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वर्तमान युग में अर्थशास्त्र के विद्यार्थी से यदि पूछा जाए कि अर्थशास्त्र का पहला सिद्घांत किसने प्रतिपादित किया तो स्वाभाविक उत्तर होगा-'एडम स्मिथ', जिन्होंने 'दी वैल्थ ऑफ नेशनस' गं्रथ की रचना की। आधुनिक अर्थजगत में उन्हें अर्थशास्त्र के जनक की भी संज्ञा दी जाती है। ध्यातव्य है कि एडम स्मिथ ने संपत्ति के सृजन को सर्वाधिक महत्व दिया लेकिन उनके बाद आने वाले अर्थशास्त्रियों ने स्वीकार किया कि संपत्ति के सृजन समेत सभी आर्थिक गतिविधियों का अंतिम उद्देश्य मानव कल्याण ही है।
प्रश्न उठता है कि मानव कल्याण अधिकतम कैसे हो? इस संदर्भ में पाश्चात्य आर्थिक चिंतकों ने कल्याणकारी अर्थशास्त्र (वेलफेयर इश्मिक्स) के नाम पर भारी मात्रा में सिद्घांतों और आर्थिक साहित्य की रचना की। लेकिन साथ ही यह भी सिद्घ होता रहा कि अधिकतम मानव कल्याण की स्थिति तक पहुंचने में ये सभी सिद्घांत और साहित्य न केवल अपर्याप्त है, बल्कि दिग्भ्रमित करने वाले भी हैं।
मानव कल्याण के सूचक के नाते सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी के पैरवीकार लोग, स्वयं इससे आश्वस्त दिखाई नहीं देते। सिद्घ हो चुका है कि सभी जीवों, प्रकृति और पर्यावरण की सुरक्षा और कल्याण तो छोड़, मानव कल्याण की दृष्टि से भी यह अवधारणा पूर्णतया अपर्याप्त ही नहीं, बल्कि अनुचित भी है।
ऐसे में जब कल्याणकारी विश्व की स्थापना हेतु वर्तमान का पाश्चात्य चिंतन और उस पर आधारित आर्थिक सिद्घांत भी नितांत अनुपयुक्त सिद्घ हो रहे हैं, स्वर्गीय गोविन्दराम साहनी की पुस्तक प्राचीन भारतीय आर्थिक चिंतन की वैकल्पिक धारा की ओर इंगित करती है। पुस्तक के पुरोवाक् में भारतीय समाज विज्ञान परिषद (आईसीएसएसआर) के पूर्व अध्यक्ष प्रो़ पंचमुखी लिखते हैं कि लेखक ने अत्यंत सरल और प्रभावषाली शैली में पाश्चात्य अर्थचिंतन और प्राचीनकाल से प्रस्तुत भारतीय अर्थचिंतन के बीच अंतर तो स्पष्ट किया ही है, साथ ही साथ पुस्तक के उद्देश्य कि ''जनसामान्य तथा भारतीय विद्यार्थी, प्राचीन अर्थचिंतन से परिचित होकर गौरव का अनुभव करेंगे'' को भी सार्थक किया है।
कई विचारकों, चिंतकों और लेखकों ने समय-समय पर भारतीय अर्थचिंतन और पुरातनग्रंथों में अर्थशास्त्र के सिद्घांतों और विचारों का वर्णन किया है। स्वर्गीय प्रो. गोविन्दराम साहनी वेदों, उपनिषदों, मनुस्मृति, वाल्मीकि रामायण, शुक्रनीति, श्रीमद्भगवतगीता, विदुर नीति एवं महाभारत से लेकर कलियुग में कौटिल्य अर्थशास्त्र, बौद्घ एवं जैन अर्थचिंतन के ग्रंथों के गहन अध्ययन के बाद इस विचार को स्थापित करते हैं कि धर्माधारित अर्थोपार्जन एवं व्यय ही सुखदायी है और बिना धर्म के अर्थ से कल्याण की कल्पना नहीं की जा सकती।
पुस्तक में प्रस्तुत विश्लेषण से वर्तमान युग में धर्मविहीन और मात्र भौतिकता पर आधारित अधिकाधिक अथार्ेपार्जन के बावजूद दुखों की बहुतायत के विरोधाभास का उत्तर भी प्राप्त होता है। 14 अध्यायों में विभाजित इस पुस्तक के प्रथम अध्याय में आचार्य कौटिल्य रचित विश्वविख्यात गं्रथ 'अर्थशास्त्र', जो अर्थशास्त्र और राजनीति शास्त्र का मिश्रण है, के संदर्भ में स्वर्गीय दत्तोपंत ठेंगडी को याद करते हुए लेखक लिखते हैं कि आचार्य चाणक्य ने प्राचीन भारतीय चिंतकों का 114 बार स्मरण किया है। कौटिल्य अर्थशास्त्र में कृषि और कृषि से संबद्घ सिंचाई, लगान, चारागाह, कृषि को हानि, घरेलू और विदेशी व्यापार, ब्याज, संपत्ति के स्वामित्व, राजकोष, वेतन और मजदूरी सहित समस्त आर्थिक कारकों की व्याख्या की गई है। लेखक का कहना है कि कौटिल्य अर्थशास्त्र में वर्णित अर्थशास्त्र के सिद्घांत वास्तव में पुरातन चिंतन पर आधारित हैं जिसमें वास्तविक मानव कल्याण की कल्पना की गई है।
शेष अध्यायों में वेदों, उपनिषदों, शुक्रनीति, श्रीमद्भगवद्गीता, विदुर नीति और महाभारत जैसे गं्रथों और बौद्घ एवं जैन साहित्य में वर्णित अर्थचिंतन का विष्लेषण प्रस्तुत किया गया है। हमारे पुरातन साहित्य में वर्णित अर्थचिंतन की कल्पना शायद बिना भारतीय काल गणना के वर्णन से संपूर्ण नहीं होगी, इस कारण भारतीय कालगणना पर अलग से एक अध्याय जोड़ा गया है। आज आवश्यकता इस बात की है कि अर्थशास्त्र के विद्यार्थी पुरातन भारतीय अर्थचिंतन (जिसकी झलक इस पुस्तक में मिलती है) से प्रेरणा लेते हुए उसकी विभिन्न धाराओं का अध्ययन करते हुए मानव कल्याण ही नहीं, अपितु संपूर्ण विश्व कल्याण के लिए आवश्यक शोध के माध्यम से, जो काम प्रो. गोविन्दराम साहनी, समयाभाव के कारण नहीं कर पाये, को आगे बढायें। – डॉ़ अश्विनी महाजन
(लेखक पीजीडीएवी कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।)
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