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पाकिस्तान एक बार फिर क्षेत्र में अशांति फैलाने पर आमादा है। इस बार उसने विवाद के लिए अफगानिस्तान की सीमाओं के अतिक्रमण का सहारा लिया है। इसमें सऊदी अरब और अमेरिका के अपने हित छिपे हैं
सुधेन्दु ओझा
पाकिस्तान और अफगानिस्तान की सेनाएं दोनों देशों के बीच तोरखम सीमा पर आमने-सामने खड़ी हैं। तीन दिन तक चली भीषण गोलीबारी में पाकिस्तानी सेना का एक मेजर, जावेद अली चंगेजी मारा गया तो अफगानिस्तान के भी दो सैनिकों के मारे जाने की खबर है। इस सीमा क्षेत्र के सैकड़ों लोग अपने घरों को छोड़ सुरक्षित स्थानों पर चले गए हैं। अफगानिस्तान के अनुसार इस सीमा विवाद की जड़ में पाकिस्तान है। अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच काल्पनिक डूरंड सीमा लगभग 2,250 किलोमीटर लंबी है। अफगानिस्तान का आरोप है कि पूर्व में तालिबानी सरकार को स्थापित करवाने के बाद पाकिस्तानी सेना कई स्थानों पर अवैध रूप से पांच किलोमीटर अंदर तक घुस आई है। इस प्रकार उसने अफगानिस्तान के एक बड़े क्षेत्र पर जबरन कब्जा किया हुआ है। अफगानिस्तान के हेल्मण्ड प्रांत में देशो जिले में ही पाकिस्तान ने बहरामचा क्षेत्र में अपनी चौकी स्थापित की हुई है जो कि अफगानिस्तानी सीमा के तीन किलोमीटर अंदर है। पाकिस्तान ने ऐसा ही पाकटिका और नांगढर में भी किया है।
अफगानिस्तान के लंबे विरोध के बाद उसके इलाके को कब्जे में लेकर बनाई गई पाकिस्तानी सीमा चेक पोस्ट अंगूर अड्डा को अभी 21 मई, 2016 को पाकिस्तान ने अफगानिस्तान को लौटाया था, जिसकी घोषणा स्वयं पाकिस्तानी सेना ने की थी। किन्तु 12 जून, 2016 को पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार सरताज अजीज ने कहा कि यह पोस्ट अफगानिस्तान को नहीं लौटाई गई है। तोरखम का यह विवाद अंगूर अड्डा को ही लेकर है। दरअसल अफगानिस्तान की सीमा में पाकिस्तानी दखल को समझने के लिए हमें थोड़ा पीछे जाना पड़ेगा।
अफगानिस्तान में तालिबानी शासन की स्थापना और कंधार में अपहृत भारतीय विमान को उतारा जाना पाकिस्तानी सेना की सामरिक योजना का स्वर्ण-युग था। 1980 के दशक में जब अमेरिका अफगानिस्तान से रूसी सेनाओं को हटाना चाहता था तो उसने सऊदी धन और पाकिस्तानी बल के उपयोग को अमली जामा पहनाना शुरू किया। सऊदी धन के बल पर मदरसों के तालिबों को जिहादी और आतंकी बनाने का खेल भारतीय उपमहाद्वीप में प्रारम्भ किया गया। सीआईए द्वारा तैयार की गई इस योजना में शामिल तीनों राष्ट्रों-अमेरिका, सऊदी अरब और पाकिस्तान को फायदा ही फायदा दिखलाई पड़ रहा था। अमेरिका अपने धुर विरोधी रूस की साम्यवादी विचारधारा को पीछे धकेल पाने में कामयाब हो सकता था। रूस का दक्षिण में अफगानिस्तान तक उतर आना अमेरिका को उसकी विस्तारवादी नीति का हिस्सा लगा, जिससे उसके मित्र राष्ट्र पाकिस्तान की भी चिंताएं बढ़ गई थीं।
ईरान के पहलवी शासक के पतन के बाद उसकी रूस से बढ़ती घनिष्ठता से सऊदी अरब और अमेरिका दोनों ही परेशान थे। सऊदी अरब शुरू से ही इस क्षेत्र में ईरान को अपना शत्रु मानता रहा है। अफगानिस्तान में रूस की पराजय सऊदी अरब के लिए भी लाभकारी थी, साथ ही मदरसों में तैयार तालिबानी भविष्य में सऊदी अरब के वहाबी मत के प्रसार के लिए बेहतरीन प्यादे साबित होते। उसे सीआईए की इस योजना के लिए धन मुहैया कराने में कोई परेशानी नहीं हुई।
