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भारत-नेपाल रिश्तों में पिछले कुछ वर्षों से आई दरार के पीछे वहां के राजनीतिक दलों पर चीन के प्रभाव को जिम्मेदार माना जाता है जबकि नेपाल बखूबी जानता है कि उसका भला भारत के साथ में है
सतीश कुमार
नेपाल के प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड की अभी हाल (15-18 सितंबर) संपन्न हुई भारत यात्रा को कई मायनों में महत्वपूर्ण माना जा सकता है। इस दौरान गत वर्ष की राजनीतिक शिथिलता को छांटने की भरपूर कोशिश की गई। भारतीय प्रधानमंत्री ने प्रचंड को भारत-नेपाल संबंधों को मजबूती प्रदान करने वाला प्रेरक व्यक्तित्व माना। मोदी ने यह भी कहा कि भारत-नेपाल संबध एक ऐसे मजबूत आधार पर टिके हुए हैं जो स्वाभाविक रूप से विश्वास पैदा करता है। यह क्षणिक भाव नहीं बल्कि समय की कसौटी पर अनुभव सिद्ध बात है। प्रचंड ने भी अपनी भारत यात्रा को उत्साहवर्धक और परिवर्तनकारी करार दिया। उन्होंने यात्रा के कुछ दिन पहले ही दोनों देशों के संबंधों में भारत की भूमिका को असरदार माना था। प्रचंड ने एक और महत्वपूर्ण बात कही थी कि ''दो पड़ोसी देशों में अच्छे संबंध होने ही चाहिए, इसमें कोई दो राय नहीं है। मोदी जी भी कुछ 'जोखिन' लेकर, परंपरा से हटकर कुछ करना चाहते हैं, मैं भी यही चाहता हूं। मुझे डर है कि दोनों देशों की कुछ ताकतें शायद इस मंशा को सही तरीके से न समझ पाएं । हम जब आगे जाने की कोशिश करेंगे, तो ये हमें पीछे खींचने की कोशिश करेंगी।'' नेपाली प्रधानमंत्री की टिप्पणी चीन के संदर्भ में भी महत्वपूर्ण थी। उन्होंने कहा, ''चीन के लिए नेपाल महज कारोबार, मुनाफे और अर्थव्यवस्था के लिहाज से महत्वपूर्ण है।''
अगर प्रचंड के बयान को इस यात्रा के संदर्भ में तोला जाए तो कई तरह के परिवर्तन दिखाई देते हैं। दरअसल यह कह पाना अत्यंत मुश्किल है कि ये परिवर्तन ह्दय-जनित परिवर्तन है या महज सट्टेबाजी। 2008 में भारत यात्रा पर आने के पूर्व प्रचंड चीन की वादियों में घूम कर आए थे। वह चीन की उनकी एक अनौपचारिक यात्रा थी, लेकिन बात यह प्रसिद्ध हुई कि प्रचंड चीन के प्रभाव में हैं। उनकी पृष्ठभूमि, जन-आंदोलन की रूपरेखा और जुमलेबाजी ने इस शंका के लिए कोई अंदेशा ही नहीं छोड़ा कि प्रचंड पूरी तरह से भारत से विमुख रहना चाहते हैं। उन्होंने 1950 की संधि पर भी सवालिया निशान लगाए थे। लेकिन इस बार उनके शब्द और राजनीतिक अंदाज अलग थे । उन्हीं के शब्दों में, ''मैं दस साल में जिस उतार-चढ़ाव से गुजरा हूं उसके चलते लगता है कि अब मैं ज्यादा परिपक्वता के साथ दोनों देशों के संबंधों में मजबूती लाने की पहल कर सकूंगा।''
प्रचंड की भारत यात्रा कुछ बुनियादी सिद्धांतों और नीतियों को स्थापित करने की कोशिश है। विगत में भारत-नेपाल संबंधों में कई उफान आए। कई बार बाहरी शक्तियों और आंतरिक बिखराव की वजह से दरारें उभरी। लेकिन दोनों फिर किसी चुंबकीय शक्ति की तरह आपस में मिल गए।
