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आतंक को पोसने का फल कितना घातक हो सकता है और भारतीय जवानों की चिताओं की दहक क्या कुछ जला सकती है, इसका पता अब पाकिस्तान को चल गया होगा।
'सेना बोलती नहीं, वीरता से अपनी बात कहती है' -प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस कथन में रंचमात्र भी राजनीति नहीं थी और यह राष्ट्रीय भावनाओं का उद्घोष था, इस बात का पता उन लोगों को चल गया होगा जिन्होंने उरी हमले की पृष्ठभूमि में भी राजनीतिक बयानबाजी की गुंजाइश निकाल ली थी।
पाकिस्तान की छत्रछाया में पलते सात आतंकी ठिकानों पर भारतीय सेना का बेहद संतुलित और सटीक हमला सिर्फ उरी हमले का जवाब भर नहीं है। यह कोई राजनैतिक निर्णय या सिर्फ सैनिक कार्रवाई भर भी नहीं है। बल्कि इसे भारतीय विदेश और सामरिक नीति में उस बदलाव के तौर पर देखा जाना चाहिए जहां इस देश ने पीठ में छुरा घोंपने वालों को गले लगाने वाली आत्मघाती मुद्रा त्याग दी है।
कश्मीर में अलगाववाद को शह, आतंकी घुसपैठ, मुंबई हमला, संसद को निशाना बनाना, पठानकोट हमला…देश का गुस्सा तो हरबार ऐसे ही उफनता था। हैरानी की बात यह रही कि भारत की तरफ से जैसे कहीं लक्ष्मणरेखा थी ही नहीं! तिलमिलाहट को पी जाना और दुनिया की नजरों में आपको दब्बू दिखाने वाली विदेश नीति का जुआ ढोते जाना जैसे भारत की पहचान बन गई थी! लेकिन अब और नहीं। ताजा घटनाक्रम ने यही जताया कि भारत ने पाकिस्तान के मामले में हिचक से बंधी और विडंबनाओं से भरी विदेश नीति का जुआ उतार फेंका है।
भारत की बदली हुई भंगिमा को किसी के प्रति कड़वाहट या बदले की भावना से नहीं जोड़ा जा सकता। यह कोई गुटनिरपेक्ष मुद्रा भी नहीं है। यह ऐसी सकारात्मक, संकल्पित और निर्णायक मुद्रा है जहां सर्वसमन्वयकारी सोच को पूरा सम्मान दिया गया है, परंतु मानवता को निशाना बनाने वाली जहरीली सोच को नजरअंदाज करने या सहते जाने की जरा भी गुंजाइश नहीं है। शीतयुद्ध के पिघलने और दो ध्रुवीय विश्व व्यवस्था के ढह जाने के बाद यह भंगिमा और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। किसी वाद की कोई पालेबंदी न हो और विश्व में स्थिरता और विकास के लिए सब साथ आएं, इससे अच्छा और क्या होगा? लेकिन इसके लिए जरूरी है कि वैश्विक स्थिरता और मानवता को डंक मारते आतंकवाद को नष्ट करना भविष्य की विश्व व्यवस्था की पहली शर्त हो। भारत ने इसी शर्त के पालन को रेखांकित किया है!
जी हां, भारतीय तत्परता और सटीक आक्रामकता को सिर्फ सीमापार कार्रवाई के तौर पर मत देखिए बल्कि गत दो वषार्ें के दौरान विविध विश्वमंचों पर भारत द्वारा बार-बार उठाए जा रहे सवालों के तौर पर देखिए। लंदन, पेरिस, न्यूयार्क, जिनेवा, भारत हर जगह आतंकवाद से लड़ने के लिए इतना ही तत्पर और प्रतिबद्ध दिखा है। भारतीय नेतृत्व की ओर से बार-बार उस आतंकवाद के विरुद्ध मिलकर लड़ने का आह्वान किया जाता रहा जो दुनिया में जगह-जगह हजारों निरपराध जिंदगियों को निगल रहा है।
आतंकवाद को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ललकारते भारत ने उस पड़ोसी को बेनकाब कर दिया है जो आतंकी कठपुतलियों के जरिए ही भारत को हजारों जख्म देने की सैन्य और विदेशनीति पर दशकों से काम कर रहा था।
अगर किसी को भारतीय प्रधानमंत्री के ताबड़तोड़ विदेशी दौरों की बात समझ नहीं आती थी तो उसके लिए इस बात को समझने का यह सही वक्त है। भारत की सक्रियता ने दुनिया को आतंकवाद के मुद्दे पर गोलबंद किया है। पाकिस्तान पोषित आतंकवाद की कमर तोड़ने के लिए जरूरी अंतरराष्ट्रीय समर्थन अब स्पष्ट दिखने लगा है।
आतंकवाद के विरुद्ध दोहरा रवैया नहीं बरता जा सकता, यह बात अब पूरी दुनिया के लिए साफ है। उइगुर आतंक झेलता चीन आतंकवाद को आर्थिक विकास की राह में अडंगे के तौर पर पहचान रहा है। रूस आइएस के सफाए के लिए कमर कसे है। पेरिस हमले के बाद फ्रांस आतंकवाद से लड़ने का संकल्प जता चुका है। कभी पाकिस्तान का हमदर्द रहा अमेरिका 26/11 के बाद से ही उसकी मुश्कें कसने में लगा है।
पाकिस्तान के अवैध कब्जे वाले भारतीय भूभाग में आतंकियों और उनके ठिकानों पर दिलेरी भरी सैन्य कार्रवाई को न सिर्फ स्वागतयोग्य और चिरप्रतीक्षित कहना चाहिए बल्कि यह मानना चाहिए कि अकारण ओढ़े भय को झटकते हुए भारत ने एक नई निर्भय विश्व व्यवस्था के आह्वान का बिगुल फूंक दिया है। जाहिर है, समझौतों की 'एक्सप्रेस' आतंक के साए में नहीं चल सकती।
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