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भारतीय आर्य जाति स्वतंत्रताप्रेमी थी। उन्होंने प्रत्येक विदेशी आक्रमण का प्रतिकार किया। ऋषि वशिष्ठ का दाशराज्ञयुद्ध वर्णन इसका सर्वप्रथम उदाहरण है और सिकन्दर के आक्रमण का दृढ़ प्रतिकार दूसरा। हमें उत्तर-पश्चिम सीमा पर बाद में हुए आक्रमणों का कोई ब्यौरा उपलब्ध नहीं है। लेकिन अगर कोई आक्रमण हुए, तो उनका प्रतिकार भी हुआ। जेसा कि महरौली शिलालेख से प्रकट है कि राजा चन्द्र ने सिन्धु नदी की सात शाखाओं को पार कर बल्ख को जीता था। लेकिन समय बीतने पर, जब मध्यकाल में, अरब और उसके बाद तुर्क आक्रमण हुए तो भारतीय आर्यों के वंशज उनके सामने नतमस्तक नहीं हुए। हाल में मिली पुरातत्व समाग्री इस बात को प्रमाणित करती है कि यद्यपि भारतीयों की हार हुई तथापि अपने स्वतंत्र अस्तित्व को उन्होंने बनाए रखा। अपितु, जहां संभव हुआ, उन्होंने विद्रोह किया और अपने को स्वतंत्र किया। पर काल-चक्र के प्रवर्तन के साथ विदेशियों और भारतीयों ने परस्पर सामंजस्य स्थापित किया। संघर्षरत वगार्ें में हितों का समन्वय हुआ। हिन्दुओं ने भारतीय मुस्लिम शासकों की नौकरी की और मुसलमानों ने हिन्दू शासकों के अधीन सेवा की।
अंग्रेज आए
भारत में अंग्रेजों की चढ़ाई के साथ, भारतीयों के सामने एक नयी राह खुली। राज्य के बाद राज्य यूरोपीय आक्रांताओं के धावों के सामने गिरने लगे। लोगों के मन में निराशा छा गयी। यह अभिलेख उपलब्ध है कि माधोजी सिंधिया ब्रिटिश आक्रमण के विरुद्ध एक अखिल भारतीय समन्वय खड़ा करना चाहते थे। लेकिन विविध राजनीतिक कारणों से यह योजना कार्यान्वित न हो सकी। धीरे-धीरे करके संपूर्ण भारत अंग्रेजों के अधीन हो गया।
लेकिन इस बात को असंदिग्ध रूप में मान्य नहीं किया जा सकता कि भारतीय जाति ने दुर्बलतापूर्वक अपने दुर्भाग्य को स्वीकार कर लिया। नई राह जो जन-मन के संमुख आई, वह थी एक नए युग का शुभागमन। यह कहा जाता है कि राजा राममोहन राय ने स्पष्ट रूप से यह भांप लिया कि इस पतन का कारण पुराने मध्ययुगीन विचार और प्रचलन है। यह भी कहा जाता है कि उन्होंने कहा, आधुनिक ज्ञान का अभाव इस पतन का कारण था। इस कारण उन्होंने आधुनिक ज्ञान के प्रसार के लिए मैकाले का साथ दिया। आश्चर्य है कि बहुत बाद में कार्ल मार्क्स ने फ्रेडरिक एंजिल्स को अपने पत्र में यही मत व्यक्त किया। उसने कहा कि आधुनिक शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ, भारतीय लोग अपनी स्वतंत्रता को फिर से प्राप्त करने में समर्थ होंगे।
लोकतांत्रिक क्रांति का युग
इस प्रकार आधुनिक शिक्षा के प्रसार और देश में चालू किए गए आर्थिक-राजनीतिक परिवर्तन के साथ, एक नया युग, मध्यवर्गीय लोकतांत्रिक क्रांति का युग आया। लेकिन यह प्रयास प्रगति के आधे मार्ग तक ही चला। मध्यवर्गीय लोकतांत्रिक क्रांति का कार्य ब्रिटिश शासकों के द्वारा पूर्ण नहीं किया गया। फिर, एंजिल्स की इस शिकायत थी कि भारत में ब्रिटिश लोग मध्य युग के अवशेषों की पूरी तरह शुद्धि नहीं कर रहे था, मार्क्स ने उत्तर दिया- 'क्या तुमने किसी देश की नीति में संपूर्ण परिवर्तन करते कभी मध्यवर्गीयों को देखा है?' ये कौन यहां यह दिखाने के लिए उद्धृत किए गए हैं कि विदेशी क्रातिकारी भी विदेशी शासन के प्रति भारत की अधीनता की समस्याओं पर विचार कर रहे थे।
