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पाञ्चजन्य इतिहास के पन्नों सेकेरल का संकेत समझें

by
Sep 5, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 05 Sep 2016 14:41:04

(पं. दीनदयाल उपाध्याय)

बहुत समय से जिसकी प्रतीक्षा की जा रही थी, वह पग 31 जुलाई, 1959 को सायं 6 बजे उठाया गया, जब राष्ट्रपति ने संविधान की धारा 356 के अंतर्गत केरल राज्य के शासन को अपने हाथ में लेने के घोषणा-पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए। केरल तथा संपूर्ण भारत की जनता की मांग पूरी हो गयी। उन्होंने मोर्चा तो जीत लिया, किन्तु युद्ध अभी लड़ा जाना शेष है। केरल का कम्युनिस्ट मंत्रिमण्डल समाप्त हो गया, किन्तु भारत के भाग्याकाश पर कम्युनिज्म का खतरा अभी मंडरा रहा है। कम्युनिस्ट सरकार भले ही समाप्त हो गयी हो, किन्तु कम्युनिस्ट पार्टी अभी भी, हमारे राष्ट्रीय संविधान को उलटने और अन्तरराष्ट्रीय साम्यवाद के दुष्ट इरादों की पूर्ति के लिए जीवित है। विजय की इस बेला में जनता का हर्ष-विभोर होना स्वाभाविक है, किन्तु हर्ष के उत्साह में वस्तुस्थिति एवं भविष्य के कठिन काल की ओर से आंखें मूंद लेना आत्मघाती होगा। राष्ट्रीय एकता एवं जनतांत्रिक स्वाधीनता के लक्ष्य को अभी हम प्राप्त नहीं कर पाए हैं। उनकी राह के खतरे अभी जड़ से उखाड़े नहीं गए हैं। केरल ने केवल यह संकेत दिया है कि हमारे अंदर असीम शक्तियां छिपी हुई हैं, आवश्यकता केवल उन्हें योग्य दिशा देने की है। यह संकेत है, यह अवसर है जिसे नेता और अनुयायी-दोनों ही समझें! अब जबकि शोर-शराबा शांत हो गया है, हम ठण्डे मस्तिष्क से बैठकर विचार करें और व्यवस्थित योजना बनाएं।

केरल का संकेत-केरल की कम्युनिस्ट सरकार के विरुद्ध जन-भावनाओं की तीव्रता और व्यापकता ने उस धारणा का, जिसे कम्युनिस्ट प्रचार तंत्र ने बड़ी कुशलतापूर्वक धीरे-धीरे निर्माण की थी कि भारतीय जनता का बहुतांश कम्युनिज्म एवं कम्युनिस्टों की ओर आकर्षित हो रहा है, भण्डाफोड़ कर दिया है। तिब्बत और केरल ने यह प्रमाणित कर दिया है कि भारतीय जनता मूलत: कम्युनिस्ट विरोधी है। जनता में अज्ञान होगा, किन्तु वह अपने राष्ट्रीय हितों को समझती है। राष्ट्रीयता एक भावना है जो कई बार जनता के साधारण व्यवहार में इतना स्पष्ट नहीं दिखाई देती। भावना जितनी श्रेष्ठ महान और गहरी होगी, उतना ही वह प्रदर्शन से परे होगी। ऐसे अवसर बहुत कम आते हैं, जब वह भावना अपना इतना प्रबल रूप प्रकट करती है कि नास्तिकों को भी उसके अस्तित्व को मान्य करना ही पड़ता है। केरल उन्हीं अवसरों में से एक था। कम्युनिस्टों के विरोध में अनेक शक्तियां सामने आयीं, जबकि समर्थन में बहुत कम। इस तथ्य के बावजूद भी कि कुछ कतिपय संविधान-पंडितों ने कम्युनिस्ट विरोधी होते हुए भी केरल के जन-आंदोलन के विरोध में अपना मत प्रकट किया एवं इस प्रकार केरल सरकार का अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन करने का आभास दिया। केरल मंत्रिमण्डल के पतन पर आंसू बहाने वालों की संख्या अंगुली पर गिनी जा सकती है। जनता के सहयोग से भारत को 'लाल' बनाने का स्वप्न देखना निरर्थक है। जनतांत्रिक विधियों से भारत में कम्युनिस्ट सत्ता का प्रस्थापित होना और टिके रहना असंभव है। किन्तु तब भी राष्ट्रीय जनतांत्रिक शक्तियों की एकता सदैव तो नहीं बनी रह पाती। वे विभाजित हो जाती हैं और असावधान जनता को कम्युनिस्ट…

