राहत और हिम्मत
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राहत और हिम्मत

by
Sep 5, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 05 Sep 2016 11:43:38

 

जम्मू-कश्मीर में कई पीढि़यों से रह रहे पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर से आए विस्थापितों के लिए केन्द्र सरकार ने राहत पैकेज की घोषणा की है। यह राहत इन विस्थापितों के लिए संजीवनी का काम करेगी। ये लोग आज तक भेदभाव का शिकार रहे थे। ये न तो विधानसभा चुनाव में वोट डाल सकते हैं और न ही इनके बच्चे सरकारी नौकरी पा सकते हैं

  सुधेन्दु ओझा

कश्मीर मामले में पाकिस्तान को उसके ही घर में घेरने की कूटनीतिक रणनीति के तहत भारत अब उसकी दुखती रग पर और मजबूती से हाथ रखने की तैयारी में है। इसके लिए सरकार ने पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर (गिलगित-बाल्टिस्तान, मीरपुर, मुजफ्फराबाद आदि) से आए विस्थापितों के लिए 2000 करोड़ रुपए के पैकेज की रूपरेखा तैयार कर ली है। गृह मंत्रालय के सूत्रों के मुताबिक 1947 में देश के बंटवारे के समय और 1965 एवं 1971 के युद्धों के दौरान जो लोग पीओके से आकर जम्मू-कश्मीर के विभिन्न हिस्सों में रह रहे हैं, उन्हें आर्थिक मदद दी जाएगी। 36,348 कश्मीरी शरणार्थियों की पहचान भी कर ली गई है। जानकारी के अनुसार आर्थिक पैकेज संबंधी मसौदा सितंबर महीने में केंद्रीय कैबिनेट के विचारार्थ पेश किए जाने की संभावना है जिसकी मंजूरी के बाद प्रत्येक विस्थापित परिवार को साढ़े पांच लाख रुपए दिए जाएंगे। सूत्रों के अनुसार पैकेज पर काम कर रहे अधिकारियों को उम्मीद है कि कैबिनेट से एक महीने के अंदर पैकेज को मंजूरी मिल जाएगी और शरणार्थियों को राहत राशि सौंप दी जाएगी।
ये शरणार्थी इन दिनों जम्मू, कठुआ और राजौरी जिले के विभिन्न हिस्सों में रह रहे हैं। हालांकि जम्मू-कश्मीर के संविधान की शतार्ें के मुताबिक, ये सभी राज्य के स्थायी निवासी नहीं हो सकते। ये सभी लोकसभा चुनाव में तो मतदान कर सकते हैं, लेकिन जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव में इन्हें वोट देने का अधिकार नहीं है। केंद्र सरकार अब विधानसभा चुनाव में भी इन्हें मताधिकार दिलाने के लिए राज्य सरकार को राजी करने में जुटी है।  इसके अलावा सूत्रों के अनुसार भारत सरकार बेंगलुरू में होने वाले प्रवासी भारतीय दिवस में भी पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर से प्रतिनिधियों को आमंत्रित करने का मन बना रही है। विदेश मंत्रालय के सूत्रों के मुताबिक इस फैसले पर भी लगभग सहमति बन चुकी है।
