हिंदी रक्षा आंदोलन और महा पंजाब की मांगों पर बड़ी ही गहराई से चिंतन किया, किंतु तत्कालीन स्थितियों पर पकड़ बनाने को जितना समय चाहिए था, दैवयोग से वह शास्त्री जी को मिल नहीं सका। उन्हीं के समय में 26 जनवरी को हिंदी की देवनागरी लिपि को राष्ट्रीय भाषा सम्मान मिला। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने 'ऑर्गनाइजर' अखबार के गणतंत्र दिवस विशेषांक में इसी विषय पर 'हिंदी इज हियर' शीर्षक से एक लेख लिखा और कहा कि हिंदी भारत में प्रिंसपल भाषा ही बन सकी है। इस प्रिंसपल शब्द की जगह हिंदी को सरकारी कामकाज की भाषा के साथ ही व्यावहारिक भाषा का भी सम्मान मिलना चाहिए। 1965 में जनसंघ का 13वां अखिल भारतीय अधिवेशन जालंधर में हुआ था। अधिवेशन बहुत सफल रहा और हिंदी रक्षा आंदोलन के अंतिम परिणाम व हिंदी प्रदेश के गठन का संकेत भी दे गया यह अधिवेशन। प्रेमनाथ डोगरा, शेख अब्दुल रहमान, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, नानाजी देशमुख, विजया राजे सिंधिया, मुरली मनोहर जोशी, जगन्नाथ राव जोशी जैसे नेताओं ने हिंदी रक्षा आंदोलन को गर्मी को पंजाब में शिद्दत से अनुभव किया। 1965 में भारत-पाक युद्ध छिड़ा तो पंजाब के आंदोलन शांत हुए, जब तक युद्ध समाप्त हुआ, शास्त्री जी का निधन हो गया। उनके निधन से 13 दिन बाद 24 जनवरी, 1966 को इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाली। शास्त्री जी जो कार्य कर गए थे, इंदिरा गांधी ने उसे अपनी गति से ही चलने दिया और उसी साल हरियाणा का जन्म संभव हो सका।
इसी सच्चर फार्मूले से पंजाब में बीज पड़े भाषायी आधार पर बंटवारे के। 1955 में सच्चर के मुख्यमंत्रित्व काल में ही अखिल भारतीय कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन और शिरोमणि अकाली दल का अधिवेशन एक साथ अमृतसर में हुए, यहीं से नेहरू मंडली ने फिर एक फार्मूला निकाला जिसे रीजनल फार्मूला का नाम दिया गया। नेहरू ने सरदार हुकम सिंह को इस फार्मूले में योगदान की बदौलत लोकसभा का उपाध्यक्ष बनवा कर उपकृत किया और 1 नवंबर, 1956 को पेप्सू को मिलाकर नया पंजाब राज्य अस्तित्व में आया। पर भाषायी मुद्दे नए राज्य में सुलझने की जगह उलझते गए और अगले ही साल 1957 में आर्य समाज और भारतीय जनसंघ को हिंदी रक्षा आंदोलन चलाकर जेलें भरनी पड़ीं। बाद में इन्हीं हुकम सिंह को लोकसभा अध्यक्ष की कुर्सी मिली और इन्हीं की कलम से हुकम सिंह कमेटी की सिफारिशों के आधार पर 1966 में हरियाणा को अलग राज्य बनाने का इतिहास लिखा गया। हुकम सिंह कमेटी की सिफारिशों के आधार पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने न्यायमूर्ति शाह की अध्यक्षता में झटपट आयोग बनाया। एक महीने के भीतर रिपोर्ट आ गई और 1 नवंबर, 1966 को पंजाब से अलग हरियाणा का भारत के मानचित्र पर नए राज्य के रूप में उदय हुआ। यह अलग बात है कि शाह आयोग जिस चंडीगढ़ को अंबाला की खरड़ तहसील के साथ हरियाणा को देने का फैसला लिख गया था, वह इंदिरा गांधी की बंदरबांट में न पंजाब को मिला और न हरियाणा को। एक संघ शासित क्षेत्र के रूप में चंडीगढ़ उन झगड़ों का बीज बन गया, जिन्होंने आज भी पंजाब को हरियाणा से लड़वाने का काम जारी
