|
आतंकवाद हो या व्यापार, सार्क देशों के समूह में पाकिस्तान का नकारात्मक रवैया इस संगठन को हानि ही पहंुचा रहा है। भारत के अच्छे प्रयासों के बावजूद पाकिस्तान इसे रास्ते से भटकाने में लगा है
आर. के़ सिन्हा
अभी हाल भारत के गृह मंत्री राजनाथ सिंह पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद में सार्क देशों के गृह मंत्रियों की कॉन्फ्रेंस में गए थे। वहां उनके स्वागत में पाकिस्तानी नेताओं ने जो रवैया दिखाया वह अत्यंत अरुचिकर और हर तरह से स्तरहीन था। गोया पाकिस्तान को मेजबान धर्म का निर्वाह करने की तमीज ही न हो। राजनाथ ने भी पाकिस्तान का नाम लिए बिना उसे आतंकवाद पर नकेल कसने की नसीहत दी। अब वित्त मंत्री अरुण जेटली इस्लामाबाद नहीं जा रहे हैं, उन्हें वहां सार्क देशों के ही एक अहम सम्मेलन में भाग लेना था। इसके अलावा पाकिस्तान जिस तरह से हमारे आंतरिक मामलों में टांग अड़ा रहा है, उससे साफ है कि उसे पड़ोसी बनना भी नहीं आता। उसके इसी तरह के नकारात्मक व्यवहार के चलते सार्क आंदोलन अपने लक्ष्यों को हासिल नहीं कर पा रहा है।
दरअसल सार्क दक्षिण एशिया के आठ देशों का आर्थिक और राजनीतिक संगठन है। इसकी स्थापना 8 दिसंबर, 1985 को भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश, श्रीलंका, नेपाल, मालदीव और भूटान द्वारा मिलकर की गई थी। अप्रैल 2007 में संघ के 14वें शिखर सम्मेलन में अफगानिस्तान इसका आठवां सदस्य बना। 1970 के दशक में बंगलादेश के तत्कालीन राष्ट्रपति जियाउर रहमान ने दक्षिण एशियाई देशों के एक व्यापार गुट के सृजन का प्रस्ताव किया। मई 1980 में दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय सहयोग का विचार फिर रखा गया था। अप्रैल 1981 में सातों देशों के विदेश सचिव कोलंबो में पहली बार मिले। इनकी समिति ने क्षेत्रीय सहयोग के लिए पांच व्यापक क्षेत्रों की पहचान की। और सहयोग के कुछ नए क्षेत्र आने वाले वषार्ें में जोड़े गए।
हालांकि पूरी दुनिया परस्पर आर्थिक सहयोग के महत्व को समझने लगी है, पर पाकिस्तान की नकारात्मक नीतियों के कारण यह संगठन लचर साबित हो रहा है। जाहिर है, इसी के चलते भारत-पाकिस्तान, जो सार्क सम्मेलन के सबसे बड़े देश हैं, के बीच भी आर्थिक सहयोग लचर ही रहा। बाकी देशों के बीच भी यह स्थिति है। दरअसल दक्षिण एशियाई मुक्त व्यापार क्षेत्र समझौता (साफ्टा) के क्रियान्वयन में प्रगति के चलते सार्क देशों के बीच व्यापार के क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने की जरूरत है। दक्षिण एशिया में आर्थिक वृद्धि में तेजी लाने में व्यापार सबसे महत्वपूर्ण औजार हो सकता है। साफ्टा के क्रियान्वयन में सराहनीय प्रगति हुई है, फिर भी काफी कुछ किया जाना बाकी है। सार्क देशों के बीच साफ्टा पर 2004 में इस्लामाबाद में हस्ताक्षर किए गए थे। इसके तहत 2016 के अंत तक सीमा शुल्क को घटाकर शून्य पर लाने का लक्ष्य रखा गया है। लेकिन पाकिस्तान के असहयोगपूर्ण रुख के कारण यह दूर की कौड़ी नजर आता है। साफ्टा के तहत दक्षेस देशों के बीच व्यापार बढ़ तो रहा है पर यह हमारे कुल अंतरराष्ट्रीय व्यापार की तुलना में बहुत कम है जबकि संभावनाएं बहुत ज्यादा हैं।
दक्षिण एशिया में इंट्रा-रीजनल ट्रेड सिर्फ 6 प्रतिशत है जबकि दुनिया के दूसरे क्षेत्रीय संगठनों की बात करें तो यूरोपियन यूनियन (ब्रिटेन के अलग होने से पहले तक) का आपसी कारोबार 60 प्रतिशत, नाफ्टा का 50 और आसियान का 25 प्रतिशत है।
अगर सार्क के सदस्य देशों के साथ अलग-अलग व्यापार पर नजर डालें तो बंगलादेश सबसे बड़ा साझीदार दिखता है। इसके बाद है श्रीलंका जिसके साथ भारत का कारोबार 600 करोड़ डॉलर सालाना है। इसी तरह नेपाल के साथ यह 350 करोड़ डॉलर और पाकिस्तान के साथ 222 करोड़ डॉलर है। इन देशों के अलावा अफगानिस्तान के साथ भारत का व्यापार करीब 60 करोड़ डॉलर, भूटान के साथ करीब 38 करोड़ डालर और मालदीव के साथ करीब 15 करोड़ डॉलर रहा। इन आंकड़ों से अंदाजा लगाया जा सकता है कि सार्क देशों में आपसी कारोबार बढ़ाने की गुंजाइश कितनी ज्यादा है।
