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भारतीय सेना में शामिल महिलाएं आज लड़ाकू विमान उड़ा रही हैं और हाथ में बंदूक थाम कर सीमा की पहरेदारी भी कर रही हैं। उनके फौलादी इरादों को देखते हुए आने वाले समय में उन्हें जंगी पोतों पर भी तैनात कर दिया जाए तो आश्चर्य की
बात नहीं होगी
सुशील शर्मा
रत में वीरांगनाओं की परंपरा काफी पुरानी है। हर दिशा से कोई न कोई ऐसी वीरांगना पैदा हुई जिसने इतिहास के पन्नों में अपना स्थान सुनिश्चित किया। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, जीजाबाई, रानी अब्बाक्का देवी, चांद बीबी, कित्तूर की रानी चेन्नम्मा, दुर्गावती, रानी वेलू नचियार, रानी गाइदिन्ल्यू, महारानी ताराबाई, रुद्रमा देवी, बेलावाडी मल्लम्मा आदि कुछ ऐसे नाम हैं जो कभी अंग्रेजों के विरुद्ध, तो कभी जुल्म करने वाले शासकों के खिलाफ जंग के मैदान में उतरीं और सफलता प्राप्त की।
वीरांगनाओं की उसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए आज भारतीय सेना की तीनों भुजाओं में महिला सैन्य अधिकारियों ने अपनी क्षमता और कुशलता का सिक्का जमा रखा है। सेना में महिला अधिकारियों को शामिल करने का सिलसिला प्रधानमंत्री नरसिंहा राव के कार्यकाल के दौरान 1992 में शुरू हुआ था। इससे पहले महिलाएं सिर्फ सेना चिकित्सा सेवा में नर्स या डॉक्टर के पद पर कार्य करती थीं। भारतीय सेना चिकित्सा सेवा में तो महिलाएं वारेन हेस्टिंग्स के जमाने से करीब 300 साल से काम कर रही हैं। डॉ. पुनीता अरोड़ा को भारतीय सेना की चिकित्सा कोर में लेफ्टिनेंट जनरल और डॉ. पद्मावती बंद्योपाध्याय को एयर मार्शल जैसे उच्च ओहदों तक पहुंचने का अवसर मिला। सेना चिकित्सा सेवा में करीब 6,000 डॉक्टर हैं, जिनमें 1,000 से ज्यादा महिला डॉक्टर हैं। इसके अलावा 3,500 से ज्यादा नर्सें हैं। इनमें से कई चिकित्सा अधिकारियों को अग्रिम मोचार्ें पर भी तैनात किया जाता है। सेना चिकित्सा सेवा में काफी संख्या में पुरुष नर्स भी हैं।
सेना में सामरिक उद्देश्य के लिए महिलाओं के लिए द्वार 1992 में खुले। उस समय महिला अधिकारियों के 50 पदों की रिक्तियों के लिए भी 1,803 आवेदन आए थे। अर्थात् हर पद के लिए लगभग 36 महिलाओं ने उम्मीदवारी का दावा किया था। प्रिया झिंगन को भारतीय थल सेना में पहली महिला अधिकारी बनने का श्रेय जाता है। वे 1992 से 2002 तक भारतीय थल सेना में कार्य करते हुए मेजर के पद से सेवानिवृत्त हुईं। सेना में शामिल होने के महिलाओं के रुझान को देखते हुए 1995 में रिक्तियों की संख्या 100 और 2002 में 250 कर दी गई। इन्हें शॉर्ट सर्विस के तहत कमीशन प्रदान किया जाता है। अर्थात् इन्हें सिर्फ 14 वर्ष (10+ 4) के लिए सेना में सेवा करने का अवसर प्राप्त होता है। लेकिन पहले थल सेना और वायु सेना के बाद इस वर्ष नौसेना ने भी इच्छुक महिला अधिकारियों को स्थायी कमीशन प्रदान करने का फैसला किया है। अभी