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वरिष्ठ संवाददाता
कश्मीर घाटी में बुरहान वानी पहला आतंकवादी नहीं था जो सेना से मुठभेड़ में मारा गया हो। लेकिन वह पहला ऐसा आतंकवादी था जिसने सोशल मीडिया का भरपूर दोहन किया। उसने सोशल मीडिया के जरिये अपनी 'रॉबिन हुड' वाली छवि प्रस्तुत की। यदि आतंकवादी के बतौर उसकी हरकतों पर नजर डालें तो पता चलेगा कि असलियत क्या थी। कुछ महीने पहले पांपोर मुठभेड़ में दो स्थानीय आतंकवादी मारे गए थे। स्थानीय लोगों ने उस स्थिति को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करने की कोशिश की थी लेकिन दोनों आतंकी मारे गए और ईडीआई भवन को ही उनकी कब्रगाह बनाया गया। इसके बावजूद उस समय इतनी हिंसा नहीं हुई। वास्तव में देखा जाए तो सोशल मीडिया मंे बुरहान को योजनाबद्ध तरीके से नायक के तौर पर प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया और उसके चित्रों के माध्यम से युवाओं को भड़काने का माध्यम बनाया गया। परिणाम सबके सामने है। इसलिए आज कश्मीर में स्थिति चिंताजनक बनी हुई है। यह एक खतरनाक लक्षण है जिसे इस क्षेत्र में मर चुके आतंकवाद को फिर से जिंदा करने की कोशिश के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।
बुरहान वानी के मामले को दुर्भाग्य से बहुत ही गलत रंग दिया गया। 2010 से पहले उत्तरी कश्मीर आतंकवाद का अड्डा था। आतंकवाद के केन्द्र के रूप में सोपोर मुख्य कस्बा था लेकिन 2010 के बाद आंतकवाद की यह सुई दक्षिण की ओर घूम गई। अब दक्षिण कश्मीर न केवल आतंकवाद का गढ़ बना हुआ है बल्कि यह पत्थर फेंकने वालों को उकसाने का भी एक केन्द्र बन गया है। इस प्रक्रिया में और यहां पैठ बनाने में अलगाववादियों को पूरे 6 साल लगे। पिछले एक वर्ष में ऐसी कई घटनाएं हुईं जब पत्थर फेंकने वाले उन्मादियों ने सुरक्षा बलों अथवा राज्य पुलिस के लिए कई मौकों पर समस्याएं खड़ी कीं। और तो और, आतंकवादियों के जनाजे में भी बड़ी भीड़ शामिल होने लगी। वानी एक ऐसा ही उदाहरण है जिसके जनाजे में 50 हजार से अधिक लोग एकत्र हुए जबकि वह कोई स्थानीय आतंकवादी नहीं था। अगर बीती घटना और स्थितियों पर नजर डालें तो पता चलेगा कि बुरहान को आतंकी बने कोई ज्यादा समय नहीं हुआ था। वह 22 वर्षीय नौजवान था जो16 वर्ष की उम्र में ही आतंकवादी संगठन से जुड़ गया था। अन्य किशोरों की तरह उसने भी बाइक की सवारी और अन्य रोमांचक कार्य स्वभावत: सीखे। इसी साहस के अंदाज ने उसे हथियार उठाने के लिए उकसाया। आतंकवादी संगठनों ने घाटी के नौजवानों को हथियार उठाने के लिए सैन्यबलों को ही कारण बताया। उसने सेना के खिलाफ अभियान चलाने के लिए सोशल मीडिया को माध्यम बनाया। वह पहला आतंकवादी था जो अपने वास्तविक नाम और चेहरे के साथ जनता के बीच मौजूद रहता था। उसके साथ ही आतंकवादियों की एक ऐसी नई पीढ़ी दिखाई देती है जो कश्मीर घाटी में बिना हथियार उठाये कैमरे के सामने आने और सोशल मीडिया का दोहन करने से बिलकुल नहीं बचती। उसके हथियारों को उसके द्वारा सोशल मीडिया के साथ साझा किया गया और जो वीडियो और चित्रों में दिखाई पड़ते थे। परिणाम भी कुछ इसी अंदाज में निकला। जब सेना को उसके किसी ठिकाने पर होने की सूचना मिली तो उसने उसे वहीं पहुंच कर मार गिराया। वह पिछले दो महीने से जांच एजेंसियों के घेरे में था और पिछले 15 दिनों से बीजबहेड़ा विधानसभा उपचुनाव के चलते सुरक्षित बचा हुआ था।
