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सपा के राज में अराजकता, दंगों, दबंगों और अपराधियों के खुले खेल की धरती बने उत्तर प्रदेश में चुनावी बिसात बिछ चुकी है। लेकिन न बसपा से बड़े नेताओं का पलायन रुका है, न सपा से अपराधियों के जुड़ने का क्रम। दोनों के लंबे-चौड़े दावे अब जनता को समझ आने लगे हैं
अवधेश कुमार
उत्तर प्रदेश की चुनावी बिसात पर नजर दौड़ाएं तो पहले से बने अनुमान और संभावित समीकरणों में होता उलटफेर आपको दिख जाएगा। 2007 में कोई देख सकता था कि बसपा सबसे आगे है और उसी तरह 2012 में भी सपा का रथ आगे निकलता दिख रहा था। संशय था तो इतना ही कि इनको बहुमत मिलेगा या नहीं। किंतु 2017 चुनाव से पहले जिससे भी बात करें, कोई नहीं कह रहा कि सपा, बसपा में से कोई आगे है या फिर कांग्रेस प्रशांत किशोर की रणनीति से अपनी दशा सुधार लेगी। जिस पार्टी यानी बसपा को सबसे बड़ा दावेदार माना जा रहा था उसकी दशा देखें तो केवल प्रदेश स्तर पर ही नहीं जिला, और विधानसभा स्तर पर भी उसके नेताओं के पार्टी छोड़ने का क्रम सा बना हुआ है। बसपा से विदा हुए स्वामी प्रसाद मौर्य कहते हैं कि मायावती की धनलोलुलपता ने दलितों को जितना नुकसान पहुंचाया है उसे दलित भी समझेंगे और दूसरी जातियां भीं। वेे कह रहे हैं कि बसपा की जमीन खिसक रही है।
स्वामी प्रसाद मौर्या ने 1 जुलाई को लखनऊ में एक सभा की जिसमें काफी संख्या में लोग उमड़े थे। उन्हें अपनी ताकत का एहसास कराना था और करा दिया। उन्होंने मायावती को चुनौती दी कि चुनाव में साबित हो जाएगा कि 'दलितों का मसीहा' कौन है। उन्होंने एक मंच गठित कर लिया है और वे उसके माध्यम से मायावती विरोधी अभियान पर निकल गए थे । अब वे भाजपा में जा चुके हैं। वहां से वे बसपा को कितना नुकसान पहुंचाएंगे, इस पर मतभेद हो सकता है, पर नुकसान पहुंचाएंगे ही, इस पर मतभेद नहीं हो सकता। आखिर मायावती को पिछड़ी जातियों का कुछ वोट मिलता था, उसमें स्वामी प्रसाद मौर्य की जाति का योगदान था। यह खिसकता है तो क्षति उनको होनी है। उनके पहले एक और बड़े नेता आर.के. चौधरी ने बसपा छोड़कर इसी तरह मायावती पर हमला बोला। वे कहते हैं कि मायावती एकाधिकारवादी कार्यशैली अपनाती हैं, पैसे के लिए टिकटों की सौदेबाजी करतीं हैं तथा कुल मिलाकर बहुजन समाज के उद्धार के उद्देश्य से भटक चुकी हैं। उनका यह कथन देखिए, ''बीएसपी अब रियल एस्टेट कम्पनी बन गई है जिसकी मालिक मायावती हैं़.़.़ मायावाती टिकटों की सौदेबाजी करती हैं जिसके चलते पार्टी में भूमाफिया और प्रॉपर्टी डीलर बढ़ते जा रहे हैं और मिशनरी कार्यकर्ता बाहर जाने पर मजबूर हैं।''
आप देखेंगे कि मौर्य ने पार्टी छोड़ने का जो कारण स्वामी प्रसाद बताया वही आर.के. चौधरी भी बताते हैं। दोनों मायावती पर बोली लगाकर टिकट बेचने तथा पार्टी कार्यकर्ताओं की अनदेखी करने का आरोप लगा रहे हैं। चौधरी पार्टी में महासचिव थे और बसपा की स्थापना से पहले से वे कांशीराम के साथ जुड़े हुए थे। कहा जाता है कि कांशीराम के आह्वान पर उन्होंने वकालत छोड़ कर उनके साथ काम करना शुरू किया था। कांशीराम के निर्देश पर ही चौधरी ने विवाह न करने का फैसला किया था ताकि पार्टी को पूरा समय दे सकें। बसपा की पहली साझा सरकार में वे मंत्री बने थे और उस समय उन्हें उत्तर प्रदेश में मायावती के बाद दूसरे नंबर का नेता माना जाता था। यह बताना इसलिए आवश्यक है ताकि आपके ध्यान में आ जाए कि मौर्य की तरह चौधरी भी बसपा के बहुत बड़े नेता थे। हालांकि उनके बढ़ते कद से परेशान होकर 2001 में मायावती ने उन्हें पार्टी से बाहर निकाल दिया था। चौधरी ने उसके बाद अपनी पार्टी बनाई तथा लखनऊ की मोहनलालगंज सीट से दो बार चुनाव भी जीता। 