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आवरण कथा/ राजनीति : समाजवाद का सपना बना दु:स्वप्न

by
Aug 8, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 08 Aug 2016 14:48:16

नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री मिल्टन फ्रीडमैन बीसवीं सदी के उन गिने-चुने अर्थशास्त्रियों में से थे जिन्होंने अपने समय के आर्थिक चिंतन को बहुत गहरे तक प्रभावित किया। लेकिन फ्रीडमैन के जीवन का एक और पहलू है कि उनका भारत से गहरा रिश्ता रहा है। भारत जब आजादी के बाद अपनी आर्थिक विकास की राह तय कर रहा था, तब उसने दो जाने-माने अमेरिकी अर्थशास्त्रियों मिल्टन फ्रीडमैन और जे.के. गालब्रेथ को सलाहकार के तौर पर बुलाया था। फ्रीडमैन ने भारत सरकार को एक स्मरणपत्र दिया था  जो भारत  के नियोजित विकास के मॉडल की रचनात्मक और बेबाक आलोचना था। इसके बाद उन्होंने एक और लेख 'इंडियन इकानामिक प्लानिंग' लिखा था। उसमें उन्होंने भारत के आर्थिक विकास की अपार संभावनाओं को ज्यादा पुरजोर तरीके से उजागर किया। उन्होंने भारत की आर्थिक समस्या के  मर्म पर उंगली रख दी। उनके विश्लेषण से भारत की आर्थिक बदहाली के कारणों की शिनाख्त करने के नाम पर पिछले कई दशकों में  जो कई मिथक पैदा किए गए हैं, वे ध्वस्त  हो जाते हैं और असली कारण सामने आ जाता है। वे लिखते हैं- ''भारत की निराशापूर्ण धीमी विकास दर की क्या वजह है? अक्सर इसके जवाब में यह सुनने को मिलता है कि यह भारत की सामाजिक संस्थाओं, भारत के लोगों की प्रकृति और जिस तरह के माहौल में  वे रहते हैं, को प्रतिबिंबित करती है। धार्मिक विधि दृष्टि निषेध, जाति व्यवस्था और नियतिवादी दर्शन ने  उन्हें परंपरा और कठोर रीति-रिवाजों का बंदी बना दिया है। ऐसा कहा जाता है कि लोग उद्यमशीलताविहीन और आलसी हो गए हैं। देश के ज्यादातर हिस्सों में मौजूद गर्म और आर्द्रता वाला वातावरण ऊर्जा को खा जाता है। इन सारे कारकों की  वर्तमान धीमी विकास दर की व्याख्या करते समय कुछ प्रासंगिकता हो सकती है, लेकिन सही जवाब आपको धार्मिक और सामाजिक व्यवहार या लोगों की गुणवत्ता में नहीं मिलेगा वरन् भारत द्वारा अपनाई गई आर्थिक नीति में मिलेगा। भारत के पास आर्थिक विकास के लिए आवश्यक किसी चीज का अभाव नहीं है। अभाव है तो सही आर्थिक नीति का।''
विडंबना यह है कि आजादी के बाद हमने आर्थिक नीतियों के नाम पर वह रास्ता चुना जो विकास विरोधी था। हमें देश  की जरूरतों के मुताबिक विकास का अपना रास्ता चुनना चाहिए था। मगर उन दिनों साम्यवाद और समाजवाद वैचारिक फैशन थे।  रूसी साम्यवाद से प्रभावित पं. नेहरू इस भेड़चाल में शरीक हो गए और उन्होंने  देश के लिए समाजवाद का रास्ता चुना। समाजवाद के बारे में कई बुद्धिजीवियों की राय है कि यह एक अच्छा विचार है मगर काम नहीं करता। समाजवाद के बारे में एक मजाक प्रचलित है कि समाजवादी वह होता है जिसकी जेब में एक पैसा नहीं होता, पर वह उसे सारी दुनिया के साथ बांटना चाहता है। यही बात उसे ले डूबी । उसके पास वितरण के दस तरीके हैं मगर उत्पादन बढ़ाने का तरीका नहीं है।
अचरज नहीं अगर विकास के इस मॉडल ने देश के आम आदमी की उद्यमशीलता पर बंदिशें लगाकर प्रगति के सारे रास्ते बंद कर दिए। देश की उत्पादक शक्तियों को परमिट- कोटा राज की जंजीरों में जकड़ दिया। नेहरू ने 15 अगस्त, 1947 की आधी रात के अंधेरे से सफर शुरू किया और भारत लंबे समय तक अंधकार में भटकता रहा।