घटना के राजनीतिक मायने
आतंकी बुरहान के मामले को तूल देना दक्षिण कश्मीर में मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को कमजोर करने का प्रयास भी हो सकता है। यहां उनकी अच्छी पकड़ है और कई लोग ऐसे हैं जो भाजपा के सहयोग से चलने वाली पीडीपी सरकार को देखना नहीं चाहते। इस कारण वे इससे नाराज हैं। कई ऐसे बड़े नेता हैं जिन्होंने अपरिपक्व वक्तव्य दिये और कहा,'हम बुरहान की मुठभेड़ की जांच करेंगे।' महबूबा अपनी पार्टी के अंदर ही मुजफ्फरबेग, अब्दुल हमीद कार्रा, अल्ताफ बुखारी, बशरत बुखारी और रायजिंग कश्मीर अखबार के मालिक शुजात बुखारी आदि नेताओं के पैदा किये गए संकट को झेल रही हैं। शुरुआती हत्याएं दक्षिण कश्मीर में हुईं लेकिन अब ये उत्तरी कश्मीर की ओर बढ़ रही हैं, जहां इन नेताओं का जनाधार है। राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि ऐसे नेता महबूबा सरकार को अस्थिर करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन सच यह है कि इस सब का असली फायदा पाकिस्तान और अलगाववादी उठा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र एवं अन्य अन्तरराष्ट्रीय संगठनों की ओर से ऐसे बयान आ रहे हैं जो बताते हैं कि पाकिस्तान और अलगाववादी कश्मीर के मामले का प्रचार करने का यह अवसर नहीं खोना चाहते।
जनप्रतिनिधियों की भूमिका
घाटी में अब तक की सबसे चिंताजनक स्थिति होने पर भी कश्मीर क्षेत्र के जनप्रतिनिधि अपनी भूमिका नहीं निभाना चाहते। ऐसे संकट काल में सामान्य जनता के साथ खड़े होकर माहौल को शांत बनाने में सहायता करने के बजाय इनमें से ज्यादातर भूमिगत हो रहे हैं। वे अपने विधानसभा क्षेत्रों में भी नहीं जा रहे हैं। उनकी अनुपस्थिति का लाभ उठा अवसरवादी-अलगाववादी आम आदमी की कीमत पर अपने एजेंडे को पूरा करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे। ज्यादातर विधायक और विधान परिषद सदस्य किसी भी प्रकार कोई वक्तव्य देने से बच रहे हैं।
सोशल मीडिया की भूमिका
बुरहान की मुठभेड़ की खबर प्रत्येक मंच की तरह सोशल मीडिया में आग की तरह फैली। लोगों ने सोशल मीडिया में अपने-अपने तरीके से उसकी मौत को परोसा। एक इंटरनेट एफएम जेके समाचार चैनल ने आतंकी बुरहान की मौत के बाद के बाद घटे घटनाक्रम को लगातार दिखाकर लोगों को उकसाया। उसके घर त्राल के सामान्य लोगों के विचार और साक्षात्कार लिये। साक्षात्कार में उसे बलिदानी घोषित किया गया। स्थानीय मीडिया इसी हिसाब पर चला। व्हाट्सएप पर बुरहान के चित्रों को शेयर किया गया। उसके बाद आतंकी के पिता का बयान जारी किया गया। बेशक कश्मीर में मध्य रात्रि में इंटरनेट पर रोक लगी थी लेकिन उन पांच-छह घंटों की छूट लोगों को भड़काने के लिए बहुत थी। तीन दिन बाद मोबाइल फोन पर रोक लगा दी गई और 16 जुलाई को समाचार पत्रों के प्रकाशन पर भी रोक लगा दी गई। और तो और, कई क्षेत्रों में बिजली की आपूर्ति भी रोक दी गई। पर सबसे बड़ा पेच यह है कि स्थानीय मीडिया पर रोक लगाने के कदम समय रहते क्यों नहीं उठाये गए। यह तब किया गया जब इसके कारण बहुत अधिक नुकसान हो गया।
