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पाञ्चजन्य ने सन् 1968 में क्रांतिकारियों पर केन्द्रित चार विशेषांकों की शंृखला प्रकाशित की थी। दिवंगत श्री वचनेश त्रिपाठी के संपादन में निकले इन अंकों में देशभर के क्रांतिकारियों की शौर्यगाथाएं थीं। पाञ्चजन्य पाठकों के लिए इन क्रांतिकारियों की शौर्यगाथाओं को नियमित रूप से प्रकाशित कर रहा है। प्रस्तुत है 29 अप्रैल ,1968 के अंक में प्रकाशित शहीद श्री महाबीर सिंह के साथी रहे जयदेव कपूर का आलेख:-
जयदेव कपूर
लाहौर षड्यंत्र केस के एक महान शहीद पर कुछ लिखने बैठा हूं। आज—लाहौर, जहां रावी के किनारे खड़े होकर एक दिन राष्ट्र ने 'आजादी या मृत्यु' की शपथ ली थी, हमसे काट कर अलग कर दिया गया है। लाहौर, जहां कर्तारसिंह और पिंगले ने, जहां भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु ने फांसी के मंच से आजादी का अमर गान गाया था, लाहौर जहां यतीन्द्रनाथ दास और भगवती चरण ने अपनी अस्थियां और रक्त दे कर देश को जगाया था, लाहौर जो हमारे कितने ही जाने-अनजाने शहीदों की बलि-वेदी से हमारे हिन्दुस्तान से पृथक है। आज वहां हिन्दुस्तानी नहीं, पाकिस्तानी झंडा लहरा रहा है, भूख और बेकारी, बेरोजगारी और भुखमरी से आक्रांत है। सीमाओं पर दुश्मन ललकार रहे हैं। अंदर अन्न के एक-एक दाने के लिए देश मोहताज है। कुशासन और भ्रष्टाचार की चक्की में जनता पिस रही है, कराह रही है।
मेरे मानस पटल पर यादों का एक मेला-सा लगा है। पिछली लड़ाइयों का इतिहास आंखों के सामने उभर रहा है। कितनी ही बातें याद आ रही हैं, कितने ही व्यक्ति याद आ रहे हैं। उनमें से एक भाई महाबीर सिंह हैं।
पिता की देशभक्ति
16 सितम्बर 1904 उत्तर प्रदेश के ऐटा जिले के अन्तर्गत शाहपुर टहला ग्राम के एक क्षत्रिय परिवार में उनका जन्म हुआ था। पिता कुंअर देवी सिंह और माता शारदा देवी, दोनों की प्रवृत्ति धर्म-प्रमुख थी। कुंअर देवी सिंह की नसों में राजपूती खून दौड़ता था।
जब वे किशोर थे
तहसील कासगंज में एक दिन सरकारी अफसरों ने एक अमन-सभा का आयोजन किया। जिले के कलक्टर, पुलिस कप्तान, स्कूल इंसपेक्टर, आस-पास के सभी अमीर उमराव एकत्र हुए। स्कूल के छोटे-छोटे बच्चों को भी उस सभा में ले जाकर बल-पूर्वक बिठाया गया। इनमें महाबीर सिंह भी थे। सभा की कार्यवाही क्या थी—ब्रिटिश सरकार का गुणगान और बागी गांधी की भर्त्सना। छोटे-छोटे बच्चे भय से चुप थे किंतु अंदर ही अंदर झुझला रहे थे। एकाएक उनके बीच में किसी ने पुकारा—'महात्मा गांधी की जय,' 'ब्रिटिश हुकूमत का नाश हो।' सब लड़कों ने एक साथ ऊंचे स्वर से दुहराया— महात्मा गांधी की जय, ब्रिटिश हुकूमत का नाश हो। बस फिर क्या था? संपूर्ण सभा-भवन नारों से गूंज उठा। अफसर, अहलकार घबरा उठे। कुछ लोगों का पारा इतना चढ़ गया कि लड़कों के उस मुखिया का पता लगायें। तहकीकात हुई। बालक महाबीर सिंह को ही विद्रोही नेता करार दिया गया। सजा मिली। हंसकर झेल डाली। लेकिन बागी दिल और भी मजबूत हो गया।
हाई स्कूल परीक्षा पास करने के बाद सन् 1925 में महाबीर सिंह कानपुर के डीएवी कालेज में पढ़ने आये। उस समय तक प्रथम असहयोग आंदोलन सरकार की संगीनों और लाठियों के नीचे दब गया था, लेकिन राष्ट्र की विप्लवी आत्मा अंदर ही अंदर सुलग रही थी। नेतागण सीधी मार का रास्ता छोड़कर असेंबली की नरम गद्दियों पर बैठकर वैधानिक संघर्ष चला रहे थे। यह महाबीर सिंह की विद्रोही आत्मा को स्वीकार न था। उन्हें क्रांतिकारी दल में आकर शांति मिल सकती थी। वे हिन्दुस्तानी प्रजांतंत्र सेना में भरती हो गये।
फिर तो घर छूटा, कोलेज छूटा माता, पिता, सगे-स्नेही सबके रिश्ते-नाते छूटे।
सांडर्स-वध में प्रमुख हाथ था
