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1934-2016
वर्ष 1997, अक्तूबर मास की 16 तारीख। संस्कृति भवन, लखनऊ से बन्धुवर वीरेश्वर जी का फोन आता है कि कल 11 बजे भारती भवन में बैठक है, आपको आना है। वीरेश्वर जी के निर्देशानुसार अगले दिन 17 अक्तूबर को निर्धारित समय पर भवन के प्रथम तल पर उत्तर-पश्चिम वाले कक्ष में बैठक में पहुंचने पर देखता हूं कि सामने एक सज्जन बैठे हैं और उनके सामने अर्द्घचन्द्राकार क्रमश: वीरेश्वर जी, सुरेशचन्द्र मेहरोत्रा (प्रभारी निदेशक, राष्ट्रधर्म प्रकाशन लिमिटेड), ओमप्रकाश त्रिवेदी (प्रबन्धक, राष्ट्रधर्म प्रकाशन) बैठे हैं। मैं देखते ही समझ गया कि सामने जो सज्जन बैठे हैं, वे संघ के कोई वरिष्ठ अधिकारी हैं, अत: प्रथमत: उन्हें फिर अन्य तीनों को नमस्कार कर बैठ गया। वीरेश्वर जी ने सुरेश राव जी का परिचय देकर उन्हें मेरा परिचय बताया।
कुछ पल बाद सुरेश राव जी ने मुझसे कहा कि 'राष्ट्रधर्म' के सम्बन्ध में आपकी कार्ययोजना सर्वांगपूर्ण है; बहुत अच्छी है, तो मैं बोला, आपको पसन्द आयी, यह मेरे लिए गौरव की बात है। कुछ क्षण चुप रहने के बाद वे बोले आप 'राष्ट्रधर्म' के सम्पादन का दायित्व संभालिये। मैंने कुछ क्षण तक विचार कर कहा, आपका आदेश शिरोधार्य है। तदुपरान्त थोड़ी देर रुककर सोचता रहा कि वर्तमान सम्पादक की तो नौकरी गयी। किसी को नौकरी नहीं दे सकता, तो किसी की नौकरी मेरे कारण जाये, तो यह ठीक नहीं होगा। मैं भी बाल-बच्चेदार आदमी हूं, मुझे पाप लगेगा। इसलिए मैंने कहा कि एक स्वयंसेवक के नाते अनुशासनहीनता न समझी जाये, तो मैं कुछ निवेदन करूं। सुरेश राव जी बोले, इसमें क्या संकोच, बताइये। मैंने कहा, 'राष्ट्रधर्म' से कोई पैसा नहीं लूंगा, मुझे नौकरी नहीं करनी है। सरकार मुझे रोटी-दाल भर को पर्याप्त पेंशन देती है। वे बोले ये बात मुझे पहले से ही पता है। मैं दंग रह गया कि मेरे मन की बात जो किसी को नहीं पता है, वह इन्हें पहले से कैसे पता है! लगता है, इन्होंने मेरे बारे में भलीभांति छानबीन करने के पश्चात् ही यह दायित्व संभालने के लिए बुलाया है। फिर मैंने कहा कि 'राष्ट्रधर्म' के स्टाफ से किसी को हटाया न जाये। वे कुछ देर चुप रहे, फिर बोले, ठीक है और बताइये। मैंने कहा कि एक बार जो नीति तय हो जायेगी, उसके बाद मेरे कार्य में कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। यदि ऐसा हुआ, तो मैं अपने दायित्व का निर्वाह सुचारु रूप से नहीं कर पाऊंगा और तुरन्त 'राष्ट्रधर्म' छोड़कर चला जाऊंगा। उन्होंने कहा, ठीक है, इसमें क्या कहना है। मेरी कार्ययोजना में अन्य बातों के अतिरिक्त एक सुझाव यह भी था कि तीन विषयों में से