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केन्द्र से श्रीनगर गए सांसदों के सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल की मंशा बातचीत के जरिए 'राजनीतिक समाधान' की राह खोलना थी, किंतु अलगाववादियों के बंद दरवाजे कुछ अलग ही संकेत कर रहे हैं। क्या घाटी के वर्तमान उपद्रव पर किसी का नियंत्रण है? क्या हुर्रियत चाहे तो उपद्रव थम सकता है? बंद दरवाजे बता रहे हैं कि बाजी हुर्रियत के हाथ से भी फिसलती जा रही है
विशेष प्रतिनिधि
देश के लगभग सभी राष्ट्रीय दलों के सांसदों का एक प्रतिनिधिमंडल हिंसाग्रस्त कश्मीर घाटी में शांति के रास्तों की तलाश में दो दिवसीय दौरे पर था। 4-5 सितम्बर को केन्द्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह के नेतृत्व में वे पहले श्रीनगर गए जहां से जम्मू पहुंचे। लेकिन जैसी अपेक्षा की जा रही थी, श्रीनगर में शांति प्रयासों को रफ्तार देने पहंुचे इस प्रतिनिधिमंडल के साथ अलगाववादियों ने जो व्यवहार किया, वह नकारात्मकता का चरम था। गिलानी और मीरवायज ने प्रतिनिधिमंडल से मिलने से साफ इंकार कर दिया। आड़ ली बुलावे की, कि बातचीत का बुलावा पीडीपी प्रमुख की तरफ से आया था, सरकार की तरफ से नहीं। दरअसल कश्मीरी अवाम उनकी असलियत पहचान चुका है। उनका मकसद सिर्फ भारत-विरोध है, कश्मीर में अमन उनके एजेंडे में नहीं है। यानी बाजी उनके हाथ से निकलती जा रही है। उनके रवैए से खिन्न राज्य के ज्यादातर अमनपसंद लोगों के मन में आक्रोश के साथ यह सवाल भी है कि अब क्या होगा? आतंक और अलगाववाद की यह लंबी काली रात कब छंट पाएगी।
श्रीनगर में राजनीतिक सहित अन्य संगठनों के 25 से अधिक प्रतिनिधिमंडल सांसदों के दल से मिले तथा घाटी में दो माह से अधिक समय से चली आ रही हिंसा का समाधान करने पर बल दिया। साथ ही मानवीय मूल्यों को पहुंच रही हानि पर दु:ख व्यक्त किया।
राज्य की मुख्यमंत्री तथा सत्ताधारी पीडीपी प्रमुख महबूबा मुफ्ती ने अलगाववादी हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के नेताओं को पत्र लिखकर अनुरोध किया था कि वे केन्द्रीय प्रतिनिधिमंडल से मिलकर अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करें, क्योंकि बातचीत से ही किसी समस्या का समाधान हो सकता है। जिन अलगाववादी नेताओं को बातचीत के लिए आमंत्रित किया गया था उनमें हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के प्रमुख नेता सैयद अली शाह गिलानी भी शामिल थे।
किंतु सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल से कोई अलगाववादी नेता मिलने नहीं पहंुचा। ऐसे में न जाने किसके इशारे पर माकपा के सीताराम येचुरी, भाकपा के डी. राजा, जनता दल (यू) के शरद यादव, आरजेडी के जयप्रकाश नारायण, एएमआईएम के असदुद्दीन ओवैसी, तथा कुछ अन्य नेता अलगाववादियों से मिलने उनके घर पहंुच गए। गिलानी सहित कुछ अलगाववादी नेताओं ने तो इन सांसदों को यह कह कर लौटा दिया कि 'बातचीत के लिए वातावरण अनुकूल नहीं है और न ही इससे कुछ अर्थपूर्ण समाधान निकल पाएगा।' किंतु सैयद अली शाह गिलानी ने तो येचूरी और डी. राजा के उनके यहां पहंुचने पर घर के दरवाजे ही बंद कर लिए। वहां उपस्थित कुछ लोगों ने 'गो बैक' जैसे नारे भी लगाए।
इसके साथ ही वहां भीड़ इकट्ठी हो गई और दोनों कम्युनिस्ट नेताओं को वहां से लौटना भारी पड़ गया। सांसदों के साथ इस आपत्तिजनक व्यवहार पर आश्चर्य प्रकट करते हुए गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि ''यह व्यवहार कश्मीरियत, इंसानियत तथा जम्हूरियत से मेल नहीं खाता।''
