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पाञ्चजन्य
वर्ष: 13 अंक: 9
14 सितम्बर ,1959
इतिहास के पन्नों से
(श्री लल्लन प्रसाद व्यास)
विगत समय में विश्व की सबसे महत्वपूर्ण संस्था-संयुक्त राष्ट्र संघ में भारतीय प्रतिनिधि श्री बी.के. कृष्ण मेनन ने कश्मीर के प्रश्न पर जिस योग्यता, दृढ़ता, स्पष्टता और युक्तिपूर्वक अपने पक्ष का समर्थन किया, उससे उन्होंने देश में पर्याप्त प्रतिष्ठा और सम्मान अर्जित कर लिया है। निश्चय ही अन्तरराष्ट्रीय समस्याओं के संबंध में श्री मेनन के सम्यक ज्ञान और उनकी वक्तृता के संबंध में दो मत नहीं हो सकते। किन्तु यहां विचारणीय बात यह है कि जब भारत अन्तरराष्ट्रीय मामलों में तटस्थ एवं स्वतंत्र नीति का अनुसरण कर रहा है उस अवस्था में हमारे प्रतिनिधि का किसी विचारधारा या गुट विशेष के प्रति झुकाव के लिए प्रसिद्ध होना देश के लिए कहां तक उचित एवं हितकर है? संभव है कि हमारे अनेक देशवासी श्री मेनन के व्यक्तित्व और कर्तृत्व के इस पक्ष से न अवगत हों किन्तु पश्चिमी राष्ट्रों में यह आम धारणा है कि श्री मेनन अन्तरराष्ट्रीय साम्यवाद और उसके परम पोषक रूस और चीन के प्रबल समर्थकों में हैं। भारत जैसे तटस्थ देश के लिए यह दुर्भाग्य की ही बात कही जाएगी कि उसके इतने महत्वपूर्ण नेता जो विश्व संख्या में भारतीय प्रतिनिधि मण्डल के प्रधान के साथ ही साथ राष्ट्र के प्रतिरक्षा मंत्री भी हैं, के संबंध में किसी गुट विशेष के पक्षपाती होने का संदेह किया जाए, किन्तु इस संबंध में तथ्य कुछ ऐसे ही हैं जिनकी ओर से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। यही कारण है कि भारत समर्थक एक प्रमुख विदेशी पत्रकार ने लिखा है, ''भारत और अमरीका के संबंधों में एक सबसे बड़े दुर्भाग्य की बात यह है कि श्री कृष्ण मेनन संयुक्त राष्ट्र संघ में भारतीय प्रतिनिधिमण्डल का नेतृत्व करते हंै जिनसे कि दोनों देशों के बीच वैमनस्य उत्पन्न होता है। यदि उन्हें साम्यवाद के लिए ही कार्य करना है और दोनों देशों की मैत्री समाप्त करनी है तो उन्हें वर्तमान रूप त्याग देना चाहिए।''
इंग्लैंड में-प्रसिद्ध लेखक और पत्रकार श्री ए.डी. गोरवाला श्री मेनन के संबंध में एक स्थान पर लिखते हैं कि 1936 से श्री मेनन का कम्युनिस्ट पार्टी से सम्बंध रहा है। साम्राज्यवाद विरोधी लीग नामक कम्युनिस्ट समर्थक संस्था के अनेक सदस्य श्री मेनन के साथ इण्डिया लीग की कार्यकारिणी में थे। डण्डी क्षेत्र के लिए अपना उम्मीदवार चुनने वाले मजदूर दल ने अंत में उन्हें अपना उम्मीदवार इसीलिए नहीं रखा क्योंकि वे कम्युनिस्टों के साथ संयुक्त मोर्चे से पृथक नहीं होना चाहते थे। द्वितीय महायुद्ध के बारे में भी उनका दृष्टिकोण वही रहा जो कम्युनिस्टों का था। इसीलिए एक अवस्था वह भी आयी जब उन्होंने महायुद्ध का विरोध करने की कांग्रेस की नीति की आलोचना की और उनकी इण्डिया लीग ने कांग्रेस की भारत छोड़ो नीति का समर्थन करने से इनकार कर दिया। श्री मेनन ने युद्ध काल में और उसके बाद भी ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टर्ी से संबंध रखा। इसीलिए ऐसा बताया जाता है कि एटली सरकार ने श्री मेनन की लंदन में प्रथम भारतीय उच्चायुक्त के रूप में स्वीकार करने से असहमति प्रकट की थी। यद्यपि बाद में सहमत हो गए।