पी.ओ.के. से आए शरणार्थियों को आर्थिक पैकेज देने के पीछे का उद्देश्य है पाकिस्तान को आईना दिखाना।  उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वाधीनता दिवस के अवसर पर लालकिले से दिए गए भाषण ने पाकिस्तान के संदर्भ में भारतीय कूटनीति को एक नई दिशा प्रदान की है। इस अनूठी सोच ने जहां कई विशेषज्ञों को दिमागी कसरत करने पर मजबूर कर दिया है, तो वहीं कई अभी भी इस संदेह में उलझे हैं कि शायद मोदी से कहीं शब्दों के उच्चारण में गलती हुई है। इस संदर्भ में कांग्रेसी नेता पी. चिदम्बरम द्वारा एक अंग्रेजी समाचार पत्र में लिखे गए लेख का संदर्भ आवश्यक प्रतीत होता है। उन्होंने लिखा है कि 'संभवत: प्रधानमंत्री बाल्टिस्तान के स्थान पर गलती से बलूचिस्तान बोल गए हैं।'
पाकिस्तानी हठधर्मिता यह है कि वह आतंकवाद के माध्यम से कश्मीर को समस्या का रूप देकर अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की भर्त्सना और निंदा करके उस पर दबाव बनाता आ रहा है।  
चूंकि, स्वाधीनता दिवस के संबोधन में बलूचिस्तान और पी.ओ.के. का जिक्र प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जैसे शीर्ष नेता द्वारा किया गया है अत: अंतरराष्ट्रीय विषयों के जानकार इसके निहितार्थ को समझने और विश्लेषित करने का प्रयास कर रहे हैं। यह मोदी सिद्धान्त का नया पहलू है।
प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी कार्यशैली के अनुरूप तत्काल ही इन विषयों पर देश की नीति को स्पष्ट करते हुए उसे शीघ्रता से लागू करने का प्रयास भी शुरू कर दिया है। इसी प्रक्रिया के अंतर्गत पी.ओ.के. के नागरिकों को भी भारतीय नागरिक मान कर, वहां के लोगों को केंद्र सरकार द्वारा विशेष आर्थिक पैकेज की रूपरेखा की घोषणा ने इसे एक नया आयाम प्रदान
किया है।
भारत की नई सोच  
पाकिस्तान के लिए कश्मीर जिन्ना की आंखों का स्वप्न है। यही कारण है कि वह भारत से इस मसले पर आधिकारिक तौर पर कारगिल सहित तीन युद्ध कर चुका है। अमेरिका ने भले पहले अफगानिस्तान में पाकिस्तान की दखलंदाजी से आंखें फेर रखी थीं किन्तु अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अब स्थितियों में आमूल-चूल परिवर्तन हो गया है। ये दोनों ही मुद्दे अब सीमा तोड़ कर बाहर निकल चुके हैं।
पाकिस्तान द्वारा बोई गई तालिबान, अल-कायदा की विषबेल अब पूरे मध्य एशिया में फैल चुकी है। उसके द्वारा आतंकवाद की मदद से अफगानिस्तान सरकार को कमजोर करने और उस पर कब्जा करने की ललक जगजाहिर हो चुकी है। यह आरोप भारत का नहीं, बल्कि अफगानिस्तानी शासकों का ही है।  
विश्व ने पहचाना पाकिस्तान को
अमेरिका और भारत जैसे प्रजातांत्रिक देशों के बीच सामरिक समझौतों से भी अमेरिका-पाकिस्तान संबंधों के बीच खाई बढ़ी है। अमेरिका, अफगानिस्तान, भारत और ईरान के मध्य सुचारु होते संबंधों ने पाकिस्तान को हाशिए पर ला खड़ा किया है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि कश्मीर के विभिन्न अलगाववादी संगठनों को प्रश्रय देकर पाकिस्तान भारत के इस प्रांत में नई भौगोलिक इबारत लिखने की हर संभव कोशिश कर रहा है। यही कारण है कि 16 दिसंबर, 2014 को पेशावर के आर्मी पब्लिक स्कूल में तालिबानी आतंकियों