मुख्यधारा के मीडिया ने इस मामले में एक पूरा दुष्प्रचार का युद्ध छेड़ा। यहां तो वैसे भी सचाई का कोई अर्थ ही नहीं है। सीधा एजेंडा है अपने हिसाब से बात को प्रस्तुत कर उसे तोड़-मरोड़ कर स्थापित किया जाए। जहां स्थानीय मीडिया पत्थरबाजों की हिमायत करते हुए दिखा, वहीं भड़काऊ शब्दों, मनगढं़त कहानियों और तथ्यहीन लेखों द्वारा उसने आग में घी डालने का काम किया। यदि स्थानीय मीडिया ने आतंकी बुरहान को नायक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी वहीं राष्ट्रीय मीडिया ने भी दुराग्रहपूर्ण पत्रकारिता की पुनरावृत्ति की। स्थानीय मीडिया पूरी तरह पक्षपात की भूमिका में रहा। उसने आतंकी बुरहान के सुपुर्दे खाक से जुड़े चित्रों को समूचे मीडिया में बढ़ा- चढ़ाकर फैलाया। लगभग 2 लाख क्षमता वाले छोटे कस्बे त्राल में इन खबरों को पहुंचते कितना समय लगता। हमेशा की तरह मीडिया रिपोर्ट में कश्मीरी प्रदर्शनकारियों के पक्ष में सहानुभूति दिखाई दी। उसने कश्मीरी पंडितों के शिविरों, पुरुषार्थ मंदिर, हब्बा कदल, काकरन मंदिर, देवसार और अमरनाथ यात्रियों के साथ हुई मारपीट की घटनाओं को न दिखाकर कश्मीरी मुस्लिमों द्वारा अमरनाथ यात्रियों की सहायता की खबरें दिखाईं। एसएचएमएच अस्पताल में ऐसे कटु अनुभव देखने को मिले जो पूरी तरह से अलगाववादियों के कब्जे में हैं। वहां एक भी पुलिसकर्मी नहीं है। जब यहां कोई घायल व्यक्ति एबुलेंस में इलाज के लिए आता है तो ये लोग जोर-जोर से नारे लगाने लगते हैं, यह चिंता किये बिना कि बीमार आदमी की स्थिति कितनी गंभीर है।
इस्लाम और उसकी भूमिका
घाटी में इस्लाम आज एक चिंताजनक अवधारणा बन गया है जिसका तोड़ ढूंढना टेढी खीर है। मजहबी संस्थाओं विशेषकर मस्जिदों की सामाजिक जिम्मेदारी थी लेकिन घाटी में इन्हें स्थानीय मुसलमानों को भड़काने के लिए प्रयोग किया जा रहा है, जो राज्य और सेना के विरुद्ध लगातार मोर्चेबंदी में लगे हैं। राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला अपने ट्वीट में इस सत्य को स्वीकार कर चुके हैं। श्रीनगर में, बारजुला में उकसावे की ऐसी घटनाएं सर्वविदित हैं। मस्जिदों द्वारा उकसावे की निरंतर बढ़ती घटनाएं युवा मुस्लिम कश्मीरियों के दिमाग को भटकाने के एक सरल यंत्र का रूप ले चुकी हैं। कुछ महीने पहले एक वीडियो जारी किया गया था जिसमें अनंतनाग के इमाम को लोगों को भड़काते हुए दिखाया गया था कि भारत से स्वतंत्र होने के लिए किस प्रकार एकजुट होना है।
कुल मिलाकर इन सब प्रतिकूल स्थितियों का समाधान यही है कि जम्मू-कश्मीर में प्रभावी एवं उत्तरदायी मीडिया के माध्यम से वहां की मस्जिदों की भूमिका, खिलाफत और अन्य देशविरोधी विषयों को ठोस तरीके से देखकर इन पर नियम-कानून के तहत कार्रवाई होनी चाहिए। अन्यथा आतंकी बुरहान वानी या अन्य किसी बहाने से यह पत्थरबाजी चलती रहेगी और हम शांति और सौहार्द का भाव रखते हुए भी पाकिस्तान और अलगाववादियों के मन की करते रहेंगे।
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