2013 में उन्हें फिर से बसपा में शामिल कर लिया गया और वे मोहनलालगंज सीट से लोकसभा चुनाव में पार्टी प्रत्याशी भी बनाए गए। पिछली बार पार्टी से निकाले जाने और इस बार छोड़ने में उनकी प्रतिक्रिया भिन्न है। पिछली बार वे कहते थे कि ''मुझे आज तक यह समझ में नहीं आया कि आखिर मुझे निकाला क्यों गया था।'' इस बार वे कह रहे हैं कि ''पार्टी छोड़ने का मुझे कोई अफसोस नहीं है। अब मैं पैसे की गुलामी से मुक्त हो गया हूं और अपनी इच्छा से राजनीति कर सकता हूं।''
उत्तर प्रदेश में एक बार सपा एवं एक बार बसपा की पारी को स्थायी क्रम मान लेने वालों के लिए भी इस बार आकलन में समस्या आ रही है। स्वयं बसपा के नेता भी अकेले में यह दावा नहीं करते कि वे चुनाव जीत रहे हैं। मायावती ने जिस तरह मौर्य एवं चौधरी के बाहर जाने बाद के पार्टी से निकाले गए विधायकों और नेताओं को वापस बुलाना शुरू किया उससे साफ है कि उन्हें भावी चुनौतियों का कुछ हद तक एहसास हो गया है। विधान परिषद और राज्यसभा चुनाव के मतदान के दौरान जिस तरह कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के कुछ मुस्लिम विधायकों ने बसपा के पाले में मतदान के संकेत दिए थे, उससे लग रहा था कि हवा का रुख मायावती के पक्ष में है। लेकिन अब पासा पलटा हुआ है। मौर्य एवं चौधरी ही नहीं, जिला एवं विधानभा स्तर के नेता जितना मायावती और बसपा को आरापित करेंगे उनके मतों की संख्या इससे जरूर प्रभावित होगी। कह सकते हैं कि बसपा की कभी जो संभावना उज्ज्वल लगती थी, उसमें ग्रहण लग गया है। वैसे भी 2009 लोकसभा चुनाव से लेकर 2012 विधानसभा एवं 2014 लोकसभा चुनाव तक बसपा का ग्राफ लगातार गिरा है।
ात्तारूढ़ सपा से पहले कांग्रेस को देखते हैं। '27 साल यूपी बेहाल' का नारा देकर पार्टी ने बस यात्रा निकाली दी। 23 जुलाई की सुबह दिल्ली में कांग्रेस मुख्यालय के बाहर ढोल नगाड़े बज रहे थे, पंडितों द्वारा श्लोकोच्चारण हो रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे कोई उत्सव हो। संस्कृत में श्लोकों का उच्चारण और पूजा विधि से कांग्रेस मुख्यालय के सामने एक नया दृश्य बना हुआ था। इस बार सेक्युलरिज्म आड़े नहीं आया। जिन्हें जानकारी नहीं थी उन्हें लगा कि कांग्रेस को शायद कुछ विशेष प्राप्त हो गया है। बाद में पता चला कि अरे, ये तो उत्तर प्रदेश के लिए बस यात्रा निकाल रहे हैं। एक व्यक्ति ने राह चलते टिप्पणी की कि कांग्रेस ऐसे खुशियां मना रही है मानो चुनाव ही जीत गई हो। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने बस को फ्लैग ऑफ किया और राहुल गांधी तो मंच पर मौजूद थे ही। बस में उत्तर प्रदेश के प्रभारी गुलाम नबी आजाद, प्रदेश अध्यक्ष राज बब्बर, मुख्यमंत्री पद की उम्मीवार शीला दीक्षित, समन्वय समिति के अध्यक्ष प्रमोद तिवारी और प्रचार समिति के अध्यक्ष संजय सिंह समेत उ.प्र. कांग्रेस के कई नेता सवार थे। बस के साथ-साथ नेताओं और कार्यकर्ताओं की करीब सौ गाडि़यों का काफिला तीन दिन तक उत्तर प्रदेश के अलग अलग जिलों से गुजरता हुआ 600 कि़ मी. की दूरी तय करके कानपुर तक पहुंचा। जाहिर है, रास्ते में नेताओं के रोड शो हुए और भाषण भी। लेकिन उत्तर प्रदेश की जनता ने उसी उत्साह से उनका संज्ञान लिया, ऐसा सभाओं की उपस्थितियों और प्रतिक्रियाओं से लगा नहीं। स्थानीय समाचार पत्रों की रिपोर्ट देखें तो उसमें यात्रा एवं सभाओं को लेकर कहीं उत्साहजनक टिप्पणी नहीं है। कई जगह तो आम लोगों की प्रतिक्रिया विपरीत भी रही-'आ गए चुनाव के समय गाडि़यों का हुजूम लेकर'।