द्वारा लगभग 170 निरीह बच्चों की मौत पर पाकिस्तान में काला दिन नहीं मनाया गया। पाकिस्तान में ही हजारों की संख्या में अहमदियाओं और शियाओं के नरसंहार पर भी पाकिस्तान में काला दिन नहीं घोषित हुआ। पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खान को सरेआम 16 अक्तूबर, 1951 को गोलियों से उड़ा दिया गया और पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो को 27 दिसंबर, 2007 को उसी जगह हमेशा के लिए सुला दिया गया जहां लियाकत अली को उड़ाया गया था। इन दोनों मौकों पर भी पाकिस्तान में काला दिन नहीं मनाया गया। 4 अप्रैल, 1979 को जब जुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी दी गई, वह दिन भी पाकिस्तानी इतिहास में काले दिन के रूप में दर्ज नहीं है। 16 दिसंबर, 1971 को जब ढाका के रामना रेस-कोर्स उद्यान में 93 हजार पाकिस्तानी सैनिकों ने भारतीय सैनिकों के सामने आत्मसमर्पण किया था, पाकिस्तान उसे भी काला दिन नहीं मानता। शायद बदकिस्मती से ही भारत को एक ऐसा पड़ोसी मिला है जो अपने यहां 170 बच्चों की मौत को भुला देना चाहता है। वह हजारों की तादाद में मारे गए अपने नागरिकों की मौत को भी याद नहीं रखना चाहता। उसके ही अंग से अलग होकर बंगलादेश का बनना उसके लिए काला दिन नहीं है। वह भुट्टो, लियाकत और बेनजीर की मृत्यु को काले दिन के तौर पर नहीं मनाता। उसे ड्रोन हमले में मुल्ला मंसूर के मारे जाने पर दु:ख होता है। उसे ओसामा की मौत पर सदमा लगता है। उसे भारत के द्वारा आतंकी बुरहान के मारे जाने पर दौरे पड़ने शुरू होते हैं। और वह एक भारतीय आतंकी की मौत को काला दिन घोषित करता है। बुरहान वानी की मौत से शुरू बवाल अभी कश्मीर में थमा नहीं है।  इसने 70 से अधिक बहुमूल्य जिंदगियों को लील लिया है। सैकड़ों युवा पत्थरबाजी में घायल हुए हैं, यही स्थिति सुरक्षाबलों की भी है।

कश्मीर समस्या का दोहन  
कश्मीर के स्थानीय राजनीतिक दलों और खुद कांग्रेस पार्टी ने कश्मीर के साथ न्याय नहीं किया। उमर अब्दुल्ला सुरक्षित चारदीवारी में बैठ कर प्रधानमंत्री और महबूबा मुफ्ती को 'सलाह' दे रहे हैं या फिर उन पर व्यंग्य ट्वीट कर रहे हैं। गुलाम नबी कश्मीर में उन गलियों और सड़कों पर नहीं जाना चाहते जहां से आतंकवादी सुरक्षा बालों पर गोली बरसा रहे हैं या फिर जहां से कश्मीरी  पत्थरबाजी कर रहे हैं। वे प्रधानमंत्री को द्वंद्व में उलझाना चाहते हैं। कश्मीर की जनता और कश्मीर के नेताओं ने अपने दायित्वों की तिलांजलि दी है। वे कश्मीर समस्या के हल में जान-जोखिम में डाले बिना सारे लाभ अपने हिस्से में कर लेना चाहते हैं। यह कश्मीर की त्रासदी है।
पिछले 70 वर्ष में कंग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस ने बारी-बारी कश्मीर पर राज किया है। क्या कारण है कि इन दलों के नेता स्थानीय मुस्लिम आबादी के पांच प्रतिशत तबके को देश की मुख्यधारा में नहीं ला सके?
