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मौद्रिक नीति से एकाधिकार की विदाई

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Aug 22, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 22 Aug 2016 13:04:24

रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम गोविन्द राजन की विदाई के साथ ही मौद्रिक नीति बनाने पर से एकाधिकार समाप्त हो जाएगा। अब तक यह नीति गवर्नर ही तय करता था, पर अब यह काम छह सदस्यीय 'मौद्रिक नीति समिति' करेगी। इसके अनेक लाभ हैं, जो आने वाले समय में देश की आर्थिक गति को मजबूती दे सकते हैं

भगवती प्रकाश

जर्व बैंक के गवर्नर पद से राजन की विदाई के साथ ही देश की मौद्रिक नीति पर से अब तक चले आ रहे गवर्नर के एकाकी नियंत्रण का अंत निश्चित ही है। नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा रिजर्व बैंक अधिनियम में जून माह में किए परिवर्तन के बाद अब ब्याज दरों सहित देश की मौद्रिक नीति का निर्धारण   अकेले रिजर्व बैंक गवर्नर के स्थान पर, अन्य औद्योगिक राष्ट्रों की तरह, छह सदस्यीय 'मौद्रिक नीति समिति' करेगी। किसी एक व्यक्ति की संभावित अदूरदर्शिता, कुछ निहित हितों या किसी प्रकार के पूर्वाग्रह से 120 करोड़ के देश की मौद्रिक नीति प्रभावित नहीं हो, इसके लिए यह आवश्यक है। अतएव, जब छह विशेषज्ञों के संयुक्त विचार-विमर्श से मौद्रिक नीति तय होगी तो वह देश की सामयिक आवश्यकताओं, विकास की प्राथमिकताओं और व्यावहारिकता के अधिक निकट होगी। इसलिए यह लगभग तय ही है कि, अब मौद्रिक नीति की अगली समीक्षा अकेले रिजर्व बैंक के गवर्नर के स्थान पर इस नव-प्रस्तावित समिति द्वारा ही की जाएगी।  
रिजर्व बैंक के 23वें एवं सर्वाधिक विवादास्पद गवर्नर रघुराम गोविन्द राजन, 2003 से 2007 तक अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के मुख्य आर्थिक सलाहकार के पद पर रहे हैं। वर्ष 2012 में 10 अगस्त से मनमोहन सिंह सरकार के       मुख्य आर्थिक सलाहकार के रूप में रहने के बाद अब    वे विगत तीन वर्ष से रिजर्व बैंक के गवर्नर रहे हैं। उनके कार्यकाल में देश की मुद्रा स्फीति दर एकल अंक की सीमा में ही रही है। तथापि, इस अपेक्षाकृत न्यून मुद्रा स्फीति दर को भी अति उच्च ठहराते हुए उन्होंने पूरे कार्यकाल में ऊंची ब्याज दरों और अपर्याप्त तरलता से देश में जो आर्थिक गतिरोध उत्पन्न किया है, उसकी पूर्ति निकट भविष्य में असंभव है। ऊंची ब्याज दरों और अपर्याप्त तरलता के कारण देश में निवेश, नवीन परियोजनाओं की स्थापना, औद्योगिक उत्पादन, उद्योगों की लाभदायकता और निर्यात में भारी गतिहस हुआ है। इस सबसे देश के उद्योग जगत में निराशा, बैंकों के ऋणों की वसूली में गिरावट और अनिष्पादनीय आस्तियों (नॉन परफार्मिंग एसेट्स) में