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पाञ्चजन्य ने सन् 1968 में क्रांतिकारियों पर केन्द्रित चार विशेषांकों की शंृखला प्रकाशित की थी। दिवंगत श्री वचनेश त्रिपाठी के संपादन में निकले इन अंकों में देशभर के क्रांतिकारियों की शौर्यगाथाएं थीं। पाञ्चजन्य पाठकों के लिए इन क्रांतिकारियों की शौर्यगाथाओं को नियमित रूप से प्रकाशित करेगा ताकि लोग इनके बारे में जान सकें। प्रस्तुत है 29 अप्रैल ,1968 के अंक में प्रकाशित क्रांतिकारी रहे श्री भूपेन्द्रनाथ सान्याल का आलेख:-
ल्ल भूपेन्द्रनाथ सान्याल
ककोरी षड्यंत्र मामले में सजा भुगतने के बाद तुरंत ही मैं कराची के लिए रवाना हो गया। कराची में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन होने वाला था। हवा में एक सरगरमी थी, सनसनी थी। कांग्रेस कार्यकारिणी द्वारा गांधी-इरविन समझौते की पुष्टि हो चुकी थी परंतु साधारण अधिवेशन द्वारा उसकी पुष्टि होनी बाकी थी। नौजवान नेता स्वयं उसके विरुद्ध थे। क्रांतिकारी दल अत्यंत रुष्ट था, क्योंकि सरदार भगतसिंह तथा उनके दो साथियों को फांसी का हुक्म सुनाया जा चुका था। गांधीजी ने उन नौजवानों की फांसी की सजा रद्द करने की अपील लॉर्ड इरविन से की थी। बड़े लाट एक हद तक इसके लिए राजी भी हो गए थे परंतु पंजाब सरकार की सहमति के बिना वह कोई आश्वासन देने को तैयार न थे।
गांधीजी की क्रूर अहिंसा
पंजाब सरकार के असहमत होने पर लार्ड इरविन ने गांधीजी को यह सहूलियत देनी चाही कि रांची कांग्रेस के बाद ही उन क्रातिकारियों को फांसी दी जाए। गांधीजी ने इसे अस्वीकार किया और कहा कि सारी परिस्थितियों को सामने रखकर ही कांग्रेस को गांधी-इरविन समझौते पर अपनी राय देनी चाहिए। इसलिए फांसी यदि देनी ही है तो कांग्रेस के अधिवेशन के पहले ही उन्हें फांसी दी जाए। तदनुसार, अधिवेशन के पहले ही सरदार भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी पर लटकाने का निश्चय हो चुका था परंतु वार्ता की गोपनीयता के कारण जनसाधारण को इसकी कोई जानकारी नहीं थी। कराची जाते हुए मैं एक दिन के लिए लाहौर में ठहर गया था।
जिस समय मैं लाहौर शहर में प्रवेश कर रहा था, उस समय मुझे भी इसका कोई ज्ञान नहीं था कि उसी रात को सरदार भगतसिंह को फांसी दी जाने वाली थी। परंतु नगर का रूप एक बेचैनी पैदा करने वाला था। हर चौराहे पर एक मशीनगन खड़ी थी और चार-छह पुलिस वाले रिवाल्वर लिए हुए उसके ईद-गिर्द खड़े थे। शहर में एक निस्तब्धता छाई हुई थी।
पचास हजार की वह सभा
हम अपने मेहरबान साथी, उत्तर प्रदेश के वर्तमान मंत्री श्री मोहनलाल गौतम के साथ सर्वेन्ट्स ऑफ इंडिया के प्रधान कार्यालय में ठहर गये। उससे थोड़ी ही दूरी पर डीएवी कॉलेज के पास सहकारी पुलिस सुपरिन्टेंडेन्ट सांडर्स की हत्या की गई थी। उस स्थान को मैंने देखा, लेकिन मुझे इसका तनिक भी पता नहीं था कि उस हत्या का बदला उसी दिन शाम को चुकाया जाने वाला था। उसी दिन शाम को, फांसी के हुक्म के विरोध के लिए, स्थानीय नौजवान भारतसभा ने एक आम सभा बुलाई थी। सरदार भगतसिंह