कश्मीर : इतिहास से आगे
नेहरू तथा माउंटबेटन के बीच परस्पर विशेष सम्बंध थे, जो किसी भी भारतीय कांग्रेसी या मुस्लिम नेता के आपस में न थे। माउंटबेटन को स्वतंत्र भारत का पहला गर्वनर जनरल बनाया गया, जबकि जिन्ना ने माउंटबेटन को पाकिस्तान का पहला गर्वनर जनरल मानने से साफ इंकार कर दिया, जिसका माउंटबेटन को जीवन भर अफसोस भी रहा। माउंटबेटन 24 मार्च, 1947 से 30 जून, 1948 तक भारत में रहे। कश्मीर के प्रश्न पर भी माउंटबेटन के विचारों को  नेहरू ने अत्यधिक महत्व दिया। नेहरू के शेख अब्दुल्ला के साथ भी गहरे संबंध थे। शेख अब्दुल्ला ने 1932 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से एम़ एससी. किया था। फिर वह श्रीनगर के एक हाईस्कूल में अध्यापक नियुक्त हुए, परन्तु अनुशासनहीनता के कारण स्कूल से हटा दिए गए। फिर वह कुछ समय तक ब्रिटिश सरकार से तालमेल बिठाने का प्रयत्न करते रहे। आखिर में उन्होंने 1932 में ही कश्मीर की राजनीति में अपना भाग्य आजमाना चाहा और 'मुस्लिम कांफ्रेंस' स्थापित की, जो केवल मुसलमानों के लिए थी। परन्तु 1939 में इसके द्वार अन्य पंथों, मजहबों के मानने वालों के लिए भी खोल दिए गए और इसका नाम 'नेशनल कांफ्रेंस' रख दिया तथा नेहरू के प्रजा मण्डल आन्दोलन से अपने को जोड़ लिया। शेख अब्दुल्ला ने 1940 में नेशनल कांफ्रेंस के सम्मेलन में मुख्य अतिथि के रूप में  नेहरू को बुलाया था।
हरि सिंह, नेहरू और अब्दुल्ला
कश्मीर के डोगरा शासक महाराजा हरि सिंह (1925-47) से न ही शेख अब्दुल्ला के और न ही नेहरू के संबंध मधुर कहे जा सकते थे। महाराजा हरि सिंह कश्मीर को स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में देख रहे थे। वहीं, शेख अब्दुल्ला 'क्विट कश्मीर आन्दोलन' के द्वारा महाराजा को हटाकर, स्वयं शासन संभालने को आतुर थे। जब नेहरू भारत के अंतरिम प्रधानमंत्री बन गए थे, तब एक घटना ने इस कटुता को और बढ़ा दिया था। शेख अब्दुल्ला ने श्रीनगर की एक कांफें्रस में नेहरू को आने का निमंत्रण दिया था। इस आयोजन में मुख्य प्रस्ताव था महाराजा हरि सिंह को हटाने का।
महाराजा हरि सिंह ने नेहरू से इस आयोजन में न आने को कहा। नेहरू इस पर सहमत नहीं हुए। नेहरू को जम्मू में ही श्रीनगर जाने से पूर्व रोक दिया गया। नेहरू ने इसे अपना अपमान समझा तथा वे इसे जीवनभर नहीं भूल पाए। पाकिस्तानी फौज और कबायली आक्रमण के समय कश्मीर में सेना फौरन भेजी जानी चाहिए थी, पर उसमें देरी हुई। इसमें नेहरू पर संदेह करने वालों की कमी नहीं है।
भारत में विलय
जानकारियों के अनुसार जिन्ना कश्मीर तथा हैदराबाद पर पाकिस्तान का आधिपत्य चाहते थे। उन्होंने अपने सैन्य सचिव को तीन बार महाराजा कश्मीर से मिलने के लिए भेजा। पर महाराजा ने बार-बार बीमारी का बहाना बनाकर बातचीत को टाल दिया। जिन्ना ने गर्मियों की छुट्टी कश्मीर में बिताने की इजाजत चाही। परन्तु महाराजा ने विनम्रतापूर्वक इस आग्रह को टालते हुए कहा था कि वह एक पड़ोसी देश के गवर्नर जनरल को ठहराने की औपचारिकता पूरी नहीं कर पाएंगे। ऐसे में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर उपाख्य गुरुजी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और महाराजा कश्मीर से बातचीत करने 18 अक्तूबर, 1947 को श्रीनगर पहुंचे। विचार-विमर्श के पश्चात महाराजा कश्मीर अपनी रियासत के भारत में विलय के लिए पूरी तरह तैयार हो गए थे।