अंग्रेजों ने आधुनिक काल की पृष्ठभूमि पर भारत की प्रगति के अनुकूल भारत की राजनीति में परिवर्तन नहीं किया। उन्होंने साम्राज्यवादी शोषण के लिए उसे गुलाम बनाए रखा। भारत की साधन-संपदा का शोषण विदेशी औपनिवेशिक साम्राज्यवाद की प्रमुख आवश्यकता थी। और यह नीति विदेशी शासन के अंतिम दिनों तक चलती रही।
प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम
इस बीच भारत सो नहीं रहा था। क्रांतिकारी प्रक्रिया ने, जो राजा राममोहनराय के द्वारा सामाजिक-धार्मिक स्तर पर प्रारंभ हुई, बाल्यावस्था में प्रवेश किया। जीवन के आधुनिक दृष्टिकोण से युक्त एक नया वर्ग विकसित होने लगा। लेकिन यह वर्ग प्रारंभ में मुख्यत: बंगाल और बंबई तक ही परिसीमित था। एक नई भावना ने धार्मिक और सामाजिक सुधार के स्तर पर काम किया। इसी बीच तथाकथित सिपाही विद्रोह फूट पड़ा। नवीनतम सूचनाओं से हमें ज्ञात होता है कि यह पूरी तरह एकाएक नहीं हो गया। सिपाही असंतुष्ट थे। चर्बी लगी कातूसों की चर्चा शासकों के लिए वास्तविक तथ्यों को छुपाने के बारे में आंख खोल देने वाली बात थी। विविध सामाजिक-आर्थिक कारणों से, जनता ब्रिटिश शासन से असंतुष्ट थी। भारतीय सिपाही जनता के बीच से ही भरती होते थे। जनता, जिन परिस्थितियों में रह रही थी, असंतुष्ट थी। वे विदेशी बंधन तोड़ना चाहते थे। इसी समय पूर्व-शासक-शक्तियां भी अपने प्रति किए जा रहे अंगे्रजों के व्यवहार से असंतुष्ट थीं। इस प्रकार जनता के सभी वर्ग साथ हो गए। हाल के सोवियत-रूसी लेखकों का मत है कि यह एक 'सार्वजनिक सामूहिक उठान' थी। किसान, शिल्पकार, मध्यवर्गीय जन और कुछ उच्चकुल के लोगों तक ने इस सार्वजनीन उठान में भाग लिया। साधारणत: कह दिया जाता है कि यह उठान राष्ट्रीय नहीं था। संसार में कोई भी क्रांति उस अर्थ में राष्ट्रीय नहीं रहा है कि जनता के सभी वर्ग या सभी अंग क्रांति प्रयत्नों में भाग लेते हों। सदैव अल्पसंख्या ने ही काम किया है। ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति का प्रथम युद्ध कहने के लिए हमारे पास पुष्ट प्रमाण हैं।
जातीय महामेला
इस प्रयत्न के दबा दिए जाने के बाद, नवोत्थित मध्यवर्ग ने राष्ट्रीय राजनीति के नेतृत्व को ग्रहण किया। यद्यपि पढ़ा-लिखा वर्ग सुधारों में लगा हुआ था तो भी स्वतंत्रता का आदर्श दृष्टि से ओझल नहीं था। दिनानुदिन भारतीय मध्यवर्ग और शाकवर्ग में तनाव बढ़ता गया। यह तनाव विभिन्न रूप लेने लगा। जातीय महामेला ने, जिसे हिन्दू महामेला भी कहा गया, स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग का प्रचार शुरू किया। यह वार्षिक प्रदर्शनी आयोजित करता, जहां शारीरिक करतब और राष्ट्रीय गीत होते तथा देशी वस्तुओं का प्रदर्शन होता। इसके साथ राजनारायण बोस, बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय और उनके साथियों के पथकों का आगमन हुआ। वे सब स्वदेशी और स्वातंत्र्य के लिए प्रतिज्ञाबद्ध थे। पं. शिवनाथ शास्त्री ने एक पथक का निर्माण किया जिसने प्रतिज्ञा की कि सरकारी नौकरी नहीं करेंगे और मातृभूमि की सेवा में अपने जीवन को लगा देंगे।
छात्र-सम्मेलन
इस समय देश के विभिन्न भागों में शारीरिक विकास के लिए अखाड़े स्थापित हुए। जागेन्द्रनाथ विद्याभूषण ने सुरेन्द्रनाथ बनर्जी और बंकिम पथक के आदेश पर मैजिनी, गैरीबाल्डी, जार्ज वाशिंगटन आदि के जीवनचरित लिखे। उनके प्रभावशाली लेखन ने युवकों के मन को स्फूर्ति दी। तब सुरेन्द्रनाथ बनर्जी और आनंद मोहन बोस ने छात्र सम्मेलन का प्रारंभ किया और युवा भारत को मैजिनी से परिचित कराया। बंगाल के वैष्णव मत और पंजाब के सिख पंथ पर दिए गए अपने भाषणों में उन्होंने प्रदर्शित किया कि उन दिनों ये आंदोलन किस प्रकार क्रांतिकारी थे।
एक क्रांतिकारी कार्यकर्ता के रूप में देश में अपने पथप्रदर्शन के समय मैं उत्तरदायी सदस्यों से मिला, जिन्होंने शपथपूर्वक बताया कि पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर, कोई मार्ग न बचने पर एक सशस्त्र विद्रोह के बारे में कहा करते थे। वे कहा करते थे जंगल में जाओ, और लोगों को युद्ध के लिए प्रशिक्षित करो। उसी प्रकार सुरेन्द्रनाथ ने एक पथक का निर्माण किया। वे विद्यार्थियों को गुप्त संदेशवाहकों के द्वारा परामर्श देते थे कि वे स्वतंत्रता हेतु युद्ध करने के लिए अपने को तैयार करें। यह स्मरणीय है कि अंग्रेजों के द्वारा बंगाल की दीवानी के लिए जाने के बाद संपूर्ण पश्चिम बंगाल में पायकों ने अंग्रेजी कंपनी शासन के विरुद्ध हथियार उठाए थे। उसी प्रकार किसानों ने उत्तर बंगाल में विद्रोह किया।
जब बंगाल में यह सब हो रहा था, अन्य प्रांत सो नहीं रहे थे। हम पंजाब के सिखों का कूका आंदोलन, महाराष्ट्र में फड़के का विद्रोह, तांतिया भाई का रहस्यपूर्ण आंदोलन आदि के बारे में सुनते हैं। अन्यत्र भी घटनाएं हुई, जेसा कि सेवानिवृत्त ओडानेल ने अभिलिखित किया है। पुश्च सिंहभूम जिले में, जो उन दिनों बंगाल का एक भाग था, कोलों ने वीरशाह भगान के नेतृत्व में तीन बार विद्रोह किया। संथालों ने भी बगावत की। तब 1885 में इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना हुई। शिक्षित मध्यवर्ग ने इसमें भाग लिया। शिक्षितवर्ग को एक सार्वजनिक मंच की आवश्यकता थी, जहां से वे अपनी तकलीफों को दूर कर सकें। उनकी दृष्टि इसकी ओर घूमी। इस प्रकार स्वतंत्रता के आंदोलन ने एक नए क्षेत्र-सांविधानिक आंदोलन में प्रवेश किया।
विवेकानंद का आह्वान
लेकिन यह उदारवाद की केंचुल मात्र सिद्ध हुई। बाद में, स्वामी विवेकानंद सामने आए। अमेरिका से वापस आने पर, उन्होंने मद्रास में वक्तृता करते हुए कहा कि स्वर्ग गीता की अपेक्षा फुटबाल के द्वारा अधिक निकट है, हमें दृढ़ मांसपेशियों वाले व्यक्ति चाहिए। फ्रांसीसी विद्वान रोम्या रोलां ने कहा है कि स्वामी विवेकानंद के नवीन-वेदांत ने भारतीय राष्ट्रीयता को नव संजीवन दिया। वास्तव में ऐसा ही हुआ। उनकी मृत्यु के बाद श्री अरविंद कलकत्ता आए और वहां अपने समानचेता लोग, जैसे बैरिस्टर पी.एन. मित्र और जतीन्द्रनाथ बन्द्योपाध्याय तथा विद्यार्थी वर्ग को साथ लिया। इस प्रकार बंगाल क्रांतिकारी दल 1902 ई. में बना।
पूरे देश में क्रांतिकारी पथक