यह परिवर्तन इस बात का प्रतीक है कि चीन नेपाल के लिए कभी भी भारत का विकल्प नहीं बन सकता। यह सिलसिला राजा महेन्द्र के समय से चला आ रहा है जब उन्होंने चुनी हई लोकतांत्रिक सरकार को भारत का पिट्ठू कहकर बर्खास्त कर दिया था। भारत की कोशिश नेपाल में शांति और सुव्यवस्था बनाने की थी। भारत ने नेपाल में लोकतंत्र बहाली के एजेंडे को ठण्डे बस्ते में डाल दिया, उसके बावजूद पूर्व राजा बीरेन्द्र ने चीन से असलहा खरीद लिया। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 1985 में आर्थिक नाकाबंदी की गिरह जड़ दी तो नेपाल आर्थिक रूप से पंगु हो गया था। 2005 में अपने निजी स्वार्थ की आड़ में राजा ज्ञानेन्द्र ने चीन की मदद से नेपाल में लोकतांत्रिक व्यवस्था को बेतरतीब बनाने की कोशिश की। पुन: भारत ने स्थिति को संभाला और सांस्कृतिक संबंध सहेजने की कोशिशें हुईं। सर्वदलीय बैठक बुलाकर राजनीतिक स्थिरता बहाल करने की कोशिश की गई। 2008 में द्वितीय जन आंदोलन के बाद एक बार फिर उबाल पैदा हुआ । चीन के पक्ष में आवाज गंुजाई गई। भारत विरोधी नारे लगाए गए। पिछले 8 वर्ष में नेपाल में कई सरकारें बदलीं। 2015 में पूर्व नेपाली प्रधानमंत्री ने सुनियोजित तरीके से भारत विरोधी मुहिम को हवा देने की कोशिश की। इसके कई महत्वपूर्ण सबूत हैंं।
पहला, पूर्व प्रधानमंत्री के. पी. ओली को ऐसा लगा था कि चीन भारत का बेहतर विकल्प बन सकता है। उन्हांेने संविधान लागू होने के उपरांत जो कुछ हुआ, उसका ठीकरा भारत के माथे फोड़ने की कोशिश की। ओली ने काठमांडू-निजीगाथ रोडवेज की ठेकेदारी भारतीय कंपनी से छीनकर दूसरे के हाथों में सौंप दी। ओली ने 20 सितंबर, 2015 के बाद हर मंच से यह अफवाह फैलाने की कोशिश की कि भारत नेपाल के अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप कर रहा है। इतना ही नहीं, ओली ने जाते-जाते भारत पर यह आरोप भी मढ़ने की कोशिश की कि भारत सरकार ने नेपाल के राजनीतिक दलों में फूट डालकर उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी से हटाया है।
पिछले एक वर्ष के दौरान भारत-नेपाल संबंध निरंतर पटरी से उतरते गए हैं। 2014 की अपनी नेपाल यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने केवल यही बात कही थी कि संविधान प्रक्रिया में हर तबके की सहभागिता हो और कोई भी तबका दु:खी न रहे। प्रचंड की दिल्ली यात्रा ने आपसी संबंधों पर छाए बादलों को छांटने की कोशिश की है। इस प्रयास में वे काफी हद तक सफल भी हुए हैं। भारत की तरफ से नेपाल को 750 मिलियन डॉलर की राशि देने पर आम सहमति बनी है। यह रकम भूकंप पीडि़त लोगों की राहत के लिए है। पिछले वर्ष के विध्वंसकारी भूकंप ने लाखों लोगों की रोजी-रोटी छीन ली थी। भारत यह रकम पहले ही मुहैया करा चुका था, लेकिन राजनीतिक शिथिलता इस संधि के अनुपालन में बाधक बनी रही। प्रचंड की इस यात्रा के दौरान मुख्यत: 10 महत्वपूर्ण मुद्दों पर आम सहमति बनी। इसी के साथ सीमा पर बेहतर चौकसी बनाए रखने की बात व्यापारिक केन्द्र के अन्य दो ठिकाने खोलने पर सहमति, दोनों देशों के बीच पनबिजली परियोजना को द्रुतगति से शुरू करने की बात कही गई। सूचना केन्द्र को और सशक्त बनाने पर भी बात हुई तो बाद में निपटने के लिए नए समीकरणों पर चर्चा की गई। वहीं तराई इलाके से द्वितीय चरण में सड़क और रेललाइन बिछाने की बात हुई।
