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कब सुधरेंगे ये प्रतिबद्धता के मसीहा?

by
Aug 22, 2016, 12:00 am IST
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दिंनाक: 22 Aug 2016 13:18:14

इन दिनों देश के कई बड़े अंग्रेजी पत्रकारों में पाकिस्तान को लेकर कुछ अतिरिक्त मोह बल्कि कहें अतिरंजित पक्षपात नजर आता है। इस बात की विवेचना होनी चाहिए कि आखिर ऐसा क्यों है? ये अग्रगण्य अगर कभी किसी मुद्दे पर पाकिस्तान को लेकर  'अप्रिय' लिखते भी हैं तो नियमों और शतोेर्ें के उल्लेख के साथ। इनका कई बार तो लगता है कि इनका काम किसी मुद्दे पर पाकिस्तान के दृष्टिकोण को लोगों तक पहुंचाने जैसा होकर रह गया है।
15 अगस्त के दिन जब बाकी अखबार आजादी के रंगों में पगे थे, हिंदुस्तान टाइम्स पर पाकिस्तान और आतंक का रंग छाया हुआ था। अखबार ने पहले पेज पर बुरहान वानी और उसकी बगल में पाकिस्तानी झंडा लेकर खड़े एक नकाबपोश की तस्वीर छापी। यह साबित करने के लिए कि कश्मीर घाटी में पाकिस्तानी स्वतंत्रता दिवस 'धूमधाम' से मनाया गया। कोई सामान्य व्यक्ति भी इस तस्वीर को देखकर यह बता सकता है कि यह तस्वीर स्वाभाविक नहीं थी। हालांकि यह प्रत्येक अखबार की स्वतंत्रता है कि वह देशविरोधी तत्वों को प्रमुखता दे या न दे, लेकिन हर भारतीय की यह जिम्मेदारी होनी चाहिए कि वह ऐसे अखबारों और पत्रकारों के छिपे हुए एजेंडे को उजागर करे और सामने लाए। सुखद बात यह है कि सोशल मीडिया पर लोगों ने इस काम को बखूबी किया।
 यहां इस बात का उल्लेख जरूरी है कि पिछले कुछ वक्त से लगभग सभी न्यूज चैनलों पर हाफिज सईद और सैयद सलाहुद्दीन जैसे आतंकवादियों के लंबे-लंबे बयान सुनाए जा रहे हैं। इनके हर दृष्टिकोण को बिना किसी सोच-विचार के दिखाया जा रहा है। जबकि खुद न्यूज चैनलों के अपने दिशानिर्देश के मुताबिक वे इनके बयान नहीं दिखा सकते। यह बहुत खतरनाक चलन है। क्योंकि अगर सरकार ने कभी ऐसी हरकतें करने वाले चैनलों  को नोटिस जारी कर दिया तो फिर से वही रोना शुरू हो जाएगा कि सरकार मीडिया की आजादी को कुचलना चाहती है।
15 अगस्त को लालकिले से प्रधानमंत्री ने पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर और बलूचिस्तान का जिक्र कर कई पत्रकारों को नाराज कर दिया। अचानक अखबारों और वेबसाइटों पर ऐसे लेखों की बाढ़ आ गई कि मोदी की इस रणनीति से भारत को नुकसान होगा। ऐसा कोई भी लेख पढ़ लें, समझ में आ जाएगा कि इन पत्रकारों की नीयत क्या है या वे किसका एजेंडा आगे बढ़ा रहे हैं। जिन्हें फलस्तीन से लेकर म्यांमार तक मानवाधिकारों की चिंता होती है, वे चाहते हैं कि भारत के विभाजन से जुड़े बलूचिस्तान के मुद्दे पर चुप रहा जाए।
मीडिया कैसे एक बयान का मतलब बदलकर उससे नकली सवाल पैदा करता है, इसकी मिसाल आजतक चैनल ने दिखाई। केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह ने टीवी पर कहा कि तिरंगा यात्रा को तब तक पूरा नहीं माना जा सकता जब तक हम पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में भी इसे नहीं फहरा देते। चैनल के मुताबिक उन्होंने कहा कि अगले साल पीओके में तिरंगा फहराएंगे जबकि उन्होंने अगले साल का जिक्र कहीं नहीं किया था। लेकिन इस चैनल ने अपनी तरफ से यह शब्द जोड़ दिया। अब एक साल बाद के लिए उनका सवाल तैयार है। ठीक उसी तरह जैसे हर किसी के एकाउंट में 15 लाख रुपये डालने के वादे के झूठ को मीडिया ने इतने दिनों तक जोर-सोर से फैलाया।
