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ढाका से मदीना और काबुल से इस्तांबुल तक जिहादी आग उस महीने में फैली जिसे 'पाक' कहा जाता है। इस आग को भड़काने वाले भी मुसलमान थे और मरने वाले भी ज्यादातर मुसलमान ही थे। लेकिन हैरानी की बात यह है कि इस्लामी जगत इसके खिलाफ एक साथ आवाज नहीं उठा रहा। कुछ तो यह भी कह रहे हैं कि मुसलमानों को बदनाम करने के लिए आतंकवाद का हौव्वा खड़ा किया जा रहा है। फिर इस जिहादी आग को फैलने से कौन रोक सकता है?
प्रशांत बाजपेई
तो दुनिया भर में जिहादी हमले हो रहे हैं पर मुस्लिम जगत के लिए इस रमजान की सबसे बड़ी सुर्खी बनी 4 जून की शाम की घटना। मदीना की नबवी मस्जिद पर हमला हुआ। लोग चौंके परंतु इसे असंभव मानकर शायद ही कोई चल रहा था। तीन मेहराब वाली इस मस्जिद में पैगंबर मोहम्मद को मृत्यु के बाद दफनाया गया था। इस मस्जिद को स्वयं पैगंबर मोहम्मद ने अपने निवास के एक ओर बनवाया था। मुस्लिम जगत में इस मस्जिद की बड़ी मान्यता है, लेकिन मतभेद भी हैं, बुतपरस्ती के दावे भी हैं और 'मूल इस्लाम' अथवा 'सच्चे दीन' को नाजिल करने के अपने-अपने लक्ष्य और तरीके भी हैं।
जिहाद के अलग-अलग रंग
''अल्लाह का हुक्म है। आने वाले रमजान को सारी दुनिया के काफिरों के लिए दर्द का महीना बना दो।'' मई के अंत में इस्लामिक स्टेट(आईएस) के प्रवक्ता ने अपने अनुयायियों को जारी संदेश में यह अपील की थी। इस संदेश को दुनिया भर के जिहादी गिरोहों ने हाथोंहाथ लिया और अपने-अपने हिसाब से 'काफिरों' का चयन किया। अगले चार हफ्ते खून से तर-बतर रहे। खूनखराबे का दायरा काफी बड़ा था। चार महाद्वीपों पर 12 जगह हमले हुए। सैकड़ों जान गईं और घायलों की भी तादाद ऐसी ही रही।
12 जून को अमेरिका के ऑरलैंडो में ओमर मतीन नामक शख्स ने एक समलैंगिक क्लब में घुसकर वहां मौजूद लोगों पर अपनी स्वचालित रायफल का मुंह खोल दिया। 49 मारे गए, आधा सैकड़ा घायल हुए। हमले के दौरान मध्यस्थों से बात करते हुए मतीन ने बगदादी के प्रति निष्ठा जतलाई थी। इसी बीच उसने अपनी बीबी को एसएमएस करके पूछा था कि समाचारों में उसकी करतूत के बारे में बतलाया जा रहा है या नहीं।
वैसे आप दुनिया भर में किसी भी मुस्लिम फिरके के कट्टरपंथी से पूछ कर देखें, वह इस हमले को गलत नहीं बता पाएगा। उनके लिए ये सबसे घृणित लोग थे, एक तो गैर मुस्लिम, तिस पर समलैंगिक! सौ प्रतिशत 'वजीबुल कत्ल' (मार डालने योग्य) वाहाबी और आईएस तो अपनी जगह हैं। शिया बहुल ईरान में भी समलैंगिकों को सरेआम फांसी पर लटका दिया जाता है। आईएस वाले समलैंगिकों को हाथ-पैर बांधकर ऊंची इमारतों से फेंक देते हैं। ऑरलैंडो हमले के अगले दिन पेरिस में एक पुलिस अधिकारी जीन और उनकी पत्नी जेसिका की एक जिहादी ने हत्या कर दी। 21 जून को जार्डन के एक सैनिक काफिले से बारूद से भरा ट्रक आ टकराया। जिहादियों ने 'काफिर' सुल्तान अब्दुल्लाह द्वितीय के फौजियों की हत्या की सगर्व जिम्मेदारी ली। सुल्तान अब्दुल्लाह 'काफिर' इसलिए हैं क्योंकि उन्होंने जार्डन में विशाल अमेरिकी सैन्य बेस की अनुमति दे रखी है। अब्दुल्लाह का दूसरा दोष उनका हशमित खानदान से होना है, जो कि मोहम्मद की वंशरेखा से होने का दावा करता है। लगभग ऐसा ही गुनाह अहमदियों का भी है, जो पाकिस्तान, बंगलादेश और मलेशिया में दशकों से थोक के भाव मारे जा रहे हैं। 