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मध्य एशिया के गृहयुद्ध में उलझे देशों से इस्लामवादी अपने बच्चों को कंधों पर बैठाए यूरोप के कई देशों के दरवाजे पर पहंुचे और मानवता के नाम पर कई देशों ने उन्हें पनाह दी, रोटी दी। पर जर्मनी, फ्रांस और ब्रिटेन जैसे देश आज अपने उस फैसले पर पछता रहे हैं, क्योंकि उन शरणार्थियों ने अब उन्हें ही निशाना बनाना शुरू कर दिया है
प्रमोद भार्गव
सीरिया, इराक और लीबिया में चल रहे गृह युद्ध से पलायन करने वाले मुसलमानों को शरण देने में सबसे ज्यादा उदारता जर्मनी ने दिखाई थी, अब उसी जर्मनी में यही शरणार्थी आतंकी हमलों में बढ़-चढ़कर शामिल हो रहे हैं। जर्मनी के आंसबाख शहर में 24 मई को जो आत्मघाती हमला हुआ, उसका हमलावर मुस्लिम शरणार्थी निकला। इसके ठीक पहले इसी देश के म्यूनिख शहर के शॉपिंग सेंटर में हुई गोलीबारी में हमलावर ईरानी मूल का मुस्लिम था। जर्मनी के ही बावेरिया में जिस अफगानी नागरिक ने कुल्हाड़ी से लोगों पर हमला किया था, वह भी मुस्लिम था। इसी दौरान जर्मनी के ही रुटलिनजेन शहर में 21 वर्षीय सीरियाई शरणार्थी ने एक गर्भवती महिला की हत्या कर दी थी। सप्ताह भर में हुए इन चार हमलों के अपराधी मुस्लिम शरणार्थी थे। इस कारण जर्मनी में शरणार्थी कानून और उन्हें शरण देने की नीति पर सवाल उठने लगे हैं। तय है कि ये हालात पूरी दुनिया में मध्य एशिया से गए शरणार्थियों के लिए गंभीर संकट पैदा करने वाले हैं।
पिछले साल तुर्की में समुद्र के किनारे सीरिया के तीन वर्षीय बालक आयलन कुर्दी का शव औंधे मुंह पड़ा मिला था। इस बच्चे की तस्वीर जब समाचार पत्रों में छपी और चैनलों पर दिखाई गई, तब दुनिया के संकटग्रस्त मानव समुदायों के प्रति मानवता बरतने वाले रहमदिल इंसान पसीज उठे थे। इसी तस्वीर के बाद सीरिया का संकट वैश्विक फलक पर उभरा था। तब खासकर यूरोपीय देशों ने 'इंसानियत के नाते' लाचार शरणार्थियों को खुले मन से शरण दी। जर्मनी के आम नागरिकों ने तो शरणार्थियों के लिए सरकारी मदद के अलावा अपने घरों के दरवाजे तक खोल दिए थे। इस रहमदिली के कारण देखते-देखते जर्मनी में 10 लाख से भी ज्यादा शरणार्थियों को पनाह मिल गई। जर्मनी के बाद शरणार्थियों की सबसे ज्यादा मदद ब्रिटेन, फ्रांस और आस्ट्रिया ने की हैै। किंतु अब फ्रांस और जर्मनी में शरणार्थी इस्लामिक आतंकवाद का हिस्सा बनकर इन देशों के लिए संकट का सबब बन रहे हैं। इस कारण इन देशों समेत पूरा यूरोप शरणार्थियों को बाहर का रास्ता दिखाने को मजबूर हो गया है। उल्लेखनीय है कि ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से अलग होने की प्रमुख वजह वैश्विक आतंकवाद और शरणार्थी ही बने थे। जर्मनी में शरणार्थी जिहादी आतंक के हस्तकों की भूमिका में तो पिछले दिनों ही आए हैं, लेकिन इसका मजहबी कट्टरता से जुड़ा रुख बहुत पहले से दिखाई दे रहा है। इसी वर्ष, नए साल के जश्न के मौके पर