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एक कुशल चालक ही वाहन को कम समय में उसके गंतव्य तक पहुंचा सकता है। यह विचार आज के विमेन्स लिव और लैंगिक समानता के महिलावादी विचार से कहीं आगे था। 1958 का वर्ष भी समिति के लिए महत्वपूर्ण था। इस वर्ष 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की सौवीं सालगिरह थी। इस दौरान हमने उस युद्ध की यादें दर्शाने वाली एक प्रदर्शनी आयोजित की थी। इस दौरान नासिक में पहले धर्मार्थ ट्रस्ट की नींव रखी गई जिसका नाम रानी लक्ष्मीबाई झांसी ट्रस्ट था। इसके बाद देशभर में सामुदायिक तौर पर कन्या छात्रावास, नि:शुल्क चिकित्सा शिविर आदि चलाने वाले व्यापक वर्ग तक पहुंचने के लिए 38 अन्य ट्रस्ट की भी नींव रखी गई थी। 1965 में नागपुर में देवी अहिल्याबाई स्मारक समिति की स्थापना हुई जहां से समिति का केंद्रीय कार्यालय चलता है और उस वर्ष से मैं यहीं रह रही हूं।
समिति का कार्य केवल उसके सदस्यों की संख्या बढ़ाने तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि कार्य के जरिए हम सेविकाओं को किस स्तर तक अपने साथ कर सकते हैं। अत: सफलता का मानदंड संख्या न होकर विश्वास, साथ जुड़ने की मंशा और स्नेह होता है।
मैं खुशकिस्मत थी कि वंदनीया मौसीजी के अतिरिक्त मुझे उनके बाद कार्य संभालने वाली ताई आप्टे के संपर्क में रहने का अवसर मिला। वह सौहार्द, सरलता, निष्ठा और एकजुटता का अद्भुत संगम थीं। लोकमान्य तिलक उनके पिता के मामा थे और वह भी लोकमान्य तिलक के निकट संपर्क में रह चुकी थीं। वह हिंदू मातृत्व का साक्षात उदाहरण थीं। उनके निधन के बाद संपादकीय शीर्षक था 'हमने हिंदुत्व का मातृहृदय खो दिया।'
हमारी तीसरी प्रमुख संचालिका उषाताई चाटी थीं। उनका अटूट विश्वास था कि समिति की तरक्की केवल प्रचारिकाओं की संख्या ही नहीं, बल्कि प्रचारिका की सोच रखने वाली सभी सेविकाओं पर निर्भर करती है। महिला जीवनदायिनी होती है। उसमें अपने बच्चों के साथ-साथ अपने जीवनसाथी के चरित्र को आकार एवं क्षमता प्रदान करने की शक्ति होती है। अत: यह उचित होगा कि उसे जीवन के अर्थ और उसके गंतव्य का पता हो ताकि वह नैतिक मूल्यों को समझा सके जिनके आधार पर परिवार, समाज एवं राष्ट्र का अचल चरित्र निर्मित होता है।
समय के साथ-साथ समिति में कई परिवर्तन भी आए जो बेहद सामान्य प्रक्रिया थी। पोशाक में नौ गज लंबी साड़ी की बजाय सलवार-कुर्ता का चलन शुरू हुआ। परंतु बुनियादी विचार वही रहे। आज समाज एवं राष्ट्र के सम्मुख भी अनेकानेक चुनौतियां मुंह बाए खड़ी हैं। हमें युवा पीढ़ी को उनके लिए तैयार करना होगा। इसी विचार को केंद्र में रखते हुए इस वर्ष समिति ने 'तेजस्वी भारत' थीम पर 'तरुणी सम्मेलन' की सफलतापूर्ण शुरुआत की। इसमें प्रतिभागियों को भारत की उन उपलब्धियों के बारे में बताया गया जिनका उन्हें ज्ञान नहीं था। वह इस शुरुआत से बहुत प्रभावित हुए। इस सम्मेलन का दूसरा बिंदु था 'हम हैं भारत भाग्यविधाता'। यह विचार युवाओं के दिलों में गहरे तक गया।
मैं समिति के साथ अपने सात वर्ष के जुड़ाव को लेकर खुद को भाग्यशाली एवं संतुष्ट महसूस करती हूं। मेरा मानना है कि अपने किसी 'पुण्य' के कारण भारत में मेरा जन्म हुआ और मैं राष्ट्र सशक्तीकरण के जरिए महिला सशक्तीकरण का काम करने वाली राष्ट्र सेविका समिति के संपर्क में आई। मेरा यह भी मानना है कि 'हम इस कार्य के उपकरण मात्र हैं। ऐसे में अच्छा है कि हम जैसे पुराने उपकरणों की जगह कुछ नए लोग आएं और नवीन उत्साह एवं समर्पण के साथ इस यात्रा को आगे बढ़ाएं।' । वंदे मातरम्!
(लेखिका राष्ट्र सेविका समिति की पूर्व प्रमुख संचालिका हैं। विराग पाचपोर से बातचीत के आधार पर)
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