27 जून को यमन के मुकल्ला में रोजा तोड़ने की तैयारी करते 35 सऊदी सैनिकांे समेत 42 लोग एक आत्मघाती हमले में मारे गए। सऊदी अरब के शाही सऊद परिवार का तख्त और बगदादी गिरोह दोनों वहाबी विचारधारा का पोषण करते और उससे पोषण पाते आए हैं। यानी यह वहाबियों की वहाबियों के खिलाफ कार्रवाई थी।
फिर 28 जून को तुर्की के अतातुर्क हवाई अड्डे पर तीन आत्मघाती हमलावरों ने हमला किया। जो भी सामने पड़ा उसे गोलियों से भून दिया। अंत में हमलावरों ने खुद को बम से उड़ा लिया। कुल 44 लोग मारे गए। तुर्की में यह इस साल का यानी 2016 का तीसरा बड़ा जिहादी हमला था।
1 जुलाई को ढाका, बंगलादेश की एक बेकरी पर 7 सशस्त्र मुस्लिम युवकों ने हमला बोला और लोगों से कुरान की आयतें सुनाने को कहा। जो नहीं सुना सके, उनके गले बड़ी निर्ममता से रेत दिए गए। मारे गए 21 निरीह लोगों में से 9 इतालवी, 7 जापानी, 3 बंगलादेशी, एक अमेरिकी और एक भारतीय। गला रेते गए लोगों में एक गर्भवती महिला भी थी। ''अल्लाह ने तुम्हारी मौत तय की है।'' वे चिल्ला रहे थे। सातों उच्च शिक्षित धनाढ्य परिवारों से थे। ढाका आधारित थिंक टैंक फैज सोभान कहते हैं,''सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात है इन हमलावरों की पृष्ठभूमि। वे सामान्य लड़के थे जो कैफे जाते थे। खेलकूद में हिस्सा लेते थे। उनके फेसबुक पेज थे। यह कट्टरता का नया रुझान है।'' आतंकियों में से एक निब्रास इस्लाम हिंदी फिल्म अभिनेत्री श्रद्धा कपूर का प्रशंसक था। एक वीडियो में उसे प्रशंसकों की भीड़ में से हाथ बढ़ाकर श्रद्धा से हाथ मिलाते देखा जा सकता है। ढाका का हमला पूरी तरह बंगलादेश के घरेलू आतंकवाद की उपज था।
सबसे भयंकर हमला इराक की राजधानी बगदाद में 3 जुलाई को हुआ जहां शिया बहुल इलाके में बारूद से भरे एक ट्रक को भीड़ भरे शॉपिंग मॉल से भिड़ा दिया गया। 215 लोग मारे गए, जिनमें 25 बच्चे भी शामिल थे। धमाका रोजा इफ्तार के समय किया गया। मॉल में आग लगी तो दर्जनों जिंदा जल गए। राहत कार्य में लगे एक स्वयंसेवी के अनुसार,''जमीन पर 'पिघली हुई मानव देहों की तह' जमी हुई थी।'' आईएस ने हमले की जिम्मेदारी लेते हुए इसे शियाओं के खिलाफ अपनी सफल कार्रवाई बताया। यह इराक में पिछले 13 सालों में हुए हमलों में सबसे घातक हमला था। एक महिला टीवी पर बोल रही थी,''हम शांति से ईद भी नहीं मना सकते। इस्लामिक स्टेट नहीं होगा तो अल कायदा होगा।''
इसके पहले 11 जून को सीरिया में शियाओं के मजहबी स्थल पर 20 शियाओं को मार डाला गया था। कितने ही लोगों को तय वक्त के पहले रोजा तोड़ने, इस्लाम की बेअदबी करने या काफिरों का साथी होने के नाम पर सूली पर लटका दिया गया। उत्तरी लेबनान में ईसाई आबादी के बीच सिलसिलेवार धमाके हुए, जिनमंे सात लोग मारे गए और 19 बुरी तरह घायल हो गए। कुवैत में तीन हमलों को नाकाम किया गया। वहां एक जाफरी मस्जिद पर आक्रमण होने वाला था।
