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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संस्कारित स्वयंसेवक समाज के हर वर्ग के हित में सन्नद्ध हैं। जात-पात या ऊंच-नीच के भेदों से परे सबके साथ समरस होते हुए सबके उत्थान की चिंता करते हैं। समरसता का यह भाव जगाता रक्षाबंधन का उत्सव इसीलिए एक विशेष प्रेरणा का स्रोत है
प्रशांत बाजपेई
वन के हर पहलू को देखने की विशिष्ट हिंदू दृष्टि है। प्रकृति, समाज, मानव और कर्तव्यों के प्रति हिन्दू सोच अतुलनीय है। ये नजरिया है, कण से लेकर विराट तक सबका चिन्तन करने और बाहरी विविधताओं के बावजूद सबमें एकत्व का दर्शन करने का। इसीलिए वेद, उपनिषद्, गीता, योग दर्शन आदि विश्व मानव को संबोधित करते हैं, किसी सम्प्रदाय विशेष को नहीं। पाप-पुण्य की सरल और सटीक परिभाषा की गई है- 'परोपकाराय पुण्याय, पापाय परपीडनम्' इस विवेकपूर्ण आचरण को धर्म कहा गया। अपने अंत:करण में झांककर, सत्य-असत्य, न्याय-अन्याय का विचार कर किया गया कल्याणकारी कार्य धर्माचरण कहा गया। इसीलिए धर्म पूर्णत: व्यक्तिगत विषय रहा, परंतु स्पष्ट किया गया कि जब सभी अपने -अपने धर्म का पालन करते हैं, तो सबकुछ ठीक चलता है। इसीलिए माता का धर्म, पिता का धर्म, पुत्र का धर्म, पति का धर्म, पत्नी का धर्म, शिक्षक और शिष्य का धर्म, राजा और प्रजा का धर्म, सैनिक-व्यापारी और चिकित्सक का धर्म, और अंत में सबका धर्म -मानव धर्म। इस धर्म की रक्षा करने का निर्देश दिया गया। ऋषियों ने कहा -'धमार्े रक्षति रक्षित:' अर्थात तुम धर्म की रक्षा करो, धर्म तुम्हारी रक्षा करेगा।
हमारे देश में रक्षा करने वाला और रक्षित ऐसी दो श्रेणियां नहीं कल्पित की गईं। हर एक को उच्च जीवन मूल्यों की, समाज की, मानवता की, पकृ्रति की रक्षा करने को कहा गया। हर एक को रक्षा करनी होगी, तभी सब सुरक्षित रहेंगे। रक्षा करने के इसी संस्कार को पुनर्स्थापित करने, इसका निरंतर स्मरण दिलाने का महापर्व है रक्षाबंधन। इसे सिर्फ भाई-बहन के त्योहार तक सीमित करके देखना ठीक नहीं होगा। इसके तो विशद पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय निहितार्थ हैं। कुटुंब की रक्षा करो, कुटुंब तुम्हारी रक्षा करेगा। समाज की रक्षा करो, क्योंकि सुरक्षित समाज में तुम भी सुरक्षित रहोगे। संस्कृति की रक्षा करो, संस्कृति तुम्हारी जड़ों की रक्षा करेगी। राष्ट्र की रक्षा करो, क्योंकि अच्छी तरह रक्षित राष्ट्र ही तुम्हारी रक्षा का अभिवचन है।
सीमा पर सैनिक अपना धर्म निभा रहा है। समाज में अपना धर्म हम कैसे निभाएं इसका चिंतन भारत की प्रज्ञा सनातन काल से करती आई है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने छह उत्सवों में रक्षाबंधन को सामाजिक समरसता और इस नाते सामाजिक सुरक्षा के उत्सव के रूप में सम्मिलित किया है। आज की सबसे बड़ी चुनौती समतामूलक समाज की स्थापना है। इसलिए सामाजिक समरसता हमारी अधिकांश समस्याओं का समाधान है।