संयोग देखिए। बस हापुड़ तक ही पहुंची थी कि शीला दीक्षित की तबियत बिगड़ गई और उन्हें उस दिन के लिए दिल्ली वापस आना पड़ा। सोनिया गांधी को वाराणसी का अपना रोड शो बीच में ही रोकना पड़ा। उनका कंधा उखड़ गया था जिसका ऑपरेशन हुआ है। एक पत्रकार की टिप्पणी है कि कांग्रेस ने चुनाव से कुछ महीने पहले कवायद आरंभ कर दी है, पर जब पार्टी की इकाई ही हर जगह नहीं है तो फिर वह कर क्या पाएगी। वैसे भी जब शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया गया तो न पार्टी ने और न ही आम जनता ने कोई उत्साहजनक प्रतिक्रिया दी। गुलाम नबी आजाद ने कहा कि उत्तर प्रदेश के लिए कांग्रेस ही सबसे सही विकल्प है। लेकिन विकल्प जमीन पर भी तो दिखाई देना चाहिए। पार्टी कार्यकर्ता ही पूछ रहे हैं कि युवा वर्ग को आगे लाने और मौका देने की घोषणा का क्या हुआ? 78 वर्ष की शीला दीक्षित, जिनका दिल्ली का शासन देश देख चुका है, जो वहां से पराजित हो गईं वे उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य को नेतृत्व प्रदान कैसे कर पाएंगी? क्या उनके पास इस उम्र में इतनी क्षमता और ऊर्जा शेष है कि वे मायावती, अखिलेश यादव, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, उत्तर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य, असदुद्दीन ओवैसी आदि का उन्हीं के अंदाज में सामना कर सकें? समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता राजेन्द्र चौधरी की टिप्पणी है कि कांग्रेस तो हमारे लिए कोई चुनौती है ही नहीं। उनके अनुसार, कांगे्रस है कहां। उनके एक नेता ने कहा कि शीला दीक्षित के खिलाफ तो दिल्ली में ही भ्रष्टाचार पर मुकदमा हो चुका है। हो सकता है, चुनाव अभियान के बीच ही उनकी गिरफ्तारी का वारंट आ जाए। पता नहीं क्या होगा, लेकिन दिल्ली भ्रष्टाचार निरोधक शाखा में उनके खिलाफ टैंकर घोटले का मामला तो है ही।
अगर राज बब्बर को अध्यक्ष बनाना तथा शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करना प्रशांत किशोर के सुझाव पर हुआ है तो फिर उनकी सोच और रणनीति पर भी प्रश्न उठना लाजिमी है। राज बब्बर को लोग पिछड़े नेता के रूप में स्वीकार करेंगे, इसमें संदेह है। इसी तरह शीला दीक्षित जरूर लगातार कहती हैं, ''जो मुझे बाहरी कहते हैं उनको मेरे बारे में जानकारी नहीं है। मैं तो उत्तर प्रदेश की बहू हूं।'' क्या उत्तर प्रदेश के लोग उनको इस रूप में स्वीकार कर पाएंगे? इन दोनों की लोकप्रियता ऐसी नहीं है कि ये तीनों प्रतिद्वंद्वी पार्टियों को धकेल कर पार्टी को 28 सीट से 202 यानी बहुमत के आंकड़े तक पहुंचा देें। राज्य के कार्यकर्ता न शीला दीक्षित को स्वीकार कर रहे हैं, न राज बब्बर को, उन्हें तो इंतजार है प्रियंका गांधी का। गुलाम नबी आजाद ने प्रियंका गांधी के हाथों प्रचार की कमान देने की बात की थी। घोषित रूप में तो ऐसा हुआ नहीं। अब प्रियंका गांधी प्रचार के लिए आएंगी और कितना करेंगी़, क्या कहेंगी, यह देखना होगा। आज का सच इतना ही है कि इस समय कोई विश्लेषक कांग्रेस पर दांव लगाने को तैयार नहीं है।
सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी की ओर देखें तो वहां मची हलचल का आभास हो जाएगा। कौमी एकता दल का सपा में विलय होता है, और फिर अगले दिन मुख्यमंत्री अखिलेश के विरोध के चलते उसे रद्द कर दिया जाता है। चुनाव से पहले मुख्यमंत्री मंत्रिमंडल में पांच नए चेहरे भी शामिल करते हैं। मुलायम सिंह यादव मानते हैं कि अखिलेश ही सपा का बेड़ा पार लगा सकते हैं, इसलिए वह उनकी हर बात मानते हैं। अखिलेश सोशल मीडिया पर काफी सक्रिय रहते हैं और उनकी युवा 'फैन-फोलोइंग' पहले के मुकाबले बढ़ी है। सपा के नेता कहते हैं कि अखिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश के लिए आज तक का सबसे बड़ा बजट पेश किया, प्राइवेट निवेश को बढ़ावा दिया और इसके चलते विश्व बैंक ने अपनी रिपोर्ट में राज्य को व्यापार के लिहाज से देश के शीर्ष 10 राज्यों में भी शामिल किया है। यह इनका दावा है और चुनाव जीतने के लिए दावे काफी नहीं हैं।
राज्य में कानून और व्यवस्था की स्थिति सुधारने में अखिलेश पूरी तरह विफल रहे हैं। जब मायावती बनाम दयाशंकर सिंह मामला उछला और पत्रकारों ने उनसे प्रश्न किया तो उनका जवाब था कि 'हमारी पार्टी में होता है तो आप गुण्डे कहते हो, इनको गुण्डा क्यों नहीं कहते?' तो यह दर्द है अखिलेश का कि उनकी पार्टी की छवि इतनी बिगड़ गई है। मुलायम सिंह यादव हाल के कई बयानों में कह चुके हैं कि नेता संभल जाएं, उनकी पार्टी में अपराधियों और गुण्डों के लिए कोई जगह नहीं हैं। पार्टी मुख्यालय पर पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की पुण्यतिथि के अवसर पर आयोजित एक कार्यक्रम में मुलायम सिंह ने कहा कि पार्टी के कुछ कार्यकर्ता जमीन और पैसे के लिए लूटखसोट और दबंगई करने में लगे हैं। ऐसे कार्यकर्ता पार्टी की छवि खराब कर रहे हैं। भाजपा के प्रवक्ता और उपाध्यक्ष विजय पाठक कहते हैं कि सपा में अपराधियों के बोलबाले के कारण ही प्रदेश की छवि 'अपराध प्रदेश' की बन गई है। महिलाओं के प्रति अपराध में और दंगों में उ. प्र. पहले स्थान पर है। हर विरोधी नेता सपा की सरकार पर यही आरोप लगाता है। यह भी सच है कि अखिलेश यादव अपनी पार्टी के नेताओं-कार्यकर्ताओं की दबंगई, उनके गैर कानूनी कामों पर नियंत्रण पाने में सफल नहीं रहे हैं। पिछले चार वषोंर् में भारी संख्या में पुलिस कर्मी आपराधिक तत्वों द्वारा मारे जा चुके हैं या बुरी तरह घायल हुए हैं। थानों पर सुनियोजित तरीके से हमले हुए हैं। सपा नेताओं की चाहत पर पुलिस अधिकारियों के स्थानांतरण, प्रोन्नतियां, नियुक्तियां, मनचाहे स्थानों पर तैनाती आदि का सिलसिला लगातार चल रहा है। सत्तारूढ़ दल से जुड़े अपराधी तत्वों को पकड़ने या रोकने पर तबादला कर देना, जातीय आधार पर शिकायत मिलने पर तबादला करना आदि मामले सामने आते रहे हैं। मीडिया ने जातिगत आधार पर नियुक्ति के तो प्रमाण दिए हैं। अपराध और दंगा अखिलेश यादव के शासन पर ऐसा बदनुमा दाग है जिसका धुलना अब चुनाव तक संभव नहीं। मोदीपुरम में भाजपा नेता बृजपाल तेवतिया पर अंधाधुध गोलीबारी के बाद बदमाशों का हाथ न आना भी सपा की पुलिस पर एक बड़ा सवालिया निशान लगाता है। तो फिर चुनावी बिसात में उनके मोहरे क्या होंगे, यह देखना होगा। साफ है कि सत्ता की दावेदारी करने वाली पार्टियों की बिसात चुनाव के काफी पहले ही कमजोर पड़ रही है। उनके मोहरे पिट रहे हैं। उन्हें यह समझ नहीं आ रहा कि आगे कौन से मोहरे लाएं। यह स्थिति 2007 और 2012 में नहीं थी।
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