किसी एक विषय पर विशेषांक निकाला जाये और उसके प्रचार के लिए कुछ प्रतिष्ठित दैनिक पत्रों और साप्ताहिक पत्रों में उसका विज्ञापन दिया जाये। सुझाये गये तीन विषयों में से एक विषय उन्हें पसन्द आया- 'सनातन भारत विशेषांक' और कहा कि आगामी मकर संक्रान्ति पर इस विशेषांक का प्रकाशन हो। मैंने कहा, ठीक है। उसी समय उन्होंने यह भी कहा, इसको अधिकतम व्याप देने की आवश्यकता है। इस पर मैंने निवेदन किया कि रामजन्मभूमि आन्दोलन के परिणामस्वरूप सम्पूर्ण देश में जो हिन्दुत्व की प्रखर भावना उद्वेलित हुई है, उसको समेटने के लिए संघेतर क्षेत्र में हमें प्रयत्न करना होगा। उन्होंने कहा, यही तो मैं चाहता हूं। फिर ध्यान में आया कि मेरे निवेदन के अुनसार स्टाफ में से किसी को हटाया नहीं जायेगा। सम्पादक, सहायक सम्पादक, प्रूफ रीडर अपने पद पर यथावत् बने रहेंगे। ऐसे में विशेषांक के लिए रचनाकारों से लेख आदि मांगने के लिए पत्राचार किस आधार पर करूंगा। यह सोचकर मैंने सुरेशराव जी से कहा कि स्टाफ के सभी लोग यथास्थान रहेंगे, तो पत्राचार करने के लिए मेरी स्थिति क्या रहेगी? वे बोले, अरे! इसमें क्या कहना? आप प्रधान सम्पादक। फिर तो कहने को कुछ बचा ही नहीं था। बैठक समाप्ति के बाद हम लोग राष्ट्रधर्म कार्यालय चले आये।
पूर्वापर संदर्भ के लिए यहां पर यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि कुछ दिनों पहले ही वीरेश्वर जी ने फोन पर मुझसे कहा था कि आप 'राष्ट्रधर्म' के प्रचार-प्रसार व प्रगति के लिए एक कार्ययोजना बनाकर मुझे भेज दीजिये।
मैंने कार्ययोजना अपने प्रथम पुत्र के हाथों वीरेश्वर जी को भिजवा दी; क्योंकि स्वयं ज्वरग्रस्त होने के कारण मेरा जाना सम्भव नहीं था। सम्भवत: मुझसे ही यह कार्ययोजना क्यों मांगी गयी, उसका कारण यह रहा होगा कि 'राष्ट्रधर्म' के परामर्शदाता मण्डल का एक सदस्य होने के नाते बहुधा बैठकों में जाता रहता था और उन बैठकों में समय-समय पर अपने सुझाव देता रहता था। अपने उन्हीं सुझावों को कार्ययोजना में समाविष्ट किया था और वे सुझाव सुरेशराव जी को पसन्द आये थे। उस बैठक में उनसे मेरी यह पहली भेंट थी। तब तक मैं उन्हें केवल नाम से जानता था। देखा भी नहीं था और पहचानता भी नहीं था। उनसे इस प्रथम साक्षात्कार में ही उनके चेहरे और वार्त्तालाप में मेरे प्रश्नों पर त्वरित निर्णय से मेरे हृदयपटल में उनका जो चित्र अंकित हुआ, वह एक ऐसे व्यक्ति का था, जो स्वभाव से गम्भीर स्थिति-परिस्थिति और व्यक्ति का सटीक आकलन करने में पूर्णत: सक्षम।
