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लहूलुहान लोकतंत्र

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Oct 17, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 17 Oct 2016 11:27:40

केरल से फिर एक मनहूस खबर। कन्नूर में फिर एक भाजपा कार्यकर्ता की हत्या। रेमित की बर्बर हत्या के पीछे माकपाई गुंडों का हाथ बताया जा रहा है। असहिष्णुता और सत्ता के सिर पर सवार खून को करीब से देखना हो तो केरल अवश्य आइए।
दशकों ऐसा होता रहा कि दिल्ली पहुंचने से पहले वामपंथी हिंसा की खबरें दबा दी जाती थीं। लेकिन राज्य में भाजपा के तेज उभार और मीडिया की पक्षपाती घेराबंदी तोड़ने में सोशल मीडिया की सफलता ने अब वामपंथी क्रूरता की अनकही कहानियों को दुनिया के सामने उजागर करना शुरू कर दिया है।
जर्जर लाचार प्रशासन और राजनैतिक रक्तपात की वामपंथी कहानियों को मीडिया कितनी और किस रूप में जगह देता है, यह दीगर बात है। वास्तविकता यह है कि माकपा का चेहरा यही है। यह भी प्रचारित किया जा रहा है कि केरल में दलीय टकराव और हिंसा-हत्याएं भाजपा-वाम दोनों के लिए आम बात हंै और इसके लिए किसी एक को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। परन्तु इसे सच को ढकने की शरारत से ज्यादा कुछ नहीं मानना चाहिए।
इस धूर्तता की छंटाई के लिए इतिहास की धूल हटाना और मार्क्सवादियों का असली चेहरा लोगों के सामने लाना जरूरी है।
दिल्ली को पता हो न हो, केरल में पिछले करीब पांच दशक से जनता माकपा को इसी खूंखार-खूनी रूप में देखती आई है। राजनैतिक विश्लेषकों की जिम्मेदारी बनती है कि वे केरल में वामपंथी सत्ता की पकड़ और भय में जकड़ी जनता की वस्तुस्थिति सामने लाएं। (देखें पाञ्चजन्य 8 मई, 2016)
गरीब-गुरबों का हिमायती होने का दम भरने वाले वामपंथियों को लजाने के लिए यह तथ्य काफी होना चाहिए कि केरल में उनका पहला शिकार कोई वर्गशत्रु या शोषक नहीं था। अनुसूचित जाति और निर्धन परिवार के वडिक्कल रामकृष्णन को वामपंथियों ने 1969 में मौत के घाट उतारा दिया था। और उंगलियां किधर उठीं? आप चौंक जाएंगे यह जानकर कि थलास्सेरी के गरीब टॉफी बेचने वाले की हत्या का 'दाग' पोलित ब्यूरो सदस्यों एवं पूर्व व तत्कालीन राज्य सचिवों पर था। खुद पिनरई विजयन और कोडियरी बालकृष्णन उस वक्त पार्टी पदाधिकारी थे।
दिल्ली में मानवाधिकार की डफली बजाने वाले वामपंथ का यह दानवी रूप उनकी असलियत है।  संघ और भाजपा समर्थकों पर लगातार प्राणघातक हमलों को देखते हुए पुराने संदर्भ खंगालना और इन्हें साथ जोड़कर देखना जरूरी है।
दस बरस बाद अप्रैल 1979 में खुद ईएमएस नंबूदरीपाद थालसरे में यह फुंफकारते सुने गए थे कि मार्क्सवादी जल्दी ही संघ पर आक्रमण करेंगे। मार्क्सवादियों के मन में संघ के प्रति भरे गुस्से के उदाहरण कम नही हैं। राष्ट्रप्रेमी शक्तियों के लिए यह जहर उनके मन में सदा से उबलता रहा। राज्य के गृहमंत्री, रामाकृष्णन ने 11 अक्तूबर 1980 को यह घोषित किया था कि राज्य के मार्क्सवादी केरल से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को पूरी तरह समाप्त कर देंगे।
वर्तमान मुख्यमंत्री पिनरई विजयन के गृहग्राम में उनके घर से कुछ सौ मीटर दूर रमित की हत्या हुई है। मई से अब तक छह माह में पिनरई विजयन की सरकार ने सुशासन के भले छह डग न भरे हों, 50 राजनैतिक हमले और आधा दर्जन हत्याओं का फर्राटा बताता है कि सरकार की प्राथमिकताएं और प्रशासन का हाल क्या है।
बहरहाल, राष्ट्रवादी शक्तियां और संगठन माकपा के निशाने पर हैं इसमें दो राय नहीं लेकिन उससे बचा कौन है? इसी वर्ष अलेप्पी में मारे गए पूर्व कांग्रेसी कार्यकर्ता या नादपुरम में माकपाइयों द्वारा बम मारकर उड़ा दिए गए मुस्लिम लीग के तीन कार्यकर्ता, माकपा की जीभ हर उस विचारधारा, संगठन और व्यक्ति को निगलने के लिए लपलपा रही है जिसे वह शत्रु मानती है।
फिर इलाज क्या है? उन लोगों का-जो लोकतंत्र में भरोसा नहीं रखते, जो सत्ता प्राप्ति के बाद भी जनकल्याण की बजाय वर्गसंघर्ष को तेज करना ही अपना उद्देश्य मानते हैं, जो मानते हैं कि जनता की राय का कोई मतलब नहीं और सत्ता की राह बंदूक की गोली से ही निकलती है! बंगाल में पचासियों हजार राजनैतिक हत्याओं के बाद वामपंथियों को सत्ता की मुंडेर से धकेलने का उदाहरण सामने है। ममता बनर्जी ने वामपंथियों का झूठ उघाड़ा और जनता को साथ लेकर उन्हें सत्ता से बेदखल किया।
बहरहाल, दुनिया से मिटा, शासन और मानवीयता के पैमाने पर पिटा और सिर्फ इक्का-दुक्का राज्यों में सिमटा वामपंथ अपने आखिरी दौर में जनता और अन्य राजनैतिक दल-संगठनों से किस भाषा में संवाद की अपेक्षा रखता है? लोकतंत्र में भरोसा न रखने वालों की भाषा ठीक करने का अधिकार तो लोकतंत्र के प्रहरियों को अपने पास रखना ही होगा। यह सवाल केवल किसी एक राजनैतिक दल की पक्षधरता या विरोध का नहीं बल्कि लोकतंत्र की अस्मिता और उसमें भरोसा रखने वालों का है। भारतीय राजनीति को अपने लोकतंत्र को लहूलुहान करने वालों से छुटकारा पाना ही होगा। 