रखा है।
(लेखक वरिष्ठ टिप्पणीकार एवं दैनिक ट्रिब्यून के राष्ट्रीय ब्यूरो चीफ हैं)
जनसंघ और आर्य समाज ने की 1957 आंदोलन की अगुआई
हिंदी को पंजाब में सम्मानित स्थान दिलाने के लिए भारतीय जनसंघ ने 1957 में राज्यव्यापी आंदोलन चलाया। जगह-जगह धरने-प्रदर्शन हुए। रोहतक, हिसार, सिरसा, जींद, अंबाला ही नहीं, जालंधर, नाभा और अमृतसर भी हिंदी आंदोलन में एकजुट, एक स्वर, एक तार नजर आए। अगस्त, 1957 में जनसंघ ने चंडीगढ़ में सिविल सेक्रेटेरियट के सामने हिंदी बचाओ सत्याग्रह प्रारंभ कर दिया। यह आंदोलन इतना जमीनी और तेज था कि सरकार हिल गई और हिंदी सत्याग्रहियों से पंजाब की जेलें भरी जाने लगीं। हालात बिगड़ते देख नवंबर 1960 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्रीगुरुजी को लाल बहादुर शास्त्री ने पंजाबी भाषी हिंदुओं को पंजाबी को ही मातृभाषा के रूप में अपनाने की सलाह दी तो उसे भी पंजाब जनसंघ नेताओं ने विनम्रतापूर्वक किंतु ठोस तकार्ें के आधार पर अस्वीकार कर दिया। उन्होंने 27 अगस्त, 1961 को महा पंजाब दिवस (यूनाइटेड पंजाब डे) मनाया और प्रस्ताव पारित किया कि पंजाब को पंजाबी भाषी राज्य बनाने की प्रत्यक्ष या परोक्ष हर कोशिश का विरोध किया जाएगा। अगस्त, 1965 में संत फतेह सिंह ने पंजाबी सूबे की मांग को लेकर आमरण अनशन शुरू किया, इसके विरोध में योगराज के नेतृत्व में जनसंघ के नेताओं ने भी प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को पत्र भेज दिया कि अगर संत फतेह सिंह की मांग के आगे केंद्र सरकार झुकती है तो देश जनसंघ के इन नेताओं के आत्मदाह की अग्नि की आंच बर्दाश्त करने को तैयार रहे। सितंबर, 1965 में प्रधानमंत्री शास्त्री ने पंजाबी सूबे की मांग और हिंदी की अस्मिता बनाए रखने के दोनांे आंदोलनों के मद्देनजर बीच का रास्ता निकालने के लिए तीन केंद्रीय मंत्रियों की समिति गठित कर दी। जनसंघ ने इस समिति के सामने भी हिंदी भाषा के माध्यम से पंजाब और भारत की एकता, अखंडता के ठोस तर्क प्रस्तुत करत हुए ज्ञापन सौंपा किंतु पंजाब की कांग्रेसी सरकार का पलड़ा भारी रहा।
कांग्रेस कार्यसमिति ने पंजाबी सूबा बनाने का प्रस्ताव पास कर दिया तो जनसंघ ने आपात बैठक बुलाकर इस फैसले को देश की एकता और अखंडता पर प्रहार की संज्ञा देते हुए विरोध किया। इस बैठक में अखिल भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष बलराज मधोक, महामंत्री दीनदयाल उपाध्याय, राज्यसभा में जनसंघ के नेता अटल बिहारी वाजपेयी और पंजाब अध्यक्ष डॉ. बलदेव प्रकाश ने बैठक के फैसले से पंजाब के नेताओं को अवगत कराया तो पंजाब जनसंघ के महामंत्री यज्ञदत्त शर्मा पंजाब राज्य की एकता के लिए आमरण अनशन पर बैठ गए।
संत फतेह सिंह की नेहरू से वार्ता विफल रही तो मास्टर तारा सिंह 10 अगस्त, 1961 को आमरण-अनशन पर बैठ गए। मास्टर तारा सिंह के जवाब में स्वामी रामेश्वरानंद और योगराज सूर्यदेव ने आर्य समाज मंदिर, दिल्ली और अमृतसर में पंजाबी सूबे की खिलाफत में भूख हड़ताल शुरू कर दी । 24 अगस्त को 50 राजनीतिक और धार्मिक नेताओं ने एकजुट होकर पंजाबी सूबे के गठन को लेकर दिल्ली दरबार को कड़ी चेतावनी दे डाली। हिंदी भाषी हरियाणा समेत समूचे पंजाब में पंजाबी भाषा थोपे जाने के खिलाफ जनसंघ के नेता केदारनाथ साहनी, सांसद प्रकाशवीर शास्त्री, विधायक लाला जगत नारायण, एमएलसी वीरेंद्र, हिंदी रक्षा समिति, पंजाब के कार्यकारी अध्यक्ष राम गोपाल शालवाला ने एकजुट होकर प्रधानमंत्री को कड़ी चिट्ठी लिखी। स्वामी रामेश्वरानंद का अनशन तभी खत्म हुआ जब प्रधानमंत्री नेहरू ने संसद में घोषणा की कि पंजाबी सूबे की मांग स्वीकार नहीं की जा सकती।