यथा निर्देश मैंने 'सनातन भारत विशेषांक' निकालने की तैयारी की। समय कम था। मैंने देश के विभिन्न प्रदेशों के ख्यातिलब्ध हिन्दी लेखकों एवं कवियों को पत्र लिखा, तो उनमें से सभी का शीघ्र ही उत्तर आया कि निर्धारित विषय पर वह अपना लेख 15 दिनों के अन्दर भेज देंगे। उन लेखकों में से कुछ प्रमुख नाम थे, डॉ़ लोकेश चन्द्र (आचार्य रघुवीर जी के सुपुत्र), प्रो़ बलराज मधोक (दिल्ली), डॉ़ किशोरीलाल व्यास, प्रोफेसर हिन्दी विभाग, उस्मानिया विश्वविद्यालय, डॉ़ नडुवत्तर किजकेतिल पद्मनाभ कुट्टनपिल्लै (हैदराबाद), डॉ़ रति सक्सेना (तिरुवनन्तपुरम् केरल), डॉ़ धर्मपाल मैनी (चण्डीगढ़), प्रो़ ओमप्रकाश पाण्डेय (लखनऊ) तथा वीररस के सशक्त ओजस्वी कवि राजबहादुर 'विकल', दामोदरस्वरूप 'विद्रोही' (शाहजहांपुर), छैलबिहारी वाजपेयी 'बाण' (हरदोई) आदि। भगवत्कृपा से एक से बढ़कर एक श्रेष्ठ रचनाएं इस विशेषांक के लिए प्राप्त हुईं। भगवत्कृपा से विशेषांक को सम्पूर्ण देश के विद्वानों से मिले सहयोग के कारण विशेष ख्याति मिली और 'राष्ट्रधर्म' की प्रसार संख्या लगभग ड्योढ़ी हो गयी। दोबारा भेंट होने पर सुरेशराव जी ने भी इस अंक की प्रशंसा की।
अंत में एक बात और। मैं स्वप्न में भी कभी यह कल्पना नहीं कर सकता था कि जिस आसन्दी को श्रद्घेय अटल जी, राजीवलोचन अग्निहोत्री, पं़ वचनेश त्रिपाठी, रामशंकर अग्निहोत्री और भानुप्रताप शुक्ल जी जैसे श्रेष्ठ व्यक्तित्व सुशोभित कर गरिमा प्रदान कर चुके हों, उस दायित्व को संभालने का अवसर श्रद्घेय सुरेशराव केतकर जी के द्वारा मेरे जैसे व्यक्ति को दिया गया, जिसका किसी पत्र-पत्रिका के सम्पादन से कभी वास्ता न रहा सिवाय विश्व संवाद केन्द्र, लखनऊ की दो स्मारिकाओं
के संपादन के, उनकी पुण्य स्मृति को कोटिश: नमन।
(लेखक 'राष्ट्रधर्म' (मासिक) के सम्पादक हैं)
श्रद्धाञ्जलि – मन, बुद्धि, वाणी संघमय
अपने ज्येष्ठ प्रचारक श्री सुरेशराव केतकर जी के स्वर्गवास का समाचार सुनकर अतीव दु:ख हुआ। लगभग 60 वर्ष प्रचारक रहे श्री सुरेशराव जी कर्मठ, कठोर, परिश्रमी थे। उनका जीवन सादगीपूर्ण था। महाराष्ट्र के सांगली जिले में जिला प्रचारक से प्रारम्भ कर अखिल भारतीय स्तर पर 'सह सरकार्यवाह' तक विभिन्न दायित्वों को उन्होंने सफलता से निभाया। महाराष्ट्र प्रांत और अ.भा. शारीरिक प्रमुख पद पर कार्य करते हुए उन्होंने अपनी अमिट छाप छोड़ी है। व्यायाम से अपने शरीर को सुदृढ़ (हृष्टपुष्ट) बनाने के साथ-साथ इस विषय की सभी विधाओं में उन्होंने नैपुण्यता प्राप्त की थी। तर्कशुद्ध, सटीक, स्पष्ट सूत्रबद्ध और दृष्टांतों में रोचक ऐसा उनका भाषण श्रोताओं को समझने में और भाव पुन: स्मरण करने योग्य रहता था।