परतें खुलीं पाकिस्तान की
रपट 'हटे नापाक कब्जा' (28 अगस्त, 2016) से यह बात उभरती है कि भारत को आज आतंकवाद पर अधिकतर देशों का साथ मिल रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी शुरू से ही पड़ोसी देशों के साथ मधुर संबंध बनाने की बात पर बल देते रहे हैं और उन्होंने शंाति और विकास की बात की है। लेकिन हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान ने इसे भारत की कमजोरी समझा और भारत की कही बात को लगातार अनसुना करते हुए कश्मीर में आग लगाने का काम किया। लेकिन अब उसे उसकी भाषा में जबाव मिल रहा है जिससे वह बुरी तरह तिलमिलाया हुआ है।
—बी.एल. सचदेवा, आईएनए बाजार (नई दिल्ली)

ङ्म     हिंसा रोकने के सारे लोकतांत्रिक प्रयासों की नाकामी और अलगाववादियों की हठधर्मिता का एक ही इलाज है-उन पर कड़ी से कड़ी कार्रवाई। कश्मीर में हिंसा में लिप्त कुछ युवा जो इन अलगावादियों के शह पर घाटी में आतंक का माहौल बनाए हुए हैं, उन पर कड़ी कार्रवाई करना आज  की जरूरत है। इसे रोकना है तो पत्थरों का जवाब अब गोलियों से दिया जाना चाहिए। क्योंकि उन्होंने सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल  के शांति के सभी प्रयासों पर पलीता लगा या है। आखिर ये अलगाववादी चाहते  क्या हैं?
—राममोहन चंद्रवंशी, हरदा (म.प्र.)

ङ्म     पाकिस्तान शुरू से ही कश्मीर में आतंक का माहौल बनाए रखने के लिए जिम्मेदार है। उस पार से आते आतंकियों की खेप हमेशा से भारत को अशांत करती रही है। लेकिन पाकिस्तान को अब उसकी भाषा मे जबाव दिया जाना चाहिए। बातचीत का अब कोई मतलब नहीं रह गया। पानी सिर के ऊपर से जा चुका है। इसलिए पाकिस्तान से ये उम्मीद रखना बेमानी है कि वह भारत के खिलाफ आतंकवादी गतिविधियों पर अंकुश लगाएगा।
—महेन्द्र भाटिया, अमरावती (महाराष्ट्र)

