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जन गण मन- जिनके स्पर्श से यमुना मुदित हो उठी!

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Aug 29, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 29 Aug 2016 14:26:48

भारत का सबसे बड़ा रक्षा कवच सेना नहीं, संत शक्ति है, जिन्होंने निस्पृह, वीतरागी भाव से यहां के समाज और संस्कारों की सुगंध मिटने नहीं दी। गुजरात में यदि स्वामी नारायण संप्रदाय ने हिन्दुओं में नव-चैतन्य न भरा होता तो वहां हिन्दू ढूंढ़ने मुश्किल हो जाते—ऐसा था विदेशी धन और मनवाले मिशनरियों का षड्यंत्र। उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के छपैया गांव से गुजरात की पावन धरती पर आए 'नीलकण्ड' का वह चमत्कारी प्रभाव था कि इस धरती ने उन्हें भगवान् माना और उनकी परंपरा ने देश-दुनिया में हिन्दू धर्म की ऐसी गौरव गाथा रची कि आज यदि कहा जाए कि स्वामी नारायण पंथ हिन्दू धर्म का सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधित्व करता है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
स्वामी नारायण पंथ के 67 वर्ष तक लगातार अध्यक्ष रहे पूज्य प्रमुख स्वामी गत 13 अगस्त को गुजरात के सारंगपुर में ब्रह्मलीन हो गए। केवल 28 वर्ष की आयु में ही 1950 में उन्हें विश्वव्यापी भक्तों की अपार निष्ठा से अलंकृत स्वामी नारायण (बोचासणवासी अक्षर पुरुषोत्तम संस्था) का प्रमुख पद मिला था। उनका मूल संन्याय नाम था शास्त्री नारायाण स्वरूपदास। उच्च शिक्षित, विभिन्न विद्याओं में निपुण, युवा संन्यासियों की बहुत बड़ी संख्या उनके मार्गदर्शन में हिन्दू धर्म की रक्षा, प्रचार-प्रसार में जुटी। आज 980 से अधिक ऐसे धर्मनिष्ठ, विद्धान, शास्त्रमर्मज्ञ, अस्पृश्यता को नकारने वाले आधुनिक संन्यासियों की एकजुटता वस्तुत: राष्ट्रधर्म के नए अभ्युदय का संकेत देती है।
प्रमुख स्वामी ने बहुत गौरव और सुसंस्कृत भाव से हिन्दू धर्म में नवीन, सर्वव्यापी स्वरूप को प्रतिष्ठित किया। वेद, उपनिष एवं अनेकानेक धर्मशास्त्रों का अध्ययन और पारायण प्रोत्साहित किया। गांधी नगर और नई दिल्ली में स्थापित अक्षरधाम वास्तव में महान भारतीय सभ्यता के उत्कर्ष की अदभुत गाथा सुनाते हैं। यम-नचिकेता की कथा, ओंकार मंत्र का अर्थ, भगवान् नीलकण्ड की प्रेरक संन्यास यात्रा, प्राचीन भारत में आयुर्वेद, खगोल शास्त्र, भौतिक एवं रसायन शास्त्र, गणित, बीजगणित, ज्यामितीय और विज्ञान के अन्य क्षेत्रों में हुए शोध का रोमांचक, प्रेरक और मनोहर परिचय कराने वाले स्वामी नारायण पंथ के मंदिर भारत माता के भाल पर चंदन के तिलक समान सुशोभित हैं। धर्म को राष्ट्र के हित से जोड़कर प्रमुख स्वामी ने नवीन राष्ट्रधर्म को परिभाषित किया और भविष्य का भारत, आधुनिक तकनीकी के ज्ञान से सज्जित मनुष्य की सेवा में विज्ञान को लगाने वाला होगा। इस दृष्टि से प्रमुख स्वामी ने अपने नवीन युवा संन्यासियों को प्रवृत्त किया।  