नेहरू जी के निधन के बाद प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने पंजाब सूबे की मांग और भाषायी समस्या के प्रति व्यावहारिक नजरिया अपनाया। तीन सितंबर, 1965 को आर्य प्रतिनिधि सभा की कार्यसमिति में पंजाबी सूबे के गठन के खिलाफ प्रस्ताव पारित हुआ और 5 सितंबर को पंजाब बंटवारा विरोध दिवस मनाया गया। तभी भारत-पाक युद्ध शुरू हो गया और शांति, सौहार्द की अपीलों के बाद संत फतेह सिंह ने अपना अनशन खत्म कर दिया। युद्ध समाप्ति के बाद पंजाब के भाषायी मुद्दे को हल करने के लिए संसदीय समिति का गठन किया गया। अटल बिहारी वाजपेयी ने घोषणा की कि प्रधानमंत्री और गृह मंत्री के आश्वासनों के आधार पर संसदीय समिति ने 18 मार्च, 1966 को अपनी रपट में पंजाब को भाषायी आधार पर दो सूबों में बांटने की सिफारिश कर दी है। जनसंघ, आर्य समाज के नेताओं ने तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री गुलजारी लाल नंदा से भेंट करके हरियाणा हित के मुद्दों पर विस्तार से उनके साथ चर्चा की।
टंडन भी बैठे भूख हड़ताल पर
बलराम दास टंडन आजकल छत्तीसगढ़ के राज्यपाल हैं। वे खुद पंजाब में हिंदी आंदोलन, राज्य के पुनर्गठन की लड़ाई के योद्धा रहे हैं। 27 दिसंबर, 1953 को भारत सरकार ने राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन किया। इस आयोग ने 1955 में पंजाब को बांटने की जगह उसे पेप्सू के साथ मिलाने की सिफारिश कर दी तो, कांग्रेस और अकाली दल दोनों ने पंजाबी भाषा के मुद्दे पर हाथ मिला लिया और एक क्षेत्रीय समझौते पर हस्ताक्षर किए। किंतु इस समझौते को इतना गोपनीय रखा गया कि जनसंघ के नेता बलरामदास टंडन को भूख हड़ताल करनी पड़ी। हरियाणा के विद्यालयों में पांचवीं कक्षा से पंजाबी को दूसरी भाषा के रूप में पढ़ाए जाने के फैसले से हिंदी इलाकों के अभिभावक और शिक्षक भड़क गए। 25 जून, 1956 को करनाल में हिंदू महा समिति की सभा में क्षेत्रीय फार्मूला खारिज हो गया और इसी के साथ उठ गई हिंदी प्रदेश हरियाणा के गठन की आवाज। जवाहर लाल नेहरू ने हिंदी भाषी इलाकों की आवाज अनसुनी कर दी तो हरियाणवियों का गुस्सा बढ़ता गया और आर्य समाज के नेता स्वामी आत्मानंद सरस्वती के नेतृत्व में हिंदी सत्याग्रह कमेटी ने हिंदी पट्टी के हितों की आवाज बुलंद भी की और पंजाब की कांग्रेसी सरकार के आदेशों की नाफरमानी के साथ जेलें भी भरीं। यही थी पृष्ठभूमि हरियाणा के जन्म की, जिसकी नींव भरी गई थी हिंदी आंदोलनकारियों के खून-पसीने से।