अपनी स्थापना के प्रथम दिन से ही संघ के सभी स्वयंसेवकों ने एकमात्र हिन्दू होने के नाते व्यवहार करना सीखा है। परंतु समाज की सोच धीरे-धीरे बदलती है। संविधान ने अस्पृश्यता विरोधी कानून बनाया है। आज छुआछूत दंडनीय अपराध है परंतु कानून से ह्दय परिवर्तन नहीं होता। और जब तक ह्दय परिवर्तन नहीं होता तब तक भेदभाव की दीवारें हटती नहीं। इसके लिए सारे देश में स्वयंसेवकों द्वारा विशेष प्रयास किये जा रहे हैं। इस दिशा में काम कर रहे लाखों स्वयंसेवकों के अनुभवों को एक स्थान पर संकलित करना तो असंभव है लेकिन एक उदाहरण इस काम की प्रकृति और कठिनाइयां दोनों को स्पष्ट कर सकेगा। महाराष्ट्र की पारधी जाति समाज के आखरी पायदान पर खड़े हुए जनसमूहों में से एक रही है। 1871 में अंग्रेजों ने 'अपराधी जाति कानून' बनाया था। इसके अन्तर्गत देश की अनेक बंजारा-घुमंतू जातियों की सूची बनाई गयी जिन्हें जन्मजात अपराधी माना गया। अर्थात इस जाति में जन्म लेना ही जेल जाने का कारण बन सकता था। पारधी जाति भी इसी कानून के दायरे में रखी गयी। इनके पास न जमीन है, न जातिगत व्यवसाय। जन्म-मृत्यु का पंजीकरण तक उनके पास नहीं होता। प्रचलित धारणाओं और सामाजिक विषमताओं के चलते कोई उनसे बात करना भी पसंद नहीं करता। संघ के स्वयंसेवकों ने उस्मानाबाद जिले के मगरसांगवी नामक स्थान पर पारधी जाति के सदस्यों के पुनर्वास का काम हाथ में लिया। पहले चरण में 50 परिवारों को वहां बसाया गया। उनको रोजगार देने के लिए एक बेकरी स्थापित की गयी।
जब बेकरी के उदघाटन संबंधी पूजन कार्यक्रम के लिए सत्यनारायण की पूजा का निश्चय हुआ और श्री गिरीश प्रभुणे तथा अन्य कार्यकर्ताओं ने पारधी पुरुषों को बताया कि पूजन करने वाले को सपत्नीक बैठना होगा, फिर पूछा कि कल पूजा के लिए कौन बैठेगा, तो चुप्पी छा गयी। फिर एक पारधी बंधु ने कहा,''हमारी प्रथा के अनुसार स्त्री को पूजा का अधिकार नहीं है। वह अंतर्बाह्य पापिनी समझी जाती है। उसे धर्म कार्य का कोई अधिकार नहीं।'' कार्यकर्ता ने उससे कहा,'' स्त्री पापिनी कैसे हो सकती है? हमारी देवियां भी तो स्त्री हैं।'' इस प्रकार पारधी बांधवों को समझाने का प्रयास घंटों तक चलता रहा। एक ने कहा,''पुरखों के रिवाज और प्रथाएं भंग करने पर बहुत पाप लगेगा। इस पाप का बोझ यदि कोई अपने सर ले और जाति पंचायत को पांच हजार रुपये जुर्माना अदा करे तभी बात बनेगी।'' ये सुनते ही गिरीश जी बोले,''यह पाप मैं अपने सर पर लूंगा! और पांच हजार का जुर्माना भी दूंगा।''
8 अगस्त, 1995 को बेकरी के उदघाटन समारोह में इसी प्रसंग को उद्घृत करते हुए शेषाद्रि जी ने कहा था,''आज मैं यह चमत्कार देख रहा हूँ़.़।''