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संस्कृत विश्व की सबसे प्राचीन भाषा है। वाक् और अर्थ के सच्चे संबंध की द्योतक संस्कृत भाषा को देवभाषा की उपाधि भी प्राप्त है। वैदिक संस्कृत में जहां वेद-पुराण एवं उपनिषद आदि वांगमय की रचना हुई वहां थोड़ा सहज, सरल भाषा लौकिक संस्कृत कहलाई जिसमें संस्कृत के आदिकवि वाल्मीकि ने जनता के मन मस्तिष्क में रमने वाली रामकथा को ''रामायण''' नामक ग्रन्थ के रूप में व्यक्त किया। आज भारत में 15 विश्वविद्यालयों और 500 से भी अधिक परंपरागत गुरुकुलों में अध्ययन-अध्यापन के साथ ही जर्मनी, अमेरिका व ब्रिटेन जैसे विकसित देशों में भी संस्कृत भाषा स्नातक स्तर पर पढ़ाई जा रही है। जर्मनी में देश के 14 शीर्ष विश्वविद्यालयों में संस्कृत के अध्यापन के साथ उसके शास्त्रीय और आधुनिक रूप को यूरोपीय भाषाओं से जोड़ा जाता है। इस कारण ये लोग भारतीय संस्कृति, परंपरा एवं समाज के तुलनात्मक अध्ययन में रुचि लेते हैं। हीडलबर्ग विश्वविद्यालय के प्रो. एक्सेल माइकल कहते हैं 'हमारे संस्कृत वाले पाठ्यक्रम में पूरे विश्व के लगभग 14 देशों के 254 छात्र प्रवेश हेतु आते हैं और प्रतिवर्ष हमें कई आवेदन अस्वीकार करने पड़ते हैं।' जर्मनी के अलावा ज्यादातर शिक्षार्थी अमेरिका, इटली, इंग्लैंड और शेष यूरोप से होते हैं।
वास्तव में आज वैश्विक उदारवाद के दौर में सारी दुनिया यह स्वीकार कर चुकी है कि संस्कृत को धर्म विशेष या राजनीतिक विचारधारा से जोड़ना अज्ञानता है। इसे इसकी समृद्घ विरासत के लिए स्वीकार करना चाहिए। जर्मनी में केवल संस्कृत में स्कूली शिक्षा लेने वाले विद्यालयों की संख्या 1200 के लगभग है जबकि भौतिकता की चमक और आधुनिकता की होड़ में लगे हम भारतवासी इसे मात्र कर्मकांड की भाषा और मृतभाषा के रूप में ही प्रचारित करते हैं।
संस्कृत को पश्चिमी जगत आज ही सम्मान नहीं दे रहा है वरन् स्वाधीनता पूर्व 18 वीं शताब्दी के अंत में कई पश्चिमी शिक्षाविदों ने संस्कृत का अध्ययन किया था। 19वीं शताब्दी में संस्कृत के अध्ययन ने भारोपीय भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन का मार्ग प्रशस्त किया। भारत देश में संस्कृत भाषा में ही इसकी संस्कृति सन्निहित बताई गई- संस्कृति: संस्कृताश्रिता:। वास्तव में भारत ऐसा सुसंस्कृत एवं शिक्षित व समृद्घ देश था कि सारे विश्व के प्रबुद्ध अध्येता यहां ज्ञान ग्रहण करने आते थे।
भतृर्हरि के पद्यों के बाद विदेशी विद्वान ने श्रीमद्भगवद्गीता एवं अन्य धार्मिक ग्रन्थों का अपनी-अपनी भाषाओं में अनुवाद किया। भतृर्हरि की कविताएं पुर्तगाली भाषा में अनूदित हुइंर्। इसी क्रम में एशियाटिक सोसायटी के संस्थापक विलियम जोंस ने भारत-यूरोप अध्ययन और यहां की भाषाओं का तुलनात्मक विश्लेषण किया। विलियम जोंस और गोइथे ने कालिदास के शाकुंतलम् नाटक का अनुवाद प्रस्तुत किया। वेदों और उपनिषदों के अनुवाद किए गए। कालांतर में हम पाते हैं कि आइरिश कवि विलियम बटलर यीट्स संस्कृत साहित्य से प्रभावित थे, हेनरी डेविड थोरो गीता का पाठक था। टी.एस. ईिलयट और अपनी रचना को शान्ति: शान्ति: शान्ति: से पूर्ण करने वाले लैनमैन जैसे पाश्चात्य रचनाकार संस्कृत की महत्ता को स्वीकार करते थे।