वृद्धि का दौर आज अत्यन्त चिन्ताजनक स्तर पर है। वस्तुत: विगत 12 वर्ष में उच्च ब्याज दरों से देश ने अरबों रुपए के उत्पादन व निर्यात वृद्धि के अवसरों को खोया है। इसी कारण देश में निवेश में गतिरोध और करोड़ों युवाओं की रोजगार पाने की आशाओं पर तुषारापात हुआ है। ऊंची ऋण लागतों और उसी से घटती मांग के चलते जब 2013 से एक-एक कर कम्पनियां बीमार होने लगीं, तब राजन ने इस रुग्णता को उद्यमी वर्ग की लालच वृत्ति, महत्वाकांक्षा-विहीनता एवं संशयग्रस्तता-जन्य ठहरा दिया। आयात की भरमार एवं अत्यन्त ऊंची ब्याज दरों से बीमार हो रहे उद्यमों की ऋण पुनर्भुगतान क्षमता नष्ट हो गई तो देशभर के बैंक प्रबंधकों पर दोषारोपण कर दिया कि उन्होंने ऋण गलत दिए, इसमें भ्रष्टाचार हुआ है। लेकिन, उन्होंने घटती बिक्री, नव-प्रस्तावित परियोजनाओं के स्थगन, रोजगार सृजन में ठहराव, बैंक ऋणों का डूबना, औद्योगिक वृद्धि दर में गिरावट, 18 माह तक प्रतिमाह निर्यात में गिरावट आदि सब की जान-बूझकर अनदेखी की। देश के उद्यमियों को अपनी 8,80,000 करोड़ रुपए के निवेश की परियोजनाओं को स्थगित कर देना पड़ा। देश में नए उद्योगों की स्थापना पर पूर्ण विराम लग गया और विदेशी निर्यातकों एवं विदेशी संस्थागत निवेशकों की पौ बारह हो गई। देश के जिन उद्यमियों और बैंक प्रबंधकों ने 1993 से लेकर एक-डेढ़ दशक या और अधिक लगभग 18 वर्ष तक देश में उच्च औद्योगिक वृद्धि बनाए रखी, उन सबको एक केन्द्रीय बैंक गवर्नर ने अपनी जिद को सही सिद्ध करने के लिए कठघरे में खड़ा कर दिया। लेकिन ऊंची ब्याज दरों से उपजी कर्ज की ऊंची लागतों के कारण आई औद्योगिक और वाणिज्यिक रुग्णता से आज देश अपने समकक्ष राष्ट्रों यथा चीन, कोरिया, ताइवान, मलेशिया आदि से पिछड़ा है, इसकी पूर्ति कठिन है। राजन तो देश छोड़ अमेरिका में अपना भाग्य संवारने को बेताब हैं, लेकिन उनके द्वारा अपनी नीतियों से देश की 120 करोड़ जनता और देश के सुस्थापित उद्योगों, बैंकों और व्यापार को चौपट कर देने से करोड़ों युवाओं को बेरोजगारी का यह दंश दशकों तक झेलना पड़ेगा।
ब्याज दरें ऊंची होने से ऋण महंगा हो जाता है, निवेश घटता है, रोजगार सृजन अवरुद्ध होता है, ऊंची ऋण लागतों के कारण देश के उद्यम निर्यात बाजार खो देते हैं और चालू खाता घाटा बढ़ता है। रुपए के मूल्य में गिरावट आती है। कर्ज की लागत ऊंची होने से अनार्थिक हो रहे देश के उद्यम बिकते चले जाते हैं जिन्हें विदेशी कम्पनियां खरीदती जाती हैं। ब्याज दरें ऊंची रखने से विदेशी संस्थागत निवेशकों को भी ऋण प्रतिभूतियों पर ऊंचा लाभ बटोरने में मदद मिलती है। ठीक से देखें तो पिछले 12 वर्ष में यही हुआ है और वह भी एक व्यक्ति जो भी इन वषार्ें में रिजर्व बैंक का गवर्नर रहा, मौद्रिक नीति पर उसके एकाधिकार के कारण देश में ब्याज