सामाजिक समरसता का यह एक अनोखा प्रसंग था। श्री गिरीश प्रभुणे पारधी समाज से तो आते नहीं थे लेकिन पारधी समाज की प्रथा भंग का 'पाप' उन्होंने अपने सर पर ले लिया। समाज में परिवर्तन लाना है तो किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए, स्वयं कितना डूबना चाहिए, यह उदाहरण उन्होंने प्रस्तुत किया। आरक्षण, कानून, सरकारी योजनाएं वगैरह सब ठीक है लेकिन मानस परिवर्तन और संवेदना जागरण के बिना समरसता स्वप्न ही बनी रहेगी। तृतीय सरसंघचालक बालासाहब देवरस ने स्वयंसेवकों तथा समाज का आह्वान करते हुए कहा था कि यदि अस्पृश्यता पाप नहीं है तो संसार में कुछ भी पाप नहीं है। इसीलिए देश के उत्तर से दक्षिण तक और पूर्व से पश्चिम तक स्वयंसेवकों को समरसता निर्माण के रचनात्मक प्रयास करते देखा जा सकता है। स्वयंसेवकों के प्रयत्नों से सैकड़ों मंदिरों में पूर्व में अस्पृश्य कहे जाने वाले बंधुओं का भी प्रवेश, पूजन-अर्चन, यज्ञ-हवन आदि प्रारम्भ हुआ है। हजारों की संख्या में वंचित वर्ग के बंधुओं ने संस्कृत पठन-पाठन और बोलने का प्रशिक्षण लिया है। हजारों जिले और गांवों में समरसता भोज आयोजित किये जाते हैं जिनमें सारा हिन्दू समाज साथ बैठकर भोजन ग्रहण करता है। संतों, धर्माचायोंर् और समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों को वंचित वर्ग के बंधुओं के घर ले जाने और साथ बैठने, पानी-चाय ग्रहण करने, सम्मिलित होकर त्योहार मनाने, देव पूजन, कन्या पूजन जैसे कार्यक्रमों का अच्छा प्रभाव देखने को मिल रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों में सभी मंदिरों में सबका प्रवेश, जल स्रोत तक सबकी समान पहुंच, श्मशान पर सबका समान अधिकार, विद्यालयों में समानता से शिक्षा जैसे बिंदुओं पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। घुमंतू जातियों, देवदासियों आदि की दशा को सुधारने के लिए भी अनेक प्रकल्प स्वयंसेवकों द्वारा चलाये जा रहे हैं। किसी स्थान पर जातीय तनाव होने पर समाज के जिम्मेदार प्रभावशाली सज्जनों और धर्माचायोंर् को सामने लाकर सौहार्द निर्मित करने के प्रयास किये जाते हैं। परंतु लाखों गांवों में बिखरे हिन्दू समाज और सैकड़ों वषोंर् से प्रचलित कुरीतियों को देखते हुए अभी और भी शक्ति तथा संख्या की आवश्यकता है, ऐसा अनुभव आ रहा है। सेवा और समरसता या सामाजिक सद्भाव परस्पर गुंथे हुए हैं। श्री गुरुजी का कथन है कि ''सेवा यह परम प्रेम का, देशभक्ति का प्रकट रूप है।''बालासाहब देवरस ने भी स्वयंसेवकों को निर्दिष्ट किया था,''संघ की प्रतिमा केवल दण्ड,गणवेश, संचलन और शारीरिक कार्यक्रम करनेवाले यहां तक सीमित न रहे बल्कि, संघ एक सेवाभावी व्यक्तियों का निर्माण करने वाला संगठन भी है, ऐसी हो।''आज शिक्षा, चिकित्सा, आर्थिक सशक्तिकरण, प्रत्येक क्षेत्र में हजारों सेवा प्रकल्प चलाए जा रहे हैं। हमारे देशवासियों में देशभक्ति के भाव की कमी नहीं है। परंतु देश के लिए क्या करें, कैसे अपना योगदान दें, ये अक्सर समझ नहीं आता। स्वयंसेवकों द्वारा संचालित हजारों सेवा प्रकल्प देश-समाज के लिए अपना योगदान देने के लिए उपयुक्त स्थान सिद्ध हो सकते हैं। स्नेह और समानता के सूत्र में समाज को पिरोयेंगे और भारत के भाल पर विजय तिलक करेंगे तो रक्षाबंधन सार्थक हो सकेगा।
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