पाकिस्तान को लगा कि यह तो 'अल्लाह की तरफ से भेजा हुआ नायाब तोहफा' है, उसके तो दोनों ही हाथों में लड्डू हैं। पाकिस्तान को इस प्रच्छन्न युद्ध में कूदने के कुछ लाभ दिखाई पड़े, जैसे, सऊदी अरब से प्राप्त धन से मस्जिदों-मदरसों का निर्माण होगा। मजदूरों को काम मिलेगा। तालिबान तैयार होंगे तो उसके बेरोजगार युवकों को रोजगार हासिल होगा। (प्राप्त रिपोर्ट के अनुसार आज भी सऊदी अरब कट्टरपंथी इस्लाम को प्रायोजित करने के लिए पाकिस्तान में 24,000 मदरसों को धन प्रदान कर रहा है। अमेरिकी सीनेटर क्रिस मर्फी के अनुसार सऊदी अरब से आ रहे धन का इस्तेमाल उन मजहबी स्कूलों की मदद के लिए किया जा रहा है, जो घृणा एवं आतंकवाद को बढ़ावा देते हैं।)
इस निवेश से पैसा पाकिस्तान में ही आएगा। पाकिस्तान से पैसा बाहर नहीं जाएगा। जो तालिबान रूस के विरुद्ध युद्ध लड़ेंगे उन्हें आधुनिक शस्त्रों की निर्बाध आपूर्ति अमेरिका द्वारा की जानी थी। ये आधुनिक शस्त्र पाकिस्तानियों के ही हाथ में रहने के लिए थे। कितने हथियार किस दल को वितरित किए जाने थे, इसमें आईएसआई और पाकिस्तानी सेना को अहम भूमिका निभानी थी। यह लड़ाई अधिकांशत: पाकिस्तानी तालिबानियों और जिहादियों द्वारा लड़ी जानी थी। ऐसे में पाकिस्तानी सेना को अथाह आधुनिक शस्त्र बिना खरीद के ही प्राप्त हो रहे थे।
पाकिस्तानी सेना बिना किसी रोक-टोक के तालिबानी जिहादियों के लिए प्रशिक्षण शिविर चला सकती थी। इन शिविरों से कश्मीर के लिए भी जिहादी तैयार किए जा सकते थे, जो कि उसे 'कश्मीर जीत कर देते'। पूर्व पाकिस्तानी जनरल जियाउल हक ने इसी दिशा में 'ऑपरेशन टोपाज' की शुरुआत की थी जिसका उद्देश्य भारत को 'थाउजेंड कट्स' से लहू-लुहान कर देना था।
किन्तु इन सब से अधिक महत्वपूर्ण पाकिस्तान का सामरिक लक्ष्य तालिबानियों के माध्यम से अफगानिस्तान पर कब्जा करने का था। इसे पाकिस्तानी फौजी अधिकारी खुशी से 'स्ट्रेटेजिक डेप्थ' कहते थे। भारत के साथ युद्ध के दौरान स्ट्रेटेजिक डेप्थ' का उपयोग महत्वपूर्ण सैन्य साजो-सामान को सुरक्षित रखने के लिए किया जाना था, क्योंकि भारत पाकिस्तान पर तो बमबारी तो कर सकता था, अफगानिस्तान पर नहीं। उसका यह लक्ष्य 1996 में पूरा हुआ जब अफगानिस्तान में तालिबान सरकार बनी। पाकिस्तान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात केवल तीन देश रहे जिन्होंने तालिबानी सरकार को मान्यता प्रदान की और तालिबान की ओट में पाकिस्तान ने ही अफगानिस्तान पर शासन किया।
संयोग से इस षड्यंत्र में शामिल तीनों ही देशों (अमेरिका, सऊदी अरब और पाकिस्तान) को मनोवांछित उद्देश्य की प्राप्ति हुई। अमेरिका दूर देश में बिना अपने सैनिकों का रक्त बहाए रूस को पीछे धकेलने में कामयाब रहा। उधर सऊदी अरब को अपने मत-प्रचार के लिए पिट्ठुओं की प्राप्ति हुई।
'अल्लाह की सारी नेमतें' पाकिस्तान के हिस्से में आईं। उसके सारे मंसूबे पूरे हुए। स्ट्रेटेजिक डेप्थ' मिलते ही पाकिस्तान ने भारत से बदला लेने की दिशा में पहल की और तालिबानियों की मदद से भारतीय विमान अपहरण को अंजाम दिया। पाकिस्तान के लिए सब कुछ ठीक चल रहा था, किन्तु तालिबानी उत्साह उसके नियंत्रण से छिटक रहा था जिसकी परिणति अमेरिकी धरती पर हमले में हुई जिसे विश्व 9/11 की घटना के नाम से जानता है। मजबूरन अमेरिका को अफगानिस्तान में तालिबानियों को नेस्तनाबूर करना पड़ा, यह सब कुछ पाकिस्तान के भारी विरोध के बाद हुआ।
पाकिस्तान अपनी दोहरी चाल में पूरी तरह से कायम रहा। वह उचित समय की प्रतीक्षा में अमेरिका के साथ खड़ा रहा, किन्तु उसकी सेना तालिबानियों की पीठ सहलाती रही। पाकिस्तान अफगानिस्तान से अमेरिकी सेनाओं की वापसी की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहा था। अमेरिकी फौजों के हटते ही बचे हुए तालिबानियों की मदद से वह अफगानिस्तान में अपनी खोई हुई 'स्ट्रेटेजिक डेप्थ' को हासिल करने का सपना पाले हुए था। पाकिस्तानी सेनाओं द्वारा अफगानिस्तान की भूमि पर जबरन कब्जे को भी इसी पाकिस्तानी षड्यंत्र का हिस्सा मात्र समझा जाना चाहिए।
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