दरें ऊंची बनी रहीं। वैश्विक ही नहीं, विकासशील देशों के मानकों के अनुसार दो छोटी अवधि के उच्च मुद्रा स्फीति के दौर को छोड़कर विगत 2 दशक में भारत की मुद्रा स्फीति उच्च नहीं कही जा सकती। ऐसा प्रथम उच्च मूल्य वृद्धि का आठ माह का दौर मार्च से दिसंबर 2008 के बीच और दूसरा 5 माह का दौर दिसंबर 2009 से अप्रैल 2010 तक था। उसके बाद तो कीमतें गिरती ही गई थीं और 2014 के अंत अर्थात् नवंबर से तो थोक मुद्रा स्फीति ऋणात्मक हो गई थी। मार्च, 2016 तक पूरे 17 महीने थोक मूल्य वृद्धि ऋणात्मक रही। जनवरी, 2015 से 2016 के बीच मात्र 1़ 5 प्रतिशत कटौती को छोड़ राजन ने ब्याज दरों को ऊंची रख विश्व की 1/6 जनसंख्या वाले देश के आर्थिक वृद्धि के लीवर को सख्ती से रोके रखा। अप्रैल में भी थोक मूल्य वृद्धि मात्र 0़ 34 प्रतिशत थी। मई, 2016 में देश में खुदरा मूल्य वृद्धि भी 4़ 7 प्रतिशत के तीन वर्ष के न्यूनतम स्तर पर थी। थोक मूल्य सूचकांक मात्र 0़ 79 प्रतिशत था जो जून में 1़ 62 प्रतिशत तक आ गया है। अभी जून में मुद्रा स्फीति मात्र 5़ 77 प्रतिशत थी, वह भी खाद्य पदार्थों और खाद्य पदाथार्ें में भी दलहनों के उच्च मूल्यों के कारण देश में दलहन उत्पादन 1़ 6 करोड़ टन है और उपभोग 2़ 3 करोड़ टन होने से यह महंगाई आपूर्ति संकट-जनित है और मुद्रा प्रसार-जन्य नहीं है। तब भी अगस्त 9 की मौद्रिक समीक्षा में 'राजन' ने रेपो रेट को ऊंचा तथा 6़ 5 प्रतिशत के अति उच्च स्तर पर ही बनाए रखा। रेपो रेट ब्याज की वह दर है जिस पर रिजर्व बैंक बैंकों को उधार देता है और उसी के आधार पर अर्थव्यवस्था में बैंकों द्वारा ली जाने वाली ब्याज दरें तय होती हैं। आज डेनमार्क, जापान, स्विट्जरलैंड, आदि कई देशों में तो ब्याज दरें शून्य से नीचे ऋणात्मक हैं। अमेरिका में ये1़ 25 प्रतिशत हैं। ऐसे में भारत में 6़ 5 प्रतिशत रेपो रेट और 10-14 प्रतिशत की ऊंची बैंक ब्याज दरों से उद्योग बेतहाशा बीमार हो रहे हैं। सस्ते आयात के आगे उद्यम बंदी भी हो रही है, हमारे निर्यातक स्पर्द्धा में बुरी तरह पिछड़ रहे हैं और राजन अपनी ऊंची ब्याज दरों को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर अड़े रहे। विगत 100 वर्ष में सभी औद्योगिक देशों के इतिहास को देखें तो वृद्धि दर बनाए रखने के लिए मौद्रिक तरलता व एक सीमा तक मुद्रा स्फीति रहती है। भारत जैसे युवाओं के देश में रोजगार सृजन के लिए आर्थिक वृद्धि सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। ऊंची ब्याज दरें किस प्रकार देश के उद्योगों को चौपट कर देश में घरेलू निवेशकों को कारोबार से बाहर निकलने को बाध्य कर रही हैं और इससे न्यून ब्याज दर वाले देशों के निवेशकों के लिए अवसरों की बरसात हो रही है, यह बात केवल एक आंकड़े से और स्पष्ट हो जाती है। यदि कंपनियों की बिक्री वृद्धि दर को देखें तो देश में कंपनियों की बिक्री की वार्षिक वृद्धि दर जो 2003 में 20़ 9 प्रतिशत थी, वह घट कर 8़ 9 प्रतिशत रह गई है और बिक्री में ब्याज का अनुपात 2.6 प्रतिशत से बढ़कर 3़ 9 प्रतिशत हो गया है।  