स्वयं इस सभा के संस्थापक थे। यह कोई बड़ा संगठन नहीं था, परंतु असेम्बली बम मुकदमे के कारण सरदार की ख्याति इतनी फैल गई थी कि उस संगठन के आह्वान पर हजारों की भीड़ इकट्ठी हो गई। कोई पचास हजार लोग उस सभा में शामिल हुए होंगे। मैं हजारों सभाएं देख चुका हूं लेकिन उस उत्तेजित भीड़ की कोई तुलना मुझे ढूंढे नहीं मिलती। भाव-प्रवण उद्वेलित हृदय युवक वक्ता भाषण दे रहे थे और जनता रह-रह कर अधीर हो उठती थी। इन्कलाब जिन्दाबाद के उन्मत्त निनाद से आकाश और वायु भी क्षुब्ध हो उठे थे। काश कि उन्हें यह पता होता कि उसी समय उनके दिल के टुकड़े भगतसिंह को फांसी दी जा रही थी। नौजवान नेता यह प्रस्ताव कर रहे थे कि गांधी-इरविन समझौते से भगतसिंह की फांसी की सजा रद्द न हो सके तो कांग्रेस कार्यकारिणी के पंजाब के सदस्य सरदार शार्दूल सिंह कवीश्वर और डॉक्टर सैफउद्दीन किचलू पदत्याग कर दें।
भगतसिंह के पिता का असीम धैर्य
ठीक उसी समय कोई बाहर से आया और सरदार भगतसिंह के पिता सरदार किशन सिंह को थोड़ी दूर पर अलग ले गया। दो-एक मिनट कुछ बातचीत हुई और सरदार जी तुरंत सभास्थल छोड़कर चले गए। यदि उस बातचीत का तनिक भी संकेत सरदार किशनसिंह ने सभा को दिया होता तो नि:संदेह उस शाम को लाहौर में एक कत्लेआम हो जाता, जिसके आगे जलियांवाला बाग भी म्लान हो जाता। जो आदमी सरदार किशन सिंह के पास आया था, वह भगतसिंह की फांसी की ही खबर लेकर आया था। लक्ष्मी बीमा कंपनी के मैनेजर श्री सन्तानम ने यह संदेश पहुंचाया। मैं ठीक नहीं कह सकता कि वित्तीय आयोग के वर्तमान अध्यक्ष श्री सन्तानम वही सज्जन हैं या नहीं। लाहौर सेंट्रल जेल के पास ही उनका मकान था। उन्हें उसी शाम को जेल से इन्कलाब जिन्दाबाद के उत्तेजित नारे सुनाई दिये। उनहें संदेह हुआ कि भगतसिंह को फांसी दी जा रही थी।
लाशें भी न मिल सकीं
रात के दो या तीन बजे थे कि इन्कलाब के नारों से मेरी नींद खुल गई। बाहर निकलकर देखा तो यात्रियों का एक तांता लगा हुआ था। भीड़ जेल की ओर जा रही थी। लेकिन जेल पर उन्हें भगतसिंह तथा उनके दो साथियों की लाशें नहीं मिलीं। फांसी शाम को लगाई गई, जो एक अनोखी बात थी क्योंकि फांसी सवेरे ही दी जाती है। सरदार भगतसिंह के लिए ब्रिटिश सरकार ने नियम का व्यतिक्रम किया। परंतु व्यतिक्रम नियम का ही नहीं किया गया, सभ्यता को भी तिलांजलि दी गई। फांसी के बाद लाशों के टुकड़े जेल की नाली से बाहर बहा दिए गए और वे टुकड़े अधजली हालत में रावी नदी में बहा दिए गए। लेकिन शायद उस बर्बरता के कारण ही हजारों की जानें बच गईं। लाशों के साथ जुलूस की क्या हालत होती इसकी कल्पना करना भी कठिन है।
कांग्रेस का कराची अधिवेशन