राष्ट्रीय घटना चक्र

अमरीकी रामायण: घोर राष्ट्रीय अपमान

भारत में ऐसा कौन होगा जिसने रामायण नहीं पढ़ी हो? किंतु किसी को भी ये अद्भुत व अनूठे तथ्य नहीं पता होंगे –

जहां आज अयोध्या बसी है, वहां किसी समय अनार्यों का अधिकार था और आर्यों ने उन पर विजय प्राप्त की थी।

राजा दशरथ को उनकी प्रजा चाहती थी, पर स्वयं दशरथ स्त्रियां चाहते थे।

पटरानी के अतिरिक्त दशरथ की अनेक रखेलें थीं।

दशरथ की शक्ल-सूरत अच्छी नहीं थी।

   राज्य पर अधिकार करने के लिए राम ने दशरथ के प्राण लेने के लिए षड्यंत्र रचा।

राम द्वारा दशरथ को एक ऐसा तोता भेंट किया गया जिसकी चोंच जहर की बनी थी। तोते की परीक्षा लेने के लिए दशरथ ने राम से तोते को मिठाई खिलाने के लिए कहा जिससे तोता उन्हीं को काट ले और वह मर जाए।

सीता ने रसोइए को भोजन में विष मिलाने का संकेत किया।

श्रवण कुमार का ब्राह्मण (?) पिता राम को 14 वर्ष का वनवास दिलाने अयोध्या में उपस्थित हुआ।

राम वन गए अवश्य पर यह बहाना करके कि शिकार खेलने जा रहे हैं।

सीता ने किसी दिन लक्ष्मण को पान खिलाते हुए कहा था-'वह रावण है। एक बार जंगल में उसने मुझे देखा था। फिर मैं उससे मिली। वह मुझसे प्रेम करता है।'

यदि ये विचित्र तथ्य किसी को जानने हों तो वह अमेरिका के प्रसिद्ध हास्य लेखक आब्रे मेनन द्वारा लिखित तथा चाल्से स्क्रिीविनर्स एंड संस द्वारा प्रकाशित अंग्रेजी 'रामायण'को देखे। 276 पृष्ठों की यह 'नई वाल्मीकि रामायण' हिन्दुओं की भावना को कितना अधिक ठेस पहंुचाने वाली है। इसका तो केवल अंदाजा ही लगाया जा सकता..

दिशाबोध

फेंक दो विदेशी सहायता की बैसाखी

''विदेशी सहायता की बैसाखियों को फेंक देने से ही भारत इससे आगे अपनी प्रगति कर सकेगा, क्योंकि विदेशी सहायता के कारण हमारी सारी आदतें ही खराब हो गई हैं। हमने स्वदेशी के महामंत्र को भुला दिया है। हम उसे भुला दें, यही विदेशी शक्तियों की योजना है। भारत के आर्थिक प्रश्न विदेशी सहायता कम पड़ने के कारण विकट नहीं हुए हैं, बल्कि इसलिए कि आवश्यकता से अधिक सहायता आ रही है और फलस्वरूप हम स्वदेशी एवं स्वावलंबन को भूलाते जा रहे हैं। यह सहायता हमारे लिए उपयोगी सिद्ध न होकर विदेशों में आई मंदी तथा बेकारी दूर करते हुए उनकी अर्थव्यवस्था को समृद्ध करने के लिए काम में लाई जा रही है।''

    —पं. दीनदयाल उपाध्याय (विचार-दर्शन, खण्ड-4, पृ. 87)

 

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