आज संस्कृत विश्व के लिए तो सर्वे भवन्तु सुखिन:, वसुधैव कुटुम्बकम्, कृण्वन्तो विश्वमार्यम् का सार्वकालिक संदेश देने वाली है ही भारत देश में भी यह राष्ट्रीय एकता और नैतिकता के प्रसार में व्यापक भूमिका निभाने वाली सिद्घ हो सकती है। देश में विगत कुछ वर्षों से सुनियोजित तरीके से संस्कृत, संस्कृति और परंपरा की अनदेखी होती रही है। इस कारण सर्वत्र अशान्ति और द्वेष का भाव विद्यमान है। अनैतिक, हिंसक और व्यभिचारी एवं भ्रष्टाचार युक्त वातावरण देश में यत्र-तत्र व्याप्त रहा है। इसको दूर करने के लिए देशवासियों और खासकर भावी कर्णधार पीढ़ी के नैतिक उत्थान हेतु भारत और भारतीयता जानने के लिए संस्कृत का अध्ययन-अध्यापन अत्यंत आवश्यक है।
जब वैश्विक स्तर पर संस्कृत को अपेक्षा से अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त हो रही है तो भारत में देववाणी-भारती उपेक्षित नहीं रहनी चाहिए। अमेरिकी अंतरिक्ष संगठन नासा ऊॅ सहित संस्कृत के सभी स्वरों की वैज्ञानिकता और घ्वन्यात्मकता स्वीकार कर चुका है। छठी और सातवां पीढ़ी के सुपर कम्प्यूटरों की भाषा 2034 में संस्कृत में ही गढ़ी जा रही है। अमेरिकी संसद में सामूहिक वेद घ्वनियों की गर्जना हो रही है। फिर हम भारतीय इस श्रेष्ठ भाषा को दीन हीन, पराश्रित, अक्षम और अप्रासंगिक क्यों सिद्घ कर रहे हैं। भारत की परम्परागत विधा योग को सारा विश्व स्वीकार कर चुका है। तो फिर इस विधा की स्रोत संस्कृत भाषा को कोई क्यों नकारेगा। समय आ गया है आजादी के सत्तरवें वर्ष में ही सही हम अपने स्वाभिमान और पहचान के प्रतीकों को आत्मविश्वास एवं पूरे मनोबल के साथ स्वीकार करें। विश्व संस्कृत सम्मेलन में जिस प्रकार विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज ने अपना भाषण संस्कृत में देकर समूचे विश्व को चौंकाया उसी प्रकार देश के अन्दर भी लोगों को जगानें की जरूरत है। सरकार को संस्कृत विषय को प्रोत्साहन देने के लिए ठोस कार्य करना चाहिए और संस्कृत प्रेमियों को आत्मविश्वास।
संस्कृत के विद्वानों को लकीर का फकीर न बनकर वैश्विक और सूचना तकनीक से संपन्न विश्व में समय के साथ कदम बढ़ाते हुए संस्कृत को जन-जन तक पहुंचाने का प्रयत्न करना चाहिए। उपाधि और रोजगारपरक डिप्लोमा कार्यक्रमों से इतर ठोस अनुसंधान और शोध कार्य करने की आवश्यकता है। जिसके लिए जरूरी है सरकार महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय की तरह देश में संस्कृत का एक अन्तरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय स्थापित करे जहां इस भाषा की विविध विधाओं का संकलन प्रकाशन और अन्तरविधा विषयों का यथोचित अनुसंधान हो। इन उपायों से ही संस्कृत भाषा देश में अपनी महाा और खोयी प्रतिष्ठा को पुन: अर्जित कर पायेगी।
-सूर्य प्रकाश सेमवाल
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