जिहादियों ने लीबिया, अफगानिस्तान और फिलिपींस में भी खून बहाया। इस सनसनीखेज दौर का क्लाइमेक्स हुआ सऊदी अरब में हुए धमाकों के साथ, जब मदीना की नबवी मस्जिद, कातिफ की एक शिया मस्जिद और जेद्दाह की अमेरिकी काउंसलेट फिदायीन हमलों से दहल उठी। हमले की जिम्मेदारी किसी ने नहीं ली। 4 जुलाई के इस हमले से जान-माल का ज्यादा नुकसान नहीं हुआ लेकिन सबसे ज्यादा सफल हमला यही रहा। अमेरिका स्थित जिहादी गतिविधियों का बारीकी से अध्ययन करने वाले एक थिंकटैंक सुफान समूह ने वक्तव्य दिया,''इस बात का कोई औचित्य नहीं है कि सऊदी अरब में हुए हमले में ज्यादा नुकसान नहीं हुआ। इसमें दुनिया का ध्यान खींचना और प्रतीकात्मकता पर्याप्त है।'' पर सवाल एक ही प्रतीक के अलग-अलग मायनों का है। सवाल अलग-अलग धाराओं में पल रही आत्मप्रवंचना की केंद्रीय प्रवृत्ति, नफरत और हिंसा के आकर्षण का है। ये सवाल आतंकी हमलों की सांख्यिकी से अधिक महत्व के सवाल हैं।
आग का दरिया है और ़.़.़.
हाल ही में पाकिस्तान की पूर्व विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार ने बयान दिया, ''पिछले साठ साल से हम अपने बच्चों को पढ़ाते आए हैं कि हमारी (पाकिस्तान की) राष्ट्रीय पहचान दूसरों से नफरत करना है।'' बात सोलह आने सच है। पाकिस्तान में बच्चों का पाठ्यक्रम, मीडिया, साहित्य सब कुछ हिंदुओं के खिलाफ नफरत से बजबजाता आ रहा है। दूसरे मुस्लिम देशों का भी यही है। शिया बहुल ईरान को यहूदी इस्रायल से नफरत हाल है। शिया राष्ट्रों को सुन्नी राष्ट्रों से खतरा है तो सुन्नी देश शिया मुल्कों के खिलाफ लामबंद हैं। वहाबी इन सबके खिलाफ लामबंद हैं। मदीना पर हुए हमले के बाद सऊदी सुल्तान ने 'मजहबी कट्टरता' के खिलाफ लड़ने की कसम खाई। वे बोले,''हम उन लोगों पर फौलादी मुक्के बरसाएंगे जो हमारे युवाओं के दिलो-दिमाग पर निशाना साध रहे हैं।''
सुनने-सुनाने के लिए यह सीधी बात है लेकिन सुल्तान के सऊदी अरब में 14 साल के बच्चों के लिए जो सरकारी पाठ्यक्रम की किताब है, उसमंे आई एक हदीस की बानगी देखिए – ''फैसले का दिन (कयामत का दिन) तब तक नहीं आएगा जब तक मुसलमान यहूदियों से लडे़ंगे नहीं और यहूदियों का कत्ल नहीं करेंगे। और जब यहूदी किसी पेड़ या पत्थर के पीछे छिप जाएगा तो वह पेड़ या पत्थर चीख उठेगा कि ''ओ मुस्लिम! ओ अल्लाह के गुलाम ! मेरे पीछे एक यहूदी छिपा है। आओ और इसका कत्ल कर दो। केवल वही पेड़ चुप रहेगा जो यहूदी पेड़ होगा।''
2014 में सऊदी अरब के सूचना मंत्री अब्दुल अजीज खोजा ने शियाओं के खिलाफ खुलेआम नफरत भरी बातें प्रसारित करने वाले टीवी चैनल वैसल को बंद करवाया तो सुल्तान अब्दुल्ला ने अपने मंत्री को बर्खास्त कर दिया था। इस चैनल ने दर्शकों से शियाओं की मौत पर जश्न मनाने को कहा था। इसी प्रकार सरकारी नियंत्रण वाली मस्जिद से जब एक मौलाना साद बिन अतीक अल अतीक ने 2015 में अपने अनुयायियों से सभी यहूदियों, ईसाइयों और शियाओं को नेस्तनाबूद करने का आह्वान किया। मामला विश्व मीडिया में उछला, तब भी इस