तक लगभग 350 महिला अधिकारियों को सेना में स्थायी कमीशन प्रदान किया जा चुका है। अब सेवानिवृत्ति के बाद इन्हें भी पेंशन और अन्य लाभ मिल सकेंगे। काम के बंटवारे में भी जहां युद्ध के मैदान में पुरुषों की सीधी भूमिका होती है, वहां महिलाओं को पीछे रखते हुए उन्हें सामग्री प्रबंधन (लॉजिस्टिक्स), शिक्षा, जन संपर्क आदि काम में लगाया जाता रहा है। महिलाओं को युद्धक भूमिका से दूर रखा जाता था। लेकिन अब उन्होंने पुरुषों के इस गढ़ में भी जगह बनानी शुरू कर दी है।
भारतीय वायु सेना ने पहल करते हुए गत 18 जून को तीन महिला पायलटों को फाइटर पायलट के रूप में कमीशन प्रदान किया है। ये महिला फाइटर पायलट हैं। फ्लाइंग ऑफिसर अवनी चतुर्वेदी, फ्लाइंग ऑफिसर भावना कंठ और फ्लाइंग ऑफिसर मोहना सिंह। इससे पहले महिला पायलटों को वायु सेना में परिवहन विमान और हेलिकॉप्टर उड़ाने की इजाजत थी। नौसेना ने भी वायु सेना की तर्ज पर अगले वर्ष से महिला पायलटों की भर्ती का फैसल किया है। अब नौसेना की महिला अधिकारियों को शिक्षा, कानून, मौसम विज्ञान, हवाई यातायात नियंत्रण, पर्यवेक्षक, पायलट (टोही विमान) और पोत निर्माण जैसे क्षेत्रों में काम करने के अवसर उपलब्ध होंगे। लेकिन उन्हें नौसेना के मिग-29 विमानों को उड़ाने की इजाजत नहीं होगी। नौसेना में '90 के दशक में एक वर्ष के लिए महिला अधिकारियों को जंगी पोतों पर तैनात किया गया था, लेकिन उनके लिए अलग आवासीय केबिनों और शौचालयों की कमी तथा व्यावहारिक कारणों से उन्हें जंगी पोतों से हटा कर नौसेना कार्यालयों में नियुक्त किया गया। अब नए जंगी पोतों में महिला अधिकारियों के लिए विशेष व्यवस्था की जा रही हैं और आशा है कि जल्दी ही नौसेना में भी महिलाएं जंगी पोतों पर तैनात होंगी। नौसेना की महिला अधिकारी इस समय भी पी-8- आई जैसे समुद्री टोही विमानों पर पर्यवेक्षक के रूप में तैनात हैं। अगले वर्ष से उन्हें पी-8-आई और आईएल-38 जैसे टोही विमानों की पायलट बनने का भी अवसर मिल सकेगा। लेकिन थल सेना में महिलाओं को तोपखाना या टैंक रेजिमेंटों में युद्धक भूमिका में शामिल करने की योजना नहीं है। हालांकि थल सेना में महिला अधिकारी को न्यायिक (जज एडवोकेट जनरल) विभाग, शिक्षा, कोर ऑफ इंजीनियर्स, सिग्नल, इलेक्ट्रिकल व मैकेनिकल और खुफिया विभाग में काम करने के अवसर मिलते हैं। वे आयुध कारखानों में भी काम करती हैं।
इस समय तीनों सेनाओं में लगभग 5,000 महिला अधिकारी हैं, जिनमें चिकित्सा सेवा की महिला अधिकारी भी शामिल हैं। वैसे चिकित्सा सेवा को छोड़ दिया जाए तो थल सेना में 1,514, नौसेना में 439 और वायु सेना में 1,584 महिला अधिकारी हैं। थल सेना में कुल अधिकारियों की अधिकृत संख्या 48,000, नौसेना में 9,000 और वायु सेना में 12,000 है। थल सेना में 2013 से 2015 के बीच 303, नौसेना में 142 और वायु सेना में 522 महिला अधिकारियों को शामिल (कमीशन प्रदान) किया गया। इस वर्ष यानी 2016 में नौसेना में जुलाई के आरंभ तक 20 और वायुसेना में 85 महिला अधिकारियों को कमिशन प्रदान किया गया।