इनकी कट्टरता और विद्रोही तेवर 31 दिसंबर 2015 की रात जर्मनी में देखने को मिले थे। यहां के म्यूनिख शहर में जब जर्मन मूल के लोग अपनी परंपरा के अनुसार उत्सव मना रहे थे, तब शरणार्थियों की भीड़ जिहादी नारे लगाते हुए आई और जश्न के रंग में भंग कर दिया। शरणार्थी बोले, ''इस्लाम में अश्लील नाच-गानों पर बंदिश है, इसलिए इसे हम बर्दाश्त नहीं कर सकते।'' इस्लाम के बहाने इस विरोध ने कोलोन शहर में हिंसक रूप धारण कर लिया था। यहां एक चर्च के सामने जश्न मना रहे उत्सवियों पर हमला बोला गया। महिलाओं के कपड़े तार-तार कर दिए गए। कई महिलाओं के साथ दुष्कर्म भी हुआ। हैरानी की बात है कि इनमें अनेक महिलाएं ऐसी थीं, जिन्होंने उदारता दिखाते हुए शरणार्थियों को अपने घरों में पनाह दी थी।
इस घटना के बाद से वहां शरणार्थियों को शक की निगाहों से देखा जाने लगा। इनकी बेदखली शुरू हो गई। 20 जनवरी को एक जर्मन युवती जब शरणार्थियों के शिविर के पास से गुजर रही थी तो उससे सामूहिक बलात्कार किया गया। इस युवती ने इस दुष्कर्म की कहानी एक टीवी समाचार चैनल पर बयान कर दी। इससे जर्मन जनता शरणर्थियों के खिलाफ खड़ी हो गई। बावजूद इसके जर्मन सरकार को चेतना तब आई जब मिस्र के अल अजहर विश्वविद्यालय की एक महिला प्राध्यापक ने बयान दिया कि ''इस्लाम में मुस्लिम पुरुषों को गैर मुस्लिम महिलाओं के साथ बलात्कार की इजाजत है।'' इस बयान के बाद जर्मनी ही नहीं, ब्रिटेन भी चौकन्ना हो गया।
ौकन्ना हो गया।
नतीजतन जर्मनी की चांसलर एंजेला मार्केल को राष्ट्र को संबोधित करते हुए कहना पड़ा था, ''अब शरणार्थियों से जुड़ी नीति पर पुनर्विचार करना जरूरी हो गया है।'' लेकिन अब शरणार्थियों के आतंकी हमलों ने जर्मनी में खौफ का माहौल पैदा कर दिया है। मार्केल की 'खुले द्वार' की नीति सवालों के घेरे में आ गई है। अब वहां नए शरणार्थियों के आने पर अंकुश लगा दिया गया है। दरअसल इस हिंसा से परेशान होकर जर्मनी के दक्षिणपंथी नेता तातजाना फेस्टरलिंग ने बेहद तार्किक सवाल उठाया था,''जब लाचार और भुखमरी की हालत में मुस्लिम शरणार्थी पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति का अनादर कर रहे हैं, तो अगर ये यहां बहुसंख्यक व शक्ति संपन्न हो गए तो ईसाइयों को ही यूरोप से बेदखल करने लग जाएंगे।'' इन्हीं हालातों के चलते अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार डॉनल्ड ट्रंप ने कट्टर इस्लाम के विरुद्ध जो रवैया अपनाया हुआ है, उससे अमेरिका में मुस्लिम विरोधी लहर मजबूत हो रही है। फ्रांस के 46 फीसदी लोगों का मानना है कि शरणार्थियों की वजह से आतंकवाद फैल