दूसरे दिन मैं कराची के लिए रवाना हो गया। उसी गाड़ी से गांधीजी भी जा रहे थे। गांधीजी के सहयात्री होने का सौभाग्य तो मुझे प्राप्त हुआ परंतु विडम्बना भी कम नहीं थी। सारे रास्ते पर भोजन की कोई सामग्री नहीं मिल सकी। खोंचे वाले सब गांधी जी के डिब्बे की ओर दौड़ पड़ते थे, दुकानदारी की उनकी कोई लालसा ही नहीं थी। देश के सबसे बड़े राष्ट्रीय संगठन की कार्रवाइयों को देखना ही मेरी कराची यात्रा का मुख्य उद्देश्य नहीं था। यद्यपि कांग्रेस के अधिवेशन में शामिल होने का यह मेरा दूसरा मौका था, परंतु कार्रवाई देखने का मेरे लिए यह पहला ही मौका था। प्रसंग कुछ भिन्न है, परंतु पहली बार की यात्रा के विवरण देने के लोभ को भी मैं संभाल नहीं पाता। उस बार मैं गया था, एक किराये के टट्टू की तरह। असेम्बलियों के चुनाव में कांग्रेस भाग ले या अपनी असहयोग की नीति पर कायम रहे, इस प्रश्न का निर्णय करने के लिए 1923 में कांग्रेस का एक विशेष अधिवेशन दिल्ली में बुलाया गया था। मैं कॉलेज का एक विद्यार्थी था परंतु इस प्रश्न में मुझे तनिक भी दिलचस्पी नहीं थी। हां, दिल्ली देखने का शौक जरूर था और मुझे यह मौका भी हाथ लग गया। नो चेंजरों को परास्त करने के लिए श्री चितरंजन जोरदार तैयारी कर रहे थे। अपने सभी प्रतिनिधियों को उन्हें दिल्ली हाजिर करना था। जो नहीं जा सकते थे, उनकी जगह जाने के लिए जाली प्रतिनिधि बनाये गये।
नौजवान भारतसभा
अपने तीन मित्रों के साथ मैं भी उसी वर्ग में शामिल होकर दिल्ली पहुंचा। उन्हीं तीन मित्रों में से एक, काकोरी षड्यंत्र के मामले में, मेरे विरुद्ध सरकारी गवाह के रूप में खड़े हुए। खैर, कराची पहुंचकर मैंने क्रांतिकारी मित्रों की तलाश शुरू कर दी। लाहौर षड्यंत्र मामले से रिहा हुए, श्री अजय घोष से भेंट हुई। दिल्ली षड्यंत्र मामले के फरार शर्मा जी से भी मैं मिला। परंतु चंद्रशेखर आजाद की मृत्यु के बाद उत्तर प्रदेश का क्रांतिकारी दल बिलकुल छिन्न-भिन्न हो गया था। मुझे लगा कि नौजवान भारतसभा को ही केन्द्रित कर पुन: क्रातिकारी दल को संगठित करना चाहिए। इसलिए नौजवान भारत सभा से ही संबंध जोड़ने में मैं व्यस्त हो गया।
कांग्रेस पंडाल से ही दूरी पर नौजवान भारतसभा का भी पंडाल लगा हुआ था। नेताजी सुभाषचंद्र बोस की अध्यक्षता में सभा की कार्यवाही शुरू हुई। पंडित मदनमोहन मालवीय प्रथम वक्ता थे। परंतु उन्होंने अपना भाषण देना आरंभ ही किया था कि विकट शोरगुल में उनकी आवाज डूब गई। पिछले दिन ही कांग्रेस के खुले अधिवेशन में वह भगतसिंह की हत्या पर एक आवेगमय भाषण दे चुके थे और अब उनका इस प्रकार विरोध किया जा रहा था, यह बात बिलकुल ही मेरी समझ में नहीं आई।
कम्युनिस्टों की हरकत
कारण का पता मुझे बाद को चला जब मैं जहाज पर कराची से बम्बई जा रहा था। खैर। उस समय तो मंच पर बैठे हुए कुछ नौजवानों से मेरी बहस हो गई कि आखिर भाषण की स्वतंत्रता किसी को क्यों नहीं दी जाती। मैंने कहा कि मालवीय जी को बोल लेने दीजिए, फिर विरोध में आप जो कुछ कहना चाहें, कहिए। लेकिन, जैसे कि जहाज पर अपने जेल के दो-एक साथियों से मालूम हुआ, कम्युनिस्ट पार्टी नौजवान भारतसभा पर अपना कब्जा जमाने की फिक्र में थी। लेकिन कम से कम उस जमाने के, कम्युनिस्टों को भाषण-स्वतंत्रता की कोई परवाह नहीं थी। भाषण-स्वतंत्रता वे केवल अपने लिए ही चाहते थे। सभा भंग करना उनकी आदतों में से एक था। नौजवान भारतसभा के कराची अधिवेशन को ही उन्होंने भंग कर दिया।
