बात बराबरी के हक की
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बात बराबरी के हक की

by
Sep 5, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 05 Sep 2016 13:14:16

 

हाजी अली दरगाह में महिलाओं के प्रवेश की अनुमति देने वाले मुंबई उच्च न्यायालय के फैसले की उलेमाओं और मुस्लिम विद्वानों ने तारीफ की है। मुस्लिम महिलाएं दरगाह कमेटी के भेदभावपूर्ण रवैए से बेहद गुस्से में थीं, लेकिन अब संतोष का अनुभव कर रही हैं

फरहत रिजवी

इस्लाम में पुरुषों की तरह पांच वक्त की नमाज, रमजान में पूरे एक महीने के रोजे, हज, जकात महिलाओं के लिए भी फर्ज यानी अनिवार्य हैं। इन रिवाजों में महिलाओं को कोई रियायत नहीं दी गई। माहवारी या मां बनने के वक्त को छोड़कर, उसमें भी छूटे हुए दिनों के रोजे बाद में रखने का निर्देश है। ईद और जुमे की नमाज भी महिलाएं पुरुषों की तरह पढ़ती हैं। मुकद्दस आसमानी किताब कुरान शरीफ की तिलावत करती हैं, बड़ी जुमा मस्जिदों में महिलाओं के लिए अलग नमाज की जगह बनाई गई है। सबसे पाक स्थल मक्का में खाना-ए-काबा जा सकती हैं, पुरुषों की तरह उनके साथ अहराम (विशेष कपड़े) बांधकर हज और उमरा के दौरान काबे का तवाफ (परिक्रमा) करती हैं, मदीना में मस्जिदे-नबवी में प्रवेश करती हैं। फिर आखिर मुंबई में पीर हाजी अली की दरगाह में महिलाओं के प्रवेश पर पिछले कई वषोंर् से क्यों इतना बावेला मचा हुआ था कि बात अदालत तक पहुंच गई और अपने अधिकार के लिए भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन नामक संगठन को अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ा? भूमाता ब्रिगेड, जो दूसरे उपासना स्थलों में महिलाओं को प्रवेश दिलाने की जंग लड़ रही है, वह भी मुसलमान बहनों के हक में आगे आई।

26 अगस्त को मुंबई उच्च न्यायालय ने हाजी अली दरगाह में महिलाओं के प्रवेश से रोक हटाने का निर्देश देकर हाजी अली कमेटी और ट्रस्ट के सदस्यों को करारा झटका दिया है। इस फैसले को पुरुषवादी सोच के ठेकेदारों के विरुद्ध महिलाओं की बड़ी जीत के रूप में देखा जा सकता है। महाराष्ट्र सरकार का रुख भी स्पष्ट था कि लिंगभेद के आधार पर किसी को रोकना उसके साथ अन्याय है। काबिले गौर है कि पीर हाजी अली की दरगाह में पवित्र हुजरे (आंतरिक कक्ष) तक महिलाओं के प्रवेश का विरोध करने वाला पक्ष कुरान और हदीस की रोशनी में यह बताने में पूरी तरह विफल साबित हुआ है कि पीरों की मजार पर जाना और उनकी कब्र को छूना मजहबी रूप से वर्जित क्यों है। यही कारण है कि इस मामले को अदालत तक ले जाने वाला संगठन और उनके पक्ष में बोलने वाले पहले से ही आश्वस्त थे कि जीत उनकी ही होगी। और ऐसा ही हुआ।

मुंबई उच्च न्यायालय के इस फैसले पर लोगों की प्रतिक्रिया क्या है, यह जानने से पहले एक अहम बात की ओर इशारा लाजमी है कि पीर-फकीर, दरगाह, खानखाह का संबंध इस्लाम की उदारवादी विचारधारा से है। इस्लाम में शरीअत और तरीकत दोनों विचारधाराओं में तरीकत के अनुयायियों ने सूफी मत के जरिए भारत में आपसी प्रेम, मजहबी सद्भाव, भाईचारे, और भक्तिभाव को बढ़ावा दिया। देश की किसी भी दरगाह या खानखाह में प्रवेश मजहब-जाति के आधार पर नहीं होता। खानखाहों का परिवेश इस देश की साझी सांस्कृतिक विरासत का आईना रहा है।