लेकिन उससे बढ़कर प्रमुख स्वामी का योगदान रहा नौजवानों में नशे की लत को छुड़ाकर भगवद् भजन में लगाने का। उनके युवा संन्यासी रवि-सभाओं तथा बी.ए.पी.एस (बोचासणवासी अक्षर पुरुषोत्तम संस्था) द्वारा नगरों और गांवों में हजारों टोलियों द्वारा नशा मुक्ति का विशाल अभियान चलाते हैं। धर्मपुर, डांग जैसे जनजातीय क्षेत्रों में वनवासियों की कुटियों में जाकर धर्मप्रसार के साथ-साथ अच्छे जीवन द्वारा आर्थिक विकास का रास्ता दिखाने वाले युवा संन्यासी राष्ट्र प्रेम को भगवद् प्रेम का ही हिस्सा मानते हैं।
दिल्ली के अक्षरधाम का उद्घाटन तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने किया था और श्री लालकृष्ण आडवाणी, श्री नरेन्द्र मोदी की उसमें महती भूमिका रही। नरेन्द्र भाई तो उस समय भी प्रचारक जैसे ही रहते थे। प्रमुख स्वामी के आग्रह पर वे आए और उद्घाटन पूजा में बैठे, तो यह मानकर कि नरेन्द्र भाई की जेब में कदाचित पूजा की थाली में चढ़ाने के लिए भी पैसे न हों, प्रमुख स्वामी ने विवेकसागर स्वामी से कहकर चुपचाप आरती के पैसे नरेन्द्र भाई की जेब में डलवा दिए थे। ऐसी छोटी-छोटी बातों का ध्यान उन्हें रहता था।
प्रमुख स्वामी अद्भुत संकल्प शक्ति के धनी थे। उनके पूर्ववर्ती गुरु महाराज योगीजी ने 1968 में सामान्य बातचीत में सहज रूप से कहा कि कितना अच्छा हो कि दिल्ली में यमुना तट पर भी अक्षर धाम बने। बस, शिष्य शास्त्री नारायण स्वरूपदास ने उसे आज्ञा स्वरूप ह्दय में धारण कर लिया और 2005 में उसका भव्य उद्घाटन हुआ।
प्रमुख स्वामी का विश्व हिन्दू परिषद प्रमुख रहे स्व.अशोक सिंहल जी के प्रति गहरा अनुराग और स्नेह था। जब अयोध्या आंदोलन के समय लाखों कारसेवकों के रुकने और भोजन की व्यवस्था का प्रश्न उठा तो प्रमुख स्वामी जी ने तुरंत उसकी विनम्र भाव से व्यवस्था की। सदैव भगवद् भक्ति में लीन रहने वाले प्रमुख स्वामी के ह्दय में किसी के लिए विद्वेष का स्थान ही नहीं था। जब गांधी नगर के अक्षरधाम पर इस्लामी आतंकवादियों ने हमला किया तो उन्होंने शंात भाव से सब कुछ कहा-और हमलावरों के लिए एक शब्द बुरा न कहा, बल्कि उनको भी सद्गति मिले-ऐसी प्रार्थना की।
प्रमुख स्वामी का मुझ पर बहुत स्नेह रहा। वे सदैव मेरी चिंता करते थे। मेरी पुस्तक 'मन का तुलसी चौरा' का भी उन्होंने विमोचन किया था। जिस दिन राज्यसभा सांसद के नाते मेरा कार्यकाल प्रारंभ हुआ, उस दिन दिल्ली में अक्षरधाम में पूज्य स्वामी अक्षरवत्सल ने अचानक यों बुला लिया मानो दैवी कृपा से प्रमुख स्वामी का आशीर्वाद देना चाहते हों। ऐसे अनेक अविस्मरणीय क्षण अब स्मृति मञ्जूषा में हैं।    -तरुण विजय (लेखक पूर्व राज्यसभा सांसद हैं)

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