कुछ वर्ष पहले किए गए एक अध्ययन में सेना में महिला अधिकारियों के बारे में कुछ रोचक तथ्य सामने आए थे। पुरुष अधिकारियों के मुकाबले महिला अधिकारियों को ज्यादा स्वस्थ, ईमानदार, अनुशासित और कर्तव्य के प्रति निष्ठावान पाया गया। ये तथ्य सशस्त्र सेना चिकित्सा सेवा महानिदेशालय (डीजीएएफएमएस) द्वारा पांच वर्ष (2001 से 2005) के बीच सेना की महिला डॉक्टरों और मेडिकल छात्राओं पर किए गए एक अध्ययन में उजागर हुए।
यूं तो आमतौर पर सेना में पुरुष व महिला अधिकारियों के बीच संबंध काफी ठीक रहते हैं, लेकिन कई बार महिला अधिकारियों के यौन शोषण और मानसिक प्रताड़ना के मामले भी सामने आते हैं। इस मामले में सेना में काफी कड़े नियम हैं। यौन शोषण के किसी भी मामले को काफी गंभीरता से लिया जाता है और दोष साबित होने पर दोषी को कड़ी से कड़ी सजा दी जाती है। कुछ मामलों में तो मेजर जनरल या लेफ्टिनेंट जनरल पद के अधिकारी के खिलाफ भी काफी कड़ी कार्रवाई की गई। इसके बावजूद यदा-कदा ऐसे मामले सामने आते रहते हैं।
व्यावहारिक कारणों से थल सेना में महिला अधिकारियों को जंगी भूमिका में नहीं उतारा जा रहा है। सूत्रों के मुताबिक, थल सेना में महिला अधिकारियों के साथ बदसलूकी की घटनाओं की आशंका बनी रहेगी। ऐसा यूरोपीय देशों तथा अमेरिकी सेनाओं में भी होता रहता है, लेकिन वहां का समाज इस पर बावेला नहीं मचाता। पर भारतीय समाज में ऐसी घटनाएं तहलका मचा देती हैं।
थल सेना में महिलाओं को जंगी भूमिका से दूर रखने के पक्ष में एक तर्क यह भी दिया जाता है कि युद्ध के दौरान यदि तोपों में गोला भरने वाला सैनिक घायल हो जाए तो कमांडिंग अफसर खुद यह काम करने लगता है। एक-एक गोला 15-20 किलोग्राम का होता है जिसे तोपों में भरना महिलाओं के लिए संभव नहीं है। पुरुष अधिकारी और जवान खुले आसमान के नीचे जंगलों में सो सकते हैं, लेकिन महिलाओं के लिए इसमें दिक्कतें होंगी। साथ ही युद्ध के दौरान जवानों की कोशिश यही रहेगी कि उनकी महिला अधिकारी को सुरक्षित रखा जाए। उसे दुश्मन के हाथ न पड़ने दिया जाए, क्योंकि महिला अधिकारी के साथ दुश्मन की बदसलूकी जवानों के मनोबल पर बुरा असर डालेगी। ऐसी स्थिति युद्ध के परिणामों को प्रभावित कर सकती है।
ऐसी दिक्कतें सिर्फ भारतीय सेना में होंगी, जरूरी नहीं है। अमेरिकी सेना में तो कानून है कि महिलाओं को इनफेन्ट्री, आर्टिलरी, आर्मर्ड तथा स्पेशल फोर्सेज में नहीं लिया जाए। ब्रिटेन में भी मेरिन कमांडो, इनफेन्ट्री तथा आर्मर्ड कोर में महिलाओं को नहीं लिया जाता।