हंगरी का मामला- श्री मेनन का कम्युनिस्टों के प्रति समर्थन की भावना रखने के बारे में रहा-सहा संदेह उस समय विश्वास में परिणत हो गया, जब उन्होंने हंगरी में रूस की साम्राज्यवादी और दमन नीति का खुले तौर पर समर्थन किया और हंगरी की घटनाओं को द्विभाषी राज्य के विरुद्ध अमदाबाद में हुई घटनाओं के समान ही मामूली बताया। उन्होंने हंगरी के मामले को रूस का घरेलू मामला बताया और यह प्रचार किया कि मिस्र के विरुद्ध ब्रिटिश फ्रांसीसी कार्रवाई से पश्चिमी राष्ट्रों की जो बदनामी हुई उस पर पर्दा डालने के लिए ही इन राष्ट्रों ने हंगरी का षड्यंत्र रचा है।
वयोवृद्ध नेता आचार्य कृपलानी की मार्मिक पुकार
नेहरू चेम्बर लेन के पथ पर; स्वतंत्रता खतरे में; देश जागे
''यदि राष्ट्र ने समय रहते चीनी विस्तारवाद के खतरों को न पहचाना, यदि वह अभी से भारत के उत्तरी सीमान्तों पर कम्युनिस्ट आक्रमण के प्रति सजग होकर उठ खड़ा न हुआ तो एक दिन उसे पता चलेगा कि असंख्य बलिदानों के परिणामस्वरूप प्राप्त उसकी राष्ट्रीय स्वतंत्रता सदा के लिए छिन चुकी है।'' यह चेतावनी है स्वतंत्रता संग्राम के प्रथम श्रेणी के महान सेनानी, वयोवृद्ध राष्ट्रनेता आचार्य कृपलानी की, जो उन्होंने 6 सितम्बर को दिल्ली में दलाई लामा के लिए आयोजित स्वागत समारोह में भाषण करते हुए राष्ट्र को दी।
पं. नेहरू चेम्बर लेन के पथ पर
दुखित स्वरों में आपने कहा, पं. नेहरू प्रारंभ में चीन के प्रति तुष्टीकरण की नीति अपनाते आ रहे हैं। उन्होंने चीन से सीमा विवाद को हल करने के लिए पंचनिर्णय या मध्यस्थता का सुझाव प्रस्तुत किया है। उनकी इस समझौता नीति का अर्थ तुष्टीकरण के रूप में लिया जाएगा, जिससे चीनियों के इस देश के प्रति उदण्ड एवं आक्रमणकारी इरादों को प्रोत्साहन ही मिलेगा। पं. नेहरू इतिहास के समस्त पाठों को भूल गए हैं। उनका पंचनिर्णय का यह सुझाव बिल्कुल उसी प्रकार है जिस प्रकार द्वितीय महायुद्ध के पूर्व तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री श्री चेम्बर लेने ने चेकोस्लोवाकिया पर जर्मन विजय हो जाने के उपरांत जर्मनी के समक्ष चेकोस्लोवाकिया की युक्ति के लिए प्रस्तुत किया था। पं. नेहरू भी आज चेम्बरलेन की नीति का अनुसरण कर रहे हैं। वे दीवार पर लिखे हुए खतरे के संकेतों को समझ पाने में असमर्थ हैं। अत: मुझे भय है कि भारत में भी म्युनिक पैक्ट का इतिहास दोहराया जा सकता है, बल्कि उसकी स्थिति म्युनिक से भी अधिक खराब होगी क्योंकि कम्युनिस्ट फासिस्ट साम्राज्यवाद से कहीं अधिक भयंकर और पाशविक है।
दिशाबोध
श्रमिकों को भी स्वामित्व का अधिकार मिले
''यंत्रों एवं उपकरणों के साथ श्रमिक का संबंध घनिष्ठ होता है। उन पर उसका निर्वाह निर्भर रहता है। आजकल अनेक कारखाने संयुक्त पूंजी संस्थाओं द्वारा चलाए जाते हैं। इन कारखानों से उनके अंशधारकों का संबंध केवल लाभांश (डिविडेण्ड) लेने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हुआ करता। फिर भी वे उन कारखानों के स्वामित्व में सहभागी माने जाते हैं। किन्तु श्रमिक को पालतू माना जाता है। भागीदारों के साथ ही श्रमिकों को भी स्वामित्व के अधिकार देने चाहिए। उन्हें लाभांश मिलना चाहिए। संचालक-मंडल में उनके प्रतिनिधियों को लेना चाहिए। भूमि पर प्रत्यक्ष में परिश्रम करने वाले किसान पर यदि 'जोतने वाले की भूमि' का सिद्धांत लागू किया जाता है, तो कारखानों में काम करने वाले श्रमिकों को भी कारखाने के स्वामित्व के अधिकार में सहभागी कर लेना उतना ही उचित है। इससे उत्पादन-वृद्धि एवं औद्योगिक शांति-दोनों उद्देश्य पूरे करने में पर्याप्त सहायता मिलेगी।'' —पं. दीनदयाल उपाध्याय (विचार-दर्शन, खण्ड-4, पृ. 74)
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