मालवीय जी के विरोध का उनका कारण यह था कि वह बम्बई में, अधिवेशन के कुछ दिनों पहले, मजदूर हड़ताल के विरुद्ध कुछ कह चुके थे। सुभाष बाबू ने सभा स्थगित कर दी और हम सब ने मिलकर मालवीय जी को उनकी कार तक पहुंचा दिया। यहां मैं यह भी कह देना चाहता हूं कि मालवीय जी से मेरा एक व्यक्तिगत संबंध स्थापित हो चुका था। मेरे अग्रज और उत्तर प्रदेश में क्रांतिकारी आंदोलन के जन्मदाता श्री शचीन्द्र सान्याल और मैं नैनी जेल में बारिक नंबर चार में बंद थे, जब कि सविनय अवज्ञा आंदोलन के सिलसिले में मालवीय जी भी उसी जेल में पहुंचे।
इसी बारिक के अंदर ही उनके निवास के लिए एक पृथक इमारत बनाई गई। उसी इमारत में मालवीय जी की सेवा सुश्रूषा का सुअवसर मुझे प्राप्त हुआ। भाई साहब से अकसर उनकी बातचीत हुआ करती थी। इस बातचीत में क्रांतिकारी आंदोलन के प्रति उनकी सहानुभूति स्पष्ट झलक उठती थी, परंतु उन्होंने यह विचार प्रगट किया कि आगा-पीछा सोचे बिना ही क्रांतिकारी जैसे कदम उठा सकता है, कोई सार्वजनिक नेता वह रवैया अख्तियार नहीं
कर सकता।
उनकी वास्तविक इच्छा का पता मुझे बाद में मिला। वह प्रयाग में कल्पवास कर रहे थे। मैं उनसे अकेले मिलने गया। उन्होंने मुझसे स्पष्ट कहा कि वह यह चाहते थे कि क्रांतिकारी आंदोलन और बल पकड़े। परंतु यह भी साथ ही कहा-मैं स्वयं जिस आंदोलन में भाग नहीं ले सकता, उसके संबंध में कोई निर्देश देना मैं अपने अधिकार के बाहर समझता हूं कि क्रांतिकारी आंदोलन की प्रयोजनीयता के संबंध में श्री रवीन्द्रनाथ इाकुर भी मुझसे सहमत हैं। रवीन्द्रनाथ का भी यह अभिमत है कि अंग्रेज अहिंसा के दर्शन से प्रभावित नहीं हो सकते। मैंने उनसे यह कहा कि, ठीक है, आंदोलन हम स्वयं चलाएंगे, आपके उसमें भाग लेने की कोई आवश्यकता नहीं है, परंतु इतना अवश्य कीजिए कि हमारे आंदोलन के लिए एक उपयुक्त वातावरण बना रहे।
कानपुर की वह रात
मालवीय जी ने ऐसा ही किया और स्वयं गांधीजी ने यह कहा कि जब पंडित मालवीय भी सत्याग्रह जारी रखने के पक्ष में हैं तो आंदोलन अवश्य ही जारी रखना चाहिए। मालवीय जी के अभिमत के पीछे कारण क्या था, यह रहस्य आज मैं खोल रहा हूं। बहरहाल, जैसा कि मैं कह चुका हूं, कराची से मैं बम्बई के लिए रवाना हुआ, और बम्बई से मैं गया कानपुर को, उत्तर प्रदेश यूनियन लीग के एक युवक नेता श्री प्रकाशंद्र सक्सेना से मिलने को। मैं कानपुर उससे पहले कभी गया न था। मकान का पता तो मुझे मालूम था लेकिन रास्ता मालूम न था। मैं जब कानपुर पहुंचा तो रात हो आई थी। एक इक्के पर सवार हुआ। इक्केवान मुझे एक घनी मुसलमान बस्ती के अंदर से ले जा रहा था। रास्ते में मुझे एक अजीब बेचैनी सी मालूम होने लगी। गली के दोनों ओर से लोग मुझे घूर-घूर कर ताक रहे थे। थोड़ी देर बाद इक्के वाला, इक्का गली में छोड़ कर किसी मकान में घुस गया। मैं अकेला इक्के पर सवार था और अब, न जाने क्यों मुझे कुछ भय सा होने लगा। लेकिन इतने में ही पुलिस का एक गश्ती दल उस गली से गुजरा और इक्के वाला झट अपने इक्के पर सवार हो गया और गाड़ी आगे बढ़ा