तब विद्यार्थियों में काम शुरू हुआ और बड़े-बड़े लोगों से संपर्क किया गया। आश्चर्य की बात तो यह है कि अपने कार्य के मध्य हमें पूरे देश में हमारे समानचेता पथक कार्यशील मिले, भले ही वह मृतप्राय दशा में रहे हों या शक्ति और बलिदान की स्फूर्ति से युक्त नवनिर्मित पथकों के रूप में। इस प्रकार पूना और बड़ौदा के पथक बंगाल से संबंधित हो गए। बिहार में हमें मंद पड़ गया और बिखरा हुआ पथक मिला जिसके प्रमुख लोगों ने हमारा साथ दिया। उड़ीसा में हमने मलिका संप्रदाय- एक धार्मिक राजनीतिक पथक- कार्यशील पाया। तब हमने पंजाब के सूफी अम्बाप्रसाद के पथक से संबंध स्थापित किया। उसी समय देश के दक्षिणी छोर के चिदम्बरम पिल्लै स्वतंत्रता के कार्य में तारकनाथ दास के द्वारा लाए गए, जो अपनी जापान-यात्रा में उनके साथ-साथ रहे। इसके बाद, कवि सुब्रह्मण्यम भारती ने कविता के माध्यम से स्वतंत्रता के कार्य के हित में गीत लिखे। फिर नागपुर, यवतमाल पथक आता है, जो संभवत: पूना के पथक से संबंधित था। इस प्रकार 1907 में, संपूर्ण भारत संगठनों के एक जाल में आबद्ध हो गया। अनेक उग्रताबादी समाचारपत्र प्रारंभ किए गए और आगे चलकर दंडित भी हुए। 1915 में फिर से संगठन का जाल विस्तृत किया गया। ये सब अब भारत की स्वतंत्रता के इतिहास के अंग बन चुके हैं।यहां मैं यह अवश्य कहूंगा कि रौलट रिपोर्ट में अनेक ण्ूठी बातें कही गई हैं।
राजा महेंद्रप्रताप को गरुड़ की द्वितीय श्रेणी
मैं यह भी कहना चाहता हूं कि राष्ट्रीय क्रांतिकारी आंदोलन केवल भारत की सीमाओं में ही सीमित न था। यूरोप और अमेरिका में प्रवासी छात्रों ने इस ध्येय के लिए कार्य किया। लंदन, पैरिस, कैलिफोर्निया आदि में ऐसे पथक कार्यशील थे। रावलपिंडी के लाला पिंडीदास को जिन पत्रकों पर लंबे समय तक कैद की सजा हुई थी, वे केलिफोर्निया से ही भेजे गए थे, बाद में 1914 में गदर पार्टी केलिफोर्निया में स्िाापित हुई, जिसमें अिाकांश श्रमिक शामिल थे। तब विश्वयुद्ध का समय आया। विदेशों से सहायता के लिए कार्य किया था, अपना मौका देखा। संयुक्त राज्य अमरीका और जर्मनी के क्रांतिकारी छात्रों ने एक ही समय पर जर्मन सरकार से सहायता के लिए बात की और उन्हें अनुकूल उत्तर मिला। इस प्रकार बर्लिन की क्रांतिकारी समिति स्थापित हुई। उसी प्रकार नयी तुर्की सरकार ने उनके प्रस्ताव को अनुकूलता दी। तब समिति ने प्रवासी क्रांतिकारियों में संबंध स्थापित किए और स्वदेश में क्रांतिकारी साथियों के पास समाचार भेजा। फिर 1915 में हाथरस के कुमार महेन्द्र प्रताप यूरोप आए। वह बर्लिन के कार्यकर्ताओं द्वारा आमंत्रित किए गए। वह आए और वह प्रस्तावित हुआ कि काबुल के अमीर के पास एक प्रतिनिधिमंडल भेजा जाय कि वह जर्मनी की सहायता से भारत की स्वतंत्रता के लिए कार्य करें। भारतीय राज्याध्यक्षों से भी कहा गया कि वे स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करें। अफगानिस्तान के अमीर, नेपाल के राजा और भारतीय राज्याध्यक्षों को कैसर के हस्ताक्षर-युक्त पत्र सुरक्षित रूप से पहुंचाने के लिए महेन्द्रप्रताप को सौंपे गए। इसके बाद कैंसर ने उन्हें मुलाकात दी और उन्हें गरुड़ की द्वितीय श्रेणी के अलंकरण से विभूषित किया।
द. पू. एशिया में विस्फोट