फ्रांस में सेना के सभी विभागों में महिलाएं हैं, लेकिन दुश्मन से सीधी और लंबी लड़ाई में उन्हें शामिल नहीं किया जाता। पुर्तगाल में भी कुछ युद्ध संक्रियाओं से उन्हें दूर रखा जाता है। स्पेन में भी कमोबेश यही स्थिति है। इस्रायल में जरूर उन्हें युद्धक भूमिका में रखा जाता है, लेकिन वह भी सीमा पुलिस के रूप में। नार्वे और कनाडा में भी महिला अधिकारी जंगी भूमिका में हैं जरूर, लेकिन इन देशों का किसी भी देश से कोई झगड़ा या विवाद नहीं है, लिहाजा इन्हें जंग का सामना करने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन भारत के साथ ऐसी बात नहीं है। वह चीन और पाकिस्तान के साथ अब तक पांच लड़ाइयां लड़ चुका है और हमेशा जंग का खतरा बना रहता है। कारगिल युद्ध के दौरान पाकिस्तानी सेना के हाथ लगे कुछ भारतीय अधिकारियों और जवानों के साथ जिस तरह का अमानवीय व्यवहार किया गया, वह अकल्पनीय है। उनके शरीर को क्षत-विक्षत किया गया। वायु सेना के एक पायलट नचिकेता के साथ भी अमानवीय व्यवहार किया गया। इसे देखते हुए थल सेना महिलाओं को जंगी भूमिका में उतारने के लिए तैयार नहीं है।
थल सेना अभी यह मानने को तैयार नजर नहीं आती कि महिलाएं जोखिम भरे काम कर सकती हैं। इसके लिए कई तरह के तर्क दिए जाते हैं। कहा जाता है कि क्या समाज महिलाओं को इस भूमिका में देखना चाहेगा? कुछ अधिकारियों का कहना है कि वर्दी पहन लेना अलग बात है और वास्तविक कठिनाइयों को झेलना दूसरी बात। उनका कहना है कि क्या अकेली महिला जंगली इलाकों में महीनों पुरुष सैनिकों का नेतृत्व कर सकती है? क्या भारतीय समाज उनके दुश्मन के हाथ पड़ने पर होनी वाली जिल्लत बर्दाश्त कर सकेगा? पाकिस्तान जैसा दुश्मन जब पुरुष सैन्य अधिकारियों की लाशों को गोलियों से भून सकता है तो क्या महिलाओं को छोड़ देगा, बल्कि हाथ लगी भारतीय महिला अधिकारी को लेकर हमें शर्मसार ही करेगा जो सेना के मनोबल के लिए काफी घातक होगा। क्या महिलाएं पुरुष सैनिकों के साथ अकेली बंकरों में रह सकती हैं? इसके अलावा भारी-भरकम सामान लेकर पहाड़ों पर चढ़ना और जंगल की खाक छानना महिलाओं के लिए संभव है? तर्क यह भी दिया जाता है कि अमेरिका, ब्रिटेन और कुछ अन्य यूरोपीय देशों में भी महिलाओं को जोखिम के काम में नहीं लगाया जाता। यह भी कहा जा रहा है कि क्या भारतीय समाज में उस महिला अधिकारी से कोई विवाह करने को तैयार होगा जो महीनों बंकरों में पुरुष सैनिकों के साथ रहे?
हो सकता है, महिला अधिकारियों को अग्रिम मोचार्ें पर युद्धक भूमिका से दूर रखने के लिए दिए जाने वाले तर्कों में कुछ सचाई हो, लेकिन जब हम देखते हैं कि भारतीय सेना की महिलाएं माउंट एवरेस्ट पर तिरंगा फहराती हैं या नौसेना की महिला अधिकारी म्हदेई पोत से पूरी दुनिया का भ्रमण कर सकती हैं और वायु सेना की महिलाएं फाइटर विमान उड़ा सकती हैं, तब यह भरोसा भी पैदा होता है कि कुछ एहतियात के साथ महिलाएं थल सेना में भी जोखिम भरी तैनाती के लिए तैयार हो सकती हैं। हर भारतीय को इन महिला अधिकारियों के मजबूत कदमों और फौलादी इरादों पर गर्व करना चाहिए।
(लेखक 'डिफेंस मॉनिटर' पत्रिका के संपादक हैं)
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