नेहरू ने समाजवाद के नाम पर लोकतांत्रिक तरीके से रूसी साम्यवाद को लागू करने की कोशिश की। इसके अन्तर्गत हर काम में सरकारी हस्तक्षेप और अर्थव्यवस्था में सरकारी नियंत्रणों की भरमार थी जिनके अनुसार किसी भी चीज का उत्पादन करने के लिए  सरकार से लाइसेंस लेना पड़ता था। । नतीजा यह हुआ कि विकास के तमाम दावों के बावजूद तथ्य है कि नेहरू के राज में भारत की आर्थिक विकास दर मात्र 2़5 प्रतिशत वार्षिक रही, जो अत्यन्त ही असंतोषजनक और दुर्भाग्यपूर्ण थी। अर्थशास्त्री इसे हिन्दू विकास दर कहकर मजाक उड़ाते थे जबकि इसका हिन्दू शब्द से कोई लेना-देना नहीं था। यह विकास दर नेहरू की समाजवादी नीतियों का नतीजा थी। हकीकत तो यह थी कि तब भारत की छवि ऐसी थी जो मदद का कटोरा लिए दुनिया के अमीर देशों के सामने गुहार लगाता रहता था।     कहने को तो भारत कृषि प्रधान देश है मगर हमें विदेशों से अनाज मंगाना पड़ता था। यह शायद काफी नहीं था इसलिए औद्योगिक क्षेत्र के विकास को अवरुद्ध करने के बाद पं़ नेहरू साम्यवादी देशों के कम्यूनों की तर्ज पर देश में सहकारी खेती कराकर उसका भी बंटाढार करना चाहते थे। वह तो भला हो चौधरी चरण सिंह का, जिन्होंने नेहरू को यह बेवकूफी करने से रोक दिया, वरना देश आज दाने-दाने के लिए मोहताज हो जाता। चौधरी चरण सिंह ने नेहरू की सोवियत-पद्धति पर आधारित आर्थिक सुधारों का विरोध किया, क्योंकि उनका मानना था कि सहकारी-पद्धति की खेती भारत में सफल नहीं हो सकती। एक किसान परिवार से संबंध रखने वाले चरण सिंह का यह मानना था कि किसान का जमीन पर मालिकाना हक होने से ही इस क्षेत्र में प्रगति हो सकती है। तब उन्होंने ''व्हैदर को-ऑपरेटिव फामिंर्ग'' पुस्तक लिखकर उसका विरोध किया था। ऐसा माना जाता है कि नेहरू के सिद्धान्तों के विरोध का असर उनके राजनैतिक करियर पर पड़ा।
हमारे देश में कहावत है-जहां राजा होय व्यापारी वहां प्रजा रहे दुखियारी। मगर पंडित नेहरू समाजवाद के नाम जो पूंजीवाद लाए उसमें निजी उद्योग-धंधों को लेकर हिकारत का भाव था।
आजादी मिलने के बाद देशी उद्योगों के लिए नया युग आएगा, ऐसा सोचने वाले उद्योगपतियों में कस्तूरभाई लालभाई भी थे। कपड़ा उद्योग में तो उनका पहले से ही नाम था। आजादी के बाद उन्होंने सोचा कि उद्योगों के नए क्षेत्रों में जौहर दिखाया जाए। उन्होंने 5 सितंबर, 1947 को सिंथेटिक डाई और रंगों का कारखाना रजिस्टर कराया। 1952 में कारखाना बन गया तो उन्होंने नेहरू को उसके  उद्घाटन के लिए बुलाया। मगर कुछ हफ्ते पहले नेहरूजी ने नियोजन में समाजवादी रास्ता अपनाने का वादा किया था, ऐसे में वे किसी पूंजीपति के कारखाने का उद्घाटन कैसे कर सकते थे। इसलिए उन्होंने इनकार कर दिया । कुछ हफ्ते बाद उन्हें याद आया कि कांग्रेस ने तो तीसरा रास्ता चुना है, लिहाजा उन्होंने अपना इरादा बदला पर वहां जाकर जो  भाषण दिया, उससे लगता था कि वे निजी पूंजी से खुलने वाले इस कारखाने को लेकर बहुत बचाव की मुद्रा में थे। यही हमारी अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी त्रासदी थी इसलिए हमारे देश में कभी औद्योगिक क्रांति नहीं हो पाई। सरकार के पास इतनी पूंजी और संसाधन नहीं थे कि वह औद्योगिक क्रांति ला पाती।
