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जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। कोई दो राय नहीं। लेकिन, क्या कश्मीर घाटी का आतंक केवल भारत का स्थानीय मसला है? एक आतंकी की मौत के बाद भड़की हिंसा और भीड़ के चित्र ऊपरी तौर पर इस बात का संकेत करते लग सकते हैं लेकिन, मामला अलग है। पाकिस्तान द्वारा कश्मीर में आतंकी हिंसा का खुलकर समर्थन, नवाज शरीफ से लेकर हाफिज सईद तक सत्ता और जिहाद के पैरोकारों का एक ही सुर बता रहे हैं कि आतंकी आग को सीमापार से किस तरह हवा दी जा रही है।
भारत को लेकर पाकिस्तानी कूट-प्रपंचों के चार अहम पहलू हैं। पहला, कश्मीर में लगातार अलगाव का अलाव सुलगाए रखना। दूसरा, भारत को कमजोर करने वाले षड्यंत्रों के परोक्ष समर्थन में भारत के भीतर बौद्धिक लड़ाई छेड़ना। तीसरा, जिहादी जत्थों के जरिए भारत में लगातार आतंक की आग भड़काना। और चौथा, पाकिस्तानी जनता को उसके अपने दुखों से दूर इस खुशफहमी में टहलाते रहना कि भारत पाकिस्तान के दबाव ही नहीं, बल्कि शिकंजे में है। सत्ता किसी के हाथ रहे, भारत को लेकर पाकिस्तानी सोच और नीतियों में कोई अंतर नहीं आता।
अंतर इसलिए भी नहीं आता क्योंकि इस्लाम को आधार बनाकर विभाजन कराने वाली सोच की धुरी आज भी मुस्लिम पालेबंदी ही है और इसी के सहारे भारत विरोधी षड्यंत्र बुने जाते रहे हैं। यही कारण है कि जम्मू,कश्मीर और लद्दाख की क्षेत्रीय विविधताओं को समेटे एक बड़े राज्य में मुस्लिम बहुल घाटी को अलगाव के केंद्र के तौर पर खड़ा किया जाता है। मजहबी आतंकवाद को 'भारतीय दमन से उपजे अलगाव' का चोला ओढ़ाया जाता है और इसे स्थानीय आक्रोश की शक्ल देने के लिए कश्मीरी नौजवानों को आगे कर दिया जाता है।
बुरहान वानी ऐसा ही कश्मीरी था। वह आम आतंकी नहीं था। घाटी में थके, बुढ़ाते, जनाधार खोते आतंकवाद को नई जान देने के लिए बुरहान को आगे रखकर आतंकवाद के प्रति आकर्षण रचा गया था। सोशल मीडिया पर खुले चेहरे के साथ मोहक वादियों का आनंद लेते दिखता यह जिहादी, पाकिस्तानी हाथों का खिलौना था।
सोशल मीडिया पर वानी की पोस्ट और उसके पिछलग्गुओं का जमावड़ा बताता है कि 'पोस्टर बॉय' जैसे जुमलों से निखारी गई आतंक की छवि को विशुद्ध कश्मीरी पहचान देने की पाकिस्तानी साजिश कुछ समय तक सफल भी रही। लेकिन, धूर्तता से मिली सफलता क्षणिक ही होती है। अंत का क्षण आया, षड्यंंत्र बीच में ही बिखर गया और आतंक के आका दहल उठे। खिलौना टूट गया।
पाकिस्तान इस मुद्दे को विश्वमंच पर ले जाने की बात तो कर रहा है परंतु असल में अब उसकी स्थिति सांप-छछूंदर की है। उसकी खीझ का मुख्य कारण यही है कि न तो वह अपनी खड़ी की कठपुतलियों के लिए पूरी तरह सामने आ सकता है और न ही इस्लामी आतंकियों के खात्मे पर अपनी चिंता छिपा सकता है। उसके लिए इससे भी बड़ी आफत खड़ी हो रही है। एक आतंकी के लिए छाती पीटने वाला देश बाकी दुनिया के सामने खुद को किस तरह आतंकवाद पीडि़त बता सकता है?
बहरहाल, यह पाकिस्तानी चाल भारतीय सैन्य व सर्तकता तंत्र की मुस्तैदी के चलते तोड़ी जा सकी, यह सुकूनदायक और सैन्य बलों के लिए बधाई की बात है। लेकिन चिंता की बात यह है कि भारत में हिज्बुल मुजाहिदीन के आतंकी कमांडर की मौत पर शोक के स्वर कुछ ऐसे स्थानों से उठे जहां इनके लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। एक आतंकी को सही और उसके खात्मे को गलत बताने के संकेत करते लोगों को आप क्या कहेंगे? हाल में जेएनयू की कुख्याति के कारक बने उमर खालिद और जम्मू-कश्मीर में सत्ता स्खलन से आहत उमर अब्दुल्ला की बातों को किस तरह लिया जाए?
क्या किसी विश्वविद्यालय के पहचान पत्र देश को नुक्सान पहुंचाने वालों की ढाल बन सकते हैं? क्या राजनीति में हाशिए पर जाने का मतलब आतंकियों का दर्दमंद हो जाना और देश की अखंडता को चुनौती देने वालों के साथ खड़े दिखना है? वानी की मौत के बाद सवाल उठाने वालों कोे यह बताना चाहिए कि गोलियां बरसाते, बारूद बिछाते आतंकी और उनके दिहाड़ी पत्थरबाजों से आप कैसे निपटेंगे? सबसे बड़ा सवाल यह कि एक आतंकी की मौत पर भारत में बहस छेड़ने और घाटी का उफान बैठाने की बजाय वहां लोगों को भड़काने की चिनगारियां बिखेरते इन बुद्धिजीवियों और आतंकवाद को मानवाधिकार से जोड़ते पाकिस्तानी पैरोकारों के बीच फर्क क्या है?
बुरहान वानी सरीखे आतंकियों की मौत को भुनाने की पाकिस्तानी तरकीबों से कैसे निबटना है यह भारत जानता है। लेकिन असली चुनौती घर में बैठे आतंकियों के उन हमददार्ें से है जिन्होंने देश द्वारा दी गई आजादी को इस देश के विरुद्ध हथियार की तरह इस्तेमाल किया है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पंखा झलते हुए जाकिर नाईक के भाषणों से ढाका में इस्लामी आतंक के शोलों को कैसे हवा मिली, यह हम सबने देखा है, विश्वविद्यालयों और सत्ता सदनों के भीतर आजादी के इस दुरुपयोग को हम कब तक देखते रहेंगे?
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