कश्मीर-पाकिस्तान-नेहरू
पाकिस्तान के गठन और 1947 में भारत के विभाजन से पहले, महाराजा हरि सिंह ने अपना राज्य गिलगित और बाल्टिस्तान तक बढ़ाया था। विभाजन के बाद, संपूर्ण जम्मू और कश्मीर एक स्वतंत्र राष्ट्र बना रहा। 1947 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के अंत में संघर्ष विराम रेखा (जिसे अब नियंत्रण रेखा कहते हैं) के उत्तर और पश्चिम के कश्मीर के भागों के उत्तरी भाग को उत्तरी क्षेत्र (72,971 वर्ग किमी.) और दक्षिणी भाग को 'आजाद' कश्मीर (13,297 वर्ग किमी) के रूप में विभाजित किया गया। उत्तरी क्षेत्र नाम का प्रयोग सबसे पहले संयुक्त राष्ट्र ने कश्मीर के उत्तरी भाग की व्याख्या के लिए किया। 1963 में उत्तरी क्षेत्रों का एक छोटा हिस्सा जिसे शक्सगाम घाटी कहते हैं, पाकिस्तान द्वारा जनवादी चीन गणराज्य को सौंप दिया गया।
कश्मीर हथियाने की साजिश
22 अक्तूबर, 1947 को पाकिस्तानी सेना के साथ कबाइलियों ने मुजफ्फराबाद की ओर कूच किया। ऐसा आरोप है कि कश्मीर के प्रधानमंत्री मेहरचन्द महाजन के बार-बार सहायता के अनुरोध पर भी भारत सरकार उदासीन रही। अंतत: 24 अक्तूबर को माउंटबेटन ने सुरक्षा कमेटी की बैठक की। परन्तु बैठक में महाराजा को किसी भी प्रकार की सहायता देने का निर्णय नहीं किया गया। 26 अक्तूबर को पुन: कमेटी की बैठक हुई। अध्यक्ष माउंटबेटन अब भी महाराजा के हस्ताक्षर सहित विलय प्राप्त न होने तक किसी सहायता के पक्ष में नहीं थे। आखिरकार 26 अक्तूबर को गृह मंत्री सरदार पटेल ने अपने सचिव वी़ पी़ मेनन को महाराजा के हस्ताक्षर युक्त विलय दस्तावेज लाने को कहा। सरदार पटेल स्वयं वापसी में वी़ पी़ मेनन से मिलने हवाई अड्डे पहुंचे। विलय पत्र मिलने के बाद 27 अक्तूबर को हवाई जहाज द्वारा श्रीनगर में भारतीय सेना भेजी गई। भारत की सेनाएं जब कबाइलियों को खदेड़ रही थीं तो युद्ध विराम कर दिया गया। परिणामस्वरूप कश्मीर का एक तिहाई भाग, जिसमें मुजफ्फराबाद, मीरपुर, गिलगित आदि क्षेत्र आते हैं, पाकिस्तान के कब्जे में रह गए, जो आज भी पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर के नाम से जाने जाते हैं।
जानकारों के अनुसार नेहरू ने शेख अब्दुल्ला की सलाह पर भारतीय संविधान में धारा 370 को जोड़ कर कश्मीर समस्या को स्थाई कर दिया। डॉ. भीमराव आंबेडकर ने इसका विरोध किया तथा स्वयं इस धारा को जोड़ने से मना कर दिया। इतिहासकारों के अनुसार प्रधानमंत्री नेहरू ने रियासत के राज्यमंत्री गोपालस्वामी आयंगर द्वारा 17 अक्तूबर, 1949 को यह प्रस्ताव रखवाया। इसमें कश्मीर के लिए अलग संविधान को स्वीकृति दी गई जिसमें भारत का कोई भी कानून यहां की विधानसभा द्वारा पारित होने तक लागू नहीं होगा। दूसरे शब्दों में दो संविधान, दो प्रधान तथा दो निशान को मान्यता दी गई। कश्मीर जाने के लिए परमिट की अनिवार्यता की गई। शेख अब्दुल्ला कश्मीर के प्रधानमंत्री बने।