शरीयत विचारधारा में शुरू से ही सूफी मत के विपरीत ज्यादा कट्टरवाद है। और हाल के दिनों में खाड़ी देशों में जन्में और पनप रहे कट्टरवाद की आग ने खाड़ी देशों समेत पूरे दक्षिण एशिया को अपनी चपेट में ले रखा है। यह सोचने का विषय है कि कहीं उदारवादी सूफीमत की संस्कृति को इस कट्टरवाद की लपटें तो नहीं लील रहीं? पर फिलहाल बात हाजी अली दरगाह पर अदालत के फैसले और उस पर लोगों की राय की है।  

मुंबई उच्च न्यायालय के इस फैसले को ऐतिहासिक जीत बताते हुए भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन की संस्थापक और सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता जकिया सुभान का कहना है कि हमें पहले से अपनी जीत और उनकी हार का अंदाजा था। हाजी अली दरगाह कमेटी और ट्रस्ट के सदस्यों की यह हठधर्मी थी कि महिलाओं के प्रवेश को 'घोर पाप' बता कर वे लगातार कई वषोंर् से महिलाओं के अधिकार का ना सिर्फ हनन कर रहे थे बल्कि अपनी पुरुषवादी सोच के चलते इस्लाम, खासतौर से सूफी विचारधारा की छवि भी धूमिल कर रहे थे। हाजी अली के नाम पर ये लोग कट्टरवाद को बढ़ावा दे रहे थे। काबिलेगौर है कि कुछ वर्ष पहले तक महिलाएं हाजी अली दरगाह में अंदर तक आसानी से जाती रही हैं। लगभग पांच साल पहले अचानक हाजी अली दरगाह की प्रशासनिक समिति को लगा कि यहां कोई गैर इस्लामी अनैतिक काम हो रहा है। अत: लिंग के आधार पर 2011 में प्रशासनिक समिति और ट्रस्ट के सदस्यों ने मजार के अंदरूनी कक्ष में महिलाओं के प्रवेश को गैर इस्लामी बताकर उस पर प्रतिबंध लगा दिया। इतना ही नहीं, बल्कि पुरुष और महिलाओं का प्रवेश दरगाह के अलग-अलग गेट से होने लगा।

दरगाह कमेटी ने पिछले पांच वर्ष से महिलाओं को मजार के अंदर जाकर जियारत करने की अनुमति नहीं दी। ऐसे में भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन नामक संगठन ने दरगाह समिति के इस अन्यायपूर्ण फरमान के प्रति असहमति जताते हुए आवाज उठाई। दरगाह समिति के रवैये का विरोध करते हुए जून 2012 में संगठन की 585 सदस्यों ने ना सिर्फ पीर हाजी अली की दरगाह में प्रवेश किया, बल्कि परिसर की प्राचीन मस्जिद में नमाज भी अदा की। महिलाओं का यह खुल्लमखुल्ला ऐलाने जंग था। इस बीच खींचतान जारी रही, दरगाह समिति महिलाओं को प्रवेश ना देने के अपने फैसले पर डटी रही। अंतत संगठन ने मुंबई उच्च न्यायालय में पीआईएल दाखिल कर मांग की कि लिंगभेद के आधार पर महिलाओं के साथ जो नाइंसाफी हो रही है उस पर अदालत संज्ञान ले। इस बीच संगठन ने दक्षिण मुंबई की 19 दरगाहों में सर्वे करके पाया कि एक दो को छोड़कर सभी में महिलाएं अंदर जियारत करने जाती हैं।

