|
इशरत जहां (संदिग्ध आतंकी) की गुजरात पुलिस से मुठभेड़ के बाद मौत से जुड़ी फाइलों के कुछ दिनों पहले फिर से खुलने से सनसनी मची थी। एक के बाद एक खुलासों से तत्कालीन केन्द्रीय वित्त मंत्री चिदम्बरम घिरते दिख रहे थे। ऐसे में गुप्तचर ब्यूरो के एक पूर्व अधिकारी आर.वी.एस. मणि एक न्यूज चैनल पर अपने साथ एक आला अधिकारी के 'दुर्व्यवहार' की बाबत वक्तव्य दे रहे थे। उनसे पूछा गया कि जिस समय के एस.आई.टी. प्रमुख (सतीश) वर्मा आपका उत्पीड़न कर रहे थे, तो आप मीडिया के सामने क्यों नहीं आए? इस प्रश्न पर आर.वी.एस. मणि का उत्तर था, ''इंडियन एक्सप्रेस और सीएनएन-आईबीएन ने मेरा इंटरव्यू किया था, लेकिन उसे कभी भी प्रकाशित नहीं किया था।''
शायद 'फ्री स्पीच वर्सेज हेट स्पीच विद स्पेशल एम्फेसिस ऑन प्रॉस्पेक्ट्स ऑफ क्रिएटिंग कम्युनल हार्मनी इन इंडिया बाय मीडिया' नाम की पुस्तक वर्तमान और वर्तमान सरीखी इन परिस्थितियों में और समीचीन हो जाती है। हिन्दी में कहें तो 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाम वैमनस्यकारी अभिव्यक्ति, मीडिया द्वारा भारत में साम्प्रदायिक सद्भाव निर्माण की संभावनाओं पर विशेष जोर देते हुए' एक शोध पुस्तिका है। इतनी भारी भी नहीं कि इसे ग्रंथ कहा जा सके, और इतनी छोटी भी नहीं कि इसे पत्र कह दिया जाए।
किसी भी अन्य अधिकार की तरह, वास्तव में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता न तो पूर्ण है, न स्वेच्छाचारी। मीडिया के मिशन से लेकर मीडिया के व्यवसाय और मीडिया की 'दुकान' तक—जहां भी जो लागू हो- अभिव्यक्ति की इसी अपूर्ण और अस्वैच्छिक स्वतंत्रता के आधार पर चलती है। हालांकि मीडिया को यह अधिकार जरूर प्राप्त है कि वह अपने 'मिशन', 'प्रोफेशन' और 'सेन्सेशन' के व्यवसाय में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई बार-बार देता रहे। अब देखिए, जो लोग इन दिनों अभिव्यक्ति की पूर्ण और स्वेच्छाचारी स्वतंत्रता के नारे लगा रहे हैं, वे ही उन दिनों इंडियन एक्सप्रेस और सीएनएन-आईबीएन के संपादक हुआ करते थे, जब उन्हीं का मीडिया एक बहुत कटु सत्य को दबा रहा था।
पुस्तक में मीडिया और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के इस एकतरफा रिश्ते को शुरुआत में ही उजागर कर दिया गया है। मीडिया में छपने वाले शब्द स्वतंत्रता के तहत छपते हैं, लेकिन स्वतंत्रतापूर्वक नहीं छपते हैं। इसके कई कारण हैं और पहले अध्याय में इनका उल्लेख किया गया है। चूंकि मीडिया का मुख्य 'धंधा' ही अपने 'धंधे' का बचाव करते हुए दूसरों पर हमला बोलना और उनका 'धंधा' चौपट कराने की हद तक हमला बोलना है, इसलिए पहले अध्याय में उल्लिखित शायद हर एक कारण विवादास्पद हो सकता है। लेकिन अध्याय नितांत तथ्य देकर आगे बढ़ लेता है और हरसंभव विवाद के लिए एक ही टिप्पणी करता है-'नो कमेंट्स'।
चौथा अध्याय 'महात्मा गांधी: एन एक्जिस्टेंशियल जर्नलिस्ट'अपने शीर्षक से लेकर अंत तक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का व्याभिचारिक शोषण है। चंद पैराग्राफों में निपटाए गए इस अध्याय से न गांधीप्रेमियों को कुछ मिल सकता है, न मीडियाप्रेमियों को। लेकिन चंद नई जानकारियां जरूर मिलती हैं और वे जानकारियां पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रखने वालों को एक प्रेरणा जरूर दे सकती हैं। वह यह कि उन्हें सक्रिय पत्रकारिता करनी चाहिए। अगर सब कुछ ठीक है, तो वही गलत है। और अगर कुछ गलत है, तो वह तो खबर है ही।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और आगे बढ़ती है। अब वह इस मुकाम पर पहुंचती है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कर्तव्य क्यों हो, अधिकार क्यों न हो? इसका अर्थ यह भी है कि हर बात लेखक ही क्यों कहे, उसे दूसरों के मुख से, साक्षात्कार के माध्यम से कहलवाना चाहिए। लिहाजा एक अध्याय वरिष्ठ संपादकों के साक्षात्कारों का कोलाज है, जिसमें तमाम प्रश्न उठाए गए हैं। उत्तर भी हैं, लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि हर उत्तर संतोषजनक ही हो। यहां आकर पुस्तक अपने मूल विषय के सबसे नजदीक से गुजरती है जो है मीडिया द्वारा साम्प्रदायिक सद्भाव निर्माण की संभावना। भारत के, विभिन्न