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने दो विधान, दो प्रधान, दो निशान के विरुद्ध देशव्यापी आन्दोलन किया। वे परमिट व्यवस्था को तोड़कर श्रीनगर गए, जहां ऐसा आरोप है कि जेल में उनकी हत्या कर दी गई।
जम्मू और कश्मीर की लोकतांत्रिक और निर्वाचित संविधान-सभा ने 1957 में एकमत से महाराजा के विलय के कागजात को हामी दे दी और राज्य का ऐसा संविधान स्वीकार किया जिसमें कश्मीर के भारत में स्थाई विलय को मान्यता दी गई थी। कई चुनावों में कश्मीरी जनता ने मतदान कर भारत का साथ दिया है।
भारत पाकिस्तान के दो-राष्ट्र सिद्धान्त को नहीं मानता। भारत स्वयं पंथनिरपेक्ष है। कश्मीर का भारत में विलय 'ब्रिटिश भारतीय स्वातंत्र्य अधिनियम' के तहत कानूनी तौर पर सही है।
पाकिस्तान अपनी भूमि पर आतंकवादी शिविर चला रहा है (खास तौर पर 1989 से) और कश्मीरी युवकों को भारत के खिलाफ भड़का रहा है। ज्यादातर आतंकवादी स्वयं पाकिस्तानी नागरिक (या तालिबानी अफगान) ही हैं और ये कुछ कश्मीरियों से मिलकर इस्लाम के नाम पर भारत के खिलाफ जिहाद चला रहे हैं। लगभग सभी कश्मीरी पंडितों को आतंकवादियों ने कश्मीर से बाहर निकाल दिया है और वे शरणार्थी शिविरों में रह रहे हैं।
तेजी से घूमता घटनाचक्र
पाकिस्तान इन दिनों भारतीय कूटनीतिक धार और उसके अमेरिका के साथ बढ़ते सामरिक संबंधों से खासा परेशान है। भारत-अफगानिस्तान और अमेरिका द्वारा उस पर आतंकवाद को लेकर लगाए जा रहे आरोप, अमेकिी सहायता राशि में कटौती और अंधकारमय भविष्य पाकिस्तानी प्रशासन की नींद उड़ाने के लिए काफी हैं।

निश्चित ही कश्मीर को लेकर नया मोदी सिद्धान्त समस्या की जड़ (पाकिस्तान) को निर्मूल करने का नया अध्याय साबित होगा।

पाकिस्तान और चीन की चिंता

पाकिस्तान के प्रतिष्ठित अंग्रेजी समाचारपत्र 'डॉन' ने भारत और अमेरिका द्वारा 29 अगस्त, 2016 को किए गए सैन्य समझौते को पाकिस्तान और चीन के लिए एक बड़ा सिरदर्द माना है। समाचारपत्र के अनुसार इस समझौते का पाकिस्तान और चीन पर सीधा प्रभाव पड़ेगा। सामान्य रूप से अमेरिका अन्य देशों के साथ लोजिस्टिक सपोर्ट एग्रीमेंट (एलएसए) करता है। किन्तु भारत के साथ किया गया समझौता 'लोजिस्टिक एक्सचेंज मेमोरैंडम ऑफ एग्रीमेंट' है। इसके तहत दोनों सहयोगी देश एक-दूसरे की सैन्य सुविधाओं का उपयोग कर सकेंगे। डॉन समाचारपत्र की चिंता है कि इसके जरिए अमरीकी सेनाएं भारतीय सेना के प्रतिष्ठानों से पूरे विश्व पर निगाह रख सकेंगी।
डॉन ने प्रतिष्ठित फोर्ब्स पत्रिका के इस शीर्षक 'चीन और पाकिस्तान होशियार : इस सप्ताह भारत और अमेरिका एक बड़े युद्ध समझौते पर हस्ताक्षर करेंगे' का विशेष रूप से उल्लेख किया है। अनुमान है कि अमेरिका अपने नौवहन बेड़े का लगभग 60 प्रतिशत हिस्सा हिन्द-प्रशांत महासागर में तैनात करेगा।  अमेरिका ने भारत के साथ रक्षा व्यापार और प्रौद्योगिकी को साझा करने को निकटम साझेदारों के स्तर तक विस्तार देने पर सहमति जताई है। दोनों देशों के बीच रक्षा संबंध उनके 'साझा मूल्यों एवं हितों' पर आधारित हैं। 

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