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सिरज सक्सेना ने कॅरियर के रूप में सिरेमिक्स आर्ट को अपनाकर यह दिखाने की कोशिश की है कि आज भी इस कला में अपार संभावनाएं हैं
प्रेरणा
मां इन्दु सक्सेना
उद्देश्य
मिट्टी के काम को समाज में उसका उचित स्थान दिलाने की दिशा में कार्य करना
जीवन का अहम मोड़
1996 में जब इंदौर छोड़कर भारत भवन भोपाल आना हुआ
ज्ञान और धन के प्र्रति दृष्टि
ज्ञान है तो जीवन में कभी पैसों का अभाव महसूस न
दिलचस्प तथ्य
सेरेमिक्स, टेक्सटाइल, पेन्टिंग हर विधा पर एक समान अधिकारहीं करेंगे
मिट्टी को दिलाया मोल
आशीष कुमार 'अंशु'
भारत जैसे देश में जहां मिट्टी के काम की समृद्ध परंपरा रही है, कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि यहां कुम्हार खत्म होने के कगार पर हैं। हां, इस घोर अंधकार में थोड़ी उम्मीद वे युवा जरूर जगाते हैं, जो मिट्टी के काम को फिर से पुराना स्थान दिलाने के लिए प्रयासरत हैं। यह प्रयास प्रारंभिक अवस्था में है, जिसका प्रतिनिधित्व कर रहे सिरज सक्सेना जैसे युवाओं का उत्साह देखकर लगता है कि सिरेमिक्स का भविष्य भारत में उज्ज्वल है। राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय आयोजनों में सिरज लगातार अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर रहे हैं। वे मानते हैं कि ''कॅरियर के रूप में सिरेमिक्स को गंभीरता से अपनाने वाले युवाओं के लिए मन का संतोष है और अंतरराष्ट्रीय बाजार भी उनकी तरफ देख रहा है। अब भारत के अंदर भी इस कला के प्रति लोगों का नजरिया बदला है।''
सिरज मध्य प्रदेश के मऊ से हैं। उनकी पढ़ाई उज्जैन में हुई। 1996 में स्नातक की परीक्षा का अंतिम दिन बीता और अगले दिन वे भारत भवन, भोपाल में थे। सिरज के अनुसार ''उनका कला शिक्षण भारत भवन में ही हुआ है।''
सिरज जब भारत भवन में पहुंचे, तब उनके पास दो रास्ते थे। एक ग्राफिक की तरफ जाता था और दूसरा सिरेमिक आर्ट (चीनी मिट्टी से बर्तन बनाने की कला) की तरफ। वे बताते हैं, ''मिट्टी से मेरा संबंध गहरा बन पाएगा, यह सोचकर मैंने सिरेमिक्स को अपना लिया।'' सिरज यह भी कहते हैं, ''आज नए लोग इस क्षेत्र में आने से सिर्फ इसलिए डरते हैं क्योंकि उन्हें लगता है, यहां उनकी मेहनत का सही मूल्य नहीं मिलेगा, लेकिन समझने की बात यह है कि इस काम का बाजार बहुत बड़ा है। आप जैसे ही भारत के बाहर चीन, जापान, कोरिया, रूस, इंडोनेशिया, अमेरिका, कनाडा, ऑस्टे्रलिया जाएंगे, आप पाएंगे कि वहां सिरेमिक्स को लेकर समाज में जागरूकता अधिक है। लोग अपने घरों में मिट्टी के बर्तन में खाना-पीना पसंद करते हैं। वहां छह महीने में, एक साल में, दो साल में बड़े-बड़े सिरेमिक्स की प्रदर्शनियां होती रहती हैं।'' भारत में वडोदरा की सिरेमिक कलाकार ज्योत्सना भट्ट और दिल्ली के कलाकार दरोज ऐसे चंद कलाकारों में हैं, जिन्होंने पूरी दुनिया में भारतीय सिरेमिक्स को पहचान दिलाई है। भोपाल, बेंगलुरु, मुम्बई, दिल्ली, चेन्नई में सिरेमिक्स स्टूडियो हैं।
मिट्टी से खेलना और मिट्टी को गढ़ना, हमारी पुरानी परंपरा है। गुरुजन कह गए हैं – कला सीखनी है तो साहित्य के पास जाइए। यह नया समय है, जहां हमें सब कुछ सीखने की जल्दी है। नृत्य, चित्रकला, गायन, वादन, साहित्य के अलग-अलग विद्वान होने लगे और हम इनके अंतर्संबंध को न सिर्फ भूल गए, बल्कि आज हम इस विषय पर बात करने की भी जरूरत महसूस नहीं करते।
सिरज मानते हैं, ''भारतीय कला की समृद्ध परंपरा में सभी कलाएं कभी अलग-अलग नहीं थीं। सभी जुड़ी हुई रही हैं।''
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