दूसरी तरफ हमने निजी क्षेत्र को नियंत्रण मुक्त करके अपने जौहर दिखाने का अवसर नहीं दिया। हुआ यह कि दुनिया कृषि युग से औद्योगिक युग में और फिर सेवा युग में पहुंची। लेकिन हमारे मामले में बीच की कड़ी कमजोर रही। हमारे देश में  सकल घरेलू उत्पाद में कृषि और सेवा क्षेत्र का औद्योगिक क्षेत्र की तुलना में योगदान कहीं ज्यादा है। औद्योगिक क्षेत्र में हमारी ताकत उच्च तकनीक और उच्च कौशल वाला उत्पादन है। श्रम प्रधान उद्योंगों की तो हमने उपेक्षा ही की। दरअसल आजादी के बाद अपने उद्योंगों का विविधीकरण करने वाले कस्तूरभाई लालभाई कभी बहुत ज्यादा तरक्की नहीं कर  पाए क्योंकि नेहरू की उद्योग विरोधी नीतियों के कारण  बाद में कर 97 प्रतिशत हो गए थे और उनका घराना एकाधिकारी माना जाता था इसलिए उसे लाइसेंस नहीं मिले। बाद में कपड़ा उद्योग का ही हृास होने लगा। कभी लगता है, यदि आजादी के बाद ऐसी नीतियां बनतीं जो हजारों कस्तूर भाइयों को हतोत्साहित करने के बजाय उन्हें फलने-फूलने का मौका देतीं तो देश की आर्थिक तस्वीर कुछ और ही होती।

उन दिनों लाइसेंस-कोटा राज को भेदकर मुनाफा कमाना तब बड़ा रोमांचक काम हुआ करता था। उस जमाने में ज्वाइंट चीफ कंट्रोलर ऑफ इंपोर्ट एंड एक्सपोर्ट, डायरेक्टर जनरल ऑफ जनरल ऑफ ट्रैड एंड डेवेलपमेंट, कंट्रोलर ऑफ कैपीटल ईश्यूज से उद्योगों का अकसर वास्ता पड़ता था। इन दफ्तरों का काम था कारोबार को हर कदम पर नियंत्रित करना। इनके सभी वरिष्ठ कर्मचारियों का सारा समय यह बता करने में ही निकल जाता था कि विभिन्न उत्पाद कब प्रतिबंधित श्रेणी से खुले जनरल लाइसेंस में आते हैं और कब प्रतिबंधित श्रेणी में। फिर मोनोपाली एंड रेस्ट्रिक्टिव ट्रैड प्रैक्टिसिस कमीशन हुआ करता था जो हर मध्यम दर्जे की कंपनी पर निगाह रखता था और यह सुनिश्चित करता था कि कोई भारतीय कंपनी तरक्की न कर ले। उस जमाने में सबसे फायदेमंद धंधा था कि सोवियत संघ का रुपया-रूबल व्यापार के तहत घोस्ट निर्यातक बन जाना। सोवियत संघ को बासमती चावल निर्यात करने  का लाइसेंस मिल जाता था तो समझ लीजिए कि पैसे छापने की मशीन हाथ लग गई हो। लेकिन इसके लिए जरूरी था कि दिल्ली के नेताओं के साथ आपके मधुर संबंध हों।
नेहरू द्वारा दिखाया गया आर्थिक रास्ता हमें एक अंधे मोड़ की ओर ले गया और उद्योगपतियों और व्यापारियों के सारे सपने हवा हो गए। हकीकत तो यह थी कि हम राज्यवाद को ले आए थे जिसमें नौकरशाही के नियंत्रण का घना जंगल था। यह कहानी उस विश्वासघात की है जो भारतीय शासकों ने पिछली दो पीढि़यों के साथ किया। वे हठपूर्वक विकास के गलत ढांचे के साथ डटे रहे और उन्होंने लोगों के विकास और नौकरी के अवसरों को दबा दिया तथा उन्हें गरीबी से उबरने के अवसरों से वंचित रखा। दूसरी विडम्बना यह कि गरीबों के नाम पर इन सत्ताधारियों ने अपना रास्ता बदलने से इनकार किया। भारतीय समाजवाद की सबसे बुरी बात यह रही कि इसने गरीबों के लिए बहुत कम काम किया जबकि पूर्वी एशिया के बाकी देशों ने इससे कहीं बेहतर काम किया। कई लोग कहते हैं कि नेहरू की आर्थिक नीतियां1950-60 के दशक की परिस्थितियों के अनुरूप थीं। परन्तु यह सच नहीं है। उनकी नीतियां जितनी असंगत आज हैं, उतनी ही उस समय भी थीं।