आज पूरा विश्व जब निवेशकों के लिए खुला पड़ा है, ऐसे में केवल हमारे द्वारा सख्त मौद्रिक नीति अपना लेने से कोई फर्क नहीं पड़ता। इसके विपरीत इसके कारण हम पिछड़ रहे हैं और यह हमारे लिए आर्थिक आत्मघात से कम नहीं है। हमारी सख्त मौद्रिक नीति कहां टिक पा रही है? वर्ष 2008 के आर्थिक उतार-चढ़ाव के बाद अमेरिका द्वारा 20 खरब डॉलर (2 ट्रिलियन डॉलर अर्थात् 1320 खरब रुपए तुल्य) का मौद्रिक विस्तार किया गया है।  इसी प्रकार जापान और यूरोपीय केन्द्रीय बैंक द्वारा भी भारी मात्रा में मुद्रा प्रसार करने के कारण भारत में 2009-15 के बीच 162 अरब डॉलर (10 लाख 692 करोड़ रुपए के बराबर) विदेशी संस्थागत निवेश आया। इसके कारण वायदा बाजारों में वस्तु मूल्यों (कमोडिटी कीमतों) में जो उछाल आया, वही देश में मुद्रा स्फीति का प्रमुख कारण रहा है। उसके पहले 2001-07 के बीच विदेशी संस्थागत निवेश मात्र 60 अरब डॉलर (मात्र 35 प्रतिशत) ही रहा है। वस्तुत: आज की मुक्त अर्थव्यवस्था के युग में अन्य किन्हीं भी प्रमुख देशों की ब्याज दरों में नाम मात्र के परिवर्तन से ही विकासशील देशों में निवेश में भारी उतार-चढ़ाव आ जाता हैं। उदाहरणत: वर्ष 2015 में अमेरिकी केन्द्रीय बैंक (फेडरल रिजर्व) द्वारा ब्याज दर वृद्धि की संभावनाओं के चलते जहां उस वर्ष के अन्त में मात्र 25 बेसिस प्वाइंट की वृद्धि पर ही विकासशील देशों से 735 अरब डॉलर (48 लाख 51 हजार रुपए के बराबर ) का विदेशी संस्थागत निवेश बाहर चला गया। इसलिए भारत से भी 2015-16 में तीन अरब डॉलर के संस्थागत निवेश का शुद्ध बहिर्गमन हुआ। इस निवेश के बहिर्गमन से रुपए की विनिमय दर पर दबाव आना स्वाभाविक था। पहले ही ऊंचे व्यापार घाटे से जो, 22 अरब डॉलर का चालू खाता घाटा था, उसकी पूर्ति 2015 में आए 44 अरब डॉलर के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से ही हो सकी। इससे रुपए की कीमत सुरक्षित बनी रही। लेकिन इसके लिए 10 नवंबर, 2015 में 15 क्षेत्रों और 20 जून, 2016 को छह माह में ही 9 और क्षेत्रों में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश खोलने की मजबूरी बन गई। इसलिए केवल ब्याज दरों को ऊंचा रखने से महंगाई पर काबू की नीति अपने के लाभ की तुलना में नुकसान अधिक है।  वस्तुत: देश के मौद्रिक नीति निर्धारकों को यह विदित होना आवश्यक है कि हमारे देश में महंगाई का प्रमुख कारण हमारी आंतरिक मौद्रिक तरलता मात्र न होकर, कई अन्य बड़े कारक हैं, जिनमें निम्न 3 प्रमुख हैं-
