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-प्रशांत बाजपेई-
यूं तो वह इलाका हमारे समुद्र तट से हजारों किलोमीटर दूर है लेकिन दक्षिण चीन सागर को लेकर 12 जुलाई को अंतरराष्ट्रीय अदालत द्वारा फिलीपींस के पक्ष में और चीन के खिलाफ दिया गया फैसला भारत के लिए काफी मायने रखता है।
1948 में चीन ने पहली बार अपने दक्षिण-पूर्वी समुद्री किनारे से आगे आंखें गड़ाई थीं और दक्षिण चीन सागर को अपने अधिकार में दिखाने वाला नक्शा प्रकाशित किया था। इसी समय भारत के उत्तरी और उत्तर-पूर्वी इलाकों पर भी चीन ने अपनी नजर फेरनी शुरू की थी। आने वाले सालों में पहले चीन ने आरक्षित तिब्बत के विरुद्ध हिंसक बल का उपयोग किया। तिब्बत का पतन हो जाने से चीन की सेनाएं भारत की सरहदों पर आ खड़ी हुई। फिर भारत की भूमि पर चीनी दावे शुरू हुए। माओ के इरादे एकदम साफ थे। तिब्बत को अपनी फौज के जूते के नीचे दबाए बैठे माओ ने तिब्बत को हथेली बताते हुए उसकी दो उंगलियों के रूप में नेपाल और भूटान को चित्रित किया था। समय आने पर सिद्ध हो गया कि माओ की कल्पना में शेष तीन उंगलियां थीं अरुणाचल, सिक्किम और लद्दाख।
फिलहाल फिलीपींस तो जश्न मना ही रहा है लेकिन यह फैसला आने से वियतनाम, मलेशिया, इंडोनेशिया और ब्रुनेई भी खुश हैं, क्योंकि यह मामला इस समुद्री क्षेत्र में इन देशों के साथ चल रहे चीन के विवादों के लिए भी मिसाल बनेगा। चीन को बड़ा कानूनी झटका लगा है और वह जला-भुना बैठा है। उसे मालूम है कि अब इस क्षेत्र को लेकर उत्सुक बड़ी ताकतें भी इस फैसले को भुनाएंगी और गठबंधन अधिक मजबूत होंगे। जापान और अमेरिका स्थिति पर पैनी नजर बनाए हुए हैं। दक्षिणी चीन सागर पर चीन के दावे कुछ ऐसे ही हैं जैसे (यदि) भारत हिंद महासागर पर अपना दावा जताते हुए श्रीलंका और मालदीव जैसे देशों की समुद्री सीमा का अतिक्रमण शुरू कर दे। जाहिर है इससे क्षेत्र में तनाव खड़ा हो गया है। इस सागर में तेल-गैस के बड़े भंडार हैं। मछली पकड़ने वाले जहाजों के लिए कई भरे-पूरे जल क्षेत्र हैं। चीन के सागरीय और भू पड़ोसियों के लिए यह उनकी संप्रभुता का भी मामला है। तो भारत समेत दर्जनों देशों का समुद्री व्यापार भी इस मार्ग पर काफी निर्भर करता है। इसलिए संयुक्त राष्ट्र न्यायिक अधिकरण द्वारा दिया गया यह फैसला सारी दुनिया के मीडिया में छा गया।
चीनी हेठी और उसके परम्परागत तौर-तरीकों को ध्यान में रखा जाए तो यह सवाल आ खड़ा होता है कि ये फैसला धरातल पर उतरेगा कैसे! लेकिन फिलीपींस की जीत ऐतिहासिक तो है ही। उसे यह जीत संयुक्त राष्ट्र के 1982 के समुद्र अधिकार नियम के अंतर्गत मिली है। न्यायाधिकरण ने फैसला दिया कि दक्षिण चीन समुद्र को लेकर फिलीपींस की 15 आपत्तियों में से 14 बिलकुल सही हैं और उसके समुद्री इलाके पर चीन द्वारा जताए जा रहे तथाकथित ऐतिहासिक दावे बिलकुल बेबुनियाद हैं। अब चीन द्वारा अपनी मर्जी से नक्शे पर खींची गई 9 बिंदु रेखा (नाइन डैश लाइन) का कोई कानूनी अर्थ नहीं रह गया है, जिसने इस समुद्र को लगभग पूरा निगल लिया था। फिलीपींस मामले को 2013 में अदालत में ले गया था, जब स्कारबो छिछले सागर को लेकर चीन से उसका विवाद बढ़ गया और राजनयिक स्तर की बातचीत निष्फल हो गई। फिलीपींस ने स्पार्ट्ली द्वीप समूह के छोटे-बड़े द्वीपों ,प्रवाल क्षेत्र, उथले पानी के इलाकों पर चीन के दावों को भी चुनौती दी थी। उसने चीन द्वारा क्षेत्र में कृत्रिम द्वीपों के निर्माण के अधिकार को चुनौती दी थी और इससे पर्यावरण को हो रहे नुकसान का भी मुद्दा उठाया था। इन सभी मामलों में फैसला चीन के खिलाफ गया।