गोरक्षकों पर प्रधानमंत्री के बयान के बाद से अचानक बहस का रुख घूम गया है। जो संपादक कल तक गोमांस खाने को 'बुनियादी अधिकार' बता रहे थे, वे गायों की भलाई की फिक्र करने लगे। हर चैनल ने देश भर में गोशालाओं की चिंता की। लेकिन यह भी ध्यान रखा कि खबर सिर्फ उन राज्यों की दिखाई जाए जहां भाजपा की सरकार है।  सही है कि देश में गोशालाओं के रख-रखाव के नाम पर काफी गड़बडि़यां हो रही हैं। इसके लिए सरकारों को जवाबदेह बनाना जरूरी है। लेकिन मीडिया जिस तरह से एकतरफा रिपोर्टिंग कर रहा है, उससे गायों की भलाई कम, राजनीति की गुंजाइश ज्यादा बन रही है। प्रधानमंत्री के बयान की सही समीक्षा के बजाए कुछ हिंदी न्यूज चैनलों ने इस मुद्दे पर बहस में ऐसे असमाजिक तत्वों को भी मौका दिया जिनका गोरक्षा से कोई लेना-देना नहीं है। इस तमाशे में उन असली गोपालकों और गोरक्षकों की कहानियां गायब रहीं जो बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। देश भर में अच्छी बारिश और अच्छी खेती के साथ-साथ कई जगहों पर बाढ़ की स्थिति है। लेकिन तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया से इस मानवीय त्रासदी की खबरें सिरे से गायब हैं। कुछ चैनल तो बाढ़ की तस्वीरों को 'मनोरंजन के दृष्टिकोण' से दिखा रहे हैं। जैसे कि अगर कहीं कोई पानी में बह गया तो उसका वीडियो बार-बार लूप करके दिखाया जाता है। 15 अगस्त से पहले तमाम चैनलों पर बम के अलर्ट की खबरें खूब चलीं। इतने साल में भारतीय टीवी चैनलों में इतनी भी परिपक्कता नहीं आ सकी है कि बम की अफवाह, सुरक्षा के लिए मार्क ड्रिल और असली अलर्ट का अंतर समझ सकें। सुरक्षा एजेंसियां अपनी तैयारी जांचने के लिए अक्सर ऐसे अलर्ट करती रहती हैं। बिना किसी पुष्टि या सच्चाई का इंतजार किए ऐसी खबरें ब्रेकिंग न्यूज की तरह चला ये चैनल लोगों में डर ही पैदा कर रहे हैं। फिलहाल मीडिया के मठाधीशों और कर्ता-धर्ताओं की प्राथमिकताओं को देखते हुए लगता नहीं कि उनका ध्यान कभी इस कमी की तरफ जाएगा।    
कब सुधरेंगे ये प्रतिबद्धता के मसीहा?
इन दिनों देश के क
ई बड़े अंग्रेजी पत्रकारों में पाकिस्तान को लेकर कुछ अतिरिक्त मोह बल्कि कहें अतिरंजित पक्षपात नजर आता है। इस बात की विवेचना होनी चाहिए कि आखिर ऐसा क्यों है? ये अग्रगण्य अगर कभी किसी मुद्दे पर पाकिस्तान को लेकर  'अप्रिय' लिखते भी हैं तो नियमों और शतोेर्ें के उल्लेख के साथ। इनका कई बार तो लगता है कि इनका काम किसी मुद्दे पर पाकिस्तान के दृष्टिकोण को लोगों तक पहुंचाने जैसा होकर रह गया है।
15 अगस्त के दिन जब बाकी अखबार आजादी के रंगों में पगे थे, हिंदुस्तान टाइम्स पर पाकिस्तान और आतंक का रंग छाया हुआ था। अखबार ने पहले पेज पर बुरहान वानी और उसकी बगल में पाकिस्तानी झंडा लेकर खड़े एक नकाबपोश की तस्वीर छापी। यह साबित करने के लिए कि कश्मीर घाटी में पाकिस्तानी स्वतंत्रता दिवस 'धूमधाम' से मनाया गया। कोई सामान्य व्यक्ति भी इस तस्वीर को देखकर यह बता सकता है कि यह तस्वीर स्वाभाविक नहीं थी। हालांकि यह प्रत्येक अखबार की स्वतंत्रता है कि वह देशविरोधी तत्वों को प्रमुखता दे या न दे, लेकिन हर भारतीय की यह जिम्मेदारी होनी चाहिए कि वह ऐसे अखबारों और पत्रकारों के छिपे हुए एजेंडे को उजागर करे और सामने लाए। सुखद बात यह है कि सोशल मीडिया पर लोगों ने इस काम को बखूबी किया।
 यहां इस बात का उल्लेख जरूरी है कि पिछले कुछ वक्त से लगभग सभी न्यूज चैनलों पर हाफिज सईद और सैयद सलाहुद्दीन जैसे आतंकवादियों के लंबे-लंबे बयान सुनाए जा रहे हैं। इनके हर दृष्टिकोण को बिना किसी सोच-विचार के दिखाया जा रहा है। जबकि खुद न्यूज चैनलों के अपने दिशानिर्देश के मुताबिक वे इनके बयान नहीं दिखा सकते। यह बहुत खतरनाक चलन है। क्योंकि अगर सरकार ने कभी ऐसी हरकतें करने वाले चैनलों  को नोटिस जारी कर दिया तो फिर से वही रोना शुरू हो जाएगा कि सरकार मीडिया की आजादी को कुचलना चाहती है।