भारत की आजादी के आसपास कई देश स्वतंत्र हुए थे। उनमें से जो नियंत्रणमुक्त अर्थव्यवस्था के रास्ते पर चले, वे कहां के कहां पहुंच गये। जापान, इस्रायल, मलेशिया, इंडोनेशिया जैसे देश शून्य से उठकर खड़े हो गये और दौड़ में हमसे बहुत आगे निकल गये। लेकिन नेहरू सरकार ने तय किया था कि हम नहीं सुधरेंगे। नेहरू सत्रह साल प्रधानमंत्री रहे मगर देश की अर्थव्यवस्था की खस्ता हालत देखकर भी उन्हें कभी नहीं लगा कि उन्होंने गलत रास्ता चुन लिया है।
नेहरू के राज में जो आर्थिक संकट पैदा हुआ था वह श्रीमती इंदिरा गांधी के शासनकाल में और ज्यादा गहरा गया था क्योंकि उनके नेतृत्व में सरकार की नीतियां ज्यादा समाजवादी बनने के कारण ज्यादा विकास विरोधी हो गई थीं। इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया था मगर उन्हें गरीबी हटाने का क ख ग तक पता नहीं था। गरीबी हटाने के नाम पर उन्होंने कभी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया, कभी अनाज के थोक व्यापार का राष्ट्रीयकरण किया। इनसे गरीबी न हटनी थी, न हटी। लेकिन ऐसे में धीरूबाई अंबानी ने सरकार के लाइसेंस-कोटा राज को भेदकर अपनी जगह बनाई। अंबानी भले ही लाइसेंस-कोटा राज को भेदने में कायमयाब हुए, लेकिन सैकड़ों धीरूभाई ऐसा नहीं कर पाए।
नेहरू का जोर भारी उद्योगों और बड़े बांधों पर था, जिनसे उत्पादन भले ही अधिक होता है, लेकिन रोजगार कम लोगों को ही मिल पाता है। नतीजतन भारी बेरोजगारी और भयंकर गरीबी देश के लिए अभिशाप बन गई। इसके अलावा जरूरी था कि बड़े पैमाने पर रोजगार देने के लिए श्रमप्रधान उद्योगों का जाल बिछाया जाता। लेकिन हमने श्रमप्रधान उद्योगों पर ध्यान ही नहीं दिया। भारत श्रमोन्मुख मैन्युफैक्चिरिंग के क्षेत्र में मार खा रहा था। हमारे उद्योग जगत के कर्णधार अपने ढर्रे को बदलना नहीं चाहते थे। वे सिर्फ वही करते रहना चाहते थे जो वे करते रहे हैं यानी उच्च पूंजी वाले उद्योग, जैसे ऑटोमोबाइल, आटो पार्ट्स, मोटर साइकल, इंजीनियरिंग गुड्स, केमिकल्स या कुशल श्रम उन्मुख सामान जैसे कि साफ्टवेयर, टेली कम्युनिकेशन, फार्मास्यूटिकल आदि। लेकिन देश में जो विशाल अकुशल श्रमशक्ति है उसका उपयोग करने वाले उद्योगों को चलाने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। यही कारण है कि भारत चीन के साथ गणेश या लक्ष्मी की मूर्ति बनाने या राखी बनाने के मामले में प्रतिस्पर्धा नहीं कर पा रहा था। लेकिन यदि भारतीय उद्योगपति श्रमोन्मुख उद्योगों में दिलचस्पी नहीं ले रहे थे तो इसके बीज इतिहास में हैं। ये देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के शासन की नीतियों में छुपे हुए हैं। उनके कारण भारत इस मोर्चे पर चीन से प्रतिस्पर्धा नहीं कर पा रहा। दरअसल आजाद भारत का इतिहास बडे़ और पूंजी पर आधारित उद्योगों के वर्चस्व और श्रम पर आधारित उद्योगों की घोर उपेक्षा का
इतिहास है।
बात तब की है जब देश आजाद हुआ था और सोवियत संघ के समाजवादी विकास मॉडल से प्रभावित  पंडित नेहरू  पंचवर्षीय योजनाओं के जरिये देश का नियोजित विकास करना चाहते थे। वे कोलकाता के एक सांख्यिकी विशेषज्ञ से भी बहुत प्रभावित थे जिनका नाम था प्रशांत चंद्र महालनोबीस। नतीजतन उन्होंने महालनोबीस को भारत सरकार का मानद सांख्यिकी सलाहकार बना लिया। नेहरू पर महालनोबीस का प्रभाव निरंतर बढ़ता गया। नेहरू ने उनसे दूसरी पंचवर्षीय योजना का मसौदा  तैयार कराया जिसमें उन्होंने अपने और नेहरू के निवेश के बारे में समाजवादी नजरिये को यानी निजी क्षेत्र की कीमत पर विशाल सरकारी क्षेत्र के निर्माण पर बल दिया। इस कारण छोटे और उपभोक्ता सामानों के उद्योगों की कीमत पर भारी उद्योग लगाने का प्रचलन हो गया। तब जाने-माने अर्थशास्त्री सी.