26 अगस्त को आए उच्च न्यायालय के निर्णय के संबंध में सबसे अच्छी बात यह रही कि मीडिया में आई प्रतिक्रियाओं के अनुसार, मुस्लिम उलेमाओं और विद्वानों ने पक्ष में ही राय दी है। तलाक के मुद्दे की तरह यहां चौतरफा हमले नहीं हुए। चांदनी चौक की फतेहपुरी मस्जिद के इमाम मुफ्ती मोहम्मद मुकर्रम ने फैसले का स्वागत किया है। उनके अनुसार, अगर कोई अदालत के फैसले को शरीयत पर हमला बताता है तो गलत है। उन्होंने कहा कि मदीने में जन्नतुल-बकी के कब्रिस्तान में भी महिलाओं का प्रवेश वर्जित नहीं है। जामिया मिल्लिया इस्लामिया विवि में इस्लामी अध्ययन विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. अख्तरुल वासे की राय में यह तो कोई मुद्दा ही नहीं था। विभिन्न दरगाहों के अलग-अलग नियम हैं। अजमेर और फतेहपुरी की दरगाहों में महिलाएं हमेशा से अंदर जाती हैं जबकि हजरत निजामुद्दीन औलिया और हजरत बख्तियार काकी की मजार पर विशेष दूरी तक ही जाने की इजाजत है। उनकी राय में, ऐसे मामले अदालत तक नहीं पहंुचने चाहिए, लेकिन अब अदालत का फैसला आया है तो हमें उसका सम्मान करना चाहिए।  जामिया के इसी विभाग में सहायक प्रोफेसर जुनेद हारिस ने अदालत के फैसले को सही बताते हुए कहा है कि इबादतगाहों में पुरुषों की तरह महिलाओं को जाने की पूरी आजादी है। उन्हें रोकना इस्लामी नजरिए से भी गलत है और संवैधानिक रूप से भी। मुंबई में इस्लामी अध्ययन विभाग की प्रवक्ता जीनत शौकत अली ने भी अदालत के फैसले पर सहमति जताते हुए ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का हवाला दिया और कहा कि मेरे नजदीक मजारों पर महिलाओं का जियारत करने जाना गैर इस्लामी नहीं है।

यहां यह बात स्पष्ट कर दें कि कुरान शरीफ और हदीसों में कहीं भी बुजुगोंर् के मजारों पर जाने की मनाही के संबंध में कोई स्पष्ट दिशा-निर्देश नहीं हैं। बल्कि इस्लामी मामलों के जानकारों का कहना है कि हजरत मोहम्मद के समय में खुद उनकी पत्नी हजरत आयशा बुजुगोंर् की मजार पर जाती थीं। यह भी सही है कि कुछ बुजुगोंर् की मजारों पर जाने की अनुमति नहीं है़ और कुछ पर है। लेकिन ये मामले दरगाह समिति या खुद्दाम तय करते हैं, शरीयत की तरफ से कोई निर्देश नहीं है। हाजी अली की दरगाह तो उस श्रेणी में भी नही आती जहां शुरू से प्रतिबंध था। यहां तो पांच वर्ष पहले तक महिलाओं पर कोई पाबंदी नहीं थी यह तो कुछ खास लोगों के जेहन की पैदावार है।

दूसरी तरफ भूमाता ब्रिगेड की प्रमुख तृप्ति देसाई ने भी हाजी अली दरगाह में महिला प्रवेश से प्रतिबंध हटाने के अदालत के फैसले पर खुशी जताते हुए आशा व्यक्त की है कि महाराष्ट्र में अन्य उपासना स्थलों पर भी महिलाओं को जाने की अनुमति मिलेगी। दरगाह समिति के सदस्य और ट्रस्टी समाज के प्रभुत्व वाले वर्ग के हो सकते हैं लेकिन ना तो वे मजहबी मामलों के विद्वान होते हैं और ना संविधान के जानकार। उन्हें भी समझ लेना चाहिए कि 21वीं सदी की महिलाएं इतनी निर्बल और लाचार नहीं हैं।

(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं)

मेरे नजदीक मजारों पर महिलाओं का जियारत करने जाना गैर इस्लामी         नहीं है।

—जीनत शौकत अली, प्रवक्ता, इस्लामी अध्ययन विभाग, सेंट जेवियर कॉलेज, मुंबई

विभिन्न दरगाहों के अलग-अलग नियम हैं। अजमेर और फतेहपुरी की दरगाहों में महिलाएं हमेशा से अंदर जाती हैं जबकि हजरत निजामुद्दीन औलिया और हजरत बख्तियार काकी की मजार पर विशेष दूरी तक ही जाने की इजाजत है। हमें अदालत के फैसले का सम्मान करना चाहिए।

— प्रो. अख्तरुल वासे, पूर्व अध्यक्ष, इस्लामी अध्ययन विभाग, जामिया मिलिया

इस्लामिया विश्वविद्यालय

 

 

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