1 विदेशी संस्थागत निवेशकों द्वारा अपने संस्थागत निवेश से वस्तु वायदा बाजारों में लाया जाने वाला उछाल।
2.     विदेश व्यापार घाटे व विदेशी निवेश की आय में घाटे से रुपए की विनिमय दर में गिरावट। वर्ष 2011 में रुपए की कीमत 50 रुपए प्रति डॉलर थी जिसके गिरकर 66 रुपए से भी नीचे चले जाने से सभी आयात के दाम रुपए में 15 प्रतिशत बढ़ जाने के कारण भी देश में मूल्यों में वृद्धि हो रही है। देश के सकल घरेलू उत्पाद (जी़ डी़ पी़) के 27 प्रतिशत तक के आयात से आज जो महंगाई बनी हुई है वही उसका एक प्रमुख कारण है। रिजर्व बैंक द्वारा इसकी अनदेखी कर केवल ऊंची ब्याज दरों से महंगाई नियंत्रण की जिद के कारण देश के उद्यम निर्यात में पिछड़ रहे हैं और घरेलू बाजारों में भी आयात सस्ता होने से ही व्यापार घाटे की उच्चता और रुपए में गिरावट आ रही है।
3.     देश में उत्पादन व उत्पादकता वृद्धि के अभाव में कृषि उत्पादों सहित अनेक उत्पादों की अपर्याप्त आपूर्ति से भी मूल्य बढ़ते हैं, जैसा दलहन, तिलहन आदि में हो रहा है।
वस्तुत: ब्याज दरें कम होने पर तो किसान भी अधिक ऋण लेकर कृषि आदायों और यंत्रों में निवेश करने की सोचता है और उत्पादकता बढ़ाने में सफल होता है। कृषि प्रसंस्करण सहित सभी प्रकार के नए उद्यमों की स्थापना भी तभी होगी जब ब्याज दरें और ऋण लागतें कम होंगी। नए उद्यमों की स्थापना और चलते उद्योगों का विस्तार भी तभी होता है। विद्यमान उद्यमों के विस्तार और नए उद्यमों की स्थापना से ही देश में रोजगार बढ़ सकता है। रोजगार से ही लोगों की आय बढ़ती है, उससे बाजार में मांग और उत्पादन वृद्धि से रोजगार, आय तथा पुन: निवेश संवर्द्धन से स्वत: स्फूर्त आर्थिक वृद्धि और विकास का चक्र प्रवाहमान होता है। इसी प्रकार ब्याज दरें न्यून होने व ऋण की लागतें कम होने पर उद्योगों की भी लाभदायकता बढ़ती है, जिससे पुन: रोजगार, आय, उत्पादन और निवेश चक्र प्रवाहमान होता है। दूसरी ओर ब्याज दर कम होने पर सामान्य नागरिकों की भी भवन ऋण, वाहन ऋण आदि की मासिक किस्त की राशि कम होने से बचने वाली राशि को भी वे बाजार में जब व्यय करेंगे तो उससे भी बिक्री, मांग, उत्पादन वृद्धि और निवेश का चक्र गतिमान होता है। न्यून ब्याज दरों से आकृष्ट होकर ही लोग बड़ी संख्या में गृह ऋण लेकर अपना मकान बनाने से लेकर अनेक प्रकार के संसाधनों की खरीद करते हैं। विगत 12 वर्ष में ऊंची ब्याज दरों और मोदी सरकार के 27 महीनों में, जो राजन के 36 माह के कार्यकाल में ही निकले हैं, महंगाई के नियंत्रित होने पर भी राजन द्वारा जो ब्याज दरें ऊंची रखी गईं, उनसे उपजे आर्थिक गतिरोध की क्षतिपूर्ति अल्पकाल छोड़ मध्यमाविधि में भी संभव नहीं है। इंग्लैंड में जब 1980 और 1990 में क्रमश: ब्याज दरें 17 व 15 प्रतिशत रखी गईं तब वहां भी मंदी फैली