सार्क देशों में आर्थिक सहयोग की खराब हालत की एक बानगी देखिए। भारत के प्रमुख औद्योगिक समूह टाटा ने 2007 में बंगलादेश में तीन अरब डॉलर की निवेश योजना बनाई थी। टाटा समूह वहां पर अलग-अलग क्षेत्रों में निवेश करना चाहता था। पर वहां इसका काफी विरोध शुरू हो गया। बंगलादेश की विपक्षी नेता खालिदा जिया के नेतृत्व में तमाम विपक्षी दलों ने टाटा के बंगलादेश में निवेश की योजना का यह कहकर विरोध किया कि वह देश के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी साबित होगा। फिर बंगलादेश सरकार ने भी टाटा के प्रस्ताव को हरी झंडी दिखाने में देरी की। टाटा समूह ने निवेश योजना के तहत इस्पात प्लांट, यूरिया फैक्ट्री और कोयला खदान के लिए 1,000 मेगावाट क्षमता वाली बिजली इकाई लगाने का प्रस्ताव दिया था। इस उदाहरण से साफ है कि सार्क देशों में आपसी व्यापार को गति देने के लिहाज से कितना खराब माहौल है।
अफसोस की बात तो यह है कि सार्क देश आतंकवाद को कुचलने के सवाल पर भी एक दिशा में नहीं सोच रहे। पाकिस्तान दुनियाभर को आतंकवाद की आपूर्ति कर रहा है।, इसके बावजूद पाकिस्तान के रहनुमा आतंकवाद के सवाल पर भारत के साथ खड़े होने को राजी नहीं हैं। हालांकि पूरी दुनिया को बखूबी पता है कि ओसामा बिन लादेन पाकिस्तान में ही पाया गया था।
इस्लामाबाद में कश्मीर में मारे गए हिज्बुल आतंकी बुरहान वानी की ओर इशारा करते हुए राजनाथ ने दहाड़ लगाई कि आतंकवाद का महिमामंडन बंद होना चाहिए और आतंकियों को 'शहीद' का दर्जा नहीं दिया जाना चाहिए। आतंकवाद अच्छा या बुरा नहीं होता। जाहिर है, राजनाथ सिंह का इशारा पाकिस्तान की तरफ ही था। चूंकि पाकिस्तान का रुख तो लगातार नेगेटिव होता जा रहा है से बेहतर होगा कि शेष सार्क देश उसको सार्क से चलता करें। सार्क देशों को आतंकवाद का लंबे समय से सामना करना पड़ रहा है। बेहतर होगा कि इस अहम मसले पर सार्क देश मिलकर काम करें।
देखा यह गया है कि सार्क आतंकवाद से लड़ने का संकल्प तो लेता है, पर बात आगे नहीं बढ़ पाती। इसके अलावा तमाम मसलों पर सार्क में आपसी तालमेल और परस्पर सहयोग का अभाव ही दिखता है। आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई तथा इसे जड़ से खत्म करने के लिए सार्क शिखर बैठकों में हर बार रस्मी तौर पर प्रस्ताव पारित हो जाता है। इसमें कमोबेश यही कहा जाता है कि दक्षेस देश आतंकी गतिविधियों से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जुड़े लोगों की गिरफ्तारी, उन पर अभियोजन और उनके प्रत्यर्पण में सहयोग करेंगे। इसमें हर तरह के आतंकवाद के सफाए और उससे निबटने के लिए सहयोग को मजबूत करने पर जोर दिया जाता है।
साथ ही यह भी कहा जाता है कि ये मुल्क अपनी जमीन का इस्तेमाल आतंकी गतिविधियों में नहीं होने देंगे। प्रस्ताव में आतंकवाद, हथियारों की तस्करी, जाली नोट, मानव तस्करी आदि चुनौतियों से निबटने में क्षेत्रीय सहयोग की बात कही जाती है। हालांकि कुल मिलाकर बात प्रस्ताव से आगे नहीं बढ़ती।
पाठकों को याद होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 में अपने शपथ ग्रहण समारोह में सार्क देशों के नेताओं को आमंत्रित करके इस मृत होते जा रहे संगठन को फिर से जिंदा करने की दमदार पहल की थी। पर पाकिस्तान की तरफ से इसमें प्राण फूंकने की कोई कोशिश नहीं हुई।
सार्क के शुरूआती साल
हालांकि सार्क शुरुआती सालों के उत्साह के बाद पहले की तरह से सक्रिय नहीं रहा। इसकी एक वजह यह भी है कि सार्क देशों के बीच आपसी मतभेद हैं। आज मोदी के नेतृत्व में भारत चाहता है कि सार्क देश आपसी सहयोग करें। लेकिन पाकिस्तान जिस बेशर्मी से भारत में आतंकी तत्वों को खाद-पानी दे रहा है, उससे लगता है कि उसके इसमें रहने तक संगठन का कोई भविष्य नहीं है। इसलिए शेष सार्क देशों को उसे इससे बाहर करने के संबंध में सोचना होगा, नहीं तो सार्क आंदोलन केवल कागजों पर ही चलता रहेगा।
(लेखक राज्यसभा सांसद हैं )
टिप्पणियाँ