मौलाना पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। सऊदी अरब और कतर इस्लामिक स्टेट के खिलाफ हैं वह तो सिर्फ इसलिए कि आईएस इन देशों की सुल्तानशाही को मान्यता नहीं देता। लेकिन दोनों सीरिया, इराक और लेबनान में इस्लामिक स्टेट जितने ही बर्बर दूसरे जिहादी संगठनों की पैसे और हथियारों से भरपूर मदद करते आए हैं। कतर एक तरफ पश्चिम राजनायिकों को यहां बुलाकर गोल्फ खिलाता है और विश्व कप फुटबाल का हिस्सा बनकर दुनिया के सबसे हिंसक जिहादी आतंकियों को दूध पिलाता है। इसी देश के विदेश मंत्री मोहम्मद बिन थानी ने हमले की निंदा करते हुए वक्तव्य दिया है,''मजहब के नाम पर रक्तपात अस्वीकार्य है।''तुर्की के विदेश मंत्री ने मदीना में हुए हमले की कठोर निंदा की है। पर सचाई यही है कि तुर्की ने स्वायता की मांग कर रहे कुदोंर् को कुचलने के लिए आईएस का इस्तेमाल शुरू किया था। तुर्की आईएस के लड़ाकों के लिए सुरक्षित आरामगाह और आने-जाने का रास्ता बन गया था। तुर्की में शरण लेने वाले लड़ाकों को वहां की खुफिया एजेंसी पर्यटक के रूप में पेश करती थी। नयी भर्ती, पैसों का लेनदेन, मोबाइल नेटवर्क सब कुछ तुर्की से हो रहा था। बाद में जब अमेरिकी दबाव में तुर्की ने आईएस की मुश्कें कसनी शुरू की तो बगदादी गिरोह ने अपने फिदायिनों को अपने इस पुराने मेजबान की ओर मोड़ दिया। पिछले एक साल में तुर्की की राजधानी समेत कई बड़े शहरों पर भीषण आत्मघाती हमले हुए हैं। कुवैत के पेट्रो डॉलर सुन्नी आतंकियों तक पहुंच रहे हैं, तो ईरान भी पीछे नहीं है जो शिया आतंकी संगठन हिजबुल्ला के अभिभावक की भूमिका निभा रहा है।
ईसाई पश्चिम एशिया में अल्पसंख्यक हैं और इस हिंसा में बुरी तरह पीसे जा रहे हैं, इसलिए चर्च में भी हलचल है। 5 जुलाई को पोप फ्रांसिस ने वेटिकन में बयान दिया,''जब लोग इतना भुगत रहे हैं तब भी लड़ाकों को हथियार आपूर्ति के लिए अतुलनीय धनराशि खर्च की जा रही है। शांति की दुहाई देने वाले देश ही असलहा भी पहुंचा रहे हैं। आप उस व्यक्ति पर विश्वास कैसे करेंगे जो एक दाएं हाथ से आपको सहलाता है और बाएं से मारता जाता है।'' परंतु पोप तब चुप रहे जब पश्चिमी देश और अमेरिकी सीरिया में राष्ट्रपति असद को अपदस्थ करने के लिए सुन्नी – वहाबी लड़ाकों को प्रशिक्षित कर रहे थे।
कौन-कौन है शामिल
सऊदी अरब और कतर जैसे देशों के 'इस्टैब्लिशमेंट' और इस्लामिक स्टेट वाले एक ही उस्ताद के चेले हैं और वे हंै मोहम्मद इब्न-अब्द-अल-वहाब (1703-1792) वहाब के अनुयायी वहाबी कहलाते हैं। ये इस्लाम की मध्ययुगीन व्याख्याओं में विश्वास करते हैं। पहले बात सऊद परिवार की। सऊदी अरब का शासक परिवार वहाबी इस्लाम में अपनी प्रभुसत्ता देखता है। सऊद परिवार मुस्लिमों की भावनाओं से जुड़ी इस्लामिक इतिहास की महत्वपूर्ण निशानियों को मिटाने को लेकर चर्चा में रहा है। पैगंबर मोहम्मद की बेटी फातिमा और मोहम्मद के चाचा की कब्र पर बनी मस्जिदों को मिटाया जा चुका है। नबवी मस्जिद स्थित पैगंबर मोेहम्मद की कब्र को हटाने, अवशेषों को अज्ञात स्थान पर दफनाने का प्रस्ताव 2014 में आ चुका है। इस्लामिक हेरीटेज रिसर्च फाउंडेशन के निदेशक डॉ. अलवी के अनुसार,''लोग यहां आते हैं और उन कक्षों में जाते हैं जहां कभी पैगंबर का परिवार रहा करता था, फिर वे नमाज पढ़ने के लिए कब्र की तरफ मुड़ जाते हैं। वहाबी इस परंपरा को रोकना चाहते हैं क्योंकि वे इसे 'शिर्क' कहते हैं।'' कुछ वहाबी काबा के पत्थर को भी तोड़ने की बात कह चुके हैं, क्योंकि वे इसे इस्लाम के आगमन के पहले से चली आ रही 'बुतपरस्ती' की निशानी मानते हैं। मक्का की हजार साल से भी ज्यादा पुरानी ऐसी दर्जनों निशानियां मिटाई जा चुकी हैं। दुनिया का मुस्लिम जगत इसे चुपचाप देखता रहता है। कभी कोई विरोध का स्वर नहीं उठा। सम्भवत: इसका कारण आम मुस्लिमों के मानस पर अंकित अरब श्रेष्ठता का विचार है। उस हरे गुंबद को हटाने का प्रस्ताव भी आया है जिसकी तस्वीर करोड़ों मुस्लिम घरों की दीवार पर मौजूद है। इस्लाम में खलीफा के पद का मजहबी और राजनीतिक महत्व है। स्वघोषित खलीफा अबू बकर अल बगदादी भी काबा को तोड़ने के मंसूबे जाहिर कर चुका है। तो दोनों में वैचारिक फर्क क्या है? फर्क है कि आईएस स्वयं को वहाबी विचार का असली उत्तराधिकारी मानता है। उसका मानना है कि सऊदियों और दूसरे वहाबी शासकों ने इस्लाम को भ्रष्ट किया है। उन्होंने अमेरिका और पश्चिमी देशों जैसे 'काफिर' साझेदार बनाकर सच्चे इस्लाम की ओर से मुंह मोड़ लिया है। इसलिए तकफीर (झूठा मुस्लिम) का नारा बुलंद किया गया है। यह हमला इस्लाम की दो सबसे महत्वपूर्ण मस्जिदों के संरक्षक होने की सऊदी विरासत का नकार है। मदीना पर हमला करके उन्होंने मुस्लिम जगत पर सऊदी अरब के प्रभाव को चुनौती दी है। यह चुनौती वैचारिक भी है और सामरिक भी। उन्हें विश्वास है कि मुस्लिम जगत चुपचाप इस संघर्ष को देखेगा और अंतत: विजेता को स्वीकार कर लेगा। बगदादी के समर्थक उसे खलीफा इब्राहिम कहते हैं। उनका दावा है कि वेे मोहम्मद का वंशज है। यानी कि बात घूमफिरकर वहीं आ जाती है। इतिहास गवाह है कि ऐसे विवाद हमेशा अनिर्णित ही रहे हैं। आखिर में, रियाद (सऊदी अरब ) के 20 वर्षीय जुड़वां भाइयों खालिद और सालेह अल ओरेनी को पुलिस ने गिरफ्तार किया है। दोनों ने मिलकर अपनी 67 वर्षीय मां, 73 वर्षीय पिता और 22 वर्षीय भाई को चाकुओं से गोद डाला। कारण, वेे लोग उन्हें इस्लामिक स्टेट से जुड़ने से रोक रहे थे।
खालिद और सालेह का कहना है कि उन्होंने अपने परिवार को 'तकफीर' होने की सजा दी है। पिछले एक साल में सऊदी अरब में यह अपने तरह की पांचवीं घटना है, जब बगदादी के दीवानों ने 'जिहाद' के आड़े आने वाले अपने ही परिवार के खून से हाथ रंगे है। ये एक वैश्विक त्रासदी है। लेखिका तसलीमा नसरीन समाधान सुझाती हैं-''मुस्लिम समाज में आलोचना और विचार को स्थान दो। मतभिन्नता की आजादी दो। समाज इससे कहीं बेहतर हो जाएगा।''परन्तु उत्तर भी तो उन्हें ही मिलते हैं जो सवाल पूछते हैं। और सवाल उन समाजों में पूछे जाते हैं, जहां उन्हें सवाल उठाने की अनुमति होती है।
साथ में अरुण कुमार सिंह एवं अश्वनी मिश्र
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