और अमेरिका में भी जब 1981-82 में ब्याज दरें ऊंची थीं तो वह भी भारी मंदी का शिकार हुआ था। इंग्लैंड में वैश्विक आर्थिक उतार और यूरोपीय ब्रॉण्ड संकट के दौर में जब उनकी विकास दर 2008 में शून्य और 2009 में रसातल में (-) 7 प्रतिशत पर चली गई तो उन्होंने आधार ब्याज दर को शून्य प्रतिशत तक ले जाकर ही 2010 में आर्थिक वृद्धि दर 2़ 5 प्रतिशत और 2011 में 0़ 75 प्रतिशत कर लेने में सफलता पाई थी। जबकि इस अवधि में वहां महंगाई दर 1़ 7 से 4़ 7 प्रतिशत तक भी रही है।
भारत में पिछले 2 वर्ष में मुद्रास्फीति दर लगभग नियंत्रण में ही रही है। किसी भी अन्तरराष्ट्रीय मानक के आधार पर 10 प्रतिशत से न्यून महंगाई दर पर ब्याज दरें ऊंची रख कर आर्थिक वृद्धि, विकास, निवेश और उद्यमों की लाभदायकता का हनन करने का कोई औचित्य नहीं है। दक्षिण कोरिया ने तो पिछले 50 वर्ष में औसत महंगाई दर 7़ 6 प्रतिशत से ऊंची होने पर भी ब्याज दरें नीची ही रख कर चीन से भी अधिक ठोस प्रगति की है। वहां 1980 के दशक में महंगाई 28 प्रतिशत तक भी गई है। आज दक्षिण कोरिया, जिसकी जनसंख्या और क्षेत्रफल विश्व का 5 प्रतिशत मात्र है, विश्व का सबसे बड़ा जहाज निर्माता है। वहां विश्व के एक चौथाई जहाजों का निर्माण होता है। लौह खनिज की प्रचुरता के कारण आज भारत विश्व का चौथा सबसे बड़ा इस्पात उत्पादक देश है। इसके बाद भी विश्व में शिप-बिल्डिंग में हमारा योगदान 0़1 प्रतिशत से भी कम है। यह है हमारी ऊंची ब्याज दरों की विकासरोधी कटार। इसलिए 25 वर्ष के सबसे सशक्त जनादेश से बनी वर्तमान एऩ डी़ ए़ सरकार को ब्याज दरें नीची रखकर अब ही सही देश को द्रुत विकास के पथ पर ले जाना होगा।
यह सही है कि ब्याज दरें कम होने पर देश के कुछ ऐसे वरिष्ठ नागरिक प्रभावित हो सकते हैं जो अपनी जमा बचतों के ब्याज पर निर्भर हैं। इसके लिए सरकार विशेष जमा योजना, सामाजिक सुरक्षा, ब्याज अनुदान या पेंशन कोषों की विशेष योजना के प्रवर्तन से उनकी बचतों पर आय सुरक्षा दे सकती है। लेकिन आज आधी से अधिक युवा जनसंख्या वाले इस देश को ऊंची ब्याज दरों में जकड़ कर रोजगार सृजन विहीन और शाश्वत व्यापार घाटे और मुद्रा अवमूल्यन के दुष्चक्र में फंसाने वाली मौद्रिक नीति के लिए पीढि़यां राजन जैसे गवर्नरों को शायद ही माफ करेंगी।
 मोदी सरकार ने जून 2016 में रिजर्व बैंक के गवर्नर के मौद्रिक नीति निरूपण के इस एकल अधिकार को गवर्नर सहित छह सदस्यीय ''मौद्रिक नीति समिति'' को सौंपने का जो निर्णय लिया है, वह अत्यंत समीचीन है। आशा है, अगली मौद्रिक नीति की समीक्षा यह छह सदस्यीय समिति ही करेगी और देश को       एक विकासोन्मुख मौद्रिक नीति के मार्ग पर  ले जाएगी।    
    (लेखक वरिष्ठ अर्थ विशेषज्ञ हैं)  

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