परन्तु समस्या यहां समाप्त नहीं हो जाती। चीन ने, जैसी कि आशंका थी, फैसले को अस्वीकार कर दिया है। फैसला आते ही चीन ने 'विरोधियों' को चेतावनी दे डाली कि वे इस इलाके को युद्ध क्षेत्र में न बदलें। बीजिंग में पत्रकारों से बात करते हुए चीन के उपविदेशमंत्री लियु झेनमिन ने चीन के तथाकथित ऐतिहासिक दावों को दुहराया और कहा,''हम आशा करते हैं कि अन्य देश चीन को ब्लैकमेल करने का प्रयास नहीं करेंगे।'' फैसला आने से पहले ही चीन ने कार्यवाही का बहिष्कार किया और अधिकरण के खिलाफ अपने 'लाबिस्ट' मैदान में उतार दिए थे। चीन ने अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के अधिकार को चुनौती देते हुए पूरी प्रक्रिया को जालसाजी करार दिया था। हफ्ते भर पहले से चीनी नौसेना के लड़ाकू जहाज और छोटी नावें विवादित सागर में घूम रही थीं। पार्सेल द्वीप समूह के पास गाइडेड मिसाइल से युक्त डिस्ट्रयर शेनयांग और निंगबो तथा एक मिसाइल फ्रिगेट चोझाउ को देखा गया। मतलब साफ है कि चीन ने बांहें चढ़ाकर इस फैसले को लागू करवाने की चुनौती पहले ही पेश कर दी थी। चीन की सर्वसत्तात्मक कम्युनिस्ट पार्टी भी किसी सूरत में इस फैसले को रत्ती भर महत्व देने वाली नहीं है। फैसला आने के तुरंत बाद 13,900 शब्दों का श्वेत पत्र जारी किया गया, मानो उसे पहले से ही लिख कर रखा गया था। इस श्वेत पत्र में कहा गया कि फिलीपींस ने झूठे तथ्य निर्मित किये, कानून को तोड़ा-मरोड़ा, झूठ का पुलिंदा पेश किया और अंतरराष्ट्रीय न्यायाधिकरण ने जान-बूझकर कमजोर सबूतों के आधार पर चीन के खिलाफ फैसला दिया। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र 'द पीपल्स डेली' ने अदालत को बाहरी ताकतों का नौकर और मानव इतिहास की हास्यास्पद घटना बतलाया। अखबार लिखता है,''हम किसी दूसरे की जमीन के एक इंच पर भी दावा नहीं करते, पर हम अपने अधिकार का जरा सा भी हिस्सा नहीं छोड़ेंगे। चीन इस राजनैतिक उकसावे को स्वीकार नहीं करेगा।'' कम्युनिस्ट पार्टी के अन्य मुखपत्र 'द चाइना डेली' ने युद्ध की धमकी दे डाली और लिखा- ''चूंकि दक्षिण चीन सागर में सैन्य गतिविधियंा बढ़ती जा रही हैं, इसलिए आश्चर्य नहीं होना चाहिए यदि शब्दों की लड़ाई किसी और रूप में परिवर्तित हो जाए।'' दांत भींचते चीन के अलावा एक और पेच यह है कि अदालत के फैसले में यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि इसे लागू करने की प्रक्रिया क्या होगी।
मतलब साफ है कि आने वाले दिनों में सम्पूर्ण क्षेत्र में सामरिक और कूटनीतिक गठजोड़ों में तेजी आएगी। इसकी भूमिका पहले से ही बननी शुरू हो चुकी है। मई के अंत में विएतनाम पहुंचे अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने महत्वपूर्ण घोषणाएं की। उन्होंने वियतनाम को अमेरिकी हथियार बेचने पर लगाए गए दशकों पुराने प्रतिबन्ध को हटाने की घोषणा की। चीन की तरह वियतनाम भी एक कम्युनिस्ट देश रहा है, लेकिन सीमा विवादों को लेकर दोनों के बीच खूनी जंग हो चुकी है। वियतनाम में बोलते हुए ओबामा ने कहा,''दक्षिण चीन सागर विवाद में अमेरिका हस्तक्षेप नहीं करने जा रहा है परन्तु हम अपने साझेदारों के साथ मुक्त आवागमन जैसे मूलभूत अधिकारों के पक्ष में खड़े रहेंगे। विएतनाम को उसकी सुरक्षा के लिए जरूरी साधन-संसाधन उपलब्ध करवाए जाएंगे।'' चीन का नाम लिए बिना ओबामा ने कहा,''बड़े देशों को छोटे देशों पर धौंस नहीं जमानी चाहिए। सभी देशों की अपनी सम्प्रभुता है और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन सा देश छोटा है और कौन सा बड़ा, सभी की सरहदों का सम्मान किया जाना चाहिए।'' भारत ने प्रतिक्रिया देने में सावधानी बरती है लेकिन वह मूक दर्शक मात्र नहीं है। भारत पिछले साल ही विएतनाम को अपनी बेजोड़ ब्रम्होस मिसाइल बेचने का निर्णय कर चुका है, जो कि चीन के लिए सिरदर्द बन सकती है। चीन की सामरिक चुनौती को ध्यान रखते हुए भारत, अमेरिका और जापान ने संयुक्त नौसैनिक अभ्यास भी किया है। ऑस्ट्रेलिया भी इसमें जुड़ने का इच्छुक दिखाई दे रहा है। इस बीच भारत और अमेरिका रक्षा सहयोग के लिए एक-दूसरे के काफी निकट आये हैं। भारत की उम्मीद चीन के उन दक्षिण-पूर्वी पड़ोसियों पर भी टिकी है जो अंतरराष्ट्रीय नदियों पर चीन द्वारा बनाए जा रहे बांधों से परेशान और सालों से चल रहे सीमा विवाद के कारण हलाकान हैं। फिलहाल चीन नया कुछ भी नहीं कर रहा है और दबाव डालने की उसकी क्षमता में कमी आई है।
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