रहा है। ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने जनवरी 2016 से शर्त लगाई थी कि ब्रिटेन में दूसरे देशों से जो भी नागरिक आते हैं, उन्हें अंग्रेजी भाषा सीखनी जरूरी है। यह शर्त उनके लिए है, जो ब्रिटेन में अस्थायी रूप से या व्यापार करने आते हैं या फिर नौकरी करने के लिए अपनी पत्नियों को साथ लाते हैं। इनमें से ज्यादातर महिलाओं को अंग्रेजी नहीं आती। ब्रिटेन इन लोगों को पांच साल का वीजा देता है। इसलिए ब्रिटिश सरकार ने इन महिलाओं को ढाई साल के भीतर अंग्रेजी सीख लेने की सहूलियत दी है। इस दौरान ये अंगेजी नहीं सीख पाती हैं, तो इन्हें देश से निकाल दिया जाएगा। ब्रिटेन में दो लाख ऐसी मुस्लिम महिलाएं हैं, जिन्हें बिल्कुल अंग्रेजी नहीं आती है। कैमरन ने साथ ही, मुसलमानों के मजहबी कानूनों पर एतराज जताते हुए, उन्हें अप्रासंगिक हो चुके मध्ययुगीन मजहबी कानून ढोने की संज्ञा दी थी। साफ है, डेविड कैमरन जैसे एक सुलझे नेता का इस तरह की बात करने का मतलब है कि कुछ आशंकाएं ऐसी जरूर हैं, जो किसी भी सेक्युलर बहुलतावादी लोकतांत्रिक देश पर कालांतर में भारी पड़ सकती हैं? इन हालातों के निर्माण के बाद से ही यूरोप में शरणार्थियों को बाहर करने का आंदोलन व गतिविधियां तेज हो रही हैं। स्वीडन, नीदरलैंड और ग्रीस ने इसी साल के अंत तक जनता से शरणार्थियों को देश से वापस भेजने का वादा किया है।
दरअसल कई देशों में न केवल शरणार्थी समस्या विकराल रूप ले रही है, बल्कि इन देशों के बहुलतावादी स्वरूप पर भी खतरा मंडरा रहा है। ज्यादातर यूरोपीय देशों में पंथनिरपेक्ष विविधता व नागरिक स्वतंत्रता है। किंतु इस्लामिक आतंकवाद के विस्तार के साथ ही इन देशों के जनमानस का खुलापन कुंद हुआ है। मुस्लिम और मुस्लिम देशों के साथ सोच और मजहबी कट्टरता का विरोधाभासी संकट यह है कि जहां-जहां ये अल्पसंख्यक होते हैं, वहां-वहां पंथनिरपेक्ष लोकतंत्र की वकालात करते हैं, परंतु जहां-जहां बहुसंख्यक होते हैं, वहां इनके लिए मजहबी कट्टरता और शरीयत कानून अहम हो जाते हैं। अन्य मजहबी अल्पसंख्यकों के लिए इनमें कोई सम्मान नहीं रह जाता।
पाकिस्तान और बंगलादेश में हिंदू अल्पसंख्यक बहुसंख्यक कट्टर मुसलमानों की इसी क्रूर मानसिकता का दंश झेलते हैं। भारत के ही कश्मीर में बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी के चलते अल्पसंख्यक हिंदू, सिख और बौद्ध घाटी से ढाई दशक पहले निकाल दिए गए। चार लाख से भी ज्यादा विस्थापितों की अपनी ही पुश्तैनी धरती पर वापसी इसलिए नहीं हो पा रही है, क्योंकि मजहब के नारे उछालते अलगाववादियों ने वहां माहौल में जहर घोला हुआ है। ऐसा कभी नहीं हुआ कि देश मंे बसी मुस्लिम आबादी ने कश्मीरी पंडितों की घर वापसी के समर्थन में कोई आंदोलन किया हो। इसी मानसिकता की वजह से दुनिया का एक भी मुस्लिम देश सेक्युलर नहीं है।
यूरोपवासी आज इस खतरे के प्रति आगाह हुए हैं तो इसके पीछे शरणार्थियों की जिहादी हरकतों में संलिप्तता ही है। मजहबी सोच उन्हें उन देशों में भी चैन से नहीं बैठने दे रही है जो उन्हें आसरा दे रहे हैं।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)
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