दी। बड़े भाग्य की बात थी कि मैं अक्षत देह अपने मित्र के घर पहुंच गया। कानपुर में उसी समय एक भीषण साम्प्रदायिक दंगा हो गया था। पूज्य गणेशशंकर विद्यार्थी का उसी दंगे में बलिदान हो चुका था। हिन्दू और मुसलमान अपने-अपने सम्प्रदाय की बस्तियों में शरणार्थी थे। खैर सौभाग्य से मैं एक ठिकाने पर पहुंच चुका था। दूसरे ही दिन सबेरे लाहौर षड्यंत्र मामले के फरार श्री यशपाल से मेरे मिलने का प्रबंध किया गया। वह सामने ही एक मकान में ठहरे हुए थे। वह रात बीतने के पहले ही चल चुके थे। मैं पड़ोस के मकान में उनका इंतजार कर रहा था। मेरा बक्सा उसी मकान में था। थोड़ी ही देर बाद उस मकान में पुलिस का दौड़ आयी। मैं सामने के मकान से देखता रहा। फिर एक लड़के ने मुझे खबर दी कि पुलिस मेरा बक्सा भी उठा ले जा रही है।
पुलिस के शिकंजे से छूटे
कोतवाली पर पुलिस वालों की आपसी बातचीत से पता चला कि यशपाल जी जब अपने निवास-स्थान को लौट रहे थे तो खुफिया पुलिस से उनकी मुठभेड़ हो गई और एक पुलिस वाला जख्मी होकर अस्पताल में पड़ा था। उनकी बातचीत से मुझे यह भी मालूम हुआ कि जो पुलिस वाला जख्मी हुआ था उसके पास रिवाल्वर तो थी परंतु वह रिवाल्वर चलाना ही नहीं जानता था। मैं जेल पहुंच गया। एक अनिश्चित भाग्य मेरे सामने था, एक लंबी मियाद की सजा मेरी आंखों के सामने नाच रही थी। परंतु शिनाख्त की कार्यवाही में ईमानदारी बरती गई थी। मुझे किसी ने शिनाख्त नहीं किया, फिर भी जमानत पर ही छोड़ा गया। कराची में ही मैंने नौजवान भारतसभा में शामिल होकर काम करने का निश्चय कर लिया था। परंतु नौजवान भारतसभा के कराची अधिवेशन में कम्युनिस्टों का रवैया देखते हुए कम्युनिस्टों से सावधान रहने की आवश्यकता भी मुझे प्रतीत हुई। प्रयाग पहुंचकर सुभाष बाबू के निजी सेक्रेटरी से उनका एक पत्र मुझे प्राप्त हुआ। .उन्होंने लिखा था कि उत्तर प्रदेशीय नौजवान भारतसभा का विशेष अधिवेशन मथुरा में होने वाला था और यह इच्छा प्रगट की थी कि मैं कुछ पहले पहुंचकर जमीन तैयार कर लूं।
कम्युनिस्टों की सक्रियता
यहां मैं यह कह दूं कि मेरे बड़े भाई साहब से सुभाष बाबू की घनिष्ठता थी और उसी नाते मैं भी उनका विश्वासपात्र बन गया था। कराची में सुभाष बाबू और डॉक्टर शफीउद्दीन किचलू के बीच बातचीत से मुझे यह भी पता लग गया था कि सुभाष बाबू कम्युनिस्ट विचारधारा में विश्वास नहीं रखते थे जबकि डॉक्टर किचलू कम्युनिस्ट विचारों के समर्थक थे। मथुरा पहुंचा तो देखा कि नौजवान उत्साही तो बहुत थे परंतु संगठन नाममात्र को ही था। अधिकांश कांग्रेस के ही नौजवान नौजवान भारत सभा में शामिल हो गये थे इसलिए उनके विचारों में भी कोई परिपक्वता न थी। ऐसी जमात पर प्रभाव डालने में कम्युनिस्टों के लिए कोई कठिनाई नहीं थी और चार लोग वहां भी पहुंच गये थे। श्री भारद्वाज भी वहां मौजूद थे। उनके कम्युनिस्ट होने का पता मुझे बहुत बाद में लगा। मथुरा उन दिनों जीआईपी रेलवे का एक बड़ा स्टेशन था और कम्युनिस्ट समर्थक जीआईपी रेल हड़ताल में निकाले गये कर्मचारी भी वहां मौजूद थे। इससे यह अंदाज लगाया जा सकता है कि मुट्ठी भर होते हुए भी कम्युनिस्ट कितने सक्रिय थे। और कांग्रेसी स्वयंसेवक वे बैज पहनकर, लाठी लेकर नियंत्रण के लिए तो प्रस्तुत थे, परंतु फावड़ा लेकर जमीन बराबर करने को भी तैयार न थे। स्वयं मेरे उदाहरण के अनुकरण की भी उन्हें प्रवृत्ति नहीं हुई। यह हाल था कांग्रेस स्वयंसेवकों का, असहयोग आंदोलन के दस साल बाद।