उल्लेखनीय है कि सैयद अली शाह गिलानी तीन बार राज्य विधानसभा के सदस्य रहे हैं। 1972 में वे पहली बार जमाते-इस्लामी के सदस्य के रूप में चुने गए थे और उसके पश्चात मुस्लिम मुत्तहिदा महाज के सदस्य के रूप में भी विधानसभा के सदस्य बने। उन्होंने कम से कम छह बार 'संविधान का पालन' करने की शपथ ली है। इतना ही नहीं, वे पूर्व विधायक होने के नाते आज भी अच्छी-खासी पेंशन तथा अन्य सुविधाएं प्राप्त कर रहे हैं, किंतु साथ ही अलगाववाद तथा आतंकियों का समर्थन करने वालों में सबसे आगे खड़े दिखाई देते हैं। इसी प्रकार कुछ अन्य अलगाववादी नेता भी केंद्र से आए पैसे से सुरक्षा और दूसरी सुवधिाएं प्राप्त कर रहे हैं। लेकिन अब 7 सितम्बर को नई दिल्ली में सरकार की ओर से की गई एक महत्वपूर्ण बैठक के बाद सुनने में आया है कि अलगाववादी नेताओं की सुरक्षा और सुविधाओं में जल्दी ही कटौती
की जाएगी।
इन अलगाववादियों ने केन्द्रीय गृह मंत्री की अध्यक्षता वाले सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के साथ वार्ता का बहिष्कार क्यों किया? इस संबंध में कई प्रकार की अटकलें लगाई जा रही हैं क्योंकि पाकिस्तान के बुलावे पर तो 'कश्मीरियत के पैरोकार' और 'भारत में रहते हुए भारत-द्रोह' की बातें करने वाले ये नेता कहीं भी पहुंच जाते हैं। कुछ राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि ये अलगाववादी भी अब पत्थरबाजों तथा आतंकियों से डरने लगे हैं, क्योंकि उन युवकों के तार सीधे उस पार से जिहाद का संचालन करने वालों के साथ जुड़े हैं। ये नेता भी घाटी के कुछ अन्य नेताओं और सामान्य लोगों की भांति एक प्रकार से मानसिक रूप से बंदी बनकर रह
गए हैं।
क्यों बने ये हालात?
कश्मीर घाटी में नेताओं तथा अन्य तक को पत्थरबाजों द्वारा एक प्रकार से बंदी बनाने की ये परिस्थितियां कैसे उत्पन्न हुई हैं? इस संबंध में बहुत-से लोग नेताओं की नीतियों को ही जिम्मेदार ठहराने लगे हैं, क्योंकि वे पहले तो अलगाववादी तत्वों को अपने विरोधियों के विरुद्ध प्रयोग में लाने के लिए कई प्रकार के हथकंडे अपनाते रहे तथा सुरक्षा बलों का मनोबल तक गिराने की हरकतें करते रहे, किंतु अब वातावरण कुछ विचित्र-सा बनकर रह गया है। यद्यपि मुख्यमंत्री तथा कुछ अन्य का कहना है कि 'हिंसा के समर्थकों' की संख्या मात्र पांच प्रतिशत ही है।
वैसे तो अलगाववाद तथा आतंकियों का खेल इस राज्य में पुराना है, किंतु वक्त के साथ यह भयानक रूप धारण करता चला गया है। एक रिपोर्ट के अनुसार गत 26 वर्षों में जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद की 69,000 घटनाएं हुई हैं जिनमें 50,000 से अधिक लोग मारे गए हैं, हजारो अपंग हुए हैं। मारे गए 22,000 आतंकियों में करीब 7,000 पाकिस्तानी थे तथा शेष विदेशी भाड़े के जिहादी। इस आतंकवाद से प्रभावित में 5 लाख से अधिक घाटी के निवासी अपने ही देश में विस्थापित के तौर पर रह रहे हैं।
नया उबाल क्यों?
घाटी में हर 2-3 वर्ष के पश्चात परिस्थितियां उग्र रूप धारण कर लेती हैं, क्योंकि उस पार से आतंक का संचालन करने वाले तत्वों तथा वहां के शासकों की सोच इस मामले में साझी दिखती है। पाकिस्तान में जब भी कभी आंतरिक समस्याएं उत्पन्न होती हैं तो वहां कश्मीर का राग छेड़कर लोगों का ध्यान हटाने का प्रयत्न किया जाता है। आज पाकिस्तान के प्रांत बलूचिस्तान तथा सिंध के अतिरिक्त उसके कब्जाए कश्मीरी हिस्से में अशांति है जिसके कारण कश्मीर का राग तेज कर दिया गया है।
केन्द्र का अच्छा निर्णय
केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार ने जम्मृ-कश्मीर में हालात सुधारने के लिए प्रयास तेज कर दिए हैं। इससे घाटी सहित जम्मू और लद्दाख में भी अच्छा संकेत गया है। देश के सभी बड़े राजनीतिक संगठनों को कश्मीर के प्रश्न पर एकजुट करना तथा जम्मू-कश्मीर, विशेषकर घाटी में सभी दलों के सांसदों को वहां ले जाना, एक अच्छी पहल बताई जा रही है। घाटी ही नहीं, जम्मू तथा लद्दाख जैसे भूभागों की समस्याओं की ओर भी ध्यान दिया गया है।
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