भारतीय जनसंघ ने पाकिस्तान की संवेदनशील सीमा से सटे पंजाब में भाषायी विवादों की अनदेखी से बढ़ते खतरों की ओर कांग्रेस सरकार का भरसक ध्यानाकर्षण किया, किंतु सरकार ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया, लिहाजा भाषायी विवाद बढ़ता गया और एक दशक बीतते-बीतते पंजाब के दूसरे बंटवारे की नौबत आ पहुंची। बलदेव प्रकाश ने पंजाब विधानसभा में इसी तनाव को लेकर आगाह करते हुए कहा कि पंजाब को आप कैसे बांटेंगे जिसका हर शहर और मुहल्ला दुभाषी है। कोई पंजाबी, तो कोई हिंदी भाषी। यहां तक कि पंजाबी भाषा की लिपि भी देवनागरी ही प्रचलित है। 50 विधायकों का एक प्रतिनिधिमंडल इस मुद्दे पर दिल्ली जाकर प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से भी मिल आया। संत फतेह सिंह ने पंजाबी सूबे की मांग को लेकर भूख हड़ताल शुरू कर दी। सरकार और कांग्रेस की 22 दिनों तक चली मान-मनौवल के बाद संत दिल्ली जाकर प्रधानमंत्री से मुलाकात को राजी हो गए। नेहरू ने सूबे की मांग तो खारिज कर दी लेकिन सरकार को यह हिदायत जरूर दी कि पंजाबी को पूरे पंजाब में लागू करने और उसे हर संभव बढ़ावा देने के लिए सभी कदम उठाए जाएं। हिंदी रक्षा समिति के स्वामी रामेश्वरानंद ने हिंदी पट्टी पर पंजाबी थोपे जाने का जोरदार विरोध किया और अखबारों में धुआंधार लेख प्रकाशित कराए। इसी का परिणाम है कि हरियाणा में हिन्दी स्थापित हो पाई।
श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने समझी हिंदी की पीड़ा
कश्मीर जाते समय श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 10 मई, 1953 को अमृतसर में पंजाबी सूबे की मांग कर रहे अकाली नेताओं के साथ मुलाकात की। मास्टर तारा सिंह ने पंजाबियों के लिए अलग राज्य की मांग पर जोर दिया, जबकि जनसंघ के नेताओं ने महापंजाब के रूप में एक भाषा, एक प्रांत की बात पर बल दिया। मुखर्जी ने पंजाब में हिंदी भाषा-भाषियों की पीड़ा को समझा और कश्मीर से लौटकर इस मुद्दे को राष्ट्रीय स्तर पर उठाने का आश्वासन दिया। किंतु विधि की विडंबना कि उनकी कश्मीर से वापसी संभव ही नहीं हो सकी और अमृतसर की यही यात्रा उनकी अंतिम पंजाब यात्रा साबित हुई। राज्य पुनर्गठन आयोग ने अप्रैल, 1954 में पंजाब का दौरा किया तो पंजाब जनसंघ के नेता दीवान अलखधारी ने कहा कि यमुना और रावी नदियों के बीच की सारी धरती एक सूत्र में बंधी सांस्कृतिक, भौगोलिक, सामाजिक इकाई है। इसे बांटना किसी के हित में नहीं होगा। मार्च, 1956 में सरकार ने क्षेत्रीय फार्मूला पेश किया तो जनसंघ और आर्य समाज ही इस फार्मूले के खिलाफ खड़े नजर आए और 'महा पंजाब जिंदाबाद, क्षेत्रीय फार्मूला मुर्दाबाद' के नारे दिल्ली से लेकर अमृतसर तक एक साथ, एक तार, एक स्वर में गूंज उठे। इस फार्मूले के तहत पंजाब और पेप्सू को मिलाकर उसे पंजाबी भाषी और हिंदी भाषी दो क्षेत्रों में बांटने का प्रस्ताव था। जनसंघ का मत था कि हिंदी हर पंजाबी की संपर्क भाषा होनी चाहिए, जिसकी मातृभाषा पंजाबी है वह पंजाबी जरूर बोलें, गर्व से बोलें और प्राथमिक तक की पढ़ाई पंजाबी में करें। इसी तरह जिनकी मातृभाषा हिंदी है वे हिंदी को संपर्क भाषा के साथ ही पढ़ाई लिखाई भी हिंदी में करें। न किसी हिंदी भाषी पर पंजाबी थोपी जाए और न किसी पंजाबी को घर में हिंदी बोलने की मजबूरी हो। किंतु पंजाबी एक क्षेत्रीय भाषा है, लिहाजा देश के सीमा प्रहरी प्रांत पंजाब के लोगों को राष्ट्रीय