ङ्म     प्रधानमंत्री ने बलूचिस्तान की बात करके पाक को परेशान कर दिया है। पाकिस्तान को इस बात का कतई अंदाजा नहीं था। ऊपर से पाक अधिक्रांत कश्मीर में पाकिस्तान के खिलाफ उठते बगावती स्वरों ने वहां सरकार के चेहरे को सामने ला दिया है। विश्व समुदाय अब धीरे-धीरे पाक अधिक्रांत कश्मीर में वहां के निवासियों पर पाक फौज द्वारा अत्याचारों को जान रहा है। लेकिन दुनिया में पाकिस्तान अब घिरता जा रहा है। वह दिन  अब दूर नहीं हैं जब पाकिस्तान कब्जे वाला कश्मीर भी भारत का हिस्सा होगा।
—रामप्रताप सक्सेना, खटीमा (उत्तराखंड)
 
जहरबुझे बोल
रपट 'जाकिर की जकात ' (25 सितंवर, 2016) से स्पष्ट है कि  कुतर्क और पूर्वाग्रहों के आधार पर इस्लाम को श्रेष्ठ और अन्य मत-पंथों को निकृष्ट सिद्ध करते जाकिर नाइक जहां मुस्लिम समाज को दिशाहीन कर रहे हैं, वहीं अपने बोलों से पूरे समाज में विष घोलने का काम कर रहे हैं। इस सबके बाद भी कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह उनके साथ गलबहियां करते दिखाई देते हैं। क्या दिग्विजय को ये नहीं पता था कि वह किसके साथ गले मिल रहे हैं? हकीकत तो यही है कि कांग्रेस ने ही ऐसे असामाजिक तत्वों  को पाला-पोसा है। पर अब इन पर कड़ी कार्रवाई होना जरूरी है।
—मनोहर मंजुल, प.निमाड (म.प्र.)
जहरबुझे बोल

    साक्षात्कार 'अंतरराष्ट्रीय अनुभव व सुविधाएं जरूरी' से देश के लोगों को प्रेरणा मिलेगी। साक्षी मलिक का यह कहना कि अभी ओलंपिक होने में काफी लंबा समय है लेकिन मैं आने वाले आलंपिक में मैं अपने कांस्य का रंग जरूर बदलना चाहूंगी। यह साफ है कि साक्षी का संकेत स्वर्ण पदक की ओर है। लेकिन कष्ट की बात यह है कि हमारे खिलाडि़यों असुविधाओं का सामना करना पड़ता है। राज्य और केन्द्र सरकारों को उनके लिए विशेष तौर से अत्याधुनिक तकनीकी और सुविधाओं को उपलब्ध करना होगा ताकि वे और अच्छा प्रदर्शन कर सकें।
—कृष्ण वोहरा, सिरसा (हरियाणा)

 पाक में हिन्दुओं की दयनीय दशा
प्रधानमंत्री पं. नेहरू और लियाकत अली के बीच वर्ष 1950 में एक संधि हुई जिसके अनुसार भारत में मुस्लिम और पाक में हिन्दुओं की सुरक्षा हेतु प्रावधान किए गए थे। भारत ने इस संधि के संदर्भ में अधिक कार्य किया। अल्पसंख्यक आयोग, वक्फ एक्ट, हज पर अनुदान, ऋण पर नाम मात्र का ब्याज, छात्रवृत्तियां, मदरसों को अनुदान, मौलवियों को वेतन, मुस्लिम लड़कियों को हजारों रुपये की छात्रवृत्ति जैसी अनेक लाभकारी योजनाओं की सूची राज्य और केन्द्र सरकार ने बनाई और इस के आधार पर काम भी होता आ रहा है। देश में अधिकतर राज्य सरकारें तब से लेकर आज तक मुस्लिमों के वोट पाने के लिए उन्हें एकतरफा रूप से ज्यादा से ज्यादा सुविधाएं और लाभ देती हैं। शायद तब के समय लियाकत अली खान ने भी इतना नहीं सोचा होगा। लेकिन दूसरी ओर पाकिस्तान में हिन्दुओं को किसी सरकारी लाभ की बात तो दूर, उन पर हो रहे अत्याचारों की फेहरिस्त इतनी लंबी है कि उसे देखकर किसी का भी दिल पसीज आएगा। संधि को 66 वर्ष बीत गए लेकिन अब भी पाकिस्तान में हिन्दू विधि से विवाह मान्य नहीं है। केवल मुस्लिम निकाह ही मान्य है। हिन्दू विवाह को कानूनी मान्यता तक नहीं मिली है।  इससे सरलता से समझा जा सकता है कि पाकिस्तान ने इस संधि का कितना पालन किया। लेकिन दुख इस बात का है कि अगर पाकिस्तान इस संधि का पालन नहीं करता है तो भारत से कोई भी राजनीतिक दल नहीं बोलता है। उल्टे भारत में मुसलमानों को सभी सुविधाओं और संधियों की बात को पूरा करने के लिए यहां के नेता उतावले हैं।
—ओम प्रकाश त्रेहन, एन 10, मुखर्जी नगर (दिल्ली)

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