15 अगस्त को लालकिले से प्रधानमंत्री ने पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर और बलूचिस्तान का जिक्र कर कई पत्रकारों को नाराज कर दिया। अचानक अखबारों और वेबसाइटों पर ऐसे लेखों की बाढ़ आ गई कि मोदी की इस रणनीति से भारत को नुकसान होगा। ऐसा कोई भी लेख पढ़ लें, समझ में आ जाएगा कि इन पत्रकारों की नीयत क्या है या वे किसका एजेंडा आगे बढ़ा रहे हैं। जिन्हें फलस्तीन से लेकर म्यांमार तक मानवाधिकारों की चिंता होती है, वे चाहते हैं कि भारत के विभाजन से जुड़े बलूचिस्तान के मुद्दे पर चुप रहा जाए।
मीडिया कैसे एक बयान का मतलब बदलकर उससे नकली सवाल पैदा करता है, इसकी मिसाल आजतक चैनल ने दिखाई। केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह ने टीवी पर कहा कि तिरंगा यात्रा को तब तक पूरा नहीं माना जा सकता जब तक हम पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में भी इसे नहीं फहरा देते। चैनल के मुताबिक उन्होंने कहा कि अगले साल पीओके में तिरंगा फहराएंगे जबकि उन्होंने अगले साल का जिक्र कहीं नहीं किया था। लेकिन इस चैनल ने अपनी तरफ से यह शब्द जोड़ दिया। अब एक साल बाद के लिए उनका सवाल तैयार है। ठीक उसी तरह जैसे हर किसी के एकाउंट में 15 लाख रुपये डालने के वादे के झूठ को मीडिया ने इतने दिनों तक जोर-सोर से फैलाया।
गोरक्षकों पर प्रधानमंत्री के बयान के बाद से अचानक बहस का रुख घूम गया है। जो संपादक कल तक गोमांस खाने को 'बुनियादी अधिकार' बता रहे थे, वे गायों की भलाई की फिक्र करने लगे। हर चैनल ने देश भर में गोशालाओं की चिंता की। लेकिन यह भी ध्यान रखा कि खबर सिर्फ उन राज्यों की दिखाई जाए जहां भाजपा की सरकार है।  सही है कि देश में गोशालाओं के रख-रखाव के नाम पर काफी गड़बडि़यां हो रही हैं। इसके लिए सरकारों को जवाबदेह बनाना जरूरी है। लेकिन मीडिया जिस तरह से एकतरफा रिपोर्टिंग कर रहा है, उससे गायों की भलाई कम, राजनीति की गुंजाइश ज्यादा बन रही है। प्रधानमंत्री के बयान की सही समीक्षा के बजाए कुछ हिंदी न्यूज चैनलों ने इस मुद्दे पर बहस में ऐसे असमाजिक तत्वों को भी मौका दिया जिनका गोरक्षा से कोई लेना-देना नहीं है। इस तमाशे में उन असली गोपालकों और गोरक्षकों की कहानियां गायब रहीं जो बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। देश भर में अच्छी बारिश और अच्छी खेती के साथ-साथ कई जगहों पर बाढ़ की स्थिति है। लेकिन तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया से इस मानवीय त्रासदी की खबरें सिरे से गायब हैं। कुछ चैनल तो बाढ़ की तस्वीरों को 'मनोरंजन के दृष्टिकोण' से दिखा रहे हैं। जैसे कि अगर कहीं कोई पानी में बह गया तो उसका वीडियो बार-बार लूप करके दिखाया जाता है। 15 अगस्त से पहले तमाम चैनलों पर बम के अलर्ट की खबरें खूब चलीं। इतने साल में भारतीय टीवी चैनलों में इतनी भी परिपक्कता नहीं आ सकी है कि बम की अफवाह, सुरक्षा के लिए मार्क ड्रिल और असली अलर्ट का अंतर समझ सकें। सुरक्षा एजेंसियां अपनी तैयारी जांचने के लिए अक्सर ऐसे अलर्ट करती रहती हैं। बिना किसी पुष्टि या सच्चाई का इंतजार किए ऐसी खबरें ब्रेकिंग न्यूज की तरह चला ये चैनल लोगों में डर ही पैदा कर रहे हैं। फिलहाल मीडिया के मठाधीशों और कर्ता-धर्ताओं की प्राथमिकताओं को देखते हुए लगता नहीं कि उनका ध्यान कभी इस कमी की तरफ जाएगा।  नारद / चौथा स्तंभ

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