बहरहाल, प्रचंड की इस यात्रा को कारगर बनाने की जिम्मेदारी भारत की भी है, क्योंकि नेपाल की कुछ राजनीतिक पार्टियां इस यात्रा को असफल बनाने की पूरी कोशिश कर रही थीं। चीन इस प्रक्रिया में मुख्य उत्प्रेरक है। अब चुनौती भारतीय खेमे में है कि कैसे भारत-नेपाल संबंधों को चीन के बहाव में न बहने दिया जाए। नेपाल में भारत विरोध की एक मुहिम यह है कि पिछले 70 वर्ष में भारत ने वहां कोई बड़ी योजनाएं लागू नहीं की हैं। वह केवल ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की बात करता रहा है। नेपाल का आर्थिक ढांचा भारतीय मदद पर टिका हुआ है। हालांकि भारत ने जब-जब बड़ी परियोजनाएं लेकर बात शुरू करने की कोशिश की है, तब-तब नेपाल की राजनीति ने भारत विरोध की मुहिम छेड़ी है यह सच है कि नेपाल के विभिन्न पहाड़ी इलाकों से भारत के बीच संपर्क सूत्र अत्यंत पेचीदा और दुरूह हैं। पहाड़ी क्षेत्र भारत विरोधी भी है। चूंकि नेपाल भारत और चीन के बीच झूलता रहा है। चीन की पहुंच निरंतर नेपाल के अंदरूनी हिस्सों तक रही है। ऐसे हालात में भारत चुप नहीं बैठ सकता। वहां सड़क और रेलमार्ग के निर्माण पर उसे नए सिरे से ध्यान देना पड़ेगा।
नेपाल के पहाड़ी इलाकों से भारत के बीच संपर्क सूत्र अत्यंत पेचीदा और दुरूह हैं। यह क्षेत्र भारत विरोधी भी है। चूंकि नेपाल भारत और चीन के बीच झूलता रहा है और चीन की पहुंच निरंतर नेपाल के अंदरूनी हिस्सों तक रही है। ऐसे हालात में भारत पूरी तरह चुप्पी साधे नहीं बैठ सकता।
भारत-नेपाल के बीच पनबिजली परियोजना को द्रुतगति से शुरू करने की बात हुई। सूचना केन्द्र को और सशक्त बनाने और नए समीकरणों पर चर्चा की गई तो तराई इलाके से द्वितीय चरण में सड़क और रेललाइन बिछाने की
बात हुई।
प्रचंड की दिल्ली यात्रा ने बादल को छांटने की कोशिश की है। इस प्रयास में वे काफी हद तक सफल भी हुए हैं। 750 मिलियन डालर की राशि भारत की तरफ से देने पर आम सहमति बनी है। यह रकम भूकंप पीडि़त लोगों की राहत के लिए है।
प्रचंड को भी भारत यात्रा के बाद अपनी गति और सोच को बनाए रखने के लिए कई चुनौतियों से होकर गुजरना होगा। पहली, निश्चित समय सीमा के भीतर होने वाले कई महत्वपूर्ण काम। स्थानीय निकाय चुनाव संपन्न होने हैं। उसके बाद राजकीय और विधानसभा दोनों के चुनाव अत्यंत मुश्किल इम्तिहान होगा। आज की तारीख में नेपाल की राजनीति में 50 से ज्यादा राजनीतिक दल हैं। सबके अपने-अपने स्वार्थ हैं। ये स्वार्थ एक दूसरे से टकराते हैं और कोई आम सहमति का वातावरण नहीं बन पाता।