एन. वकील और ब्रह्माानंद ने उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन को प्रोत्साहन देने वाला वैकल्पिक मॉडल पेश किया था लेकिन वह न तो भड़कीला था, न ही महालनोबीस मॉडल की तरह तकनीकोन्मुख था, पर वह भारत जैसे विकासशील देश के लिए ज्यादा अनुकूल था। इसके पीछे सोच यह थी कि हमारे  देश में पूंजी की कमी है मगर  विशाल जनबल होने के कारण उनसे कम पूंजी लगाकर उत्पादक काम कराया जा सकता है। लेकिन नेहरू और अन्य नेताओं को औद्योगिक विकास का यह रास्ता आकर्षक नहीं लगा। उन्हें महालनोबीस का औद्योगिक भारत का सपना ज्यादा रास आया।
लेकिन ये सारे अधिकार पाकर सरकार तो माई-बाप सरकार हो गई थी जो लाइसेंस कोटा आदि महत्वपूर्ण चीजें बांटने लगी और पूंजीपतियों का लाइसेंस लेने के लिए नेताओं के साथ जुड़ना जरूरी हो गया। भारत सरकार का झुकाव बड़े उद्योगों की स्थापना की तरफ था। लेकिन सरकार खुद जो उद्योग नहीं लगाना चाहती थी उसका लाइसेंस वह निजि क्षेत्र को दे देती थी मगर उसके लिए जरूरी था कि आप सरकार के नेताओं के नजदीक हों। लेकिन इस सबका नतीजा यह हुआ कि सरकारी और निजि क्षेत्र दोनों में बड़ी पूंजी वाले उद्योगों का लगना जारी रहा। इसका नतीजा यह हुआ कि श्रमप्रधान उद्योगों की उपेक्षा हुई। निजि क्षेत्र में 10 या उससे कम मजदूरों वाले उद्योगों की संख्या में बहुत धीमी रफ्तार से इजाफा हुआ।
भारत के मौजूदा विकास की सबसे बड़ी खामी ही यही है कि विकास की उच्च दर हासिल करने के बावजूद यहां श्रमोन्मुख औद्योगिक क्रांति नहीं आई। यदि ऐसा होता तो इसका लाभ उन लोगों को मिलता जो ग्रामीण क्षेत्र में अब भी गरीबी के दलदल में फंसे हुए हैं। यदि हम अपने घरेलू बाजार में और विश्व बाजार में चीन के साथ प्रतिस्पर्धा करना चाहते हैं तो हमें चीन की इस क्षेत्र में सफलता का राज समझना पडे़गा। राज यह है कि चीन ने श्रम प्रधान उद्योगों को बडे़ पैमाने पर स्थापित किया। इसका लाभ यह हुआ ये उद्योग अनुसंधान के जरिये अपने उत्पादों की गुणवत्ता को बढ़ा सके, नए-नए और खूबसूरत  डिजाइन ला सके और आक्रामक मार्केटिंग रणनीति अपना कर अपने उत्पादों को दुनियाभर में बेच सके। चीन से मुकाबला करने के लिए हमारी सरकार को ऐसा माहौल पैदा करना पड़ेगा जिसमें हमारे उद्योगपतियों और विदेशी निवेशकर्ताओं को श्रमोन्मुख उत्पादों के लिए बड़े स्तर की फमेंर् स्थापित करना आकर्षक लगे, इस ओर काम हुआ है जिसके परिणाम भी अच्छे आए हैं।
दरअसल भारत सरकार की इन विकास विरोधी नीतियों के कारण लोगों में यह धारणा बन गई थी कि भारत एक गरीब देश है और हमेशा गरीब ही रहेगा। सभी जानते थे कि समाजवाद देश को कंगाल बना रहा है मगर नेहरू ही क्यों हमारे देश के ज्यादातर नेताओं को समाजवाद में घोर अंधविश्वास था। उन्हें कभी नहीं लगा कि केवल आम लोगों की उद्यमशीलता ही देश को आर्थिक संकट से उबारकर उसे समृद्घ बना सकती है। जरूरत है सिर्फ सही आर्थिक नीतियों की। आज बदलाव आता दिख रहा है। आम जन के सामर्थ्य को सम्मान देते हुए नीतियां निर्धारित की जा रही हैं।     

– सतीश पेडणेकर

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
 

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