राज्यों के, जर्मनी के और अमेरिका के उदाहरण हैं। अंत में इनका विश्लेषण है। निष्कर्ष संबंधी अध्याय फिर इस काल में समीचीन हो उठता है। पाकिस्तानी पंजाब के राज्यपाल सलमान तासीर की हत्या का उल्लेख पाकिस्तान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की समाप्ति के तौर पर करते हुए दिया गया उद्वहरण कलम बनाम तलवार पर जा पहुंचता है। तासीर के हत्यारे को हाल ही में फांसी दी गई है, हालांकि उसे सजा सुनाने वाले जज को देश छोड़कर भागना पड़ा है। वास्तव में विषय जीवंत है, जिसका इस पार या उस पार उत्तर नहीं है। पुस्तक भी इसे इसी रूप में रखती है। न इस पार, न उस पार। लेकिन वह इतनी साफगोई भी नहीं बरतती कि कह सके कि भई, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता 'एब्सोल्यूट' नहीं होती। न 'रिलेटिव' होती है। खबरों की दुनिया की बाकी चीजों की तरह यह भी देशकाल और परिस्थिति पर निर्भर करती है। न ही वह साम्प्रदायिक सद्भाव निर्माण के मीडिया से इतर किसी भी पहलू पर जाती है। कानूनी पक्षों की सारिणी इसे संदर्भ ग्रंथों वाले खाने में रखे जाने लायक बना देती है। ल्ल ज्ञानेन्द्र बरतरिया
पुस्तक का नाम :
फ्री स्पीच वर्सेज हेट स्पीच (मुक्त संवाद बनाम विद्वेषपूर्ण संवाद पर एक अध्ययन) आईएएसई डीम्ड यूनिवर्सिटी, गांधी विद्या मंदिर, सरदारशहर, चुरू राजस्थान के लिए प्रकाशित
लेखक :प्रो़ संतोष कुमार तिवारीपृष्ठ : 106 मूल्य : 300 रु. प्रकाशक : एएस रिसर्च एंड लनिंर्ग सॉल्यूशन्स प्रा़ लि़
अरोरा शॉपर्स पार्क, शक्ति खंड 2, गाजियाबाद, उ़ प्ऱ
पुस्तकें मिलीं
भारतवर्ष का मौलिक रूपांतरण कार्यक्रम
इस पुस्तक में लेखक जसवीर सिंह ने इस बात पर आश्चर्य प्रकट किया है कि आखिर क्या कारण है कि हर प्रकार से सक्षम होने के बावजूद भारत संयुक्त राष्ट्र संघ की मानव विकास सूची में 135वें स्थान पर है! सिर्फ आश्चर्य नहीं उन्होंने वे आयाम भी इंगित किए हैं जिन पर उचित ध्यान देने से अगले 5 से 8 वर्ष के बीच भारत शीर्ष 10 देशों में अपना स्थान बना सकता है। इसीलिए, लेखक के अनुसार, यह पुस्तक भारत के राष्ट्रीय, प्रादेशिक, जिला एवं ग्रामीण निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों, संपूर्ण भारत के कर्मचारियों, प्रबंधन विद्यार्थियों, प्रबंधकों, सामान्य विद्यार्थियों तथा मतदान करने योग्य जनता के लिए विशेष रूप से पठनीय है। लेखक ने शासन के सूत्रों, रणनीति, तकनीकी सूत्रों, प्राथमिकताओं, करणीय कार्यों, योजनाओं का विशद विश्लेषण किया है।
टेली कॉलर: महिलाओं की सामाजिक-आर्थिक दशाएं
पुस्तक लिखी है डॉ. विकास शारदे ने, जो मानते हैं कि सूचना प्रोद्योगिकी के इस युग में कॉल सेन्टर का अपना एक विशेष महत्व बन गया है। इस परिदृश्य में भारत एक प्रमुख केन्द्र बनकर उभरा है जहां कॉल सेन्टर की विकास दर 75 प्रतिशत से अधिक रही है। साथ ही सूचना प्रौद्योगिकी व्यवसाय में 70 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धिदर्ज की गई है। अब तक भारत में 400 से ज्यादा कॉल सेन्टर स्थापित किए जा चुके हैं जबकि दुनियाभर में इस वक्त डेढ़ लाख कॉल सेन्टर हैं। इस बढ़ते व्यवसाय में भारत की महिलाओं की भूमिका एवं उनके सामने आने वाली चुनौतियों का विश्लेषण है। अध्ययन के केन्द्र में मौजूद दिल्ली महानगर की टेलीकॉलर्स हैं। पुस्तक की विषयवस्तु को देखते हुए, कहना न होगा, यह रचना इस क्षेत्र में कार्यरत महिलाओं के साथ ही पुरुषों के लिए भी पठनीय बन जाती है।
दिल अपना उधर धड़कता
पाक-अधिकृत काश्मीर की त्रस्त धरा के वासी
तेरी बाट जोहते जिनकी आंखें अब तक प्यासी
पूछ रहे हैं : क्यों अतीत में हमें अधर में छोड़ा?
बढ़ते-बढ़ते थमे अचानक, क्यों हम से मुंह मोड़ा?
हम बांहें फैलाये अब तक पुनर्मिलन को तरसे।
बादल उतना बरस न पाये जितने आंसू बरसे।
जिस्म इधर बेहाल और दिल अपना उधर धड़कता।
कब से झेल रहे हैं ये पीड़ाएं और उदासी।
हम भी तो हैं भारत-संतति—पुरखों ने बतलाया।
इसके हित ही जीना-मरना—यही हमें समझाया।
हम मजहब की नहीं, विरासत की बातें करते हैं।
जीने की आशा में देखो रोज-रोज मरते हैं।
मन होता है हम भी यहां तिरंगा-ध्वज फहराएं।
बात मर्म की समझो, बेशक हमने कही जरा-सी।
-पाल भसीन
टिप्पणियाँ