तत्पश्चात, राजपूताना में एक पथक विकसित हुआ। उसके भी बाद, द्धितीय महायुद्ध के समय भारतीय स्वातंत्र्य संघ (इंडियन इंडिपेंडेंस लीग) की स्थापना द.पू. एशिया में रासबिहारी के द्वारा हुई। फिर क्रांतिकारियों को श्री पन्नालाल के द्वारा क्रांतिकारी राष्ट्रीय सेना जैसे विद्रोह का संस्पर्श मिला। इस मुलाकात के विषय में ब्रिटिश पार्लियामेंट में प्रश्न उठाया गया था। लंदन टाइम्स में यह छपा था कि लार्ड कर्जन ने, जो उस समय विदेश सचिव थे, कहा था कि बर्लिन के भारतीय अराजकवादियों ने अवध के तालुकदार को कैसर के सामने एक राजा बताया था।
अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर
अफगानिस्तान से महेन्द्रप्रताप जब लौटे तो अमीर का हस्ताक्षरित पत्र साथ लाए। अमीर जर्मन सरकार से मैत्री चाहता था। कैसर ने उन्हें पोट्सडम में दूसरी मुलाकात दी और उन्हें अपना ठोस सोने के फ्रेम से युक्त स्वहस्ताक्षरित चित्र भेंट किया। बर्लिन के कार्यकर्ताओं और उनके क्रियाकलापों पर मनगढ़ंत बातें लादी जाती हैं और महेन्द्रप्रताप के कार्य का महत्व घटाने की कोशिश की जाती है। मनगढ़ंत, बदनाम करने वाले आरोप, विदेशी सरकार और उनके भारतीय पालतुओं-दोनों की ओर से दिए गए कुतर्क, अत्याचार के नए-नए तरीके और तनहाइयां तो उनको बदी ही थी। लेकिन उसका कोई दु:ख नहीं। यह तो सदैव क्रांतिकारियों के भाग्य में है ही।
प्रवासी युवा छात्र क्रांतिकारियों ने विदेशी संबंध स्थापित किए थे। उन्होंने भारतीय राजनीति को अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में ला खड़ा किया। सन-यात्-सेन ने जो उस समय जापान में रह रहे थे, क्रांतिकारियों को मदद की। वियोन ट्राट्स्की ने बर्लिन समिति की स्टाकहोम शाखा की ओर से जब एक तार पाया, तो उन्होंने बंस्ट-लितोव्स्क पर संघवार्ता में भारतीयों के प्रश्न को उठाया और कहा कि इंगलौंड को आवश्यक है कि वह भारत, मिस्र और आयरलैंड को आत्मनिर्णय का अधिकार दे दे। उन्होंने महेन्द्रप्रताप से इस तार की वास्तविकता को स्वीकार किया था, जब वे 1917 में जर्मनी लौट रहे थे।
आजाद हिंद फौज
बर्लिन समिति का उल्लेखनीय कार्य था- भारतीयों और मेसोपोटामिया में भारतीय सेना से बिछुड़े हुए सैनिकों को राष्ट्रीय सेना के रूप में संघटित करना। तत्पश्चात, बर्लिन समिति ने कुत-एल-अमारा में आत्मसमर्पण करने वाले भारतीय सैनिकों को भारत की ओर संचलन करने के लिए संगठित करने का प्रयास किया। जर्मन सरकार ने भारतीयों को शस्त्रों से लैस करने का वायदा किया। तुर्की की सरकार भी इस प्रस्ताव से सहमत हो गई। लेकिन अंत में, यह योजना तुर्क अधिकारियों के रुखे और कठोर व्यवहार के कारण तयाग दी गई और जर्मन सरकार ने अंतत: कह दिया कि यह व्यावहारिक राजनीति की परिसीमा से बाहर की बात है। इस प्रकार आजाद हिन्द फौज की पहली शुरुआत हुई। किस प्रकार इस पहली आजाद हिन्द फौज की असफलता का संशोधन हुआ और वह रासबिहारी और नेताजी के द्वारा सफलता से पुरस्कृत हुई, जबकि राष्ट्रीय सेना के द्वारा भारतीय भूमि पर राष्ट्रीय झंडा लहराया गया, यह सब अब इतिहास की गौरवपूर्ण निधि है।
जर्मनों से मदद लेना भूल नहीं