जेल पहुंचे
खैर सभा हुई और धूमधाम से हुई। अध्यक्ष पद से भाषण देते हुए सुभाष बाबू ने समाजवादी विचारधारा को भी स्वीकार किया था परंतु उससे अधिक कुछ नहीं। किसी कार्यक्रम का संकेत उसमें नहीं था। मैं खुशी-खुशी प्रयाग लौटा। लेकिन आते देर नहीं कि वारंट मौजूद। मथुरा के अपने भाषण के लिए दफा 124 में मेरा चालान हुआ। मथुरा नगरी से लौटकर मैं पुन: मथुरा जेल पहुंचा। लेकिन सस्ते छूटा। अंग्रेज मजिस्ट्रेट ने जेल में मुकदमे की सुनवाई की। अदालती बहस मैंने खुद की। पेशकार ने मजिस्ट्रेट से कहा भी कि मुझसे पूछ लिया जाए कि मुझे पहले कोई सजा मिली या नहीं, लेकिन नौजवान मजिस्ट्रेट ने उसकी बात अनसुनी कर दी। एक साल के कड़े जुर्माने से ही मुझे छुट्टी मिल गई। सजायाब होकर आगरा सेंट्रल जेल में मैं काकोरी के अपने पुराने साथियों के बीच जा मिला। जेल में एक बार एक दिलचस्प घटना हुई। एक नंबरदार को लगाया था, हर वक्त हमारे पीछे-पीछे रहने के लिए। हम आजादी से आपस में बातचीत भी नहीं कर सकते थे।
भाग निकललने की तैयारी
जेल वालों की इस एहतियात के कारण के संबंध में यहां कुछ कहना अप्रासंगिक न होगा। काकोरी के मुकदमे के दौरान ही हम में से कुछ लोगों ने जेल से भाग निकलने का आयोजन किया था। हम कुछ दिनों तक इसकी तैयारी में लगे रहे। जेल सुपरिन्टेंडेंट कर्नल मैकरे से मेरी कुछ दोस्ती हो गई थी। मेरी प्रार्थना पर उन्होंने हमारे बारिक के हाते में एक अखाड़ा खोदने की इजाजत दे दी थी। अखाड़े में कुश्ती भी होती थी और लंबी दौड़ भी। इसीलिए खेल-कूद के बहाने हमने यह भी परख लिया कि चार आदमी, एक के कंधे पर दूसरा खड़ा होकर छरदीवाल पर पहुंच सकते हैं। दांतुन तोड़ने के बहाने एक नीम के पेड़ पर चढ़कर हमने यह भी अंदाज लगा लिया कि जेल की बाहरी दीवाल पर हमें किस जगह पहुंचना है। तय यह पाया कि श्री रामप्रसाद बिस्मिल सबसे नीचे खड़े होंगे और मैं चूकि हल्का था इसलिए सबसे ऊपर।
छड़ कट गई लेकिन…
योजना यह थी कि दीवार से कूद कर मैं नीचे पहुंचकर नाली में छड़ों से कपड़े बांध कर उन्हें उछाल कर दीवार के अंदर कर दूंगा और बाकी लोग कपड़ों की रस्सी के सहारे दीवार के उस पार हो लेंगे। अब केवल बारिक के अंदर की लोहे की एक छड़ का काटना बाकी था। चुरा-छिपाकर एक तेज रेती हमने बाहर से मंगवा लिया। दिन में, थोड़ा-थोड़ा करके, छड़ काटी जाने लगी। बिस्मिल जी छड़ काटते थे। अंदर एक साथ रामायण पढ़ते रहते थे और मैं बाहर पहरा देता फिरता था। कोई आता दिखाई देता तो मैं गाना गाने लगता। एक दिन छड़ भी कट गई और नीचे कुछ ठेका लगाकर अपनी जगह कायम रख दी गई।
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