संघ के अ.भा. दायित्व पर रहते हुए संस्कार भारती, भारतीय किसान संघ, भारतीय मजदूर संघ आदि जनसंगठनों से संपर्क रखने की उनकी शैली की विशिष्ट पद्धति से इन संगठनों को प्रेरणा मिलती थी। कार्य करने के लिए योग्य मार्गदर्शन प्राप्त होता था। ऐसे समय में इन संगठनों के साथ वे एकरूप होते थे। महाराष्ट्र में सोलापुर विभाग के विभाग प्रचारक रहते समय उन्होंने पुणे के डॉ. कुकडे़ जी और उनको दो सहयोगी डॉ. अबूरकर जी और डॉ. भराडिया जी को लातूर जैसे उस समय के पिछड़े क्षेत्र में अपना चिकित्सालय प्रारम्भ करने की प्रेरणा दी, सब प्रकार की सहायता की, वही 'विवेकानन्द हॉस्पिटल' आज महाराष्ट्र के मराठवाड़ा क्षेत्र का विख्यात, सभी सुविधाओं से स्वास्थ्य क्षेत्र का एक आदर्श सेवा प्रकल्प बन गया है। सुरेशराव जी का अंतिम समय उसी चिकित्सालय में बीता और अंतिम सांस वहीं पर लेना एक संयोग रहा। एक मराठी गीत में कहा है 'तू संघ संघ जप मंत्र निजान्तरात।।' इसी प्रकार आखिरी क्षण तक उनके मन, बुद्धि, वाणी से संघ ही प्रकट होता रहा। वे अंतिम क्षण तक संघ के साथ पूर्ण समरस रहे। उनके पवित्र, समर्पित, कर्म जीवन के प्रति अपनी श्रद्धांजलि भावाकुल हृदय से अर्पित करते हुए हम सभी दिवंगत जीवात्मा की उत्तम गति के लिए प्रार्थना करते हैं।
मोहन भागवत, सरसंघचालक रा.स्व.संघ
तथा सभी अ.भा. पदाधिकारीगण
कर्मठ, तपस्वी निष्ठावान
लखनऊ। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक एवं पूर्व सह सरकार्यवाह सुरेश रामचंद्र केतकर को श्रद्घाञ्जलि अर्पित करते हुए सह सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने कहा कि वे अत्यन्त कर्मठ, तपस्वी व निष्ठावान कार्यकर्ता थे। सरस्वती कुंज निराला नगर में आयोजित श्रद्घाञ्जलि सभा में श्री होसबाले ने कहा कि वे अपना काम बहुत ही बारीकी से करते थे। अपने बौद्घिक को बिन्दुश: लिखते थे।
उत्तर प्रदेश के राज्यपाल श्री रामनाईक ने श्रद्घाञ्जलि अर्पित करते हुए कहा कि हमारा उनका परिचय पहली बार संघ की शाखा से आया। फिर वे संघ के प्रचारक बन गये और मैं जनसंघ में संगठन मंत्री बना। लेकिन हमारा उनका मिलना जुलना हमेशा रहा। उनके प्रति सच्ची श्रद्घाञ्जलि यह होगी, कि हम सब मिलकर उनके संकल्प को सार्थक करें।
श्रद्घाञ्जलि अर्पित करते हुये अखिल भारतीय कार्यकारिणी के सदस्य श्री मधुभाई ने कहा कि श्री केतकर ने संघकार्य के अतिरिक्त कोई कार्य स्वीकार नहीं किया। कार्य को कैसे गति मिलेगी इसके लिये वे सदैव प्रेरणा देते रहे।
श्री सुरेश जी ने महाराष्ट्र प्रांत के शारीरिक शिक्षण प्रमुख, तथा क्षेत्र प्रचारक, अखिल भारतीय शारीरिक शिक्षण प्रमुख, अखिल भारतीय सह सरकार्यवाह, अखिल भारतीय प्रचारक प्रमुख पद का दायित्व निभाया। – प्रतिनिधि
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