महाबीर सिंह ने अपना सब कुछ इस क्रांतिकारी पार्टी को अर्पित कर दिया। अब वह एक जीवन-व्रती क्रांतिकारी थे। कभी उत्तर प्रदेश में, कभी पंजाब में, जब जहां दरकार हुई, महाबीर सिंह हाजिर थे। पार्टी को एक अच्छे मोटर ड्राइवर की आवश्यकता थी। वह थोड़े ही दिनों में कठारे परिश्रम करके अच्छे ड्राइवर बन गये। पार्टी के पास पैसा न था। पंजाब नेशनल बैंक को लूटने की योजना बनी। महाबीर सिंह सबसे आगे, नियत समय पर बैंक के सामने पहुंच गये। लाला लाजपतराय पर लाठियां बरसीं और उनकी मृत्यु हो गई। इस राष्ट्रीय अपमान के प्रतिशोधस्वरूप लाहौर में पुलिस सुपरिंटेंडेंट सांडर्स का वद्य हुआ। महाबीर सिंह का इसमें प्रमुख हाथ था।
जेल में
सभी हड़ताली इस जुल्म का विरोध करते थे, लेकिन महाबीर सिंह इसमें सबसे अधिक जबर्दस्त थे। चाहे जैसी मोठी नली क्यों न हो, नाक के अंदर जाते ही वे खांस कर उसे मुंह में निकाल लेते और फिर दांतों से दबाये घंटों पड़े रहते। प्राणायाम का इतना अच्छा अभ्यास था कि इनके पेट में नली डालकर कर्नल बाकर आधे घंटे तक प्रयत्न करते रहे लेकिन दूध की एक बूंद भी अंदर न उतार सके। सरकार द्वारा भेजे गये विशेषज्ञ डाक्टरों के लिए महाबीर सिंह का पौरुष और पराक्रम एक महान आश्चर्य था। अंत में सरकार झुकी।
सभी सोचते थे कि महाबीर सिंह को पुरस्कार में फांसी का फंदा मिलेगा। और महाबीर सिंह सदैव मस्ती के साथ हंस कर कहा करते थे—मैं राजपूत क्षत्रिय की तरह मरूंगा। 7 अक्तूबर 1930 को अदालत का फैसला जेल में सुना दिया गया। भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु को फांसी की सजा मिली। महाबीर सिंह, शिव वर्मा, मुझे (जयदेव कपूर), डॉक्टर गया प्रसाद, विजय कुमार सिन्हा, कमलनाथ तिवारी आजीवन कारावास द्वारा पुरस्कृत हुए। कुंदनलाल को 7 वर्ष और प्रेमदत्त को 5 वर्ष की सख्त सजा मिली।
मद्रास के युवकों की प्रेरणा
सजा सुनाई जाने के बाद कुछ दिन महाबीर सिंह लाहौर सेंट्रल जेल की पुरानी फांसी की कोठरियों में बंद रहे। बाद को मुल्तान भेजे गये और वहां से सुदूर प्रांत मद्रास भेज दिये गये। यहां इन्हें तथा इनके साथ डॉ. गया प्रसाद को वेलारी जेल में रखा गया। जेल में लोहे की लंबी काली टिकटिकी से महावीर सिंह को बांध दिया गया। शरीर के सब वस्त्र फाड़कर इन्हें बिल्कुल नंगा कर दिया गया। इसके बाद बेतों से नितम्ब की खाल उधेड़ दी गयी। खून के कतरे एक धार में नीचे गिरते जाते थे। मास के छोटे-छोटे टुकड़े बेंत के साथ चिपटे चले जाते थे।
बेतों की सजा, साहस के साथ झेल डालने के पश्चात महाबीर सिंह ने इन पंक्तियों के लेखक को राजमहेन्द्री जेल में एक छोटा-सा संदेश भेजा था— 'भैया, तुमने जो अग्निपरीक्षा राजमहेंद्री जेल में पहले ही पास कर ली, मैंने भी वह परीक्षा वेलारी जेल में अच्छे नंबरों से पास कर ली है।''
अंदमान भेजा गया
1933 के आरंभ में मद्रास सरकार ने तंग आकर महाबीर सिंह और उनके साथियों को अंदमान टापू में भेज दिया। वहां भी अनशन चला। पांचवें दिन उन राक्षसों ने महाबीर सिंह को जमीन पर पट कर दबा लिया। डॉक्टर ने नाक के रास्ते नली को डालकर फेफड़ों में उतार दी। महाबीर सिंह छाटपटाए, लेकिन पठानों के फौलादी हाथ उसे हिलने न देते थे। डाक्टर ने कीप में दूध भर दिया। महाबीर सिंह का फेफड़ा फट गया, वह चल बसे।
वे 3 शहीद
जेल के दानव चुपके से उन्हें स्ट्रेचर पर उठा ले गए। रात्रि के गंभीर अंधकार में जेल के फाटक से चार आदमी एक लाश लेकर बाहर निकले। सामने थोड़ी दूर पर अबरडीन सागर हिलोरें ले रहा था। हवा सांय-सांय कर रही थी। चारों ओर सन्नाटा था। उसी सन्नाटे में वह लाश चुपके से समुद्र के गर्भ में चली गई। दूसरे दिन भाई मोहन किशोर और तीसरे दिन मोहित भैया भी उसी सागर गर्भ में महाबीर सिंह से जा मिले।
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