संपर्क, अस्मिता और राष्ट्रीय एकता के मद्देनजर हिंदी जरूर सीखनी, पढ़नी और बोलनी चाहिए। जनसंघ ने हिंदी रक्षा समिति के हिंदी रक्षा आंदोलन को तन-मन-जन से सहयोग दिया। पंजाब जनसंघ के अध्यक्ष और महा पंजाब अभियान के सचिव कैप्टन केशव चंद ने क्षेत्रीय फार्मूला की बाबत कहा, क्षेत्रीय फार्मूला की पूरी योजना पांच नदियों की धरती पंजाब के पानी में सांप्रदायिकता का विष घोल देगी। इससे पंजाबी तो बरबाद होंगे ही, देश की एकता और अखंडता पर गहरी चोट पहुंचेगी। हिंदी समिति का सीधा मत था कि बच्चों की स्कूली शिक्षा का विषय पूरी तरह से अभिभावकों पर छोड़ देना चाहिए, जो चाहे अपने बच्चों को पंजाबी में पढ़ाए और जिसका मन हो, हिंदी माध्यम से स्कूली शिक्षा दिलाए।
जालंधर से उठी हिंदी की आवाज
अप्रैल 1948 में पंजाबी गुरुमुखी और देवनागरी हिंदी दोनांे ही पंजाब की सरकारी भाषाओं के रूप में स्वीकार की गई थीं। किंतु फरवरी, 1949 में जालंधर की म्युनिसिपल कमेटी ने स्कूलों में हिंदी की देवनागरी लिपि में पढ़ाई-लिखाई करने का फैसला लिया, जिसका पंजाबी भाषियों ने विरोध किया।
पंजाब विधानसभा के 19 विधायकों और अंबाला डिवीजन के दो सांसदों ने पंजाब, पेप्सू, हिमाचल प्रदेश के हिंदी भाषी इलाकों के साथ ही दिल्ली, यूपी के मेरठ और आगरा इलाकों को भी हरियाणा में शामिल करने की मांग उठाई। कमीशन ने उलटे इन सारे इलाकों को मिलाकर एक राज्य गठित करने की सिफारिश कर दी। 22 मार्च, 1956 को पेप्सू विधानसभा ने सर्वसम्मति से इस प्रस्ताव को मंजूरी दे दी। इसके साथ ही पंजाबी और हिंदी दोनांे ही राज्य की सरकारी भाषाएं मान ली गईं।
हरियाणा विकास समिति ने दिखाया रास्ता
2 मार्च, 1961 को पंजाब सरकार ने हरियाणा विकास समिति का गठन किया, ताकि हिंदी पट्टी का उत्थान हो सके। श्री राम शर्मा इस समिति के अध्यक्ष बनाए गए, राव निहाल सिंह और जीएल बंसल समिति के दो अन्य सदस्य थे। इस समिति ने हरियाणा की भौगोलिक सीमा वाले इलाकों की दुर्दशा का जो खाका प्रस्तुत किया, उसने केंद्रीय नेताओं को पंजाब के बंटवारे की बाबत गंभीरता से सोचने को मजबूर कर दिया। किंतु जवाहर लाल नेहरू के प्रधानमंत्री रहते यह संभव नहीं हो सका। लाल बहादुर शास्त्री के प्रधानमंत्रित्व काल में इस दिशा में प्रगति हुई और 23 सितंबर, 1965 को लोकसभा अध्यक्ष सरदार हुकुम सिंह की अध्यक्षता में पंजाब के मुद्दे को हल करने के लिए संसदीय समिति गठित की गई। 18 मार्च, 1966 को हुकुम सिंह समिति ने अपनी रपट सौंपी। इस समिति ने हरियाणा को अलग राज्य बनाने और चंडीगढ़ व उससे सटी खरड़ तहसील हरियाणा को सौंपे जाने की सिफारिश कर दी। इस समिति की सिफारिशों के अनुसार पंजाब के बंटवारे और हरियाणा की सीमाओं आदि के मुद्दे तय करने के लिए इंदिरा गांधी की सरकार ने न्यायमूर्ति शाह की अध्यक्षता में शाह आयोग नियुक्त कर दिया। 10 सितंबर को शाह आयोग ने अपनी रपट दी और पहली नवंबर, 1966 को हरियाणा राज्य का भारत के मानचित्र पर उदय हुआ।
नेहरू ने लालकिले की प्राचीर से खारिज की थी मांग