दूसरी चुनौती संविधान संशोधन के द्वारा दो नए राज्यों के सीमाकंन की है। अनुच्छेद 274 में इस बात की चर्चा है कि यह संविधान संशोधन तभी मान्य होगा जब इस पर बहुसंख्यक राज्य विधायिका की मुहर लग जाएगी। जैसा कि प्रचंड ने दिल्ली यात्रा के दौरान यह भावना व्यक्त की थी कि मधेशी समुदाय की बातों को नए सिरे से रखा जाएगा और समस्या का समुचित हल ढूंढ लिया जाएगा। अगर मधेशी समुदाय की शतार्ें को मान भी लिया जाता है और सीमांकन कर भी दिया जाता है, पर इसे पुन: राज्य विधायिका में निरस्त कर दिया गया तो यह स्थिति ढाक के तीन पात की तरह होगी।
नेपाल में दो प्रदेशों के गठन में भी काफी दिक्कतें हैं। ओली ने जनसंख्या और घनत्व के आधार पर राज्यों की नींव रखी थी जो कई समस्याओं का कारण बनी। कोसी के पूर्वी तट पर और चितवन के पश्चिमी तट पर रहने वालों को एक लाइन में खड़ा करना इतना आसान नहीं है। दोनों क्षेत्रों के जनजातीय स्वरूप में अंतर है। दोनों जगह के लोग अखण्ड सुदूर पश्चिम राज्य की मांग कर रहे हैं। इन क्षेत्रों में मधेशियों की बहुलता नहीं है। इस क्षेत्र के अन्तर्गत छोटा हिमालय का पहाड़ी क्षेत्र 'चुरे भाबर है।' यहां के लोग पहाड़ी हैं। इनकी सामाजिक संरचना मधेशी समुदाय से बिल्कुल अलग है। ऐसे हालात में प्रचंड कैसे इन मुद्दों को अमली जामा पहना पाते हैं, वह समय बताएगा।
भारत की सोच यह रही है कि नेपाल कहीं दूसरा श्रीलंका न बन जाए। जिस तरीके से 50 वर्ष में श्रीलंका में तमिलों के साथ राजनीतिक भेदभाव की वजह से विस्फोटक स्थिति पैदा हुई, उसमें भारत की भी बड़े पैमाने पर हानि हुई। अगर नेपाल में श्रीलंका जैसी स्थिति बनती है तो यह ज्यादा भयावह होगी। दोनों देशों की उन्मुक्त सीमा और बाहरी शक्तियों का प्रभाव दोनों के लिए खतरनाक हो जाएगा।
भारत की दूसरी कोशिश है कि नेपाल निरंतर प्रगति और शांति के रास्ते पर आगे बढ़ता जाए। इस पहल में भारत का विकल्प कोई ओर देश नहीं हो सकता। यह बात नेपाल के नेताओं को समझनी पड़ेगी। नेपाल की आर्थिक स्थिति 1़5 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है। यह गति मंथर है। नेपाल में एक असफल राष्ट्र लक्षण मौजूद हैं। जरूरत है उसे इस दलदल से निकलने की। राजनीतिक अस्थिरता और आर्थिक दुरावस्था के चलते पर्यटन का कारोबार भी प्रभवित हुआ है। वह तमाम जलस्रोतों के बावजूद बिजली के अभाव से जूझ रहा है। जबकि उसके पास पनबिजली निर्माण के इतने अवसर हैं कि न केवल पूरा नेपाल बल्कि भारत के भी चार बड़े राज्यों में बिजली की कमी दूर हो जाएगी। बदले में नेपाल को भारी आर्थिक लाभ होगा।
प्रचण्ड ने अपनी यात्रा के उपरांत यह बात स्वीकार की कि जब भी कोई नेपाली प्रधानमंत्री भारत जाता है, तो नेपाल की राजनीति में काफी तरंगें उठती हैं। चीन की पूरी कोशिश होगी नेपाल के मामलों में हस्तक्षेप करने की, लेकिन अगर नेपाल की राजनीतिक पार्टियां अपने देश के भले को समझने की कोशिश नहीं करतीं तो संविधान और राजनीतिक व्यवस्था पुन: दलदल में फंस जाएगी।
(लेखक झारखंड केन्द्रीय विश्वविद्यालय, रांची में राजनीति शास्त्र विभाग के विभागाध्यक्ष हैं)
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