यहां मैं ट्राट्स्की जैसे विदेशी आलौचकों को एक बात और कह देना चाहता हूं, जिन्होंने अपनी एक किताब में लिखा है कि भारतीय और मिस्री राष्ट्रवादियों ने जर्मन सरकार से सहयोग कर एक भूल की। लेकिन ट्राट्स्की बड़ी आसानी से भूल गए कि लेनिन और उनके समर्थकों ने बोलशेविक क्रांति करने के लिए रूस आने में उसी सरकार की सहायता ली थी। जर्मनी और अन्यत्र के उग्रपंथी समाजवादियों ने भय से हाथ उठा दिए थे कि एशियाई राष्ट्रवादियों ने धुरी शक्तियों के साथ काम किया। लेकिन ब्रिटिश लोग पोलिश और अमेरिकी समितियों को धुरी शक्तियों के खिलाफ प्रचार करने में मदद कर रहे थे। पिल्सुद्स्की को भी, जो बाद में पोलैण्ड का तानाशाह हुआ, मदद की गई और उसके आदमियों को रूसियों से लड़ने के लिए जर्मनी के द्वारा शस्त्र मिले।
यूरोपीय समाजवादियों ने यह नहीं सोचा कि एशियायी लोग राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे हैं। वहां कोई सामाजिक संघर्ष नहीं था, पूंजी और श्रम की लड़ाई नहीं थी। इस बात को मैंने डा. कार्ल लीबनेट, जो जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों से भी कहा था कि चूंकि इंगलैंड हमारा शत्रु है, इंगलैंड का शत्रु हमारा मित्र है। हम राष्ट्रवादी हैं। उन्होंने जवाब दिया, मैं इस बात को समझता हूं। फिर कोई भी ऐसा देश नहीं है, जिसे अपने स्वतंत्रता के संघर्ष में अन्य सरकारों से मदद न मिली हो। जहां तक हिटलर की बात है, उसने क्रांतिकारियों पर हमला किया। वह अंग्रेजों के लिए एक प्रचार सामग्री बन गई। लेकिन उसने अपने संकट के समय भी भारतीय क्रांतिकारियों के साथ हाथ बटाया।
ऐतिहासिक सातत्य के बीच
यह मैंने भारतीय क्रांतिकारियों के कार्यों का संक्षिप्त रेखाचित्र प्रस्तुत किया है। इस कार्य में समुदायों का कोई भेद न था। लेकिन सभी तथ्य जनता को ज्ञात नहीं हैं। स्वतंत्र भारत को अपने सपूतों और सत्यपुत्रियों के कार्यों की जानकारी अवश्य चाहिए। अब स्वतंत्रता के संग्राम के बारे में सभी समाचारों को एकत्र कर एक पुस्तक के रूप में संचित किया जाना चाहिए। वास्तव में व्यक्तिगत हितों के गुटीय स्वार्थों के कारण व्यक्तिगत डींग, बहबूदी और तथ्यों के तोड़मरोड़ की खाइयां हैं। यहां हमें महान बुद्ध के द्वारा सामाजिक पदार्थ की व्याख्या करते हुए दिए गए सूत्र को स्मरण रखना चाहिए- अनित्य नित्यता। जो कुछ अनित्य दिखता है, वह इतिहास में वस्तुत: नित्य है, उसमें सातत्य है। भारतीय स्वातंत्र्य संघर्ष में एक सातत्य है। कभी तो यह हिंसक है, कभी अहिंसक, कभी एक पथक सक्रिय है और फिर बिखर जाता है और वह सूत्र दूसरे पथक द्वार उठा लिया जाता है। लेकिन सभी ने उसी एक उद्देश्य मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए कार्य किया।
अत: हम इस आंदोलन के सभी उपलब्ध तथ्यों का संग्रह करें और उन्हें एक सूत्र में पिरोयें। हमें आशा है कि उदार जनता इस प्रयत्न में सहायक होगी। यह अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि क्रांतिकारी आंदोलन ने स्वतंत्रता के युद्ध में एक श्रेष्ठ उत्तोलक का काम किया है। इसने देश को प्रभावित किया है। हिन्दू और मुस्लिम, सिख और पारसी, पुरुष और स्त्री सभी ने इसके लिए अपने जीवन समर्पित किए हैं। म्ैं उनका स्मरण करता हूं जो मातृभूमि की सेवा में संसार के विभिन्न भागों में दिवंगत हुए, जिनकी अस्थियां मेसोपोटामियां और ईरान की मरुभूमि को उज्ज्वल बना रही हैँ, जिनका दाह-संस्कार हुआ या नहीं हुआ है और जो बेगानी धरती में ही चल बसे हैं।
-डॉ. भूपेन्द्रनाथ दत्त
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