पंजाब में सरदार प्रताप सिंह कैरों के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार ने पंजाबी को हिन्दी भाषा-भाषी इलाकों पर भी थोपने की योजना बनाई। आर्य समाज ने हिन्दी को बचाने का अभियान छेड़ा। भारतीय जनसंघ ने कंधे से कंधा मिलाकर हिन्दी रक्षा समिति खड़ी की जिसने सत्याग्रह आन्दोलन करने का निर्णय लिया। सत्याग्रह का शंखनाद 1957 में हुआ।
आर्य समज के नेताओं ने आर्य समाज के प्रचार तथा प्रसार के लिए रोहतक, रेवाड़ी, चरखी दादरी आदि में हरियाणा प्रांतीय आर्य महासम्मेलन का भव्य आयोजन किया और हिंदी की रक्षा के लिए तन-मन-धन से जुटने का संकल्प लिया। कांग्रेस ने इस मामले में पंजाबी भाषा थोपने की राजनीति चली और इस मुद्दे ने हिंदू बनाम पंजाबी सिख मोड़ लेना शुरू कर दिया जिससे मामला गरमाया तो कई जगह साम्प्रदायिक सौहार्द बिगड़ने की नौबत आ गई। 1 अगस्त, 1958 को सद्भावना समिति गठित करके मामले को दूसरा मोड़ देने की कोशिश की गई, किंतु मास्टर तारा सिंह और उनके अनुयायियों के कड़े रुख की वजह से सफलता नहीं मिली। 15 अगस्त, 1960 को लालकिले से अपने संबोधन में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने पंजाबी सूबे की मांग को तमाशा करार दिया और इसे लालकिले की प्राचीर से ही खारिज कर दिया।
तमिल रही दूसरी भाषा
पंजाब और पंजाबी को लेकर खुद कांग्रेसी सरकारें इतनी तल्ख रहीं कि बंसीलाल ने 1969 में तमिल को हरियाणा की दूसरी सरकारी भाषा का दर्जा दे दिया। वे नहीं चाहते थे कि पंजाबी राज्य की दूसरी भाषा बने। इसलिए उन्होंने बगैर कुछ सोचे-समझे, बगैर किसी तार्किक आधार के सुदूर दक्षिण की भाषा तमिल को दूसरी भाषा का दर्जा दे डाला, जिससे मुक्ति के लिए आंध्र ने पहली कुर्बानी दी थी और भाषायी आधार पर पहला सूबा बना था। यह स्थिति 40 साल तक बरकरार रही। 23 फरवरी, 1969 को राज्यपाल ने तमिल को दूसरी सरकारी भाषा बनाए जाने को मंजूरी दी और 15 मार्च, 1969 को गजट कराके बंसीलाल ने इसे बाकायदा सरकारी भाषा बना दिया। बावजूद इसके कि हरियाणा में हिंदी से तमिल में अनुवाद करने वाला एक भी अनुवादक नहीं था। 2010 में कांग्रेसी मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने पंजाबी को हरियाणा की दूसरी सरकारी भाषा का दर्जा दिलवाया।
आंध्र बनने से गरमाई भाषायी राज्यों की नीति
1953 में मद्रास राज्य के तेलुगू भाषी इलाके को अलग करके आंध्र प्रदेश बनाने की मांग को लेकर आमरण-अनशन कर रहे पोट्टि श्रीरामलु की मृत्यु हो गई। इससे आंदोलित लोगों की आवाज का नेहरू सरकार पर इतना दबाव पड़ा कि उन्होंने चार दिन के भीतर ही आंध्र प्रदेश नाम से नए राज्य के गठन की घोषणा कर दी। इस घटना से प्रेरित होकर पेप्सू के अकाली दल अध्यक्ष संपूर्ण सिंह रमन ने पंजाबी भाषी सूबा बनाए जाने की मांग को लेकर आमरण अनशन प्रारंभ कर दिया। कुछ ही दिनों में राजनीतिक झंझावात इतना तेज हो गया कि मार्च, 1953 में पेप्सू में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। रियासती अकालीदल रमन गुट ने मांग की कि हरियाणा इलाके के हिंदी भाषी इलाकों को आजाद कर दिया जाए वो जहां चाहें जाएं, पंजाबी सूबा अलग बने। 18 अप्रैल, 1955 को राज्य पुनर्गठन आयोग की बैठक पटियाला में हुई, जिसमें सभी दलों ने अपने-अपने मांगपत्र प्रस्तुत किए।
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